Wednesday, 28 October 2015

सुख - दुख क्या है

जीवन में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिए प्रयत्न करता है परंतु सुख से पूर्व दुख क्यों आता है ? वास्तविकता में दुख तो है ही नहीं । जो मन के अनुकूल होता है वह सुख है और जो मन के प्रतिकूल होता है वह दुख लगता है । अत: सुख और दुख मन:स्थिति है ।
ये संसार परमात्मा का है । संसार में हम सब परमात्मा के अंश है । अत: भगवान हमारे हैं । अपने भगवान के संसार में सब कुछ प्रभु का है, 'मेरा' कुछ भी नहीं है । किसी भी व्यक्ति या वस्तु से 'मेरा' संबंध कटते ही दुख कटता है और सुख आ जाता है ।
शिक्षा - हमारे भगवान का संसार दुख रूप तो हो ही नहीं सकता । भगवान कभी दर्द तो हे ही नहीं सकते । वे तो सच्चिदानंद हैं, आनंदमय हैं, सबको आनंद ही आनंद देते है और चेतन ही आनंद उठाता है । अत: अपने को चेतन बनाना है । अपने तार भगवान से जोड़ने से ही भगवान से संबंध जुड़ जाता है और आनंद का लाभ उठाया जा सकता है । सत्संग के अभाव में अथवा बुद्धि की अपरिपक्वता में व्यक्ति जिद्दी हो जाता है और कहने लगता है कि "मैं जो कहता हूं वही सत्य है, अपितु होना यह चाहिए कि जो सत्य है वही मैं कहता हूं।"हम सत्य की संतान हैं। अत: सत्य का पालन करें ।

