Tuesday, 16 August 2016

कर्ण की धर्मनिष्ठता

कर्ण कौरवों की सेना में होते हुए भी महान धर्मनिष्ठ योद्धा थे। भगवान श्रीकृष्ण तक उनकी प्रशंसा करते थे। महाभारत युद्ध में कर्ण ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की थी। उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प अश्वसेन ने इसे उपयुक्त अवसर समझा। अर्जुन से वह शत्रुता तो रखता था, पर काटने का अवसर नहीं मिलता था।  वह बाण  बनकर कर्ण के तरकस में जा घुसा, ताकि  जब उसे धनुष पर रखकर अर्जुन तक पहुँचाया जाए, तो अर्जुन को काटकर प्राण हर ले।
कर्ण  के बाण चले। अश्वसेन वाला बाण भी चला, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ-घोड़े जमीन पर बिठा दिए। बाण मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया।
असफलता पर क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण से बोला, "अबकी बार अधिक सावधानी से बाण चलाना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना। इस बार अर्जुन वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीवित रहने न देगा।"
इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस कालसर्प से पूछा, "आप कौन हैं और अर्जुन को मारने में इतनी रूचि क्यों रखते हैं?"

सर्प ने कहा "अर्जुन ने एक बार खण्डव वन में आग लगाकर  मेरे परिवार को मार दिया था, इसलिए उसी का प्रतिशोध लेने के लिए मैं व्याकुल रहता हूँ। उस तक पहुँचने का अवसर न मिलने पर आपके तरकस में बाण के रूप में आया हूँ। आपके माध्यम से अपना आक्रोश पूरा करूँगा।"

कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा, "भद्र, मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति युद्ध लड़ने दीजिए। आपकी अनीतियुक्त सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा है।"

कालसर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया। उसने कहा, "कर्ण तुम्हारी यह धर्मनिष्ठा ही सत्य है, जिसमे अनीतियुक्त पूर्वाग्रह को छद्म की कहीं स्थान नहीं।"

रात्रि में शिवलिंग के पास दीपक जलाने के ये है फायदे



हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस माह में शिवजी की सामान्य पूजा करने पर भी अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। शिवपुराण में शिवजी और सृष्टि के निर्माण से जुड़ी कई रहस्यमयी बातें बताई गई हैं। इस पुराण में कई उपाय भी बताए गए हैं, जो जीवन की सभी समस्याओं को दूर कर सकते हैं। साथ ही, इन उपायों से मानसिक शांति और प्रसन्नता प्राप्त होती है, पिछले समय में किए गए पापों का नाश होता है। शिवपुराण में बताया गया है कि रात के समय शिवलिंग के पास दीपक जलाने से बहुत जल्दी शिवजी की कृपा प्राप्त हो जाती है। इस उपाय से जुड़ी एक प्राचीन कथा भी बताई गई है।

रात के समय दीपक जलाने से जुड़ी कथा

कथा के अनुसार प्राचीन काल में गुणनिधि नामक व्यक्ति बहुत गरीब था और वह भोजन की खोज में लगा हुआ था। इस खोज में रात हो गई और वह एक शिव मंदिर में पहुंच गया। गुणनिधि ने सोचा कि उसे रात्रि विश्राम इसी मंदिर में कर लेना चाहिए। रात के समय वहां अत्यधिक अंधेरा हो गया। इस अंधकार को दूर करने के लिए उसने शिव मंदिर में अपनी कमीज जलाई थी। रात्रि के समय भगवान शिवलिंग के पास प्रकाश करने के फलस्वरूप से उस व्यक्ति को अगले जन्म में देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर देव का पद प्राप्त हुआ। इस कथा के अनुसार ही शाम के समय शिव मंदिर में दीपक लगाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। अत: नियमित रूप से रात्रि के समय किसी भी शिवलिंग के समक्ष दीपक जलाना चाहिए। विशेष रूप से सावन माह में यह उपाय जल्दी शुभ फल प्रदान करता है। दीपक लगाते समय ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए।

राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ी_


महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है...!
आपको यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया था..... जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :
... क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन
1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21
इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14
इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13
ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण इस प्रकार है ..
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0
उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13
टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।
इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0
रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29
इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19
लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1
पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. ....शासक का नाम... वर्ष... माह ....दिन...
1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27
विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।
इस जानकारी का स्रोत चित्तौड़गढ़ राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका हरिशचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका के विक्रम संवत 1939 के अंक और कुछ अन्य संस्कृत ग्रंथ है।

