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‘प्र’ वणर्स्य देवी तु साऽन्नपूणार्स्ति देवता ।
पूषा बीजमहो ‘अं’ च पिप्पलादश्च स ऋषिः॥
अन्नपूणेर्श्वरी यन्त्रं तृप्ता पूणोर्दरी तथा ।
सन्ति भूती फलं तृप्तिरभावान्मुक्तिरेव च॥
अर्थात्- ‘प्र’ अक्षर की देवी-‘अन्नपूणार्,’ देवता-‘पूषा,’ बीज-‘अं’ ऋषि- पिप्पलाद, यन्त्र-‘अन्नपूणेर्श्वरीयन्त्रम्’,विभूति-‘तृप्ता’ एवं ‘पुणोर्दरी’ तथा प्रतिफल- ‘तृप्ति व अभावमुक्ति’ हैं ।
जीवन की प्रत्यक्ष आवश्यकताओं में प्रथम नाम ‘अन्न ‘ का आता है । भोजन के काम आने वाले धान्यों तथा अन्य पदार्थों को भी अन्न ही कहा जाता है । गायत्री की एक शक्ति अन्नपूणार् कहते हैं । इसका प्रभाव अन्नादि की आवश्यकताओं की सहज पूतिर् होते रहने के रूप में होता है ।
प्रायः गृह-लक्ष्मियों को अन्नपूर्णा कहते हैं । वे अपनी दूरदशिर्ता, सुव्यवस्था के द्वारा घर में ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने देती, जिससे अभाव ग्रस्तता का कष्ट-असंतोष एवं उपहास सहन करना पड़े । गृहलक्ष्मी जैसी सुसंस्कारी, समझदार को भी अन्नपूर्णा कहते हैं । यह जहाँ भी रहेगी , वहाँ दरिद्रता के दशर्न नहीं होते । परिस्थितियाँ संतोष-जनक बनी रहती हैं ।
अन्नपूर्णा गायत्री की वह चेतना शक्ति है जिसका साधक पर अवतरण होने से उसे अभाव ग्रस्तता की व्यथा नहीं सहनी पड़ती । आवश्यकताओं की पूर्ति का असमंजस खिन्न-उद्विग्न नहीं करता । तृप्ति, तृष्टि,और शान्ति की मनःस्थिति साधन-सामग्री के बाहुल्य से नहीं मिल सकते । ईंधन मिलने से तो आग और भड़कती जाती है ।
शान्ति तो जल से होती है । जल है संतोष-जिसमें औसत नागरिक के स्तर का निवार्ह पयार्प्त माना जाता है और अहंता की तृप्ति के लिए वैभव का प्रदर्शन नहीं, महानता का आदर्श अपनाना आवश्यक समझा जाता है । इस स्तर की सद्बुद्धि का उदय होते ही लगता है कि जीवन सम्पदा अपने आप में परिपूर्ण है । उसमें विभूतियों के अजस्र भंडार भरे पड़े हैं ।
वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है, वे प्रचार परिमाण में सहज ही उपलब्ध हैं ।
इस अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य सम्पदा कमाने और वैभव दिखाने की मूखतार् से विरत होता है । अपनी क्षमताओं को आदर्शों के परिपालन में लगाता है । व्यक्तित्व को महान् बनाने की महत्वाकांक्षा जगाता है और अपने पौरुष को उन प्रयोजनों में निरत करता है । जिनसे लोक मंगल के साधन सधते हैं ।
सृष्टा की विश्ववाटिका को अधिकाधिक सुन्दर,समुन्नत बनाने के लिये किया गया हर प्रयत्न बिना सफलता-असफलता की प्रतीक्षा किये हर घड़ी उच्च स्तरीय संतोष प्रदान करता रहता है । इसी आस्था को अन्नपूर्णा कहते है । गायत्री की यह अन्नपूर्णा धारा साधक को सहज संतोष के स्वगीर्य आनन्द का रसास्वादन निरन्तर कराती है ।
गायत्री उपासना से साधकों की आथिर्क स्थिति संतोष जनक रहती है और धन-धान्य का घाटा नहीं पड़ता । उन्हें ऋणी नहीं रहना पड़ता । असंतोष की आग में जलते रहने-लिप्सा-लालसाओं से उद्विग्न रहने की विपत्ति भी उन्हें संत्रस्त नहीं करती ।