Sunday, 25 October 2015

(सत्संग की महिमा

मनुष्य के जीवन मे अशांति ,परेशानियां तब शुरु हो जाती है जब मनुष्य के जीवन मे सत्संग नही होता-- मनुष्य जीवन को जीता चला जा रहा है लेकिन मनुष्य ईस बारे मे नही सोचता की जीवन को कैसे जीना चाहिये--
मनुष्य ने धन कमा लिया,मकान बना लिया,शादी घर परिवार बच्चे सब हो गये,,गाडी खरीद ली-- ये सब कर लेने के बाद भी मनुष्य का जीवन सफल नही हो पायेगा क्योकि जिसके लिए ये जीवन मिला उसको तो मनुष्य ने समय दिया ही नही ओर संसार की वस्तुएं जुटाने मे समय नष्ट कर दिया---
जीवन मिला था प्रभु का होने ओर प्रभु को पाने के लिए लेकिन मनुष्य माया का दास बनकर माया की प्राप्ति के लिए ईधर उधर भटकने लगता है---ओर ईस तरह मनुष्य का ये कीमती जीवन नष्ट हो जाता है--
जिस अनमोल रतन मानव जीवन को पाने के लिए देवता लोग भी तरसते रहते है उस जीवन को मनुष्य व्यर्थ मे गवां देता है--
देवता लोगो के पास भोगो की कमी नही है लेकिन फिर भी देवता लोग मनुष्य जीवन जीना चाहते है क्योकि मनुष्य देह पाकर ही भक्ति का पुर्ण आनंद ओर भगवान की सेवा ओर हरि कृपा से सत्संग का सानिध्य मिलता है--
संतो के संग से मिलने वाला आनंद तो बैकुण्ठ मे भी दुर्लभ है-- कबीर जी कहते है की-- राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोय ,,, जो सुख साधू संग में , सो बैकुंठ न होय !!--------
रामचरितमानस मे भी लिखा है की--
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरि तुला एक अंग। तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये ते भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से मिलता है।'
सत्संग की बहुत महिमा है,, सत्संग तो वो दर्पण है जो मनुष्य के चरित्र को दिखाता है ओर साथ साथ चरित्र को सुधारता भी है--
सत्संग से मनुष्य को जीवन जीने का तरीका पता चलता है--
सत्संग से ही मनुष्य को अपने वास्तविक कर्यव्य का पता चलता है--
मानस मे लिखा है की---
सतसंगत मुद मंगल मुला,सोई फल सिधि सब साधन फूला---
अर्थातद सत्संग सब मङ्गलो का मूल है,,जैसे फुल से फल ओर फल से बीज ओर बीज से वृक्ष होता है उसी प्रकार सत्संग से विवेक जागृत होता है ओर विवेक जागृत होने के बाद भगवान से प्रेम होता है ओर प्रेम से प्रभु प्राप्ति होती है--
जिन्ह प्रेम किया तिन्ही प्रभु पाया--- सत्संग से मनुष्य के करोडो करोडो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है,--
सत्संग से मनुष्य का मन बुद्धि शुद्ध होती है--
सत्संग से ही भक्ति मजबुत होती है--
भक्ति सुतंत्र सकल सुखखानि,,बिनु सत्संग न पावहि प्राणी--- भगवान की जब कृपा होती है तब मनुष्य को सत्संग ओर संतो का संग प्राप्त होता है--
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन--
बिनु हरि कृपा न होई सो गावहि वेद पुरान--
--- एक क्षण का सत्संग भी दुर्लभ होता है ओर एक क्षण के सत्संग से मनुष्य के विकार नष्ट हो जाते है,,,---
एक घडी आधी घडी आधी मे पुनि आध--
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध---
सत्संग मे बतायी जाने वाली बातो को जीवन मे धारण करने पर भी आनंद की प्राप्ति ओर प्रभु से प्रीति होती है --- आज मनुष्य की मन ओर बुद्धि विकारो मे फंसती जा रही है,--
मनुष्य हरपल चिंतित रहने लगता है,,ओर हमेशा परेशान रहता है--
ईन सबका कारण अज्ञानता है,--
भगवान ने ये अनमोल रत्न मानव जीवन अशांत रहने के लिए नही दिया--
जब कोई मशीन हम घर पर लेकर आते है तो उसके साथ एक बुकलेट मिलती है जिसमे मशीन को कैसे चलाना है ईस बारे मे लिखा होता है उसी प्रकार भगवान ने ये मानव जीवन दिया ओर ईस मानव जीवन को सफल कैसे करना है ये हमे सत्संग ओर शास्त्रो से पता चलता है ईसलिए जीवन से सत्संग को अलग नही करना चाहिये क्योकि जब सत्संग जीवन मे नही रहेगा तो संसार के प्रति आकर्षण बढेगा ओर संसार के प्रति मोह मनुष्य के जीवन को विनाश की तरफ ले जाता है--
सत्संग की अग्नि मे मनुष्य के सारे विकार नष्ट हो जाते है---
आनंद कहीं बाहर नही है,,वो भीतर ही है लेकिन मनुष्य ने मन के चारो तरफ संसार के मोह की चादर लपेट रखी है ईसलिए वो आनंद ढक जाता है ओर महसुस नही होता--
ओर जब सत्संग से वो मोह रुपि चादर हट जाती है तो आनंद मिलने लगता है ---
जैसे मूर्तिकार पत्थर को तराशता है ओर पत्थर से गंदगी हटाकर उसे मुर्ति का रुप देता है उसी प्रकार जीवन मे जो अशांति,,परेशानी,, विकार आदि रहते है उनको सत्संग हटा देता है ओर मनुष्य का एक निर्मल चरित्र बना देता है------
---- जाने बिनु न होई परतीति , बिनु परतीति होई नहीं प्रीती----
भगवान के प्रति पुर्ण समर्पण तब तक नही होगा जब तक विवेक नही होगा--
ओर बिनु सत्संग विवेक न होई---
मनुष्य का कर्तव्य क्या ओर अकर्तव्य क्या ये सब सत्संग से पता चलता है--- भागवत के ग्यारहवें स्कंध मे भगवान उद्धव से कहते है की संसार के प्रति सभी आसक्तियां सत्संग नष्ट कर देता है,,, भगवान कहते है की हे उद्धव,,मै यज्ञ,,वेद,,तीर्थ,तपस्या ,त्याग से वश मे नही होता लेकिन सत्संग से मै जल्दी ही भक्तो के वश मे हो जाता हूं----
ईसलिए सत्संग की बहूत महिमा है---
जीवन मे सत्संग को हमेशा बनाए रखना चाहिये ओर जब भी ओर जहां भी सत्संग सुनने या जाने का मौका मिले तो दूनियावालो की परवाह किये बिना ही पहूंच जाना चाहिये क्योकि सत्संग बहुत दुर्लभ है ओर जिसे सत्संग मिलता है उसपर विशेष कृपा होती है भगवान की---

