Wednesday, 13 July 2016

ज़िद को योग से जोड़ें, शुभ होगा

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आजकल ज्यादातर माता-पिता यह शिकायत करते हैं कि बच्चे बहुत ज़िद्‌दी हो गए हैं। हमें ज़िद शब्द की परिभाषा ठीक से समझनी चाहिए।

        बिना विवेक के जो मांग की जाती है और उसकी पूर्ति तत्काल हो जाए, जब यह अति आग्रह होता है तो वह ज़िद है।

        बच्चों में विवेक की कमी होती है और मांगी गई वस्तु उसी समय चाहते हैं। न मिले तो ज़िद अपने एक्टिव रूप उपद्रव में बदल जाती है, लेकिन ज़िद यदि विवेक से जुड़े तो वह संकल्प में बदलती है।  

        जिस ज़िद से हम बड़े लक्ष्य प्राप्त करते हैं उसके नीचे संकल्प काम कर रहा होता है।
तो अपरिपक्व संकल्प ज़िद है और परिपक्व ज़िद संकल्प।

         ज़िद करते बच्चों को पूरी तरह से नहीं नकारें, क्योंकि उस समय उनकी ऊर्जा भीतर उफान पर होती है। यदि इस ऊर्जा को ठीक से रूपांतरित कर दें तो वह संकल्प में बदल जाएगी, इसलिए बच्चों को सिखाएं और बड़े भी सीखें कि कुछ बातों का ध्यान रखें कि इससे हमारी कार्यक्षमता का विकास होगा या नहीं,

        हमारा चित्त जागरूक बनेगा या नहीं, ज़िद की पूर्ति के बाद शांति मिलेगी या नहीं और ज़िद के दौरान पैदा ऊर्जा से हमारे मस्तिष्क की तरंगें कैसे प्रभावित हुईं।

          नहीं तो सिरदर्द या ब्रेन हेमरेज तक हो सकता है। आदमी डिप्रेशन में जा सकता है। बाहरी वस्तुओं को पाने की वृत्तियों को थोड़ा भीतर मोड़ें तो पाएंगे जिस सुख की तलाश में हम बाहर हैं वह भीतर भी है, बल्कि उससे अच्छी स्थिति में है।

        बाहर के सुख को नकारना नहीं है पर भीतर के सुख को भी न भूलें। बस, यहीं से ज़िद के साथ संकल्प जुड़ जाए तो आप जो पाना चाहते हैं उसके परिणाम में कभी अशांत नहीं होंगे।

        अपने भीतर उतरकर सुख को टटोलने का नाम योग है। तो ज़िद को योग से जोड़े रखिए, फिर देखिए आपके संकल्प आपको कितने शुभ परिणाम देंगे।

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