Saturday, 26 September 2015

अनंत व्रत कथा

प्रचीन काल में सुमन्तु नाम के एक वशिष्ठ गोत्रीय मुनि थे ! उनकी पत्नी का नाम दीक्षा था ! और उनकी पुत्री का नाम शीला था ! दीक्षा के मृत्यु के पश्चात् सुमन्तु मुनि ने करकश से विवाह कर लिया, विवाहोपरांत करकश शीला को बहुत परेसान करती थी ! लेकिन शीला अत्यंत सुशील थी ! सुमन्तु ने अपने पुत्री का विवाह कौंडिन्य मुनि के साथ कर दिया था !
सभी आरम्भ में साथ में ही रहते थे पर सौतेली माँ का व्यवहार देखकर कौंडिन्य मुनि वह आश्रम छोड़ कर चले गए ! जब आश्रम का परित्याग कर आगे बढ़े तो एक नदी के तट पर कौंडिन्य मुनि स्नान हेतु रुक गए !
कौंडिन्य मुनि स्नान कर रहे थे तभी कुछ स्त्रियों का झुण्ड उस नदी पर अन्नत पूजन करने को आया तो शीला उस झुण्ड में शामिल हो गई और उनसे उस व्रत के बारे में पूछा ! ये कौन सा व्रत हैं ? और इसे कैसे और क्यू करते हैं ?
तब वहाँ उपस्थित स्त्रियों ने उस व्रत की सारी महिमा का व्याख्यान किया !
उन्होंने कहा कि - यह अनंत चतुर्दशी का व्रत हैं ! और इस व्रत को करने से मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती हैं !
इस व्रत को करने के लिए नित्य कर्म आदि से निवृत होकर, स्नान कर कुछ विशेष प्रसाद में घरगा और अनरसे का विशेष भोजन तैयार किया जाता हैं !
आधा भोजन ब्रह्मण को दान में दिया जाता हैं! यह पूजा किसी नदी या सरोवर के किनारे होती हैं ! इसलिए हम सब यहाँ आये है!
दूभ या दूर्वा से नाग का आकर बनाया जाता हैं जिसे बांस के टोकरी में रखकर लाते हैं! और फिर इस नाग शेष अवतार की फूल और अगरबत्ती आदि से पूजा की जाती हैं! 
दीप धुप से पूजन के बाद एक सिल्क का सूत्र भगवान को चढाते हैं जो की पूजा के बाद कलाई या भुजा में पहन लिया जाता हैं ! यह सूत्र ही अनंत सूत्र हैं ! 
इस अनंत के सूत्र में १४ गाँठे होती हैं, और इसे कुमकुम से रंग कर स्त्रियाँ दाहिने हाथ में और पुरुष बाएं हाथ में पहनते हैं !
यह अनंत सूत्र बाँधने और पूजन से सुख सौभाग्य में वृद्धी के साथ दैवीय वैभव की प्राप्ति भी होती हैं ! 
यह सब विधि पूजन सुनने के बाद शीला भी उस व्रत को करने का संकल्प ले वह व्रत करती हैं और अनंत सूत्र को अपने बाहु में बांध लेती हैं !
शीला ने भाद्र पद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत भगवान् का व्रत किया और अनंत सूत्र अपने बांये हाथ में अनंत सूत्र को बाँध लिया ! 