इसका कारण यह नहीं कि उनके कोठों पर आसमान से अनाज की वर्षा होती है, या खेतों में चौगुनी फसल उत्पन्न होती है, वरन् कारण यह है कि साधनों को उपाजिर्त करने के लिए वे योग्यता बढ़ाने और कठोर परिश्रम करने में दत्तचित्त रहते हैं । दरिद्र तो आलसी-प्रमादी रहते हैं ।
जिन्हें पुरुषार्थ परायणता में रुचि है, जो श्रम एवं मनोयोग के सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित रहते हैं, उन्हें निवार्ह के आवश्यक साधन जुटाने में कमी-कभी नहीं पड़ती । यह अन्नपूर्णा प्रवृत्ति है जो गायत्री, उपासना से स्वभाव का अंग बनकर रहती है ।
अन्नपूर्णा प्रवृत्ति का दूसरा पक्ष है-मितव्ययिता । उपलब्ध साधनों का इस प्रकार उपयोग करना जिससे शारीरिक, पारिवारिक एवं पारमाथिर्क उद्देश्य संतुलित रूप से पूरे होते रहें । यह ऐसी सुसंस्कारिता है, जिसे अपनायें बिना कुबेर को भी दरिद्र बनकर ही रहना पड़ता है ।
व्यसन,फैशन, चटोरापन, विलासिता, उद्घत प्रदशर्न, शेखी खोरी , यारबाशी, आवारागर्दी जैसे दुगुर्णों में कोई व्यक्ति कितना ही धन अपव्यय कर सकता है । ऐसी दशा में आजीविका कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, वहाँ सदा तंगी ही बनी रहेगी, और उस कमी को पूरा करने के लिए रिश्वत-बेईमानी की ललक भड़कती रहेगी । यह सब करते रहने पर भी वह स्थिति नहीं आती , जिसमें संतोष अनुभव किया जा सकेे तथा आय-व्यय का संतुलन बन सकें ।
सम्पन्नता इस अर्थ सन्तुलन को ही कहते हैं, और वह धन के परिमाण पर नहीं, उस सत्प्रवृत्ति पर निभर्र है, जो उपाजर्न की योग्यता बढ़ाने में तथा अथक श्रम करने के लिए प्रोत्साहित करती है । साथ ही एक-एक पाई के सदुपयोग की मितव्ययता का महत्त्व भी सिखाती है ।
ऐसे व्यक्ति सीमित आजीविका का भी ऐसा क्रमबद्ध उपयोेग करते हैं जिससे उतने में ही ऐसी व्यवस्था बन जाती है, जिसे देखकर सुसम्पन्नों को भी ईष्यार् होने लगे । इसी परिस्थिति का नाम अन्नपूर्णा है ।
साधनों का उपार्जन एक पक्ष है-उपयोग दूसरा है । दोनों को मिलाकर चलने से ही सुसम्पन्नता बनती है । आमतौर से सम्पत्ति की बहुलता को ही सम्पन्नता माना जाता है । यह भारी भ्रम है । दुर्बुद्धि के रहते सम्पत्ति का उपयोग दुष्ट प्रयोजनों में ही होगा और उससे व्यक्ति, परिवार और समाज को प्रकारान्तर से अनेकानेक हानियाँ सहन करनी पड़ेगी ।
महत्व साधनों की मात्रा का नहीं, वरन् उस दूर-दशिर्ता का है जो सत्प्रयोजनों में अभीष्ट साधन जुटा लेने में पूणर्तया सफल होती है और कुशल उपयोग के आधार पर सीमित साधनों से ही सामायिक आवश्यकताओं को सुसंतुलित रीति से पूरा कर लेती हैं । यह सद्बुद्धि जहाँ भी होगी वहाँ अन्नपूर्णा कही जाने वाली संतुष्ट मनःस्थिति एवं प्रसन्न परिस्थितियों का दशर्न सदा ही होता रहेगा ।
अन्नपूर्णा के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षेप में तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
अन्नपूणार् के एक मुख,चार हाथ हैं । हाथों में अन्नपात्र और चम्मच-अन्नदान के प्रतीक हैं । दो हाथों में कमल, अन्न में सुसंस्कारिता पौष्टिकता के प्रतीक हैं । आसन-देवपीठ-दिव्य अनुशासन की प्रतीक हैं ।
