Saturday, 24 September 2016

रुद्राक्ष उत्पत्ति की कथा


शिव महापुराण के अनुसार भगवान शिव ने रुद्राक्ष उत्पत्ति की कथा माता पार्वती को कही है। एक समय भगवान शिवजी ने एक हजार वर्ष तक समाधि लगाई। समाधि से उठने पर जब उनका मन बाहरी जगत में आया, जगत के कल्याण की कामना वाले महादेव ने जब अपनी आंखें खोली तब उनके नेत्रों से अश्रु धारा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उन्हीं से रुद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हुए और वे शिव की इच्छा से भक्तों के हित के लिए समग्र देश में फैल गए। उन वृक्षों पर जो फल लगे वे ही रुद्राक्ष हैं। वे पापनाशक, पुण्यवर्धक, रोगनाशक, सिद्धिदायक तथा भोग मोक्ष देने वाले हैं। कहा जाता है जितने छोटे रुद्राक्ष होंगे उतने ही अधिक फलप्रद हैं। वे अष्टि को दूर करके शांति देने वाले हैं। रुद्राक्ष की माला धारण करने से पाप और रोग नष्ट होते हैं। साथ ही सिद्धि मिलती है। भिन्न-भिन्न अंगों में भिन्न-भिन्न संख्या वाले रुद्राक्ष धारण करने से लाभ होता है। शिव पुराण में इसका विस्तृत विवेचन है। भस्म, रुद्राक्ष धारण करके 'नमः शिवाय' मंत्र का जप करने वाला मनुष्य शिव रूप हो जाता है। भस्म रुद्राक्षधारी मनुष्य हो देखकर भूत प्रेत भाग जाते हैं, देवता पास में दौड़ आते हैं, उसके यहां लक्ष्मी और सरस्वती दोनों स्थायी निवास करती हैं, विष्णु आदि सब देवता प्रसन्न होते हैं। अतः सब शैव वैष्णवों को नियम से रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।

गुरु की सीख


रामानुजाचार्य शठकोप स्वामी जी के शिष्य थे। स्वामी जी ने रामानुज जी को ईश्वर प्राप्ति का रहस्य बताया था। परंतु उसे किसी को न बताने का निर्देश दिया था, किंतु रामानुज जी ने अपने गुरु की इस आज्ञा को नहीं माना, उन्होंने ईश्वर प्राप्ति का जो मार्ग बताया था, उस पूर्ण ज्ञान को उन्होंने लोगों को देना प्रारंभ किया। यह ज्ञात होनेपर शठकोप स्वामी जी बहुत क्रोधित हुए। रामानुज जी को बुलाकर वे कहने लगे, ‘‘मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर तू साधना का रहस्य प्रकट कर रहा है। यह अधर्म है, पाप है। इसका परिणाम क्या होगा तुझे ज्ञात है ?’’
रामानुज जी ने विनम्रता से कहा, ‘‘ हे गुरुदेव, गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करने से शिष्य को नरक में जाना पडता है।’’ शठकोप स्वामी जी ने पूछा, ‘‘ यह ज्ञात होते हुए भी तुमने जानबूझकर ऐसा क्यों किया ?’’
इसपर रामानुजजी कहने लगे, ‘‘वृक्ष अपना सब कुछ लोगों को देता है। क्या उसे कभी इसका पश्चात्ताप प्रतीत होता है ? मैंने जो कुछ किया, उसके पीछे लोगों का कल्याण हो, लोगों को भी ईश्वर प्राप्ति का आनंद प्राप्त हो, यही हेतु है। इसके लिए यदि मुझे नरक में भी जाना पडे, तो मुझे उसका तनिक भी दुख नहीं होगा।’’
रामानुज जी की, समाज को ईश्वर प्राप्ति की साधना बताने की, लालसा को देखकर स्वामी जी प्रसन्न हुए। उन्होंने रामानुज जी को अपने निकट लिया, उनको उत्तमोत्तम आशीर्वाद दिया तथा उन्हें समाज में सत्य के ज्ञान का प्रचार करने हेतु नियुक्त किया।