भगवान् अंनत की कृपा से शीला और कौंडिन्य के घर में सभी प्रकार की सुख - समृद्धि आ गई ! उनका जीवन सुखमय हो गया !
एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने यह क्या बांधा हैं? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया - जी, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। यह पूजन आरम्भ करने के बाद ही हमे यह वैभव और सुख प्राप्त हुआ हैं !
परन्तु परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा ! उस वैभव का कारण उन्होंने अपने परिश्रम और बुद्धिमता को बताया ! और अनन्त सूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझा !
और दुर्भाग्यवश एक दिन कौंडिन्य मुनि ने क्रोध में आकर शीला के हाथ में बंधा अनंत सूत्र तोड़कर आग में फेंक दिया !
इससे उनकी सब धन और संपत्ति नष्ट हो गई और वे बहुत दुखी रहने लगे ! कौंडिन्य मुनि को अब भाष हो गया था कि वह सारा वैभव अनंत व्रत के प्रभाव से ही था !
उन्होंने तभी संकल्प किया कि वह अपने इस गलत कृत का प्रायश्चित करेंगे और तब तक ताप करेंगे जब तक कि भगवान अनंत स्वयं उन्हें दर्शन न दे दे !
एक दिन दुखी होकर कौंडिन्य मुनि वन में चले गए ! वन में उन्होंने देखा कि एक आम का वृक्ष पके हुए आम से भरा पीडीए हैं पर कोई भी उसके फल को नहीं खा रहा हैं ! तब पास आकर देखा तो उस पुरे वृक्ष पर कीड़े लगे थे ! उस वृक्ष से कौंडिन्य मुनि ने पूछा की आपने अनंत भगवान् को देखा है ?
लेकिन उत्तर ऋणात्मक ही मिला ! 
आगे जाने पर उन्होंने देखा कि एक गाय और उसके बछड़े को, आगे और जाने पर एक बैल मिला सब एक हरे भरे मैदान में थे पर कोई भी घास नहीं खा रहा था ! फिर आगे जाने पर दो नदियों को देखा जो एक दूसरे से एक किनारे पर मिल रही थी ! पर उसके पानी को भी कोई नहीं ले रहा था ! इस प्रकार सभी से उन लता, वृक्ष, जीव - जंतुओं, से अनंत भगवान का पता पूछने लगे ! पर सब ने मन कर दिया तब वह निराश हो अपने जीवन का अंत करने की सोच आगे बड़े तो दयानिधि भगवान् अनंत वृद्ध ब्राह्मण के रूप में कौंडिन्य मुनि को दर्शन दिया और अनन्त व्रत करने को कहा !
भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्यमुनिने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
शीला और कौंडिन्य मुनि ने अनंत व्रत को किया और वे पुनह सुख पूर्वक रहने लगे ! इस् व्रत को करने से मुक्ति और भुक्ति दोनों की उपलब्धि होती हैं !
अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

