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ज्वालामुखी तु ‘यो’ देवी जातवेदश्च देवता ।।
बीजं ‘रं’ स ऋषिश्चास्य याज्ञवल्क्योऽथ यन्त्रकम्॥
ऊजोर् भूती च स्वाहाऽथाजरा पुष्टिस्तथैव च ।।
आरोग्यं च फलं पूणर् कथितानी क्रमादिह॥
अर्थात् — ‘यो’ अक्षर की देवी- ‘ज्वालामुखी’, (प्राणाग्नि), देवता- ‘जातवेद’, बीज- ‘रं’, ऋषि — ‘याज्ञवल्क्य’, यंत्र- ‘ऊर्जायन्त्रम्’, विभूति- ‘स्वाहा एवं अजरा’ तथा प्रतिफल- ‘पुष्टि एवं आरोग्य’ है ।।
गायत्री के २४ प्रधान नामों एवं रूपों में ‘प्राणाग्नि’ भी है ।। प्राण एक सर्वव्यापी चेतना प्रवाह है ।। जब वह प्रचण्ड हो उठता है तो उसकी ऊर्जा अग्नि बनकर प्रकट होती है ।। प्राण- तत्त्व की प्रखरता और प्रचण्डता की स्थिति को प्राणाग्नि कहते हैं ।।
अग्नि की दाहक, ज्योतिर्मय एवं आत्मसात् कर लेने की विशेषता से सभी परिचित हैं ।। प्राणाग्नि की दिव्य क्षमता जहाँ भी प्रकट होती है वहाँ से कषाय- कल्मषों का नाश होकर ही रहता है ।। जहाँ यह क्षमता उत्पन्न होती है वहाँ अंधकार दीखेगा नहीं, सब कुछ प्रकाशवान् ही दिखाई देगा ।।
प्राणाग्नि की सामर्थ्य आपके सम्पर्क क्षेत्र को आत्मसात् कर लेती है ।। पदार्थ और प्राणी अनुकूल बनते हैं, अनुरूप ढलते चले जाते हैं ।। प्राणाग्नि सम्पन्न व्यक्तियों का वर्गीकरण ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी के रूप में किया जाता है ।।
प्राणाग्नि विद्या को पंचाग्नि विद्या कहा गया है ।। कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या सिखाकर उसे कृतकृत्य किया था ।। यह पाँच प्राणों का विज्ञान और विनियोग ही है, जिसे जानने, अपनाने वाला सच्चे अर्थों में महाप्राण बन जाता है ।।
गायत्री को प्राणाग्नि कहा गया है ।। गायत्री शब्द का अर्थ ही ‘प्राण- रक्षक’ होता है ।। प्राणशक्ति प्रखर- प्रचण्ड बनाने की क्षमता से सुसम्पन्न बनना गायत्री साधना का प्रमुख प्रतिफल है ।। प्राणवान् होने का प्रमाण सत्प्रयोजनों के लिए साहसिकता एवं उदारता प्रदर्शित करने के रूप में सामने आता है ।। सामान्य लोग स्वार्थ पूर्ति के लिए दुष्कर्म तक कर गुजरने में दुस्साहस करते पाए जाते हैं ।। सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ करने की तो मात्र कल्पना ही कभी- कभी उठती है ।। उसके लिए कुछ कर गुजरना बन ही नहीं पड़ता ।।
आदर्शों को अपनाने वालों को जीवनक्रम में कठोर संयम और अनुशासन का समावेश करना पड़ता है और हेय पर चलने- चलाने वालों से विरोध- असहयोग करना होता है ।। इस प्रबल पुरुषार्थ को कर सकने में महाप्राण ही सफल होते हैं ।।
प्राण की बहुलता सत्प्रयोजनों के लिए साहसिक कदम उठाने, त्याग बलिदान के अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने एवं सत्संकल्पों के निर्वाह में सुदृढ़ बने रहने के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।। अनीति से लड़ने एवं परिस्थितिवश कठिनाई आने पर धैर्य बनाए रखने तथा निराशाजनक परिस्थिति में भी उज्ज्वल प्रभाव की आशा करने में भी प्राणवान् होने का प्रमाण मिलता है ।। गायत्री उपासना से इस प्रखरता की अभिवृद्धि होती है ।।
प्राणाग्नि के स्वरूप, आसन आदि का वर्णन संक्षेप में इस तरह है –
प्राणाग्नि के एक मुख, चार हाथ है ।। स्रुवा- यज्ञीय कर्म का, अंकुश- शक्ति के नियंत्रण की क्षमता और श्रीफल- पूर्णाहुति कार्य को पूर्णता प्रदान करने के संकल्प का प्रतीक है ।।
आशीर्वाद मुद्रा — ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का संकेत है ।। आसन- यज्ञकुण्ड के यज्ञार्थ – लोकहितार्थ उपयोग की प्रतिबद्धता का प्रतीक है ।