Tuesday, 20 October 2015

प्रेरक कथा -

जो होता है अच्छा होता है l
समुद्र के किनारे एक गांव था। जहां अमूमन मछुआरे रहते थे। वह अपनी नावें लेकर दूर-दूर तक गहरे समुद्र की ओर निकल पड़ते। एक दिन ऐसी ही स्थिति में तूफान आ गया। मछुआरों की नावें रास्ता भटक गईं। ऐसे में मछुआरों के परिजन समुद्र किनारे आकर उनके सकुशल की उम्मीद करने लगे। वे सभी दुःखी थे। तभी एक और दुःखद घटना घट गई।
एक मछुआरे की झोपड़ी में आग लग गई। महिलाओं ने आग बुझाने की कोशिश की लेकिन वो नाकाम रहीं। सुबह हुई सभी मछुआरे वापस आ गए। लेकिन जिस घर में आग लगी थी। उस मछुआरे की पत्नी ने अपने पति से कहा, हम बर्बाद हो चुके हैं क्योंकि कल रात हमारे घर में आग लग गई थी। अब कुछ भी नहीं बचा है।
यह सुनकर उसके पति के खुशी का ठिकाना न रहा वह बोला ईश्वर का धन्यवाद हो, 'रात में जलती हुई झोपड़ी देखकर ही तो हम अपनी नावें किनारे पर लगा पाए। अगर ऐसा नहीं होता तो हम समु्द्र में खो जाते।' संक्षेप में जो होता है अच्छा होता है, बस आपका नजरिया उस अच्छे को सही दिशा में पहचान ले।

Saturday, 10 October 2015

नौ ग्रहों में शनिदेव विशेष

महाराष्ट्र में एक छोटा सा गांव है शिंगणापुर, जहां आज भी किसी भी घर में दरवाजे नहीं है । घरों में दरवाजे न होने के बावजूद यहां चोरी की घटनाएं नहीं होती हैं, क्योंकि यहां ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति यहां चोरी करेगा उसे स्वयं शनि देव जी सजा देंगे । इस स्थान पर शनि की विशेष कृपा है । शास्त्रों के अनुसार शिंगणापुर में ही शनिदेव का जन्म हुआ था । शिंगणापुर में शनि देव की एक विशाल प्रतिमा है । इस मूर्ति का रंग काला है । इसकी लंबाई लगभग 5 फीट 9 इंच है और चौड़ाई करीब 1 फीट 6 इंच । शनि के जन्म के संबंध में शास्त्रों में बताया गया है कि शनिदेव सूर्यदेव के पुत्र हैं । सूर्य की पत्नी छाया ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की । तपस्या की कठोरता और धूप-गर्मी के कारण छाया के गर्भ में पल रहे शिशु का रंग काला पड़ गया । तपस्या के प्रभाव से ही छाया के गर्भ से शनिदेव का जन्म शिंगणापुर में हुआ । इस दिन ज्येष्ठ मास की अमावस्या थी । शनिदेव के जन्म के बाद जब सूर्य अपनी छाया और पुत्र से मिलने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पुत्र का रंग काला है । काले शिशु को देखकर सूर्य ने पत्नी छाया से संदेह प्रकट किया कि इतना काला शिशु उनका नहीं हो सकता है । सूर्य की कठोरता देखकर शनि के मन में माता के लिए श्रद्धा बढ़ गई और पिता सूर्य के लिए क्रोध बढऩे लगा, तभी से शनि सूर्य के प्रति शत्रुभाव रखते हैं । शनि ने सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और पराक्रमी बनने की इच्छा से शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की । शनि की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें वरदान मांगने के लिए कहा । तब शनि ने शिवजी से कहा कि उनके पिता सूर्य से उन्हें तथा उनकी माता को हमेशा अपमानित होना पड़ा है । अत: आप मुझे सूर्यदेव से भी अधिक शक्तियां और ऊंचा पद प्रदान करें । शिवजी ने शनि की विनती मानकर उन्हें न्यायाधीश का पद प्रदान किया और सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और शक्तिशाली होने का वरदान दिया । तभी से शनि का स्थान सभी नौ ग्रहों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया ।

मृत्यु से भय कैसा

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ । अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था । तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की ।

राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया । संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी । जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे । वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा ।

रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया । वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था । अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी ।

उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की ।

बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता । मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा ।

राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा । उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है ।

बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया ।

राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा ।
वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा । इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा । राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर विवाद खड़ा हो गया ।

कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा,
"परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ?"

परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।"

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा,
"हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूत्र की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?

राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।

वास्तव में यही सत्य है । जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ
(इस कोख) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया
(और पैदा होते ही रोने लगता है) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जा ती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।

यह मेरी भी कथा है और आपकी भी।

Friday, 9 October 2015

प्रार्थना और भगवान

यह एक सत्य कहानी है । डा. मार्क एक प्रसिद्ध कैंसर स्पेलिस्ट हैं, एक बार किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए किसी दूर के शहर जा रहे थे । वहां उनको उनकी नई मैडिकल रिसर्च के महान कार्य के लिए पुरुस्कृत किया जाना था । वे बड़े उत्साहित थे व जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना चाहते थे । उन्होंने इस शोध के लिए बहुत मेहनत की थी । बड़ा उतावलापन था, उनका उस पुरुस्कार को पाने के लिए । उड़ने के लगभग दो घण्टे बाद उनके जहाज़ में तकनीकी खराबी आ गई, जिसके कारण उनके हवाई जहाज को आपातकालीन लैंडिंग करनी पड़ी । डा. मार्क को लगा कि वे अपने सम्मेलन में सही समय पर नहीं पहुंच पाएंगे, इसलिए उन्होंने स्थानीय कर्मचारियों से रास्ता पता किया और एक टैक्सी कर ली, सम्मेलन वाले शहर जाने के लिए । उनको पता था की अगली प्लाईट 10 घण्टे बाद है । टैक्सी तो मिली लेकिन ड्राइवर के बिना इसलिए उन्होंने खुद ही टैक्सी चलाने का निर्णय लिया । जैसे ही उन्होंने यात्रा शुरु की कुछ देर बाद बहुत तेज, आंधी-तूफान शुरु हो गया । रास्ता लगभग दिखना बंद सा हो गया । इस आपा-धापी में वे गलत रास्ते की ओर मुड़ गए । लगभग दो घंटे भटकने के बाद उनको समझ आ गया कि वे रास्ता भटक गए हैं । थक तो वे गए ही थे, भूख भी उन्हें बहुत ज़ोर से लग गई थी । उस सुनसान सड़क पर भोजन की तलाश में वे गाड़ी इधर-उधर चलाने लगे । कुछ दूरी पर उनको एक झोंपड़ी दिखी । झोंपड़ी के बिल्कुल नजदीक उन्होंने अपनी गाड़ी रोकी । परेशान से होकर गाड़ी से उतरे और उस छोटे से घर का दरवाज़ा खटखटाया । एक स्त्री ने दरवाज़ा खोला । डा. मार्क ने उन्हें अपनी स्थिति बताई और एक फोन करने की इजाजत मांगी । उस स्त्री ने बताया कि उसके यहां फोन नहीं है । फिर भी उसने उनसे कहा कि आप अंदर आइए और चाय पीजिए । मौसम थोड़ा ठीक हो जाने पर, आगे चले जाना । भूखे, भीगे और थके हुए डाक्टर ने तुरंत हामी भर दी । उस औरत ने उन्हें बिठाया, बड़े सम्मान के साथ चाय दी व कुछ खाने को दिया । साथ ही उसने कहा, "आइए, खाने से पहले भगवान से प्रार्थना करें और उनका धन्यवाद कर दें ।" डाक्टर उस स्त्री की बात सुन कर मुस्कुरा दिेए और बोले, "मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता । मैं मेहनत पर विश्वास करता हूं । आप अपनी प्रार्थना कर लें ।" उस स्त्री ने कहा आप मुझसे ज्यादा काबिल और समझदार है पर मेरा मानना है मेहनत का श्रेय भी उसका ही दया है । डॉ को उस स्त्री की बात बचकानी लगी और वह स्त्री प्रार्थना में जुट गयी । टेबल से चाय की चुस्कियां लेते हुए डाक्टर उस स्त्री को देखने लगे जो अपने छोटे से बच्चे के साथ प्रार्थना कर रही थी । उसने कई प्रकार की प्रार्थनाएं की । डाक्टर मार्क को लगा कि हो न हो, इस स्त्री को कुछ समस्या है । जैसे ही वह औरत अपने पूजा के स्थान से उठी, तो डाक्टर ने पूछा, "आपको भगवान से क्या चाहिये ? क्या आपको लगता है कि भगवान आपकी प्रार्थनाएं सुनेंगे ?" उस औरत ने धीमे से उदासी भरी मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा, "ये मेरा लड़का है और इसको एक रोग है जिसका इलाज डाक्टर मार्क नामक व्यक्ति के पास है परंतु मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं उन तक, उनके शहर जा सकूं क्योंकि वे दूर किसी शहर में रहते हैं । यह सच है कि भगवान ने अभी तक मेरी किसी प्रार्थना का जवाब नहीं दिया किंतु मुझे भरोसा है कि भगवान एक न एक दिन कोई रास्ता बना ही देंगे । वे मेरा भरोसा टूटने नहीं देंगे । वे अवश्य ही मेरे बच्चे का इलाज डा. मार्क से करवा कर इसे स्वस्थ कर देंगे ।" डाक्टर मार्क तो सन्न रह गए । वे कुछ पल बोल ही नहीं पाए । आंखों में आंसू लिए धीरे से बोले, "GOD IS GREAT।" (उन्हें सारा घटनाक्रम याद आने लगा। कैसे उन्हें सम्मेलन में जाना था । कैसे उनके जहाज को इस अंजान शहर में आपातकालीन लैंडिंग करनी पड़ी । कैसे टैक्सी के लिए ड्राइवर नहीं मिला और वे तूफान की वजह से रास्ता भटक गए और यहां आ गए) वे समझ गए कि यह सब इसलिए नहीं हुआ कि भगवान को केवल इस औरत की प्रार्थना का उत्तर देना था बल्कि भगवान उन्हें भी एक मौका देना चाहते थे कि वे भौतिक जीवन में धन कमाने, प्रतिष्ठा कमाने, इत्यादि से ऊपर उठें और असहाय लोगों की सहायता करें । वे समझ गए की भगवान चाहते हैं कि मैं उन लोगों की सेवा करूँ जो किसी भी प्रकार के अभाव में हैं।