विश्व के शीर्ष दस आविष्कार जो भारत ने किए :-


बहुत से लोग यह मानते या कहते पाए गए हैं कि पश्चिम ने विश्व को विज्ञान दिया और पूर्व ने धर्म | दूसरी ओर हमारे ही भारतीय लोग यह कहते हुए भी पाए गए हैं कि भारत में कोई वैज्ञानिक सोच कभी नहीं रही | ऐसे लोग अपने अधूरे ज्ञान का परिचय देते हैं या फिर वे भारत विरोधी हैं |
भारत के बगैर न धर्म की कल्पना की जा सकती है और न विज्ञान की | हमारे भारतीय ऋषि-मुनियों और वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे आविष्कार किए और सिद्धांत गढ़े हैं कि जिनके बल पर ही आज के आध‍ुनिक विज्ञान और दुनिया का चेहरा बदल गया है | सोचिए 0 (शून्य) नहीं होता तो क्या हम गणित की कल्पना कर सकते थे ?, दशमलव (.) नहीं होता तो क्या होता ?, इसी तरह भारत ने कई मूल: आविष्कार और सिद्धांतों की रचना की | आइए जानते हैं, उनमें से खास दस आविष्कार जिन्होंने बदल दिया विश्व को
1. विमान :- इतिहास की किताबों और स्कूलों के कोर्स में पढ़ाया जाता है कि विमान का आविष्कार राइट ब्रदर्स ने किया, लेकिन यह गलत है | हाँ, यह ठीक है कि आज के आधुनिक विमान की शुरुआत ओरविल और विल्बुर राइट बंधुओं ने 1903 में की थी | लेकिन उनसे हजारों वर्ष पूर्व ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र लिखा था जिसमें हवाई जहाज बनाने की तकनीक का वर्णन मिलता है | चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ में एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए थे |
‘गोधा’ ऐसा विमान था, जो अदृश्य हो सकता था | ‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था | ‘प्रलय’ एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था | ‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था, जो देखने में बादल की भांति दिखता था |
स्कंद पुराण के खंड 3 अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया-जाया सकता था | रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीता जी को हर ले गया था |
2.अस्त्र-शस्त्र :- धनुष-बाण, भाला या तलवार की बात नहीं कर रहे हैं | इसका आविष्कार तो भारत में हुआ ही है लेकिन हम आग्नेय अस्त्रों की बात कर रहे हैं | आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, पाशुपतास्त्र, सर्पास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि अनेक ऐसे अस्त्र हैं जिसका आधुनिक रूप बंदूक, मशीनगन, तोप, मिसाइल, विषैली गैस तथा परमाणु अस्त्र हैं |
वेद और पुराणों में निम्न अस्त्रों का वर्णन मिलता है :- इन्द्र अस्त्र, आग्नेय अस्त्र, वरुण अस्त्र, नाग अस्त्र, नाग पाशा, वायु अस्त्र, सूर्य अस्त्र, चतुर्दिश अस्त्र, वज्र अस्त्र, मोहिनी अस्त्र, त्वाश्तर अस्त्र, सम्मोहन/ प्रमोहना अस्त्र, पर्वता अस्त्र, ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मसिर्षा अस्त्र, नारायणा अस्त्र, वैष्णव अस्त्र, पाशुपत अस्त्र आदि |
महाभारत के युद्ध में कई प्रलयकारी अस्त्रों का प्रयोग हुआ है | उसमें से एक था ब्रह्मास्त्र | आधुनिक काल में परमाणु बम के जनक जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर ने गीता और महाभारत का गहन अध्ययन किया | उन्होंने महाभारत में बताए गए ब्रह्मास्त्र की संहारक क्षमता पर शोध किया और अपने मिशन को नाम दिया ट्रिनिटी (त्रिदेव)। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 के बीच वैज्ञानिकों की एक टीम ने यह कार्य किया | 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परमाणु परीक्षण किया गया |
परमाणु सिद्धांत और अस्त्र के जनक जॉन डाल्टन को माना जाता है, लेकिन उनसे भी 2,500 वर्ष पूर्व ऋषि कणाद ने वेदों में लिखे सूत्रों के आधार पर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया था | भारतीय इतिहास में ऋषि कणाद को परमाणुशास्त्र का जनक माना जाता है | आचार्य कणाद ने बताया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं | कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे | विख्यात इतिहासज्ञ टीएन कोलेबु्रक ने लिखा है कि अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ यूरोपीय वैज्ञानिकों की तुलना में विश्वविख्यात थे |
3.पहिए का आविष्कार :- आज से 5,000 और कुछ 100 वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें रथों के उपयोग का वर्णन है | जरा सोचिए पहिए नहीं होते तो क्या रथ चल पाता ? इससे सिद्ध होता है कि पहिये 5,000 वर्ष पूर्व थे | पहिए का आविष्कार मानव विज्ञान के इतिहास में महत्वपूर्ण उपलब्धि थी | पहिए के आविष्कार के बाद ही साइकल और फिर कार तक का सफर पूरा हुआ | इससे मानव को गति मिली | गति से जीवन में परिवर्तन आया | हमारे पश्चिरमी विद्वान पहिए के आविष्कार का श्रेय इराक को देते हैं, जहाँ रेतीले मैदान हैं, जबकि इराक के लोग 19वीं सदी तक रेगिस्तान में ऊंटों की सवारी करते रहे |
हालांकि रामायण और महाभारतकाल से पहले ही पहिए का चमत्कारी आविष्कार भारत में हो चुका था और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था | विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से प्राप्त (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलौना हाथीगाड़ी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रमाणस्वरूप रखी है | सिर्फ यह हाथीगाड़ी ही प्रमाणित करती है कि विश्व में पहिए का निर्माण इराक में नहीं, बल्कि भारत में ही हुआ था |
4.प्लास्टिक सर्जरी :- जी हाँ, प्लास्टिक सर्जरी के आविष्कार से विश्व में क्रांति आ गई | पश्चिम के लोगों के अनुसार प्लास्टिक सर्जरी आधुनिक विज्ञान की देन है | प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- ‘शरीर के किसी हिस्से को ठीक करना’ भारत में सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है | आज से करीब 3,000 साल पहले सुश्रुत युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनके अंग-भंग हो जाते थे या नाक खराब हो जाती थी, तो उन्हें ठीक करने का काम वे करते थे |
सुश्रुत ने 1,000 ईसापूर्व अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे | हालांकि कुछ लोग सुश्रुत का काल 800 ईसापूर्व का मानते हैं | सुश्रुत से पहले धन्वंतरि हुए थे |
