समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें।
इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई।
इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है।
इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे।
दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया।
मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए।
देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से।
फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं।
एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।
राहू-केतु क्यों हैं सूर्य-चंद्र के दुश्मन?___
हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर छलपूर्वक देवताओं को अमृत पीला दिया। यह बात राहू नामक दैत्य ने जान ली और वह रूप बदलकर देवताओं के बीच जा बैठा।
जैसे ही राहु ने अमृत पीया वैसे ही सूर्य और चंद्र ने भगवान से कहा यह तो राक्षस है। तत्काल भगवान ने सुदर्शन चक्र निकाला और उसका वध किया। राहू के दो टुकड़े हो गए।
एक बना राहू दूसरा बना केतु। लेकिन उसने दुश्मनी पाल ली चंद्र और सूर्य से। इसीलिए ग्रहण लगता है। इस तरह भगवान ने देवताओं को अमर कर दिया और दैत्य अपनी ही मूर्खता से ठगा गए। यहां समुंद्र मंथन की कथा पूरी हुई।
अब हम वामन अवतार में प्रवेश करते हैं। वामन अवतार में भगवान ने बिना युद्ध के ही सारा काम कर लिया। भगवान वामन छोटे से बालक, बड़े सुन्दर से अदिति और कश्यप के यहां पैदा हुए।
उस समय दैत्यों का राजा बलि हुआ करता था। बलि बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसकी शक्ति के घबराकर सभी देवता भगवान वामन के पास पहुंचे ।
सभी की बात सुनकर भगवान वामन बलि के सामने गए। उस समय बलि यज्ञ कर रहा था। बलि से उन्होंने कहा राजा मुझे दान दीजिए। बलि ने कहा-मांग लीजिए। वामन ने कहा तीन पग मुझे आपसे धरती चाहिए। दैत्यगुरु भगवान की महिमा जान गए। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से मना कर दिया।
लेकिन बलि ने कहा - गुरुजी ये क्या बात कर रहे हैं आप। यदि ये भगवान हैं तो भी मैं इन्हें खाली हाथ नहीं जाने दे सकता। बलि ने संकल्प ले लिया।
भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं।
बलि ने कहा- -मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल का राजा बना दिया।
जब भगवान विष्णु राजा बलि के द्वारपाल बने____
हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दो पग में धरती और आकाश नाप लिए। इसके बाद तीसरा पग उन्होंने बलि के सिर पर रखा जिसके कारण बलि पाताल में चला गया। भगवान ने बलि से प्रसन्न होकर उसे पाताल का राजा बना दिया। बलि भी बहुत समझदार था। उसने कहा- भगवान आप मुझसे अगर प्रसन्न है तो मुझे एक वर दीजिए।
भगवान ने कहा-मांग, क्या मांगता है। बलि ने कहा आप मेरे यहां द्वारपाल बनकर रहिए। बलि के द्वार पर विष्णु पहरेदार बनकर खड़े हैं और बलि पाताल पर राज कर रहा है।
कई दिन हो गए भगवान वैकुण्ठ नहीं पहुंचे। लक्ष्मीजी ने नारदजी को याद किया। कहा-प्रभु आए ही नहीं हैं बहुत दिन हो गए। नारदजी ने कहा- वहां खड़े हैं डंडा लेकर, चलिए बताता हूं। पहरेदार की नौकरी कर रहे हैं। पाताल में लेकर आए देखो ये खड़े हैं।
लक्ष्मीजी ने कहा ये पहरेदार कहां से बन गये। देखिए, भगवान् की लीला भी कैसी विचित्र है? लक्ष्मीजी ने विचार किया, मैं बलि से इनको मांग लूं। वो बलि के पास गईं। भगवान पहरेदार थे तो सीधे-सीधे मांग भी नहीं सकती थीं। लक्ष्मीजी गईं बलि के पास और कहा राजा बलि मुझे अपनी बहन बना लो। बलि ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद राखी का त्यौहार आया। लक्ष्मी ने कहा लाओ मैं आपको राखी बांध दूं।
बलि ने कहा-बांध दो। जैसे ही लक्ष्मीजी ने बलि के हाथ में राखी बांधी, बलिराज ने कहा-बोल बहन मैं तुझे क्या दे सकता हूं? तुरंत लक्ष्मीजी ने कहा- ये द्वारपाल मुझे दे दो।
बलि ने कहा ये कैसी बहन है? द्वारपाल ले जाकर क्या करेगी? क्या बात है, आप कौन हैं, बलि ने पूछा। तब उन्होंने बताया- मैं लक्ष्मी हूं। बलि ने कहा मैं तो धन्य हो गया।
पहले बाप मांगने आया आज मां मांग रही है। वाह क्या मेरा भाग्य है। आप इन्हें ले जाओ मां। इस तरह लक्ष्मी भगवान को बलि की पहरेदारी से छुड़ाकर लाई।
भगवान विष्णु ने क्यों लिया मत्स्यावतार ?____
भागवत में अब मत्स्यावतार की कथा आ रही है। राजा सत्यव्रत था। राजा सत्यव्रत एक दिन जलांजलि दे रहा था नदी में। अचानक उसकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उसने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं लेकिन उस मछली ने बोला-आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी।
तो उसने अपने कमंडल में रखा। मछली और बड़ी हो गई तो उसने अपने सरोवर में रखा, तब मछली और बड़ी हो गई। राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की।
साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा-सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी।
तुम एक नाव में सप्त ऋषि के साथ बैठ जाना, वासुकी नाग को रस्सी बना लेना और मैं तुम्हें उस समय ज्ञान दूंगा। ऐसा कहते हैं कि उसको मत्स्यसंहिता का नाम दिया गया।
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