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‘चो’ देवी तु महामाया महादेवोऽथ देवता ।
बीजं ‘हं’ प्रोक्तमेतत्स ऋषिः कात्यायनस्तथा॥
योगिनी यन्त्रमेतच्च भूती मेधाऽथ पाशिनी ।
विद्यन्ते तत्त्वदृष्टिश्च भ्रममुक्तिः फलं द्वयम्॥
अर्थात्- ‘चो’ अक्षर की देवी-‘महामाया’,देवता-‘महादेव’, बीज-‘हं’, ऋषि-‘कात्यायन’, यन्त्र-‘योगिनीयन्त्रम्’, विभूति-‘मेधा एवं पाशिनी’ और प्रतिफल-‘तत्त्वदृष्टि व भ्रममुक्ति’ हैं ।
माया कहते हैं भ्रान्ति को-महामाया कहते हैं निभ्रार्न्ति को । माया पदार्थ परक है और महामाया ज्ञान परक । मानवी सत्ता सीमित रहने से वह समग्र का दशर्न नहीं कर पाती और जितनी उसकी परिधि है उसी को सब कुछ मान लेती है ।
मेढक कुए को ही समग्र विश्व मानता है, उसकी सीमित परिस्थिति में यही संभव भी है । किन्तु यदि उसे कुँए से बाहर निकलने का, आकाश में उड़ाने का-ब्रह्माण्डीय आकाश में विचरण करने का अवसर मिले, तो पता चलेगा कि कुँए में सीमित विश्व की पूर्व मान्यता गलत थी, यों उस समय वही सत्य एवं तथ्य प्रतीत होती थी ।
जीव माया-बन्धनों मे बँधा है अथार्त् संकीर्णता की परिधि में आबद्ध है । इच्छाएँ, विचारणाएँ, क्रियाएँ इसी भ्रम- जाल में फँसी होने के कारण अवांछनीय स्तर की रहती हैं और उस जंजाल में कस्तूरी के हिरन की तरह मृगमरीचिका में भटकने की तरह जीव सम्पदा का अपव्यय ही होता रहता है ।
माया से छूटने के प्रयत्नों में जिज्ञासु-मुमुक्ष संलग्न रहते हैं । जिस आत्म ज्ञान को जीवन को सफल बनाने वाली महान् उपलब्धि बताया जाता है, उसी का नाम महामाया है । मायाबद्ध दुख पाते हैं और महामाया की शरण में पहुँचने वाले परम शान्ति का रसास्वादन करते हैं । उन्हें श्रेय पथ प्रत्यक्ष दीखता है । उभरे हुए आत्मबल के सहारे उस पर चल पड़ना भी सरल रहता है ।
आत्मा को अपना अस्तित्व शरीर मात्र मान लेना पहले सिरे की भ्रान्ति है । इसी की खुमारी में मनुष्य वासना, तृष्णा, अहंता की बालक्रीड़ा में उलझा हुआ मानव-जन्म के सुयोग को पशु-प्रयोजनों में गँवा देता है ।
अन्ततः खाली हाथ बिदा होता है और पाप की गठरी सिर पर लाद ले जाना-चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण के बाद मिले हुए सुअवसर को गँवा बैठने पर रुदन करना-जीवन भर पाप-ताप के दुसह दुःख सहना,यह समस्त दुगर्ति माया रूपी भ्रान्ति में जकड़े रहने का दुष्परिणाम है । इस महासंकट से महामाया ही छुड़ाती है ।
गायत्री को महामाया कहा गया है । साधना से उसका अनुग्रह साधक की अन्तरात्मा में उतरता है और निभ्रार्न्त स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिलता है । यही दिव्य दृष्टि है-ज्ञान चक्षु का उन्मीलन इसी को कहते हैं । जीवन रहस्यों का उद्घाटन इसी स्थिति में होता है । जकड़ने वाले जंजाल पके हुए पत्तों की तरह झड़ जाते हैं , और आत्म जागरण के कारण सब कुछ नये सिरे से देखने-सोचने का अवसर मिलता है ।
रात्रि स्वप्नों के बाद प्रातःकाल का जागरण जिस प्रकार सारी स्थिति ही बदल देता है, उसी प्रकार महामाया का अनुग्रह जागृति की भूमिका में प्रवेश करने का द्वार खोलता है और इच्छा, विचरणा तथा क्रिया का स्वरूप ऐसा बना देता है जिसमें देवोपम स्वगीर्य जीवन का आनन्द मिलता रहे और बन्धन मुक्ति की ब्रह्मानुभूति का रसास्वादन अनवरत रूप से उपलब्ध होता रहे ।
महामाया परब्रह्म की समीपता तक पहुँचा देने वाली सच्ची देवमाता कही गई है । देवत्व ही उसका अनुग्रह है । गायत्री एक स्तर पर महामाया के रूप में साधक को हर दृष्टि से कृतकृत्य बनाती देखी गई है ।
महामाया के स्वरूप, आयुध, वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है–
महामाया के एक मुख, चार हाथों में इंगित, श्रीफल, पाश और दंड । इंगित देवानुशासन का संकेत, अनुशासन मानने पर श्रीफल-श्रेष्ठफल की प्राप्ति का तथा मयार्दा तोड़ने पर पाश से बंधने तथा दंड से दंड भोगने का बोध होता है । वाहन-हंस-हित-अहित निधार्रण के विवेक का प्रतीक है।