5. बिजली का आविष्कार :- महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे | निश्चित ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया | उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली |
महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे | इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है | ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की | आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌ |
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि: ||
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत: |
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌ || अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा | अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है | उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं |
6. बटन :- आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि शर्ट के बटन का आविष्कार भारत में हुआ | इसका सबसे पहला प्रमाण मोहन जोदड़ो की खुदाई में प्राप्त हुआ | खुदाई में बटनें पाई गई हैं | सिन्धु नदी के पास आज से 2500 से 3000 पहले यह सभ्यता अपने अस्तित्व में थी |
7. ज्यामिति :- बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्व सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता हैं | पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्या‍मितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं | दरअसल, 2800 वर्ष (800 ईसापूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी |
उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था | शुल्व शास्त्र के आधार पर विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाई जाती थीं | दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौधायन ने सुलझाया |
8. रेडियो :- इतिहास की किताब में बताया जाता है कि रेडियो का आविष्कार जी. मार्कोनी ने किया था, लेकिन यह सरासर गलत है | अंग्रेज काल में मार्कोनी को भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु के लाल डायरी के नोट मिले जिसके आधार पर उन्होंने रेडियो का आविष्कार किया | मार्कोनी को 1909 में वायरलेस टेलीग्राफी के लिए नोबेल पुरस्कार मिला | लेकिन संचार के लिए रेडियो तरंगों का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन मिलीमीटर तरंगें और क्रेस्कोग्राफ सिद्धांत के खोजकर्ता जगदीश चंद्र बसु ने 1895 में किया था |
इसके 2 साल बाद ही मार्कोनी ने प्रदर्शन किया और सारा श्रेय वे ले गए | चूंकि भारत उस समय एक गुलाम देश था इसलिए जगदीश चंद्र बसु को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया | दूसरी ओर वे अपने आविष्कार का पेटेंट कराने में असफल रहे जिसके चलते मार्कोनी को रेडियो का आविष्कारक माना जाने लगा | संचार की दुनिया में रेडियो का आविष्कार सबसे बड़ी सफलता है | आज इसके आविष्कार के बाद ही टेलीविजन और मोबाइल क्रांति संभव हो पाई है |
9. गुरुत्वाकर्षण नियम :- हलांकि वेदों में गुरुत्वाकर्षन के नियम का स्पष्ट उल्लेख है लेकिन प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री भास्कराचार्य ने इस पर एक ग्रंथ लिखा ‘सिद्धांतशिरोमणि’ इस ग्रंथ का अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ और यह सिद्धांत यूरोप में प्रचारित हुआ | न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण के नियम को जानकर विस्तार से लिखा था और उन्होंने अपने दूसरे ग्रंथ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ में इसका उल्लेख भी किया है |
गुरुत्वाकर्षण के नियम के संबंध में उन्होंने लिखा है, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्वशक्ति से अपनी ओर खींच लेती है। इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है।’ इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी में गुत्वाकर्षण की शक्ति है।
भास्कराचार्य द्वारा ग्रंथ ‘लीलावती’ में गणित और खगोल विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रंथ की रचना की | इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्यग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढंक लेती है तो चन्द्रग्रहण होता है | यह पहला लिखित प्रमाण था जबकि लोगों को गुरुत्वाकर्षण, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक जानकारी थी |
10. भाषा का व्याकरण :- विश्व का पहला व्याकरण पाणिनी ने लिखा | 500 ईसा पूर्व पाणिनी ने भाषा के शुद्ध प्रयोगों की सीमा का निर्धारण किया | उन्होंने भाषा को सबसे सुव्यवस्थित रूप दिया और संस्कृत भाषा का व्याकरणबद्ध किया | इनके व्याकरण का नाम है अष्टाध्यायी जिसमें 8 अध्याय और लगभग 4 सहस्र सूत्र हैं | व्याकरण के इस महनीय ग्रंथ में पाणिनी ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संग्रहीत किए हैं |
अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है | इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है | उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं |
इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था, जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब तत्कालीन उत्तर-पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था | हालांकि पाणिनी के पूर्व भी विद्वानों ने संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया लेकिन पाणिनी का शास्त्र सबसे प्रसिद्ध हुआ |
19वीं सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी फ्रेंज बॉप (14 सितंबर 1791- 23 अक्टूबर 1867) ने पाणिनी के कार्यों पर शोध किया | उन्हें पाणिनी के लिखे हुए ग्रंथों तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के सूत्र मिले | आधुनिक भाषा विज्ञान को पाणिनी के लिखे ग्रंथ से बहुत मदद मिली | विश्व की सभी भाषाओं के विकास में पाणिनी के ग्रंथ का योगदान है |
इस तरह ऐसे सैंकड़ों आविष्कार है जो भारत के लोगों ने किए लेकिन चूंकि पश्चिम ने विश्व पर राज किया इसलिए इतिहास उन्होंने ही लिखा और उन्होंने साजिश के तहत खुद के दार्शनिक और वैज्ञानिकों को महिमामंडित किया |
हमें गर्व है की हमनें भारत भूमि में जन्म लिया | समस्त मित्रों से नम्र निवेदन है की हिंदुत्व के "सूक्ष्म विज्ञान" व आध्यात्म के ज्ञान को और भी अटूट करने के लिए शेयर करने में गर्व महसूस करें

