Tuesday, 26 July 2016

विश्वमाता


विश्वमाता ‘णि’ देवी सा विश्वकमार् च देवता ।।
बीजं ‘स्रीं’ यन्त्रमस्यैवं मातृयन्त्रमृषिश्च सः॥
अङ्गिरा भूतिके ध्येया विराजा सन्ति वै क्रमात् ।।
सहयोगस्य संसिद्धिविर्राटानुभवः फलम् ॥
अर्थात – ‘णि’ अक्षर की देवी- ‘विश्वमाता’, देवता- ‘विश्वकर्मा’, बीज ‘श्रीं’, यन्त्र- मातृयन्त्रम्, ऋषि- ‘अंगिरा’, विभूति- ‘विराट एवं ध्येय’ और प्रतिफल- ‘विराटानुभूति एवं सहयोग सिद्धि’ हैं ।।
गायत्री का एक नाम विश्वमाता है ।। माता को अपनी सन्तानें प्राणप्रिय होती हैं ।। सभी को एकता के सूत्र में बँधे और समग्र रूप से सुखी समुन्नत देखना चाहती है ।। विश्वमाता गायत्री की प्रसन्नता भी इसी में है कि मनुष्य मिलजुल कर रहें ।। समता बरतें और आत्मीयता भरा सद्व्यवहार अपनाकर समग्र सुख- शान्ति का वातावरण बनायें ।।
मनुष्यों और अन्य प्राणियों के बीच भी सहृदयता भरा व्यवहार रहे ।।
विश्व भर में सतयुगी वातावरण बनायें रहने में अतीत की सांस्कृतिक गरिमा एवं भावभरी सद्भावना ही निमित्त कारण थी ।।
अगले दिनों विश्वमाता का वात्सल्य फिर सक्रिय होगा ।। वे अपनी विश्व वाटिका के सभी घटकों को फिर से सुसंस्कृत, सुव्यवस्थित, एवं समुन्नत बनाने में प्रखरता भरी अवतार- भूमिका सम्पन्न करेंगी ।। प्रज्ञावतार के रूप में विश्व के नव निर्माण का प्रस्तुत प्रयास उस महाशक्ति के वात्सल्य का सामयिक उभार समझा जा सकता है ।।
अगले दिनों ”वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आदर्श सर्वमान्य होगा ।। एकता, ममता, समता और शुचिता के चार आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति एवं समाज की रीति- नीति नये सिरे से गढ़ी जायेगी ।। एक भाषा, एक धर्म, एक राष्ट्र एक संस्कृति का निर्माण , जाति, लिंग और धर्म के आधार पर बरती जाने वाली असमानता का उन्मूलन, एवं एकता और समता के सिद्धान्त प्राचीन काल की तरह अगले दिनों भी सर्वमान्य होंगे ।।
शुचिता अर्थात जीवन क्रम में सर्वतोमुखी शालीनता का समावेश- ममता अर्थात आत्मीयता एवं सहकारिता भरा सामाजिक प्रचलन ।। प्राचीन काल की तरह अगले दिनों भी ऐसी ही मनःस्थिति एवं परिस्थिति बनाने के लिए विश्वमाता की सनातन भूमिका इन दिनों विशेष रूप से सक्रिय हो रही है ।।
मस्तिष्क पर शिखा के रूप में विवेक की ध्वजा फहराई जाती है ।। शरीर को कर्तव्य- बन्धनों में बाँधने के लिए कन्धे पर यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है ।। यह दोनों ही गायत्री की प्रतीक प्रतिमा हैं ।।
भगवान् का विराट् रूप दर्शन अनेक भक्तों को अनेक बार अनेक रूपों में होता है ।। विराट् ब्रह्म के तत्व दर्शन का व्यवहारिक रूप है- विश्व मानव- विश्वबन्धुत्व, विश्व- परिवार, विश्व- भावना, विश्व- संवेदना ।। इसमें व्यक्तिवाद मिटता है और समूहवाद उभरता है ।। यही प्रभु समर्पण है ।।
संकीर्ण स्वार्थपरता के बन्धनों से मुक्त होकर विराट् के साथ एकात्मता स्थापित कर लेना ही परम लक्ष्य माना गया है ।। आत्म चिन्तन, ब्रह्म चिन्तन, योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान आदि के साधनात्मक उपचार इसी निमित्त किये जाते है ।।
जन- जीवन में इन आस्थाओं और परम्पराओं का समावेश ही व्यक्ति में देवत्व के उदय की मनःस्थिति और धरती पर सुख- शान्ति की स्वर्गीय परिस्थिति का कारण बनता है ।। विश्वमाता गायत्री की प्रवृत्ति प्रेरणा यही है ।।
गायत्री महाशक्ति को विश्वमाता कहते हैं ।। उसके अंचल में बैठने वाले में पारिवारिक उदात्त भावना का विकास होता है ।। क्षुद्रता के भव बन्धनों से मुक्ति- संकीर्णता के नरक से निवृत्ति- यह ही अनुदान विश्वमाता की समीपता एवं अनुकम्पा के हैं, जिन्हें हर सच्चा साधक अपने में उमँगता बढ़ता देखता है ।।
विश्वमाता के स्वरूप व आसन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है-
विश्वमाता के एक मुख, चारों हाथों में- शंख से हर प्राणी को ममता भरे अनुदान देने का उद्घोष, कमण्डलु से स्नेह भरी समता का, उठी हुई उँगली से एकता का निर्देश तथा आशीर्वाद मुद्रा से अनुदान की उदारता का बोध ।। आसन भूमण्डल अर्थात समस्त विश्व कार्य क्षेत्र है ।।

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