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दूसरों के मामले में कई बार हम वे बातें सोच लेते हैं, जिनका उस व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं होता। हम किसी को फोन करें और व्यस्तता के कारण वह न उठाए तो हम मन ही मन सोचने लगते हैं कि यह इतना बड़ा हो गया कि हमें अवॉइड कर रहा है।
अपने बच्चों, जीवनसाथी के भी फोन नहीं उठाने पर भी उनके लिए हमारे विचार ऐसे ही होते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से किसी ने ठीक से हमसे चर्चा न की हो तो हमारा मन उसको आलोचना में घेर लेता है।
हम काफी समय ऐसे ही चिंतन में लगा देते हैं, जबकि घटना वैसी नहीं होती। इससे ऊर्जा भी नष्ट होती है और हम अकारण तनाव में आ जाते हैं।
किसी के प्रति कोई नज़रिया रखना हो तो उसके तीन स्तर होते हैं।
यदि केवल शरीर के स्तर पर नज़रिया बनाएंगे तो उसमें तेरे-मेरे की गुंजाइश बहुत होगी।
हमें ऐसी उम्मीद थी, उसने ऐसा नहीं किया और हम उलझन में पड़ जाएंगे।
मन के स्तर से नज़रिया बनाएंगे तो उदास बहुत जल्दी हो जाएंगे, क्योंकि हमारे हिसाब से घटना नहीं घटी तो मन तुरंत उदासी ला देता है या चिड़चिड़ा बना देता है।
तीसरा स्तर होता है आत्मा का। यह साक्षीभाव का स्तर है। जब आप किसी घटना के बारे में आत्मा के स्तर पर सोचते हैं तो आपको थोड़ा भीतर जाना पड़ता है।
शरीर से चलकर मन को पार करके जब हम आत्मा पर पहुंचते हैं तब यह तो तय है कि आत्मा का कोई आकार हमें नहीं दिखेगा, लेकिन अभ्यास से यह भी तय हो जाएगा कि हम स्वयं से जुड़ रहे हैं, अपने आप को देख रहे हैं।
इसके बाद किसी घटना का चिंतन करें तो हम पाएंगे जो हो गया सो हो गया, अब हम क्यों उलझें। बेकार में उन बातों को क्यों सोचें जिनके बारे में कन्फर्म नहीं हैं।
आपके भीतर भारीपन नहीं आएगा, दूसरों के प्रति सदाशयी रहेंगे और अपने आप में प्रसन्न रहेंगे।
दूसरों के मामले में कई बार हम वे बातें सोच लेते हैं, जिनका उस व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं होता। हम किसी को फोन करें और व्यस्तता के कारण वह न उठाए तो हम मन ही मन सोचने लगते हैं कि यह इतना बड़ा हो गया कि हमें अवॉइड कर रहा है।
अपने बच्चों, जीवनसाथी के भी फोन नहीं उठाने पर भी उनके लिए हमारे विचार ऐसे ही होते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से किसी ने ठीक से हमसे चर्चा न की हो तो हमारा मन उसको आलोचना में घेर लेता है।
हम काफी समय ऐसे ही चिंतन में लगा देते हैं, जबकि घटना वैसी नहीं होती। इससे ऊर्जा भी नष्ट होती है और हम अकारण तनाव में आ जाते हैं।
किसी के प्रति कोई नज़रिया रखना हो तो उसके तीन स्तर होते हैं।
यदि केवल शरीर के स्तर पर नज़रिया बनाएंगे तो उसमें तेरे-मेरे की गुंजाइश बहुत होगी।
हमें ऐसी उम्मीद थी, उसने ऐसा नहीं किया और हम उलझन में पड़ जाएंगे।
मन के स्तर से नज़रिया बनाएंगे तो उदास बहुत जल्दी हो जाएंगे, क्योंकि हमारे हिसाब से घटना नहीं घटी तो मन तुरंत उदासी ला देता है या चिड़चिड़ा बना देता है।
तीसरा स्तर होता है आत्मा का। यह साक्षीभाव का स्तर है। जब आप किसी घटना के बारे में आत्मा के स्तर पर सोचते हैं तो आपको थोड़ा भीतर जाना पड़ता है।
शरीर से चलकर मन को पार करके जब हम आत्मा पर पहुंचते हैं तब यह तो तय है कि आत्मा का कोई आकार हमें नहीं दिखेगा, लेकिन अभ्यास से यह भी तय हो जाएगा कि हम स्वयं से जुड़ रहे हैं, अपने आप को देख रहे हैं।
इसके बाद किसी घटना का चिंतन करें तो हम पाएंगे जो हो गया सो हो गया, अब हम क्यों उलझें। बेकार में उन बातों को क्यों सोचें जिनके बारे में कन्फर्म नहीं हैं।
आपके भीतर भारीपन नहीं आएगा, दूसरों के प्रति सदाशयी रहेंगे और अपने आप में प्रसन्न रहेंगे।
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