सोया भाग्य

एक व्यक्ति जीवन से हर प्रकार से निराश था | लोग उसे मनहूस के नाम से बुलाते थे |
एक ज्ञानी पंडित ने उसे बताया कि तेरा भाग्य फलां पर्वत पर सोया हुआ है , तू उसे जाकर जगा ले तो भाग्य तेरे साथ हो जाएगा |
बस ! फिर क्या था वो चल पड़ा अपना सोया भाग्य जगाने |
रास्ते में जंगल पड़ा तो एक शेर उसे खाने को लपका , वो बोला भाई ! मुझे मत खाओ , मैं अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा हूँ |
शेर ने कहा कि तुम्हारा भाग्य जाग जाये तो मेरी एक समस्या है , उसका समाधान पूछते लाना | मेरी समस्या ये है कि मैं कितना भी खाऊं ... मेरा पेट भरता ही नहीं है , हर समय पेट भूख की ज्वाला से जलता रहता है |
मनहूस ने कहा-- ठीक है |
आगे जाने पर एक किसान के घर उसने रात बिताई | बातों बातों में पता चलने पर कि वो अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा है , किसान ने कहा कि मेरा भी एक सवाल है .. अपने भाग्य से पूछकर उसका समाधान लेते आना ... मेरे खेत में , मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ ... पैदावार अच्छी होती ही नहीं | मेरी शादी योग्य एक कन्या है , उसका विवाह इन परिस्थितियों में मैं कैसे कर पाऊंगा ?
मनहूस बोला -- ठीक है |
और आगे जाने पर वो एक राजा के घर मेहमान बना |
रात्री भोज के उपरान्त राजा ने ये जानने पर कि वो अपने भाग्य को जगाने जा रहा है , उससे कहा कि मेरी परेशानी का हल भी अपने भाग्य से पूछते आना | मेरी परेशानी ये है कि कितनी भी समझदारी से राज्य चलाऊं... मेरे राज्य में अराजकता का बोलबाला ही बना रहता है |
मनहूस ने उससे भी कहा -- ठीक है |
अब वो पर्वत के पास पहुँच चुका था | वहां पर उसने अपने सोये भाग्य को झिंझोड़ कर जगाया--- उठो ! उठो ! मैं तुम्हें जगाने आया हूँ | उसके भाग्य ने एक अंगडाई ली और उसके साथ चल दिया | उसका भाग्य बोला -- अब मैं तुम्हारे साथ हरदम रहूँगा |
अब वो मनहूस न रह गया था बल्कि भाग्यशाली व्यक्ति बन गया था और अपने भाग्य की बदौलत वो सारे सवालों के जवाब जानता था |
वापसी यात्रा में वो उसी राजा का मेहमान बना और राजा की परेशानी का हल बताते हुए वो बोला -- चूँकि तुम एक स्त्री हो और पुरुष वेश में रहकर राज - काज संभालती हो , इसीलिए राज्य में अराजकता का बोलबाला है | तुम किसी योग्य पुरुष के साथ विवाह कर लो , दोनों मिलकर राज्य भार संभालो तो तुम्हारे राज्य में शांति स्थापित हो जाएगी |
रानी बोली -- तुम्हीं मुझ से ब्याह कर लो और यहीं रह जाओ |
भाग्यशाली बन चुका वो मनहूस इन्कार करते हुए बोला -- नहीं नहीं ! मेरा तो भाग्य जाग चुका है | तुम किसी और से विवाह कर लो | तब रानी ने अपने मंत्री से विवाह किया और सुखपूर्वक राज्य चलाने लगी | कुछ दिन राजकीय मेहमान बनने के बाद उसने वहां से विदा ली |
चलते चलते वो किसान के घर पहुंचा और उसके सवाल के जवाब में बताया कि तुम्हारे खेत में सात कलश हीरे जवाहरात के गड़े हैं , उस खजाने को निकाल लेने पर तुम्हारी जमीन उपजाऊ हो जाएगी और उस धन से तुम अपनी बेटी का ब्याह भी धूमधाम से कर सकोगे |
किसान ने अनुग्रहित होते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ , तुम ही मेरी बेटी के साथ ब्याह कर लो |
पर भाग्यशाली बन चुका वह व्यक्ति बोला कि नहीं !नहीं ! मेरा तो भाग्योदय हो चुका है , तुम कहीं और अपनी सुन्दर कन्या का विवाह करो | किसान ने उचित वर देखकर अपनी कन्या का विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा |
कुछ दिन किसान की मेहमाननवाजी भोगने के बाद वो जंगल में पहुंचा और शेर से उसकी समस्या के समाधानस्वरुप कहा कि यदि तुम किसी बड़े मूर्ख को खा लोगे तो तुम्हारी ये क्षुधा शांत हो जाएगी |
शेर ने उसकी बड़ी आवभगत करी और यात्रा का पूरा हाल जाना |
सारी बात पता चलने के बाद शेर ने कहा कि भाग्योदय होने के बाद इतने अच्छे और बड़े दो मौके गंवाने वाले ऐ इंसान ! तुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ? तुझे खाकर ही मेरी भूख शांत होगी |
और इस तरह वो इंसान शेर का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त हुआ |
सच है ----
यदि आपके पास सही मौका परखने का विवेक और अवसर को पकड़ लेने का ज्ञान नहीं है तो भाग्य भी आपके साथ आकर
आपका कुछ भला नहीं कर सकता |.