ध्यान-योग


ध्यान तीन प्रकार का है- 1 स्थूल-ध्यान 2 ज्योतिर्ध्यान और 3 सूक्ष्म-ध्यान। स्थूल-ध्यान वह कहा जाता है जिसमें मूर्तिमान् अभीष्ट देवता का अथवा गुरू का चिन्तन किया जाय। जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाय उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं और जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।
स्थूल ध्यान- स्थूल चीजो के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते है।
प्रथम-ध्यान-
साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे है। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं। इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं।
साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है।
फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर आपका इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है।
द्वितीय-ध्यान-
हमारे हृदय के मध्य अनाहत नाम का चोथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः – चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताअप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है।
अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है। साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान शिव विराजमान है, उनकी दो भुजाऐं है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है।
उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों कि माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा शक्ति शोभा दे रही है। इस प्रकार शिव का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान सिद्ध होता है।
तृतीय-ध्यान-
विश्वसारतंत्र में लिखा है कि – मस्तक में जो शुभ्र-वर्ण का कमल है, योगी प्रभात-काल में उस पदम् में गुरू का ध्यान करते है कि वह शांत, त्रिनेत्र, द्विभुज है और वह वर एवं अभय मुद्रा धारण किये हुये है। इस प्रकार यह ध्यान, गुरू का स्थूल ध्यान है।
कंकालमालिनी तन्त्र में लिखा है कि- साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैं, वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में शक्ति विराजमान है।
इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्तवर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे।
ज्योतिर्ध्यानः-
मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सार्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करे।
एक ओर प्रकार का तेजो-ध्यान है कि भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। इसको तेजो-ध्यान या ज्योतिर्ध्यान कहते हैं।
सूक्ष्म ध्यानः-
पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र-मार्ग से निकलकर उर्ध्व-भागस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है।
इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है। साधक शाम्भवी-मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म-ध्यान कहते हैं। इस दुर्लभ ध्यान-योग द्वारा- आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।
शाम्भवी-मुद्राः-
शाम्भवी मुद्रा का वर्णन आरम्भ करते हुए प्रथम उसका महत्व प्रकट किया है कि यह मुद्रा परम गोपनीय है। यह कुलवधु के समान है, और वेदादि के सर्व सुलभ होने के कारण इसे गणिका के समान बताकर शाम्भवी-मुद्रा की श्रेष्ठता ही व्यक्त की गई है। शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ।
ॐ त्वमसि आदि महाकाव्यों से जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है।
भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे, अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक कि आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इस को ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।
यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है।
इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है। इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग सरल योग दूसरा नहीं है। इसे गुरूद्वारा प्राप्त करने की जरूरत है।
शाम्भवी- मुद्रा करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है।
शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है। ऐसा भी ध्यान करे कि आत्मा आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है।
ध्यानबिन्दू -उपनिषद् के प्रारम्भ में ही कहा है कि- यदि पर्वत के समान अनेक योजन विस्तीर्ण पाप भी हों तो भी वे ध्यान योग से नष्ट हो जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से भी नष्ट नहीं होते।