‘प्र’ वणर्स्य देवी तु साऽन्नपूणार्स्ति देवता ।
पूषा बीजमहो ‘अं’ च पिप्पलादश्च स ऋषिः॥
अन्नपूणेर्श्वरी यन्त्रं तृप्ता पूणोर्दरी तथा ।
सन्ति भूती फलं तृप्तिरभावान्मुक्तिरेव च॥
अर्थात्- ‘प्र’ अक्षर की देवी-‘अन्नपूणार्,’ देवता-‘पूषा,’ बीज-‘अं’ ऋषि- पिप्पलाद, यन्त्र-‘अन्नपूणेर्श्वरीयन्त्रम्’,विभूति-‘तृप्ता’ एवं ‘पुणोर्दरी’ तथा प्रतिफल- ‘तृप्ति व अभावमुक्ति’ हैं ।
जीवन की प्रत्यक्ष आवश्यकताओं में प्रथम नाम ‘अन्न ‘ का आता है । भोजन के काम आने वाले धान्यों तथा अन्य पदार्थों को भी अन्न ही कहा जाता है । गायत्री की एक शक्ति अन्नपूणार् कहते हैं । इसका प्रभाव अन्नादि की आवश्यकताओं की सहज पूतिर् होते रहने के रूप में होता है ।
प्रायः गृह-लक्ष्मियों को अन्नपूर्णा कहते हैं । वे अपनी दूरदशिर्ता, सुव्यवस्था के द्वारा घर में ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने देती, जिससे अभाव ग्रस्तता का कष्ट-असंतोष एवं उपहास सहन करना पड़े । गृहलक्ष्मी जैसी सुसंस्कारी, समझदार को भी अन्नपूर्णा कहते हैं । यह जहाँ भी रहेगी , वहाँ दरिद्रता के दशर्न नहीं होते । परिस्थितियाँ संतोष-जनक बनी रहती हैं ।
अन्नपूर्णा गायत्री की वह चेतना शक्ति है जिसका साधक पर अवतरण होने से उसे अभाव ग्रस्तता की व्यथा नहीं सहनी पड़ती । आवश्यकताओं की पूर्ति का असमंजस खिन्न-उद्विग्न नहीं करता । तृप्ति, तृष्टि,और शान्ति की मनःस्थिति साधन-सामग्री के बाहुल्य से नहीं मिल सकते । ईंधन मिलने से तो आग और भड़कती जाती है ।
शान्ति तो जल से होती है । जल है संतोष-जिसमें औसत नागरिक के स्तर का निवार्ह पयार्प्त माना जाता है और अहंता की तृप्ति के लिए वैभव का प्रदर्शन नहीं, महानता का आदर्श अपनाना आवश्यक समझा जाता है । इस स्तर की सद्बुद्धि का उदय होते ही लगता है कि जीवन सम्पदा अपने आप में परिपूर्ण है । उसमें विभूतियों के अजस्र भंडार भरे पड़े हैं ।
वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है, वे प्रचार परिमाण में सहज ही उपलब्ध हैं ।
इस अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य सम्पदा कमाने और वैभव दिखाने की मूखतार् से विरत होता है । अपनी क्षमताओं को आदर्शों के परिपालन में लगाता है । व्यक्तित्व को महान् बनाने की महत्वाकांक्षा जगाता है और अपने पौरुष को उन प्रयोजनों में निरत करता है । जिनसे लोक मंगल के साधन सधते हैं ।
सृष्टा की विश्ववाटिका को अधिकाधिक सुन्दर,समुन्नत बनाने के लिये किया गया हर प्रयत्न बिना सफलता-असफलता की प्रतीक्षा किये हर घड़ी उच्च स्तरीय संतोष प्रदान करता रहता है । इसी आस्था को अन्नपूर्णा कहते है । गायत्री की यह अन्नपूर्णा धारा साधक को सहज संतोष के स्वगीर्य आनन्द का रसास्वादन निरन्तर कराती है ।
गायत्री उपासना से साधकों की आथिर्क स्थिति संतोष जनक रहती है और धन-धान्य का घाटा नहीं पड़ता । उन्हें ऋणी नहीं रहना पड़ता । असंतोष की आग में जलते रहने-लिप्सा-लालसाओं से उद्विग्न रहने की विपत्ति भी उन्हें संत्रस्त नहीं करती ।
