मन्त्र का अर्थ इस प्रकार है कि – जिसका मनन करने से संसार का यथार्थ स्वरूप विदित हो, भव बन्धनों से मुक्ति मिले जो सफलता के मार्ग पर अग्रसर करे उसे मन्त्र कहते हैं।
मन्त्र शक्ति ही देवमाता — कामधेनु है। परावाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मान्त्रात्मक ही है। यही विज्ञान है। इस कामधेनु वाक् की शक्ति से हम जीवित हैं। उसी कारण हम बोलते और जानते हैं।
मन्त्र विद्या की महान् सामर्थ्य को यदि ठीक तरह से समझा जा सके और उसका समुचित प्रयोग किया जा सके तो यह आध्यात्मिक प्रयास किसी भी भौतिक उन्नति के प्रयास से कम महत्वपूर्ण और कम लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता ।
मन्त्र शक्ति में चार तथ्य काम करते हैं –
1 ध्वनि, 2 संयम, 3 उपकरण, 4 विश्वास।
शब्द संरचना और उच्चारण की शुद्धता युक्त ध्वनि ही सार्थक होती है। साधक अपनी शक्तियों को शारीरिक मानसिक असंयम से बचाकर उपासना कृत्य में नियोजित रखे। माला, आसन, प्रतीक, उपचार, उपकरण आदि में प्रयुक्त हुए पदार्थों में शुद्धता का ध्यान रखा जाये। मन्त्र-साधना के प्रति श्रद्धा-विश्वास की कमी न हो।
यह सभी बातें जहाँ ठीक प्रकार प्रयुक्त हुई होंगी, वहाँ आराधना का प्रतिफल निश्चित रूप से दृष्टिगोचर हो रहा होगा । उपासना के आधारों का स्तर गिर जाने से ही, उसकी सफलता संदिग्ध होती चली जाती है।
तन्त्र विज्ञान में हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहा गया है। इन दोनों को ‘प्राण’ और ‘रयि’ नाम भी दिये गये हैं। भौतिकी के अनुसार इन्हें धन और ॠण विद्युत प्रवाह कह सकते हैं। जिह्वा से मन्त्र उच्चारण होता है, यह हलचल हुई।
इसके भीतर जितनी शक्ति होगी उतना ही बढ़ा-चढ़ा प्रभाव उत्पन्न होगा। यह प्रभाव हृदय के बिजलीघर में उत्पन्न होता है। यहाँ हृदय से तात्पर्य उस भावना स्तर से है, जो कृत्रिम रूप से नहीं बल्कि व्यक्तितत्व की मूल सत्ता के आधार पर विनिर्मित होता है। हृदय को ‘अग्नि’ और जिह्वा को ‘सोम’ कहा गया है।
दोनों के समन्वय से चमत्कारी ‘आत्मशक्ति’ उत्पन्न होती है। भावना और कर्म की उत्कृष्टता से मन्त्र साधना ‘प्राणवान’ बनती है। इस रहस्य को यदि समझा और अपनाया जा सके तो किसी को भी इस क्षेत्र में निराश न होना पड़ेगा।
उसके चार आधार बताये हैं –
1 प्रामाण्य – अर्थात् मनगढ़न्त नहीं विधि के पीछे सुनिश्चित विधि-विधान होना,
2 फलप्रद – अर्थात् जिसका उपयुक्त प्रतिफल देखा जा सके,
3 बहुलीकरण – अर्थात् जो व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करे,
4 आयातयामता – अर्थात् साधक के श्रेष्ठ व्यक्तित्व की क्षमता।
इन सारे तत्त्वों का समावेश होने से प्रक्रिया में दैवीशक्ति का समावेश होता है और उसका चमत्कारी प्रतिफल देखा जाता है।
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