Wednesday, 21 September 2016

राजा सुरथ एवं समाधि वैश्य को देवी-दर्शन


प्राचीन समय की बात हैं। स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नामके एक परम धार्मिक राजा थे।वे परम उदार थे तथा प्रजाका पुत्रवत पालन करते थे। दुर्योगवश उनके मन्त्री शत्रुओं से मिल गये और शत्रुओं ने उन्हें पराजित करके उनका राज्य छीन लिया। निराश होकर राजा सुरथ वन में चले गये। एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल अवस्था में परम तपस्वी सुमेधा मुनिके आश्रम में पहुँचे। मुनिके पूछने पर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कथा बतायी। दयालु मुनि ने उनका यथोचित सत्कार किया और उन्हें आश्रम में आश्रय प्रदान किया।
एक दिन महाराज सुरथ एक वृक्ष के नीचे बैठकर अपने खोये हुए राज्य एवं परिवार के विषय में चिन्तन कर रहे थे। इतने में वहां एक वैश्य पहुंचा। उसका नाम समाधि था। उसके पुत्रो ने उसकी सम्पत्ति छीन लिया था और उसे घर से निकाल दिया था। परस्पर समान दुःख से दुःखी होने के कारण थोड़ी ही देर में राजा और वैश्य में प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। फिर दोनों अपने शोक- निवारण का उपाय पूछनेके लिये सुमेधा मुनिके पास गये और अपने कल्याण का उपाय पूछा।
सुमेधा मुनि ने कहा- वत्स! कल्याण चाहने वाले पुरुषों को चाहिये कि मन, वचन और कर्म से भगवती महामाया की आराधना करें। भगवती की कृपा से सुख, ज्ञान और मोक्ष सब कुछ सहज ही सुलभ हो जाता है। भगवती की प्रसन्नता के लिये नवरात्र-व्रत, भगवती का पूजन, नवार्ण- मन्त्रका जप तथा हवन करना चाहिये। नवरात्र-व्रत सम्पूर्ण व्रतों में श्रेष्ठ हैं। भगवती की कृपा से तुम्हारी विघ्न-बाधाएँ दूर हो जायँगी।
इस प्रकार सुमेधा मुनि से उपदेश प्राप्त करके राजा सुरथ और वैश्य एक श्रेष्ठ नदी के तट पर गये, वहां उन्होंने एक निर्जन स्थान पर बैठकर भगवती के मन्त्र का जप और ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया।तपस्या करते हुए एक वर्ष का समय पूरा हो गया। दूसरे वर्ष उन लोगों ने सुखे पत्ते खाकर तपस्या की। तीसरे वर्ष की तपस्या में उन्होने सूखे पत्तों जलका भी त्याग कर दिया ।कठिन तप से प्रसन्न होकर महामाया भगवती ने उन्हें साक्षात दर्शन दिया और कहा- तुम दोनों की तपस्या से मैं संतुष्ट हो गयी हूँ हे भक्तो! वर माँगो।
देवी की बात सुनकर उन्होंने भगवती से अपने शत्रुओं के विनाश के साथ निष्कंलक राज्य की याचना की। भगवती ने कहा-राजन! अब तुम घर लौट जाओ। तुम्हारे शत्रु तुम्हारा राज्य छोड़कर लौट जायेगे। दस हजार वर्षो तक अखिल भूमण्डल का राज्य करने के बाद अगले जन्म में तुम सूर्य के यहाँ जन्म लेकर मनु के पद को प्राप्त करोगे।
भगवती ने तथास्तु कहकर वैश्य को भी तृप्त कर दिया । इस प्रकार सुरथ भगवती के कृपा प्रसाद से समुद्रपर्यन्त समस्त पृथ्वी का राज्य भोगने लगे और समाधि वैश्य ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति पथ के पथिक बने। भगवती के पावन कृपा के इस प्रसंग को पढ़ने और मनन करने से ज्ञान, मोक्ष, यक्ष, सुख- सभी उपलब्ध हो जाते हैं इसमें कुछ भी संशय नही है।

महाभारत की कथाएं - लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ होना जरुरी


महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ। कौरव तो सभी युद्ध में मारे जा चुके थे। पाण्डव भी कुछ समय तक राज्य करके हिमालय पर चले गये। वहाँ पर एक, एक करके सभी भाई गिर गये। अकेले युधिष्ठिर अपने एक मात्र साथी कुत्ते के साथ बचे रहे और वे स्वर्ग गये।
कहते हैं युधिष्ठिर जीवित ही स्वर्ग में गये थे। वहाँ उन्होंने स्वर्ग और नरक दोनों को देखा। स्वर्ग में प्रवेश करते ही दुर्योधन दिखाई दिए। अपने भाइयों से भी उनका सामना हुआ। रास्ते में अन्य भाइयों को गिरते समय प्रश्न करने वाले भीम के मन में यहाँ भी जिज्ञासा उठी पूछा “भैया! दुर्योधन तो आजीवन अनीति का ही पक्ष लेते रहे। उन्होंने अपने पूरे जीवन में कोई धर्म कार्य नहीं किया जिसके पुण्य से उसे स्वर्ग मिला हो। ईश्वर की ये कैसी लीला है।
नहीं भीम! ईश्वरीय विधान के अनुसार प्रत्येक पुण्य का परिणाम चाहे किंचित ही क्यों न हो, स्वर्ग मिलता है। सभी बुराइयों के होते हुए भी दुर्योधन में एक सद्गुण था जिसके प्रसाद स्वरूप उसे स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ है।
वह क्या- भीम ने पूछा। वह अपने संस्कारों के कारण जीवन को सही दिशा भले ही न दे सका हो परंतु उसका मार्ग अवश्य सही था। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने लिये तन्मयतापूर्वक जुटा रहा। ध्येय के प्रति एकनिष्ठ रहना बहुत बड़ा सद्गुण है। इस सद्गुण के पुण्य के परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए उसे स्वर्ग में स्थान मिलना उचित था।

शबरी की प्रेमभक्ति


भगवान श्रीराम के अनन्य भक्तों में एक भील जाति की कन्या भी थी श्रमणा। जिसे बाद में शबरी के नाम से जाना गयाl उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की पूजा- अर्चना करती। बड़ी होने पर जब उसका विवाह होने वाला था तो अगले दिन भोजन के लिए काफी बकरियों की बलि दी जानी थी। यह पता लगते ही उसने अपनी माता से इस जीव हत्या का विरोध किया पर उसकी माता ने बताया कि वे भील हैं और यह उनके यहां का नियम है कि बारात का स्वागत इसी भोजन से होता है! वह यह बात सह नहीं कर सकी और चुप चाप रात के समय घर छोड़ कर जंगलों की और निकल पड़ी!
जंगल में वह ऋषि-मुनियों की कुटिया पर गयी पर भील जाति की होने के कारण सबने उसे दुत्कार दिया! आखिर में मतंग ऋषि ने उसे अपने आश्रम में रहने के लिए आश्रय दिया। शबरी अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। मतंग ऋषि ने अपनी देह त्याग के समय उसे बताया कि भगवान राम एक दिन उसकी कुटिया में आएंगे! वह उनकी प्रतिक्षा करे ! वही तुम्हारा उद्धार करेंगे l दिन बीतते रहे। शबरी रोज सारे मार्ग की और कुटिया की सफाई करती और प्रभु राम की प्रतीक्षा करती! ऐसे करते वह बूढी हो चली, पर प्रतिक्षा नही छोडी क्यूंकि गुरु के वचन जो थे !
अंत मे शबरी की प्रतिक्षा की खत्म हुई और भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ माता सीता की खोज करते हु्ए मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। शबरी ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाईयों का यथायोग्य सत्कार किया। शबरी भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने भगवान को अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था। उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से शबरी का उसी समय उद्धार हो गया ।