इसका कारण यह नहीं कि उनके कोठों पर आसमान से अनाज की वर्षा होती है, या खेतों में चौगुनी फसल उत्पन्न होती है, वरन् कारण यह है कि साधनों को उपाजिर्त करने के लिए वे योग्यता बढ़ाने और कठोर परिश्रम करने में दत्तचित्त रहते हैं । दरिद्र तो आलसी-प्रमादी रहते हैं ।
जिन्हें पुरुषार्थ परायणता में रुचि है, जो श्रम एवं मनोयोग के सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित रहते हैं, उन्हें निवार्ह के आवश्यक साधन जुटाने में कमी-कभी नहीं पड़ती । यह अन्नपूर्णा प्रवृत्ति है जो गायत्री, उपासना से स्वभाव का अंग बनकर रहती है ।
अन्नपूर्णा प्रवृत्ति का दूसरा पक्ष है-मितव्ययिता । उपलब्ध साधनों का इस प्रकार उपयोग करना जिससे शारीरिक, पारिवारिक एवं पारमाथिर्क उद्देश्य संतुलित रूप से पूरे होते रहें । यह ऐसी सुसंस्कारिता है, जिसे अपनायें बिना कुबेर को भी दरिद्र बनकर ही रहना पड़ता है ।
व्यसन,फैशन, चटोरापन, विलासिता, उद्घत प्रदशर्न, शेखी खोरी , यारबाशी, आवारागर्दी जैसे दुगुर्णों में कोई व्यक्ति कितना ही धन अपव्यय कर सकता है । ऐसी दशा में आजीविका कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, वहाँ सदा तंगी ही बनी रहेगी, और उस कमी को पूरा करने के लिए रिश्वत-बेईमानी की ललक भड़कती रहेगी । यह सब करते रहने पर भी वह स्थिति नहीं आती , जिसमें संतोष अनुभव किया जा सकेे तथा आय-व्यय का संतुलन बन सकें ।
सम्पन्नता इस अर्थ सन्तुलन को ही कहते हैं, और वह धन के परिमाण पर नहीं, उस सत्प्रवृत्ति पर निभर्र है, जो उपाजर्न की योग्यता बढ़ाने में तथा अथक श्रम करने के लिए प्रोत्साहित करती है । साथ ही एक-एक पाई के सदुपयोग की मितव्ययता का महत्त्व भी सिखाती है ।
ऐसे व्यक्ति सीमित आजीविका का भी ऐसा क्रमबद्ध उपयोेग करते हैं जिससे उतने में ही ऐसी व्यवस्था बन जाती है, जिसे देखकर सुसम्पन्नों को भी ईष्यार् होने लगे । इसी परिस्थिति का नाम अन्नपूर्णा है ।
साधनों का उपार्जन एक पक्ष है-उपयोग दूसरा है । दोनों को मिलाकर चलने से ही सुसम्पन्नता बनती है । आमतौर से सम्पत्ति की बहुलता को ही सम्पन्नता माना जाता है । यह भारी भ्रम है । दुर्बुद्धि के रहते सम्पत्ति का उपयोग दुष्ट प्रयोजनों में ही होगा और उससे व्यक्ति, परिवार और समाज को प्रकारान्तर से अनेकानेक हानियाँ सहन करनी पड़ेगी ।
महत्व साधनों की मात्रा का नहीं, वरन् उस दूर-दशिर्ता का है जो सत्प्रयोजनों में अभीष्ट साधन जुटा लेने में पूणर्तया सफल होती है और कुशल उपयोग के आधार पर सीमित साधनों से ही सामायिक आवश्यकताओं को सुसंतुलित रीति से पूरा कर लेती हैं । यह सद्बुद्धि जहाँ भी होगी वहाँ अन्नपूर्णा कही जाने वाली संतुष्ट मनःस्थिति एवं प्रसन्न परिस्थितियों का दशर्न सदा ही होता रहेगा ।
अन्नपूर्णा के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षेप में तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
अन्नपूणार् के एक मुख,चार हाथ हैं । हाथों में अन्नपात्र और चम्मच-अन्नदान के प्रतीक हैं । दो हाथों में कमल, अन्न में सुसंस्कारिता पौष्टिकता के प्रतीक हैं । आसन-देवपीठ-दिव्य अनुशासन की प्रतीक हैं ।
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