जप योग



जप का अर्थ है – ‘ज’ का अर्थ है जन्म का रूक जाना। ‘प’ का अर्थ है पाप का नाश होना। इसीलिए पाप को मिटाने वाले और पुनर्जन्म प्रक्रिया रोकने वाले को जप कहा गया है।
“गीता मे श्री कृष्ण जी ने कहा है कि- यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ।”
शब्द की शक्ति के बारे में भारद्वाज-गायत्री-व्याख्यान नामक ग्रंथ में कहा गया है कि- समस्त यज्ञों में जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है।
अन्य यज्ञों में तो हिंसा होती है, किन्तु जप यज्ञ हिंसा से नहीं होता। जितने भी कर्म, यज्ञ, दान तप है, वे समस्त जप की 16वीं कला के समान भी नहीं होते।
जप द्वारा स्तुति किये गये देवता प्रसन्न हो कर बड़े-बड़े भोगों को तथा अक्षय शक्ति को प्रदान करते है। जप करने वाले द्विज को दूर से देखते ही राक्षस, बेताल, भूत, प्रेत, पिशाच आदि भय से भयभीत होकर भाग जाते है।
इस कारण समस्त पुण्य साधनों में जप सर्व-श्रेष्ठ है। इस प्रकार जान कर साधक को सर्वथा जप-परायण होना चाहिये।
किसी भी शब्द के जाप का प्रभाव आपके ऊपर अवश्य आयेगा। अगर आप सात्त्विक-मन्त्र का जाप करते है, तो धीरे-धीरे आपके बुरे विचार, भाव, स्वभाव घटने लगते है और सत्य, प्रेम, न्याय, इमानदारी, सन्तोष, शान्ति, पवित्रता, नम्रता, संयम, सेवा, दया और उदारता जैसे सद्गुण बढ़ने लगते है।
इसके विपरीत अगर आप तामसिक-मन्त्र का जाप करते है तो आपका स्वभाव भी उस मन्त्र के अनुसार ही तामसिक हो जायेगा। आप ने अधिकतर देखा होगा की, काली और भैरव के मन्त्रों का जाप करने वाले या इनकी उपासना करने वाले साधकों के अंदर क्रोध अधिक होता है।
तामसिक मन्त्रों के जाप के प्रभाव से, इन साधकों का स्वभाव उग्र हो जाता है। हजारों में से कोई एक रामकृष्ण-परमहंस जैसा बन पाता है। जो कि काली की उपासना करने के उपरान्त भी शान्त चित्त होता है। काली की साधना के समय अगर आप के अन्दर मातृ-भाव है, तो आप का स्वभाव अवश्य ही शान्त होगा।
प्रत्येक मंत्र का वही प्रभाव होगा जैसा की आपके मन का भाव होगा। अगर आपके मन में दास-भाव है, तो शब्द की शक्ति मालिक के रूप में प्रकट होगी, अगर आपके मन में प्रेम भाव है, तो वह शक्ति प्रेमी के रूप में प्रकट होगी, अगर आपके मन में सुदामा की तरह सखा भाव है, तो वह शब्द शक्ति एक मित्र की तरह आप के ऊपर कृपा करेगी।
🎪 जाप एवं आयु 🎪
शब्द के जाप के द्वारा आयु की वृद्धि के लाभों की वैज्ञानिक व्याख्या भी विद्वानों ने की है। 24 घंटे में प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति 21,600 साँस लेता है अर्थात् 1 मिनट में 15 बार, एक स्वस्थ व्यक्ति साँस लेता है। यदि किसी तरह इन साँसों की संख्या को कम किया जा सके तो आयु वृद्धि सुनिश्चित है।
