Tuesday 26 July 2016

भुवनेश्वरी

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‘यो’ देवी भुवनेशी तु देवता च पुरन्दरः ।
बीजं ‘खं’ जमदग्निश्च स ऋषियर्न्त्रकं विभुः॥
गौरी विश्वोत्तमे भूती यश ऐश्वयर्मेव च ।
फलं च क्रमशः सवार्ण्येतान्युक्तानि ते मया॥
अर्थात – ‘यो’ अक्षर की देवी- ‘भुवनेश्वरी’, देवता- ‘पुरन्दर’, बीज- ‘खं’, ऋषि- ‘जमदग्नि’, यन्त्र विभूति यन्त्रम्, विभूति- ‘गौरी एवं विश्वोत्तमा’ और प्रतिफल – ‘सुयश एवं ऐश्वर्य’ हैं ।
भुवनेश्वरी अर्थात संसार भर के ऐश्वयर् की स्वामिनी । वैभव-पदार्थों के माध्यम से मिलने वाले सुख-साधनों को कहते हैं । ऐश्वर्य-ईश्वरीय गुण है- वह आंतरिक आनंद के रूप में उपलब्ध होता है । ऐश्वर्य की परिधि छोटी भी है और बड़ी भी । छोटा ऐश्वर्य छोटी-छोटी सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने पर उनके चरितार्थ होते समय सामयिक रूप से मिलता रहता है ।
यह स्वउपार्जित, सीमित आनंद देने वाला और सीमित समय तक रहने वाला ऐश्वर्य है । इसमें भी स्वल्प कालीन अनुभूति होती है और उसका रस कितना मधुर है यह अनुभव करने पर अधिक उपार्जन का उत्साह बढ़ता है ।
भुवनेश्वरी इससे ऊँची स्थिति है । उसमें सृष्टि भर का ऐश्वर्य अपने अधिकार में आया प्रतीत होता है । स्वामी रामतीर्थ अपने को ‘राम बादशाह’ कहते थे । उनको विश्व का अधिपति होने की अनुभूति होती थी, फलतः उस स्तर का आनंद लेते थे, जो समस्त विश्व के अधिपति होने वाले को मिल सकता है ।
छोटे-छोटे पद पाने वाले-सीमित पदार्थों के स्वामी बनने वाले, जब अहंता को तृप्त करते और गौरवान्वित होते हैं तो समस्त विश्व का अधिपति होने की अनुभूति कितनी उत्साहवर्धक होती होगी, इसकी कल्पना भर से मन आनंद विभोर हो जाता है । राजा छोटे से राज्य के मालिक होते हैं, वे अपने को कितना श्रेयाधिकारी, सम्मानास्पद एवं सौभाग्यवान् अनुभव करते हैं , इसे सभी जानते हैं । छोटे-बडे़ राजपद पाने की प्रतिस्पर्धा इसीलिए रहती है कि अधिपत्य का अपना गौरव और आनन्द हैं ।
यह वैभव का प्रसंग चल रहा है । यह मानवी एवं भौतिक है । ऐश्वर्य दैवी,आध्यात्मिक,भावनात्मक है । इसलिए उसके आनन्द की अनुभूति उसी अनुपात से अधिक होती है । भुवन भर की चेतनात्मक आनन्दानुभूति का आनन्द जिसमें भरा हो उसे भुवनेश्वरी कहते है । गायत्री की यह दिव्यधारा जिस पर अवतरित होती है, उसे निरन्तर यही लगता है कि उसे विश्व भर के ऐश्वर्य का अधिपति बनने का सौभाग्य मिल गया है ।
वैभव की तुलना में ऐश्वयर् का आनन्द असंख्य गुणा बड़ा है । ऐसी दशा में सांसारिक दृष्टि से सुसम्पन्न समझे जाने की तुलना में भुवनेश्वरी की भूमिका में पहुँचा हुआ साधक भी लगभग उसी स्तर की भाव संवेदनाओं से भरा रहता है, जैसा कि भुवनेश्वर भगवान् को स्वयं अनुभव होता होगा ।
भावना की दृष्टि से यह स्थिति परिपूणर् आत्मगौरव की अनुभूति है । वस्तु स्थिति की दृष्टि से इस स्तर का साधक ब्रह्मभूत होता है, ब्राह्मी स्थिति में रहता है । इसलिए उसकी व्यापकता और समर्थता भी प्रायः परब्रह्म के स्तर की बन जाती है । वह भुवन भर में बिखरे पड़े विभिन्न प्रकार के पदार्थों का नियन्त्रण कर सकता है । पदार्थों और परिस्थितियों के माध्यम से जो आनन्द मिलता है उसे अपने संकल्प बल से अभीष्ट परिमाण में आकषिर्त-उपलब्ध कर सकता है ।
भुवनेश्वरी मनः स्थिति में विश्वभर की अन्तः चेतना अपने दायित्व के अन्तगर्त मानती है । उसकी सुव्यवस्था का प्रयास करती है । शरीर और परिवार का स्वामित्व अनुभव करने वाले इन्हीं के लिए कुछ करते रहते हैं । विश्वभर को अपना ही परिकर मानने वाले का निरन्तर विश्वहित में ध्यान रहता है ।
परिवार सुख के लिए शरीर सुख की परवाह न करके प्रबल पुरुषार्थ किया जाता है । जिसे विश्व परिवार की अनुभूति होती है । वह जीवन-जगत् से आत्मीयता साधता है । उनकी पीड़ा और पतन को निवारण करने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करता है । अपनी सभी सामर्थ्य को निजी सुविद्या के लिए उपयोग न करके व्यापक विश्व की सुख शान्ति के लिए, नियोजित रखता है ।
वैभव उपाजर्न के लिए भौतिक पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है । ऐश्वर्य की उपलब्धि भी आत्मिक पुरुषार्थ से ही संभव है । व्यापक ऐश्वयर् की अनुभूति तथा सामथ्यर् प्राप्त करने के लिए साधनात्मक पुरुषाथर् करने पड़ते है । गायत्री उपासना में इस स्तर की साधना जिस विधि-विद्यान के अन्तगर्त की जाती है उसे ‘भुवनेश्वरी’ कहते है ।
भुवनेश्वरी के स्वरूप, आयुध, आसन आदि का संक्षेप में-विवेचन इस तरह है–
भुवनेश्वरी के एक मुख, चार हाथ हैं । चार हाथों में गदा-शक्ति का एवं राजंदंड-व्यवस्था का प्रतीक है । माला-नियमितता एवं आशीर्वाद मुद्रा-प्रजापालन की भावना का प्रतीक है । आसन-शासनपीठ-सवोर्च्च सत्ता की प्रतीक है

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