सम्बन्ध

बहु यह कौन था ? मैत्री की सास ने पूछा।
कौन मम्मी? मैत्री बोली।
अरे वही जो आज दोपहर तुमसे मिलने आया था।
अरे वो। वो मेरा दोस्त है,हम बचपन से साथ पढ़ें हैं।
तो अब क्यों आया यह तुमसे मिलने?
मम्मी उसकी बहन की शादी का न्योता देने आया था।
सास पुराने ख्यालों वाली थीं। मन में शक कर बैठी।
शाम जब उनका बेटा महेश दफ्तर से लौटा तब उन्होंने उससे कहा,बेटा आज कोई बहु से मिलने आया था। जाने कौन था।
महेश को गुस्सा आया उसने मैत्री को बुलाया और पूछताछ की। मैत्री ने वही बताया ।
कुछ दिनों तक घर का माहौल बिगाड़ा बिगड़ा सा रहा।
कुछ दिनो बाद महेश से मिलने कोई महिला आई। बहुत ही सुंदर थी ।
सास ने मैत्री को बुलाकर कहा बहु यह महेश की दोस्त है चाय नाश्ता लाओ ।
मैत्री का दिल तो करा कि अपनी सास से पूछे की इस सुंदर महिला से उनके बेटे का क्या रिश्ता था। पर वह चुप रही।
सास की इस दोहरी मानसिकता को समझने की कोशिश करने लगी।

Sunday, 13 September 2015

"महात्मा जी की बिल्ली"

एक बार एक महात्माजी अपने कुछ शिष्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर रहते थें, एक दिन कहीं से एक बिल्ली का बच्चा रास्ता भटककर आश्रम में आ गया । महात्माजी ने उस भूखे प्यासे बिल्ली के बच्चे को दूध-रोटी
खिलाया । वह बच्चा वहीं आश्रम में रहकर पलने लगा। लेकिन उसके आने के बाद महात्माजी को एक समस्या उत्पन्न हो गयी कि जब वे सायं ध्यान में बैठते तो वह बच्चा कभी उनकी गोद में चढ़ जाता, कभी कन्धे या सिर पर बैठ जाता । तो महात्माजी ने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा देखो मैं जब सायं ध्यान पर बैठू, उससे पूर्व तुम इस बच्चे को दूर एक पेड़ से बॉध आया करो। अब तो यह नियम हो गया, महात्माजी के ध्यान पर बैठने से पूर्व वह बिल्ली का बच्चा पेड़ से बॉधा जाने लगा । एक दिन महात्माजी की मृत्यु हो गयी तो उनका एक प्रिय काबिल शिष्य उनकी गद्दी पर बैठा । वह भी जब ध्यान पर बैठता तो उससे पूर्व बिल्ली का बच्चा पेड़ पर बॉधा जाता । फिर एक दिन तो अनर्थ हो गया, बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी कि बिल्ली ही खत्म हो गयी। सारे शिष्यों की मीटिंग हुयी, सबने विचार विमर्श किया कि बड़े महात्माजी जब तक बिल्ली पेड़ से न बॉधी जाये, तब तक ध्यान पर नहीं बैठते थे। अत: पास के गॉवों से कहीं से भी एक बिल्ली लायी जाये। आखिरकार काफी ढॅूढने के बाद एक बिल्ली मिली, जिसे पेड़ पर बॉधने के बाद महात्माजी ध्यान पर बैठे।
विश्वास मानें, उसके बाद जाने कितनी बिल्लियॉ मर चुकी और न जाने कितने महात्माजी मर चुके। लेकिन आज भी जब तक पेड़ पर बिल्ली न बॉधी जाये, तब तक महात्माजी ध्यान पर नहीं बैठते हैं। कभी उनसे पूछो तो कहते हैं यह तो परम्परा है। हमारे पुराने सारे गुरुजी करते रहे, वे सब गलत तो नहीं हो सकते । कुछ भी हो जाये हम अपनी परम्परा नहीं छोड़ सकते।
यह तो हुयी उन महात्माजी और उनके शिष्यों की बात । पर कहीं न कहीं हम सबने भी एक नहीं; अनेकों ऐसी बिल्लियॉ पाल रखी हैं । कभी गौर किया है इन बिल्लियों पर ?सैकड़ों वर्षो से हम सब ऐसे ही और कुछ अनजाने तथा कुछ चन्द स्वार्थी तत्वों द्वारा निर्मित परम्पराओं के जाल में जकड़े हुए हैं।
ज़रुरत इस बात की है कि हम ऐसी परम्पराओं और अॅधविश्वासों को अब और ना पनपने दें , और अगली बार ऐसी किसी चीज पर यकीन करने से पहले सोच लें की कहीं हम जाने – अनजाने कोई अन्धविश्वास रुपी बिल्ली तो नहीं पाल रहे ?