ज्वालामुखी तु ‘यो’ देवी जातवेदश्च देवता ।।
बीजं ‘रं’ स ऋषिश्चास्य याज्ञवल्क्योऽथ यन्त्रकम्॥
ऊजोर् भूती च स्वाहाऽथाजरा पुष्टिस्तथैव च ।।
आरोग्यं च फलं पूणर् कथितानी क्रमादिह॥
अर्थात् — ‘यो’ अक्षर की देवी- ‘ज्वालामुखी’, (प्राणाग्नि), देवता- ‘जातवेद’, बीज- ‘रं’, ऋषि — ‘याज्ञवल्क्य’, यंत्र- ‘ऊर्जायन्त्रम्’, विभूति- ‘स्वाहा एवं अजरा’ तथा प्रतिफल- ‘पुष्टि एवं आरोग्य’ है ।।
गायत्री के २४ प्रधान नामों एवं रूपों में ‘प्राणाग्नि’ भी है ।। प्राण एक सर्वव्यापी चेतना प्रवाह है ।। जब वह प्रचण्ड हो उठता है तो उसकी ऊर्जा अग्नि बनकर प्रकट होती है ।। प्राण- तत्त्व की प्रखरता और प्रचण्डता की स्थिति को प्राणाग्नि कहते हैं ।।
अग्नि की दाहक, ज्योतिर्मय एवं आत्मसात् कर लेने की विशेषता से सभी परिचित हैं ।। प्राणाग्नि की दिव्य क्षमता जहाँ भी प्रकट होती है वहाँ से कषाय- कल्मषों का नाश होकर ही रहता है ।। जहाँ यह क्षमता उत्पन्न होती है वहाँ अंधकार दीखेगा नहीं, सब कुछ प्रकाशवान् ही दिखाई देगा ।।
प्राणाग्नि की सामर्थ्य आपके सम्पर्क क्षेत्र को आत्मसात् कर लेती है ।। पदार्थ और प्राणी अनुकूल बनते हैं, अनुरूप ढलते चले जाते हैं ।। प्राणाग्नि सम्पन्न व्यक्तियों का वर्गीकरण ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी के रूप में किया जाता है ।।
प्राणाग्नि विद्या को पंचाग्नि विद्या कहा गया है ।। कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या सिखाकर उसे कृतकृत्य किया था ।। यह पाँच प्राणों का विज्ञान और विनियोग ही है, जिसे जानने, अपनाने वाला सच्चे अर्थों में महाप्राण बन जाता है ।।
गायत्री को प्राणाग्नि कहा गया है ।। गायत्री शब्द का अर्थ ही ‘प्राण- रक्षक’ होता है ।। प्राणशक्ति प्रखर- प्रचण्ड बनाने की क्षमता से सुसम्पन्न बनना गायत्री साधना का प्रमुख प्रतिफल है ।। प्राणवान् होने का प्रमाण सत्प्रयोजनों के लिए साहसिकता एवं उदारता प्रदर्शित करने के रूप में सामने आता है ।। सामान्य लोग स्वार्थ पूर्ति के लिए दुष्कर्म तक कर गुजरने में दुस्साहस करते पाए जाते हैं ।। सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ करने की तो मात्र कल्पना ही कभी- कभी उठती है ।। उसके लिए कुछ कर गुजरना बन ही नहीं पड़ता ।।
आदर्शों को अपनाने वालों को जीवनक्रम में कठोर संयम और अनुशासन का समावेश करना पड़ता है और हेय पर चलने- चलाने वालों से विरोध- असहयोग करना होता है ।। इस प्रबल पुरुषार्थ को कर सकने में महाप्राण ही सफल होते हैं ।।
प्राण की बहुलता सत्प्रयोजनों के लिए साहसिक कदम उठाने, त्याग बलिदान के अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने एवं सत्संकल्पों के निर्वाह में सुदृढ़ बने रहने के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।। अनीति से लड़ने एवं परिस्थितिवश कठिनाई आने पर धैर्य बनाए रखने तथा निराशाजनक परिस्थिति में भी उज्ज्वल प्रभाव की आशा करने में भी प्राणवान् होने का प्रमाण मिलता है ।। गायत्री उपासना से इस प्रखरता की अभिवृद्धि होती है ।।
प्राणाग्नि के स्वरूप, आसन आदि का वर्णन संक्षेप में इस तरह है –
प्राणाग्नि के एक मुख, चार हाथ है ।। स्रुवा- यज्ञीय कर्म का, अंकुश- शक्ति के नियंत्रण की क्षमता और श्रीफल- पूर्णाहुति कार्य को पूर्णता प्रदान करने के संकल्प का प्रतीक है ।।
आशीर्वाद मुद्रा — ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का संकेत है ।। आसन- यज्ञकुण्ड के यज्ञार्थ – लोकहितार्थ उपयोग की प्रतिबद्धता का प्रतीक है ।
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