जिन व्यक्तियों को कोई भी बीमारी है, खासकर जिन को उच्च रक्तदाब (हाई ब्लड़प्रेशर) है। ऐसे व्यक्ति 1 मिन्ट में 15 से अधिक साँस लेते है। जिससे उनकी आयु का क्षय होता है, अर्थात् आयु कम होती है।
इसके अलावा जो व्यक्ति अधिक क्रोध करते है, या जिन में अत्यधिक कामुक्ता है या जो अत्यधिक सम्भोग करते है, उनकी भी आयु कम होने लगती है। क्योंकि क्रोध के वक्त एवं सम्भोग के वक्त, एक स्वस्थ व्यक्ति 15 से अधिक साँस लेता है।
इसलिये अगर आप अपने क्रोध और कामवासना पर काबू रखते है, तो आप अपनी आयु को बढ़ा सकते है। आयु को बढ़ाने में प्राणायाम – योग की ऐसी सशक्त क्रिया है, जिसके द्वारा साँसों पर काबू पाया जा सकता है।
जाप से भी ऐसा ही होता है। अगर आप ध्यान-पूर्वक जाप करेंगे, तो देखेगें की जाप के दौरान आपके साँसों की संख्या एक मिनट में 15 के स्थान पर 7 या 8 रह गई है। यदि आप एक घन्टा प्रतिदिन जाप करते है, तो लगभग 500 साँसो की वृद्धि आपकी आयु में हो जाती है।
इस तरह यदि आप प्रतिदिन एक घन्टा जाप करें, तो आपकी आयु में कई सालों की वृद्धि हो सकती है। जाप के द्वारा ही आप का ध्यान लगता है। जप के वक्त शब्द-शक्ति प्रकट होती है। जिससे आपकी धारणा परिपक्व होती है। धारणा के परिपक्व होने पर ही समाधी की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी।
जप के लिये जिन चीजों की मूल आवश्यकता है वह है–
साधक के पहनने के वस्त्र, साधक का आसन, साधक का पूजा स्थल एवं साधक की माला। साधक जिस भी विद्या क्षेत्र से दीक्षित हो उसी के अनुसार साधक के वस्त्र, आसन एवं माला हो। साधक का साधना स्थल स्वच्छ एवं पवित्र हो।
साधना स्थल में साधक शुद्ध घी का दीपक एवं धूप या अगरबती जलाऐं। गुरू की आज्ञा अनुसार अपने इष्ट का आवाहान, ध्यान, जप, समर्पण व विसर्जन करें, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार बिना पंचांग पूजा के सिद्धि सम्भव नहीं है।
शास्त्रों में आवाहान, ध्यान, जप, समर्पण व विसर्जन को ही पंचांग पूजा कहा गया है। इसलिये हर साधक को पंचांग पूजा अनिवार्य रूप से करनी चाहिये। सही मायने में पंचांग पूजा ही पंच तत्त्व की पूजा है। शास्त्रों में पंचोपचार व षोड़शोपचार पूजा का विधान भी है।
अधिकतर साधक पंचोपचार व षोड़शोपचार पूजा को ही जानतें हैं। बहुत ही कम साधक पंचांग पूजा को जानते हैं, किन्तु जो साधक पंचांग पूजा को जानते हैं, सिद्धि उनसे कभी भी दूर नहीं रह सकती।
पंचांग पूजा का अर्थ है–
1 अपने इष्ट का आवाहन करना,
2 अपने इष्ट का ध्यान करना,
3 अपने इष्ट के मूल मंत्र का यथा शक्ति जाप करना,
4 आपने जो भी जाप किया है, उस जाप को इष्ट के चरणों में समर्पित करना,
5 अपने इष्ट का विसर्जन करना।
किन्तु गायत्री का आवाहन और विसर्जन नहीं होता क्योकि गायत्री-तंत्र के अनुसार- गायत्री ही जीव-आत्मा है और जीव-आत्मा हम स्वयं हैं। इसलिये जीव अपनी आत्मा का आवाहन और विसर्जन नहीं कर सकता।