श्री गुरु नानक देव जी

एक बार श्री गुरु नानक देव जी जगत का उद्धार करते हुए एक गाँव के बाहर पहुँचे और देखा वहाँ एक झोपड़ी बनी हुई थी। उस झोपड़े में एक आदमी रहता था, जिसे कुष्‍ठ का रोग था। गाँव के सारे लोग उससे नफरत करते थे कोई उसके पास नहीं आता था। कभी किसी को दया आ
जाती तो उसे खाने के लिए कुछ दे देते।
गुरुजी उस कोढ़ी के पास गए और कहा- भाई हम आज रात तेरी झोपड़ी में रहना चाहते है अगर तुझे कोई परेशानी ना हो तो। कोढ़ी हैरान हो गया क्योंकि उसके तो पास में कोई आना नहीं चाहता था। फिर उसके घर में रहने के लिए कोई राजी कैसे हो गया?
कोढ़ी अपने रोग से इतना दुखी था कि चाह कर भी कुछ ना बोल सका। सिर्फ गुरुजी को देखता ही रहा। लगातार देखते-देखते ही उसके शरीर में कुछ बदलाव आने लगे, पर कह नहीं पा रहा था। गुरुजी ने मरदाना को कहा- रबाब बजाओ और गुरुजी उस झोपड़ी में बैठ कर कीर्तन करने लगे। कोढ़ी ध्यान से कीर्तन सुनता रहा। कीर्तन समाप्त होने पर कोढ़ी के हाथ जुड़ गए जो ठीक से हिलते भी नहीं थे। उसने गुरुजी के चरणों में अपना माथा टेका।
गुरुजी ने कहा-'और भाई ठीक हो, यहाँ गाँव के बाहर झोपड़ी क्यों बनाई है?'कोड़ी ने कहा-'मैं बहुत बदकिस्मत हूँ, मुझे कुष्ठ रोग हो गया है, मुझसे कोई बात नहीं करता यहाँ तक कि मेरे घर वालो ने भी मुझे घर से निकाल दिया है। मैं नीच हूँ इसलिए कोई मेरे पास नहीं आता।'
उसकी बात सुन कर गुरुजी ने कहा-'नीच तो वो लोग है जिन्होंने तुम जैसे रोगी पर दया नहीं की और अकेला छोड़ दिया।'आ मेरे पास मैं भी तो देखूँ... कहाँ है तुझे कोढ़? जैसे ही गुरुजी ने ये वचन कहे कोढ़ी गुरुजी के नजदीक आया तो प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि कोढ़ी बिलकुल ठीक हो गया।
यह देख वह गुरुजी के चरणों में गिर गया। गुरुजी ने उसे उठाया और गले से लगा के कहा-'प्रभु का स्मरण करो और लोगों की सेवा करो यही मनुष्य के जीवन का मुख्य कार्य है।'

