स्वामी शिवानन्द कहते हैं- ‘ब्राह्ममुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है ।। शरीर नीरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है ।। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है ।। उसके द्वारा आत्म- दर्शन हो सकता है ।’
काली कमली वाले बाबा विशुद्धानंदजी कहते थे- ‘गायत्री ने बहुतों को सुमार्ग पर लगाया है ।। कुमार्गगामी मनुष्य को पहले तो गायत्री की ओर रुचि ही नहीं होती, यदि ईश्वर कृपा से हो जाये, तो फिर वह कुमार्गगामी नहीं रहता ।। गायत्री जिसके हृदय में निवास करती है ।। उसका मन ईश्वर की ओर जाता है ।। विषय- विकारों की व्यर्थता उसे भली प्रकार अनुभव होने लगती है ।। कई महात्मा गायत्री जप करके परम सिद्ध हुए हैं ।। परमात्मा की शक्ति ही गायत्री है, जो गायत्री के निकट जाता है, वह शुद्ध होकर रहता है ।। आत्म- कल्याण के लिये मन की शुद्धि आवश्यक है ।। मन की शुद्धि के लिये गायत्री मंत्र अद्भुत है ।। ईश्वर प्राप्ति के लिये गायत्री जप को प्रथम सीढ़ी समझना चाहिये ।’
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी सुब्बाराव कहते हैं- ‘सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं ।। आदि शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं ।। गीता में इसका वर्णन ‘आदित्य वर्ण’ कहकर किया गया है ।। गायत्री की उपासना करना योग का सबसे प्रथम अंग है ।’
श्रीस्वामी करपात्री जी का कथन है- ‘जो गायत्री के अधिकारी हैं, उन्हें नित्य- नियमित रूप से जप करना चाहिये ।। द्विजों के लिये गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है ।’
सर राधाकृष्णन कहते हैं- ‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें, तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती हैं ।। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है ।’
प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानंदजी का कथन है- ‘गायत्री मंत्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है ।’
ऋषि दयानंद- ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संध्या का विद्यान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है ।। ऐसा करने से अंतःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिये हितकर हो जाता है।
।। जितना भी इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो, उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है ।। जो जिज्ञासु गायत्री का प्रेम और नियमपूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिये यह संसार- सागर से तैरने की नाव और आत्म- प्राप्ति की सड़क है ।।
आर्य समाज के जन्मदाता स्वामी दयानंद गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे ।। ग्वालियर के राजा साहब से स्वामी जी ने कहा कि भागवत् सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण श्रेष्ठ है ।। जयपुर में सच्चिदानंद, हीरालाल रावल, घोड़ल सिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखायी थी ।।
मुल्तान में उपदेश के समय स्वामी जी ने गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मंत्र सबसे श्रेष्ठ है ।। चारों वेदों का मूल यही गुरुमंत्र है ।। आदिकाल से सभी ऋषि- मुनि इसी का जप किया करते थे ।। स्वामीजी ने कई स्थानों पर गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिसमें चालीस तक की संख्या में विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये थे ।। यह जप १५ दिन तक चला था ।।
थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो.आर.श्रीनिवास का कथन है- ‘हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मंत्र माना गया है ।। उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है ।। इस मंत्र के अनेक अर्थ होते है और भिन्न- भिन्न प्रकार की चित्तवृत्ति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न- भिन्न प्रकार का होता है ।।
इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबको किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है ।। जब इस मंत्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बन्ध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहित महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है ।।
वह मनुष्य कहीं भी मंत्रोच्चारण करता है, पर उसके ऊपर तथा आस- पास के वातावरण में विराट् ‘आध्यात्मिक प्रभाव’ उत्पन्न हो जाता है ।। यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आशीर्वाद है ।। इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मंत्र की अनुपम शक्ति के लिये उसकी प्रस्तुतियाँ की है ।’
इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गणमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संगृहीत हैं ।। उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अंधविश्वास, अंध परम्परा नहीं है वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति करने वाले ठोस तत्त्वों का बल है ।। इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है, उसे लाभ मिला है ।। गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती ।।
(गायत्री महाविज्ञान संयुक्त संस्करण पृ. सं. १६)
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