‘चो’ देवी तु महामाया महादेवोऽथ देवता ।
बीजं ‘हं’ प्रोक्तमेतत्स ऋषिः कात्यायनस्तथा॥
योगिनी यन्त्रमेतच्च भूती मेधाऽथ पाशिनी ।
विद्यन्ते तत्त्वदृष्टिश्च भ्रममुक्तिः फलं द्वयम्॥
अर्थात्- ‘चो’ अक्षर की देवी-‘महामाया’,देवता-‘महादेव’, बीज-‘हं’, ऋषि-‘कात्यायन’, यन्त्र-‘योगिनीयन्त्रम्’, विभूति-‘मेधा एवं पाशिनी’ और प्रतिफल-‘तत्त्वदृष्टि व भ्रममुक्ति’ हैं ।
माया कहते हैं भ्रान्ति को-महामाया कहते हैं निभ्रार्न्ति को । माया पदार्थ परक है और महामाया ज्ञान परक । मानवी सत्ता सीमित रहने से वह समग्र का दशर्न नहीं कर पाती और जितनी उसकी परिधि है उसी को सब कुछ मान लेती है ।
मेढक कुए को ही समग्र विश्व मानता है, उसकी सीमित परिस्थिति में यही संभव भी है । किन्तु यदि उसे कुँए से बाहर निकलने का, आकाश में उड़ाने का-ब्रह्माण्डीय आकाश में विचरण करने का अवसर मिले, तो पता चलेगा कि कुँए में सीमित विश्व की पूर्व मान्यता गलत थी, यों उस समय वही सत्य एवं तथ्य प्रतीत होती थी ।
जीव माया-बन्धनों मे बँधा है अथार्त् संकीर्णता की परिधि में आबद्ध है । इच्छाएँ, विचारणाएँ, क्रियाएँ इसी भ्रम- जाल में फँसी होने के कारण अवांछनीय स्तर की रहती हैं और उस जंजाल में कस्तूरी के हिरन की तरह मृगमरीचिका में भटकने की तरह जीव सम्पदा का अपव्यय ही होता रहता है ।
माया से छूटने के प्रयत्नों में जिज्ञासु-मुमुक्ष संलग्न रहते हैं । जिस आत्म ज्ञान को जीवन को सफल बनाने वाली महान् उपलब्धि बताया जाता है, उसी का नाम महामाया है । मायाबद्ध दुख पाते हैं और महामाया की शरण में पहुँचने वाले परम शान्ति का रसास्वादन करते हैं । उन्हें श्रेय पथ प्रत्यक्ष दीखता है । उभरे हुए आत्मबल के सहारे उस पर चल पड़ना भी सरल रहता है ।
आत्मा को अपना अस्तित्व शरीर मात्र मान लेना पहले सिरे की भ्रान्ति है । इसी की खुमारी में मनुष्य वासना, तृष्णा, अहंता की बालक्रीड़ा में उलझा हुआ मानव-जन्म के सुयोग को पशु-प्रयोजनों में गँवा देता है ।
अन्ततः खाली हाथ बिदा होता है और पाप की गठरी सिर पर लाद ले जाना-चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण के बाद मिले हुए सुअवसर को गँवा बैठने पर रुदन करना-जीवन भर पाप-ताप के दुसह दुःख सहना,यह समस्त दुगर्ति माया रूपी भ्रान्ति में जकड़े रहने का दुष्परिणाम है । इस महासंकट से महामाया ही छुड़ाती है ।
गायत्री को महामाया कहा गया है । साधना से उसका अनुग्रह साधक की अन्तरात्मा में उतरता है और निभ्रार्न्त स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिलता है । यही दिव्य दृष्टि है-ज्ञान चक्षु का उन्मीलन इसी को कहते हैं । जीवन रहस्यों का उद्घाटन इसी स्थिति में होता है । जकड़ने वाले जंजाल पके हुए पत्तों की तरह झड़ जाते हैं , और आत्म जागरण के कारण सब कुछ नये सिरे से देखने-सोचने का अवसर मिलता है ।
रात्रि स्वप्नों के बाद प्रातःकाल का जागरण जिस प्रकार सारी स्थिति ही बदल देता है, उसी प्रकार महामाया का अनुग्रह जागृति की भूमिका में प्रवेश करने का द्वार खोलता है और इच्छा, विचरणा तथा क्रिया का स्वरूप ऐसा बना देता है जिसमें देवोपम स्वगीर्य जीवन का आनन्द मिलता रहे और बन्धन मुक्ति की ब्रह्मानुभूति का रसास्वादन अनवरत रूप से उपलब्ध होता रहे ।
महामाया परब्रह्म की समीपता तक पहुँचा देने वाली सच्ची देवमाता कही गई है । देवत्व ही उसका अनुग्रह है । गायत्री एक स्तर पर महामाया के रूप में साधक को हर दृष्टि से कृतकृत्य बनाती देखी गई है ।
महामाया के स्वरूप, आयुध, वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है–
महामाया के एक मुख, चार हाथों में इंगित, श्रीफल, पाश और दंड । इंगित देवानुशासन का संकेत, अनुशासन मानने पर श्रीफल-श्रेष्ठफल की प्राप्ति का तथा मयार्दा तोड़ने पर पाश से बंधने तथा दंड से दंड भोगने का बोध होता है । वाहन-हंस-हित-अहित निधार्रण के विवेक का प्रतीक है।
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