ॐकार-साधना


ॐकार-साधना ‘नाद-योग’ की उच्चस्तरीय साधना है। आरम्भिक अभ्यासी को प्रकृति प्रवाह से उत्पन्न विविध स्तर की आहत-परिचित ध्वनियाँ सूक्ष्म कणेंन्द्रियों से सुनाई पड़ती हैं। इनके सहारे मन को ‘वशवर्ती’ बनाने तथा ‘प्रकृति-क्षेत्र’ में चल रही हलचलों को जानने तथा उन्हें मोड़ने-मरोड़ने की सामर्थ्य मिलती है, आगे चलकर अनाहत क्षेत्र आ जाता है।
स्वयंभू-ध्वनि प्रवाह जिसे परब्रह्म का अनुभव में आ सकने वाला स्वरूप कह सकते है। यदि किसी के सघन सम्पर्क में आ सके तो उसे अध्यात्म क्षेत्र का सिद्ध पुरूष भी कह सकते है।
भगवान का सर्वश्रेष्ठ नाम ‘ओउम्’ है। यह स्वयं-भू है।
जिसकी ध्वनि ‘नाभि-देश’ से आरम्भ होकर ‘कण्ठमूल’ और ‘मुखाग्र’ तक चली जाती है। यह ‘ओउम्’ साढ़े तीन अक्षरों का विनिर्मित है-1 ओ, 2 उ, 3 म् – ओं के उच्चारण में अर्धबिन्दु लगा है, इसे चन्द्रबिन्दु अथवा अर्धमात्रा भी कहते है।
उसे आधा-अक्षर माना गया है, इस प्रकार साढ़े तीन अक्षर का मन्त्रराज ‘ओउम्’ कहलाता है। इसका उच्चाण कंठ, होठ, मुख, जिह्वा से होता है, पर इसका बीज कुण्डलिनी में सन्निहित है। जब ध्वनि और प्राण दोनों मिल जाते हैं। तव उसका समग्र प्रभाव उत्पन्न होता है।
स्वामी विवेकानन्द ने ‘ओउम्’ शब्द को समस्त नाम तथा रूपांतरो की एक जननी (मदर ऑफ नेम्स एण्ड फार्मस) कहा है। भारतीय मनीषियों ने इसे प्रणव-ध्वनि, उद्-गीथ, स्टोफ, आदि-नाम, अनाहत्-ब्रह्म-नाद आदि अनेकों नामों से पुकारा है।
माण्डूक्योपनिषद् में उल्लेख है कि ‘ओउम्’ अर्थात् प्रणव ही पूर्ण अविनाशी परमात्मा है, जो जड़ और चेतन में तथा सृष्टि के कण-कण में संव्याप्त है। सर्वत्र वह नाद रूप में गुंजायमान है।
योग-शास्त्र का लक्ष्य- साधक को इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी मूल सत्ता से जोड़ना है। नाद योग-शास्त्रों की अनेका-अनेक साधना-विधियों में से सर्व-प्रमुख धारा है। कुण्डलिनी साधना के प्राण-प्रयोग में इसी का आश्रय लिया जाता है। माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है- ‘ओउम्’ वह अक्षर है जिसमे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ‘ओंकार’ का छोटा सा व्याख्यान है।
सभी शक्तियाँ, ॠद्धियाँ और सिद्धियाँ ‘ओंकार’ में भरी हुई है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण- जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ॐकार’ की स्फुरणा से ही हो रहा है। यह जो उनका अभिव्यक्त अंश और उससे अतीत भी जो कुछ है, वह सब मिलकर ही परब्रह्म-परमात्मा का समग्र रूप है, पूर्ण-ब्रह्म की प्राप्ति के लिये। अतएव उनकी नाद-शक्ति का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है।
जिसके पास ‘ओउम्’ है, उसके पास अनंत दैवी-शक्तियाँ है। बल है, बुद्धि है, जीवन है। इन्द्रियों का संयम है। भगवान् श्री कृष्ण ने ‘ओउम्’ की महिमा का वर्णन करते हुए गीता के आठवें-अध्याय में लिखा है- जो साधक मन और इन्द्रियों को वश में कर ‘ओउम्’ अक्षर-ब्रह्म का जप करता है, वह ब्रह्म का स्मरण करता हुआ इस भौतिक देह को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है।
