Saturday, 23 July 2016

परमार्थ की पहली शर्त है निःस्वार्थ सेवा


लगभग पंद्रह सौ वर्ष पूर्व बोधि धर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया। वहां एक राजा था-वू। उसने पूरे देश में बहुत सारे मंदिर बनवाए, मूर्तियां लगवाई। जब उसने सुना की भारत से कोई अत्यंत ज्ञानी भिक्षु आया है तो वह उसके स्वागत के लिए आया। बोधि धर्म के पहले जितने भी भिक्षु चीन आए, सभी ने राजा वू से कहा-तुम अत्यंत धार्मिक हो, बहुत पुण्यवंशी हो, वर्ग में तुम्हारा स्थान सुरक्षित है। राजा भिक्षुओं को नुःशुल्क भोजन कराता और भिक्षु उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। राजा को लगता था कि उसने पर्याप्त धर्म कर लिया है और इसके बल पर न केवल इस भौतिक लोक में उसने पर्याप्त लोक प्रियता हासिल कर ली है बल्कि मृत्यु के पश्चात परलोक में भी वह स्वर्ग का अधिकारी बनेगा। जब वह बोधि धर्म से मिला, तो स्वागत की औपचारिकता पूर्ण करने के बाद उसने एकांत में बोधि धर्म से पूछा-मैंने इतने मंदिर बनवाए, मूर्तियां लगवाईं, इतना कर्म-धर्म किया,तो इससे मुझे क्या मिलेगा?
बोधि धर्म ने कहा-कुछ भी नहीं। राजा चौंका और फिर पूछा-ऐसा क्यों? तब बोधि धर्म ने कहा-चूंकि तुमने कुछ पाने कि इच्छा रखते हुए यह सब कर्म-धर्म किया और इसका तुम्हें अहंकार भी है। फल पाले की आशा से किया गया कर्म पूर्ण- कर्म नहीं होता। वू ने प्रश्न किया-मुझसे मिलने वाले भिक्षु तो स्वर्ग में मेंरा स्थान सुरक्षित बताते हैं और आप विपरीत बात कह रहे हैं। बोधि धर्म ने जवाब दिया-चूंकि भिक्षु तुम्हारा खाते हैं, इसलिए तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। धर्म के नाम पर तुमने जितना कुछ किया,उसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है। धर्म का संबंध इससे हैं कि आत्मा कितनी परिवर्तित है ? तुम्हारी आत्मा तो वही है, जो इस जगत में बड़ा राज्य और उस जगत में स्वर्ग पाना चाहती है। जिनका लोभ बहुत गहरा होता है, वे कभी तृप्त नहीं होते। वे स्वर्ग में भी राज्य चाहते हैं। यह सुनकर राजा वू की आंखे खुल गई और वह निःस्वार्थ भाव से परमार्थ पथ पर चलने के लिए दृढ़ संकल्पित हो गया।

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