Thursday, 8 October 2015

पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी

पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी, वे नित्य ही अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती और उनपर चर्चा करती ! एक दिन उन्होंने शिव से कहा -
पार्वती:- प्रेम क्या है बताइए महादेव, कृप्या बताइए की प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य ! आप तो हमारे गुरु की भी भूमिका निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आपका ही दायित्व है ! बताइए महादेव !
शिव:- प्रेम क्या है ! यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं पार्वती ! तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुयी ! तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर निहित है !
पार्वती:- क्या इन विभिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?
शिव:- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग जब तुम दूर चली गयी, मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सब निरर्थक और निराधार हो गया ! मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी ! अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती ! येही तो प्रेम है पार्वती !तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्ठी का अपूर्ण हो जाना येही प्रेम है ! तुम्हारे और मेरे पुनह मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है ! तुम्हारा पार्वती के रूप में पुनह जनम लेकर मेरे एकांकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बहार नकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है !
जब जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है !
तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विशवास दिलाती रहती हो की सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है !
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है ! तुम्हे सुखी देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती !
जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे शसस्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी !
जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ, और तुम्हारी जिह्वया बहार निकली, वही प्रेम था पार्वती !
जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जोकि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो, और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जोकि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ की मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ ! जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ ! इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ की मैं कौन हूँ ! तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ ! यही तो प्रेम है !
जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती !
प्रेम के प्रति तुम्हारी उत्सुकता और जिज्ञासा अब शांत हुई की नहीं?