इस पद को प्राप्त करने के उपरान्त जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। ‘अ’ से विराट् अग्नि और विश्व का ज्ञान, ‘उ’ से हिरण्यगर्भ वायु और तेजस का बोध, ‘म्’ से ईश्वर आदित्य और प्रज्ञा का परिज्ञान होता है।
यह परमात्मा के पवित्र नाम ‘ॐ’ में विद्यमान है। हमें परमात्मा के इस वैदिक-नाम ‘ओउम्’ का नित्य जप करना और नाद योग द्वारा आत्मानुसंधान करना चाहिए। कारण- स्थूल, सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की ही स्फुरणा से हो रहा है। यही ‘प्रणव’ का अर्थ भी है।
नाद साधना में भी इसी ‘प्रणव’ का गुंजन सुनने से प्रगति क्षिप्र होती है। आगे चलकर, जब अन्तरिक्ष में प्रवाहमान दिव्य ध्वनियाँ सुनी जाने लगती हैं, तब उनके नौ मण्डलों को पार करते हुए दशम मण्डल में पहुँचा जाता है, जहाँ सर्वोत्तम अनाहद नाद ‘ओउम्’ ही सतत सुनाई पड़ता है।
नाद साधना की यही चरम परिणति है। इस तल तक पहुँचने वाले साधक सृष्टि के उद्गम केन्द्र तक पहुँच जाते हैं और विश्व-वैभव का अभीष्ट, सत्प्रयोजनों के लिए उपयोग करने में समर्थ होते हैं। नाद-सिद्धि साधक इन्द्रियातीत क्षमताओं के अधिपति देव-मानव कहे जाते रहे हैं।
अन्तर्नाद की भी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति ‘प्रणव’ ही है। चैतन्य-ऊर्जा कुण्डलिनी के जागरण में ‘प्रणव’ की प्रमुख भूमिका रहती है। इसीलिए ‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। इस प्रकार ‘प्रणव’ समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का सर्वश्रेष्ठ अवलम्बन है।
ओमकार और कुन्डलिनी
‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। उसके जागरण में जहाँ अन्यान्य विधि-विधानों का प्रयोग होता है, वहाँ उस सन्दर्भ में प्रणव-तत्त्व’ को प्रायः प्रमुखता ही दी जाती है। ‘कुण्डलिनी-जागरण’ प्रयोग ‘गायत्री-महाविद्या’ के अन्तर्गत ही आता है। ‘पंचमुखी-गायत्री’ में ‘पंचकोशों’ की साधना ‘पंचाग्नि-विद्या’ कही जाती है, यही गायत्री के पाँच-मुख हैं।
गायत्री की ‘प्राण-साधना’ का नाम ‘सावित्री-विद्या’ है, सावित्री ही कुण्डलिनी है। गायत्री मंत्र में, गायत्री-साधना में प्राण-तत्त्व का अविच्छिन्न समावेश है।
योग कुण्डलयुपनिषद् के अनुसार – कुण्डलिनी ‘प्रणव’ रूप है। ‘महा-कुण्डलिनी’ को ‘परब्रह्म-स्वरूपिणी’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्मम्य है। एक ‘ओउम्’ से अनेक अक्षरों की आकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं। कुण्डलिनी का आकार सर्पिणी जैसा बताया गया है।
वह कुंडली-मारे सोती हुई पड़ी है और पूँछ को अपने मुँह में दबाये हुए है। इस आकृति को घसीटकर बनाने से ‘ओउम्’ शब्द बन जाता है। अस्तु, प्राण और उच्चारण सहित समर्थ ‘प्रणव’ को ‘कुण्डलिनी’ कहा गया है और उसी सजीव ‘ओउम्’ के उच्चारण का पूरा फल बताया गया है, जिसमें कुण्डलिनी जागृति शक्ति का समन्वय हुआ है।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह उस सोयी हुई अपनी आत्म-शक्ति को चैतन्य करे, गतिशील करे। मूलाधार से स्फूर्ति तरंग उठकर भूमध्य में दिव्य नाद की अनुभूति (श्रवण) कराने लगे, तभी समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत-संचालित हो गई है।