कर्ण की धर्मनिष्ठता


कर्ण कौरवों की सेना में होते हुए भी महान धर्मनिष्ठ योद्धा थे। भगवान श्रीकृष्ण तक उनकी प्रशंसा करते थे। महाभारत युद्ध में कर्ण ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की थी। उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प अश्वसेन ने इसे उपयुक्त अवसर समझा। अर्जुन से वह शत्रुता तो रखता था, पर काटने का अवसर नहीं मिलता था। वह बाण बनकर कर्ण के तरकस में जा घुसा, ताकि जब उसे धनुष पर रखकर अर्जुन तक पहुँचाया जाए, तो अर्जुन को काटकर प्राण हर ले।
कर्ण के बाण चले। अश्वसेन वाला बाण भी चला, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ-घोड़े जमीन पर बिठा दिए। बाण मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया।
असफलता पर क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण से बोला, "अबकी बार अधिक सावधानी से बाण चलाना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना। इस बार अर्जुन वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीवित रहने न देगा।"
इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस कालसर्प से पूछा, "आप कौन हैं और अर्जुन को मारने में इतनी रूचि क्यों रखते हैं?"
सर्प ने कहा "अर्जुन ने एक बार खण्डव वन में आग लगाकर मेरे परिवार को मार दिया था, इसलिए उसी का प्रतिशोध लेने के लिए मैं व्याकुल रहता हूँ। उस तक पहुँचने का अवसर न मिलने पर आपके तरकस में बाण के रूप में आया हूँ। आपके माध्यम से अपना आक्रोश पूरा करूँगा।"
कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा, "भद्र, मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति युद्ध लड़ने दीजिए। आपकी अनीतियुक्त सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा है।"
कालसर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया। उसने कहा, "कर्ण तुम्हारी यह धर्मनिष्ठा ही सत्य है, जिसमे अनीतियुक्त पूर्वाग्रह को छद्म की कहीं स्थान नहीं।"

जानिए किन चार तरह के व्यक्तियों को नींद नहीं आती


‘महाभारत’ की कथा के महत्वपूर्ण पात्र विदुर को कौरव-वंश की गाथा में विशेष स्थान प्राप्त है। विदुर हस्तिनापुर राज्य के शीर्ष स्तंभों में से एक अत्यंत नीतिपूर्ण, न्यायोचित सलाह देने वाले माने गए है।
वे जो सलाह देते थे, उसमें संपूर्ण मनुष्य जाति का भला छिपा होता था। उनकी इन सलाहों को विदुर नीति के नाम से जाना जाता है...।
विदुर का कहना था, कोई भी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों के जीवन में ये चार बातें होती हैं, तब उसकी नींद उड़ जाती है और मन अशांत हो जाता है। ये चार बातें कौन-कौन सी हैं, आईये जानते हैं।
➡ जब किसी स्त्री या पुरुष की शत्रुता उससे अधिक बलवान व्यक्ति से हो जाती है तो भी उसकी नींद उड़ जाती है। निर्बल और साधनहीन व्यक्ति हर पल बलवान शत्रु से बचने के उपाय सोचता रहता है क्यूंकि उसे हमेशा यह भय सताता है कि कहीं बलवान शत्रु की वजह से कोई अनहोनी न हो जाए।
➡ विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा कि यदि किसी व्यक्ति के मन में कामभाव जाग गया हो तो उसकी नींदें उड़ जाती है और जब तक उस व्यक्ति की काम भावना तृप्त नहीं हो जाती तब तक वह सो नहीं सकता है।
➡ यदि किसी व्यक्ति का सब कुछ छीन लिया गया हो तो उसकी रातों की नींद उड़ जाती है। ऐसा इंसान न तो चैन से जी पाता है और ना ही सो पाता है। इस परिस्थिति में व्यक्ति हर पल छीनी हुई वस्तुओं को पुन: पाने की योजनाएं बनाता रहता है और जब तक वह अपनी वस्तुएं पुन: पा नहीं लेता है, तब तक उसे नींद नहीं आती है।
➡ यदि किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति चोरी की है या जो चोरी करके ही अपने उदर की पूर्ति करता है, जिसे चोरी करने की आदत पड़ गई है, जो दूसरों का धन चुराने की योजनाएं बनाते रहता है, उसे भी नींद नहीं आती है। चोर हमेशा रात में चोरी करता है और दिन में इस बात से डरता है कि कहीं उसकी चोरी पकड़ी ना जाए। इस वजह से उसकी नींद भी उड़ी रहती है।
ये चारों बातें व्यवहारिक और हर युग में सटीक मालूम पड़ती हैं, उम्मीद करते हैं कि महात्मा विदुर की बातों से आप भी अपनी सीख लेंगे और दूसरों को भी प्रेरित करेंगे