बातचीत से भी अच्छे हल निकाले

एक बार की बात है एक राजा था। उसका एक बड़ा-सा राज्य था। एक दिन उसे देश घूमने का विचार आया और उसने देश भ्रमण की योजना बनाई और घूमने निकल पड़ा। जब वह यात्रा से लौट कर अपने महल आया। उसने अपने मंत्रियों से पैरों में दर्द होने की शिकायत की। राजा का कहना था कि मार्ग में जो कंकड़ पत्थर थे वे मेरे पैरों में चुभ गए और इसके लिए कुछ इंतजाम करना चाहिए।
कुछ देर विचार करने के बाद उसने अपने सैनिकों व मंत्रियों को आ
देश दिया कि देश की संपूर्ण सड़कें चमड़े से ढंक दी जाएं। राजा का ऐसा आदेश सुनकर सबसकते में आ गए। लेकिन किसी ने भी मना करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह तो निश्चित ही था कि इस काम के लिए बहुत सारे रुपए की जरूरत थी। फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा।
कुछ देर बाद राजा के एक बुद्घिमान मंत्री ने एक युक्ति निकाली। उसने राजा के पास जाकर डरते हुए कहा कि मैं आपको एक सुझाव देना चाहता हूं। अगर आप इतने रुपयों को अनावश्यक रूप से बर्बाद न करना चाहें तो एक अच्छी तरकीब मेरे पास है। जिससे आपका काम भी हो जाएगा और अनावश्यक रुपयों की बर्बादी भी बच जाएगी।
राजा आश्चर्यचकित था क्योंकि पहली बार किसी ने उसकी आज्ञा न मानने की बात कही थी। उसने कहा बताओ क्या सुझाव है। मंत्री ने कहा कि पूरे देश की सड़कों को चमड़े से ढंकने के बजाय आप चमड़े के एक टुकड़े का उपयोग कर अपने पैरों को ही क्यों नहीं ढंक लेते। राजा ने अचरज की दृष्टि से मंत्री को देखा और उसके सुझाव को मानते हुए अपने लिए जूता बनवाने का आदेश दे दिया।
यह कहानी हमें एक महत्वपूर्ण पाठ सिखाती है कि हमेशा ऐसे हल के बारे में सोचना चाहिए जो ज्यादा उपयोगी हो। जल्दबाजी में अप्रायोगिक हल सोचना बुद्धिमानी नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत से भी अच्छे हल निकाले जा सकते हैं।

प्रेम, धन और सफलता

एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई और उसने तीन संतों को अपने घर के सामने देखा। वह उन्हें जानती नहीं थी। औरत ने कहा – “कृपया भीतर आइये और भोजन करिए।”
संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?”
औरत ने कहा – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।”
संत बोले – “हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर हों।”
शाम को उस औरत का पति घर आया और औरत ने उसे यह सब बताया।
औरत के पति ने कहा – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया हूँ और उनको आदर सहित बुलाओ।”
औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के लिए कहा।
संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।”
“पर क्यों?” – औरत ने पूछा।
उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है” – फ़िर दूसरे संतों की ओर इशारा कर के कहा – “इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं। हममें से कोई एक ही भीतर आ सकता है। आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर लें कि भीतर किसे निमंत्रित करना है।”
औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब बताया। उसका पति बहुत प्रसन्न हो गया और बोला – “यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित करना चाहिए। हमारा घर खुशियों से भर जाएगा।”
लेकिन उसकी पत्नी ने कहा – “मुझे लगता है कि हमें सफलता को आमंत्रित करना चाहिए।”
उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी। वह उनके पास आई और बोली – “मुझे लगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।”
“तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम को ही बुलाना चाहिए” – उसके माता-पिता ने कहा।
औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा – “आप में से जिनका नाम प्रेम है वे कृपया घर में प्रवेश कर भोजन गृहण करें।”
प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने लगे।
औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा – “मैंने तो सिर्फ़ प्रेम को आमंत्रित किया था। आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?”
उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और सफलता में से किसी एक को आमंत्रित किया होता तो केवल वही भीतर जाता। आपने प्रेम को आमंत्रित किया है। प्रेम कभी अकेला नहीं जाता। प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता उसके पीछे जाते हैं।