सबसे बड़ा संयम है मौन


मौन रहने व कम बोलने से ना केवल हमारी वाणी का संयम होता है, अपितु इससे हमारी जीवनी शक्ति का भी संचय होता है। मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों व उनसे उत्पन्न होने वाली बड़ी परेशानियों से बचा लेता है। इसके विपरीत जो आदतन चुप नहीं रह सकते, अपनी समझदारी का बखान करने के लिए एक के बदले दस जवाब देते हैं, उनकी बड़ी परेशानियों में फंसने की संभावनाएं अधिक रहती है। मौन रहने से भी अभिव्यक्तियां प्रकट होती है, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती और यह भी अपना प्रभाव दिखाता है।
केवल न बोलना ही मौन नहीं है। अक्सर लोग वाणी के विराम को मौन समझ लेते है। लेकिन यदि किसी के मन में विचारों की उथल- पुथल हो रहीं हो या उसके भीतर मन में किली अन्य व्यक्ति के लिए द्वेष का ज्वार उठ रहा हो तो इसे मौन नहीं कह सकते। वाणी पर संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंत: मौन। जबकि वास्तविक व पूर्ण मौन वह है, जिसमें मन और वाणी दोनों ही पूरी तरह शांत हो।
मौन हमारी इंद्रियों को संयमित रखता है। इसके द्वारा वाणी के माध्यम से व्यय होने वाली ऊर्जा का संरक्षण होता है। इसलिए कहा जाता है कि जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है, वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है।
ऐसा नहीं है कि हर समय मौन रहने की आवश्यकता है। जहां जरूरी है, वहां अवश्य बोलना चाहिए, सारगर्भित शब्दों में स्वंय को अभिव्यक्त करना चाहिए और व्यर्थ के वाद-विवादों से यथा-संभव बचना चाहिए।

कल्पवृक्ष का रहस्य


वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है
कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते हैं कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्प वृक्ष है, जबकि कुछ का मानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलयकाल में भी जिंदा रहता है।पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले। हिन्दु ग्रंथो एवं पुराणो की एक कथानुसार जब देवताओं एवं दानवों के बीच शेषनाग को लेकर समुद्र का मंथन किया गया था। तब समुद्र मंथन के दौरान अनेको प्रकार के ऐसे सजीव एवं निर्जीव सामान निकले। इस मंथन में सबसे अधिक चर्चित में कामधेनू गाय एवं कल्पवृक्ष का जिक्र होता है। कल्पवृक्ष को कल्पतरु भी कहा जाता है। मानवीय एवं संस्कारिक जीवन में इस दिव्य पेड़ मिथकीय प्राणी किन्नारा या किन्नारी भी कहा गया है। इस पेड़ को स्वर्ग में अप्सराऔर देवता द्वारा संरक्षित किया गया है। वैसे वैसे कल्पवृक्ष को लेकर संस्कृत साहित्य में कई किस्से – कहानियां उल्लेखित की गई है। एक अन्य कथानुसार ऋषि दुर्वासा ने भी कल्प वृक्ष के नीचे जप एवं तप किया था। कल्पवृक्ष के देवताओं के राजा इंद्र के यहां पर होने के पीछे की कहानी भी समुद्र मंथन से जुड़ी है। बताया जाता है कि मंथन के बाद देवराज इन्द्र इस पेड़ को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे। वैसे कल्पवृक्ष को संस्कृत में मनसारा भी कहा जाता है जिसका एक शाही प्रतीक के रूप में उल्लेख किया गया है। कल्पवृक्ष को बेशकीमती सोना और कीमती पत्थरों को प्रदान करने वाला वृक्ष भी कहते है। कल्पवृक्ष को संरक्षित पेड़ के रूप में गिना जाता है।

दैत्यराज विरोचन की दानशीलता


दैत्यराज विरोचन भक्तश्रेष्ठ प्रहलाद के पुत्र थे और प्रहलाद के पश्चात् ये ही दैत्यों के अधिपति बने थे। प्रजापति ब्रहमा के समीप दैत्यों के अग्रणी रूप में धर्म की शिक्षा ग्रहण करने विरोचन ही गए थे। धर्म में इनकी श्रद्धा थी। आचार्य शुक्र के ये बड़े निष्ठावान् भक्त थे और शुक्राचार्य भी इनसे बहुत स्नेह करते थे।
अपने पिता प्रहलाद का विरोचन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसलिए ये देवताओं से कोई द्वेष नही रखते थे। विरोचन के मन में पृथ्वी पर भी अधिकार करने की इच्छा नही हुई, स्वर्ग पर अधिकार करना भला वे क्यों चाहते! वे तो सुतल के राज्य से ही संतुष्ट थे।
शत्रु की ओर से सावधान रहना चाहिए, यह नीति है ओर संपन्न लोगों का स्वभाव है अकारण शंकित रहना। अर्थ का यह दोष है कि वह व्यक्ति को निश्चिंत और निर्भय नही रहने देता। असुरों एवं देवताओं की शत्रुता पुरानी है; क्यों असुर रजोगुण-तमोगुणप्रधान है और देवता सत्वगुणप्रधान। अतः देवराज इंद्र को सदा यह भय व्याकुल रखता था कि यदि कही असुरों ने अमरावती पर आक्रमण कर दिया तो परम धर्मात्मा विरोचन का युद्ध में सामना करना देवताओं की शक्ति से बाहर है, उस समय पराजय ही हाथ लगेगी।
शत्रु प्रबल हो, युद्ध में उसका सामना संभव न हो तो उसे नष्ट करने का प्रबंध पहले करना चाहिए। इंद्र आक्रमण करके अथवा धोखे से विरोचन को मार दे तो शुक्राचार्य अपनी संजीवनी-विद्या के प्रभाव से उन्हें जीवित कर देंगे और आज के प्रशांत विरोचन क्रुद्ध होने पर देवताओं के लिए विपत्ति बन जाएँगे। अतैव देवगुरु बृहस्पति की मंत्रणा से इंद्र ने ब्राहमण का वेश बनाया और सुतल पहुँचे।
विरोचन ने अभ्यागत ब्राह्मण का स्वागत किया। इसके पश्चात् हाथ जोड़कर बोले- ‘मेरा आज सौभाग्य उदय हुआ कि मुझ असुर के सदन में आप के पावन चरण पड़े। मैं आपकी क्या सेवा करुँ?’
इंद्र ने विरोचन की दानशीलता की प्रशंसा की और विरोचन के आग्रह पर बोले- ‘मुझे आपकी आयु चाहिए।’
दैत्यराज का सिर माँगना व्यर्थ था, क्योंकि गुरु शुक्राचार्य की संजीवनी कही गई नही थी। किंतु विरोचन किंचित् भी हतप्रभ नही हुए। उन्होंने प्रसन्नता से कहा- ‘मैं धन्य हूँ। मेरा जन्म लेना सफल हो गया। मेरा जीवन स्वीकार करके आपने मुझे कृतकृत्य कर दिया।’
विरोचन ने अपने हाथ में खड्ग उठाया और एक हाथ से अपना मस्तक काटकर दूसरे हाथ से ब्राह्मण की ओर बढ़ा दिया। इंद्र भय के कारण वह मस्तक लेकर शीघ्र स्वर्ग चले आए। विरोचन को तो भगवान् ने अपना पार्षद बना लिया।

मर्यादा पालन क्यों ?


आहार निद्रा भय मैथुन आदि क्रियाएं समस्त जीवों की समान होते हुए भी जो विशेषता मनुष्य को इन सभी से अलग करती है, वह तत्ततकार्य कलाप को विधिवत् सम्पादन करने की मर्यादा ही है, जिसे शब्दान्तर में ज्ञान या धर्म भी कहा जाता है।
मर्यादा उस रहन सहन की रीति को कहते है जिसे की मर्य- मरणाधर्मा प्राणी मृत्यु से भयभीत हुआ अपने परित्राण के लिए आदान- स्वीकार करता है।
पशु, शारीरिक संघटन में मनुष्यों से चाहे कहीं अधिक हो परंतु उनका आयुष्य स्तर मनुष्यों की तुलना में बहुत हीन होता है। यह बात विस्तारपूर्वक हम पूर्वाद्ध में लिख चुके हैं। साधारण बुद्धि का तो यही तकाजा हो सकता है कि जो जीव अधिक दृढ़ांग हो उसे जीना भी अधिक चाहिए, परंतु यह व्याप्ति मनुष्य और पशुओं के आयुष्य स्तर का संतुलन करते हुए बाधित हो जाती है। इसका एक मात्र कारण जीवनचर्या की मर्यादा का तारतम्य ही कहा जा सकता है। पशु मर्यादा नहीं जानते है, परंतु मनुष्य कुछ ना कुछ नियम पालते है इसलिए जो जितने नियमों का पालन करता है उतना ही दीर्धजीवी हो सकता है। यह मर्यादा पालन का प्रत्यक्ष लाभ है।

श्रेष्ठ जल !!


एक दिन बादशाह ने अपने सभी दरबारियों से प्रश्न किया - 'बता सकते हो कि किस नदी का जल श्रेष्ठ है?'
अधिकांश लोगों ने गंगा के जल को श्रेष्ठ बताया। कुछ ने गोदावरी के जल को।
जब बीरबल से पूछा गया तो वह बाले - 'यमुना का जल श्रेष्ठ है।'
बादशाह ने कहा 'क्या बात करते हो? दुनिया जानती है कि गंगाजल श्रेष्ठ है, तुम्हारे धर्मग्रन्थ भी यही कहते हैं।'
बीरबल बोले - 'जहांपनाह! मैं गंगाजल को अमृत मानता हूं। इसलिए आप उससे किसी जल की तुलना मत कीजिए। वह तो अमृत है। रही बात नदियों के जल की, उनमें तो आपके राज्य की यमुना ही है, जिसका जल सबसे अच्छा है।'
बादशाह मुस्करा कर रह गए। बीरबल के तर्क भी लाजवाब थे।

लालची राजा


एक राजा था मिदास। उसके पास साने की कमी नहीं थी, लेकिन सोना जितना बढ़ता, वह और अधिक सोना चाहता। उसने सोने को खज़ाने में जमाकर लिया था, और हर रोज़ उसे गिना करता था।
एक दिन जब वह सोना गिन रहा था, तो एक अजनबी कहीं से आया और बोला, 'तुम मुझसे ऐसा कोई भी वरदान मांग सकते हो, जो तुम्हें दुनिया में सबसे ज्यादा खुशी दे।' राजा खुश हुआ, और उसने कहा, 'मैं चाहता हूं कि जिस चीज को छुऊँ, वह सोना बन जाए।' अजनबी ने राजा से पूछा, 'क्या तुम सचमुच यही चाहते हो?' राजा ने कहा, ''हाँ'', तो अजनबी बोला, 'कल सूरज की पहली किरण के साथ ही तुम्हें किसी चीज़ को छूकर सोना बना देने की ताक़त मिल जाएगी।'
राजा ने सोचा कि वह सपना देख रहा होगा, यह सच नहीं हो सकता। लेकिन अगले दिन जब राजा नींद से उठा, तो उसने अपना पलंग छुआ, वह सोना बन गया। वह वरदान सच था। राजा ने जिस चीज़ को भी छुआ वह सोना बन गई। राजा ने जिस उसने खिड़की के बाहर देखा, और अपनी नन्हीं बच्ची को खेलते पाया। उसने अपनी बिटिया को यह अजूबा दिखाना चाहा, और सोचा कि वह खुश होगी। लेकिन बगीचे में जाने से पहले उसने किताब पढ़ने की सोची। उसने जैसे ही उसे छुआ, वह सोने की बन गई। वह किताब को पढ़ न सका। फिर वह नाश्ता करने बैठा, जैसे ही उसने फलों और पानी के गिलास को छुआ, वे भी सोने के बन गए। उसकी भूख बढ़ने लगी और वह खुद से बोला, ‘मैं सोने को खा और पी नहीं सकता।' ठीक उसी समय उसकी बेटी दौड़ती हुई वहाँ आई, और उसने उसे बाँहों में भर लिया। वह सोने की मूर्ति बन गई। अब राजा के चेहरे से खुशी गायब हो गई।
राजा सिर पकड़कर रोने लगा। वह वरदान देने वाली अजनबी फिर आया, और उसने राजा से पूछा कि क्या वह हर चीज़ को सोना बना देने की अपनी ताक़त से खुश है? राजा ने बताया वह दुनिया का सबसे दुखी इंसान है। राजा ने उसे सारी बात बताई। अजनबी ने पूछा- 'अब तुम क्या पसंद करोगे, अपना भोजन और प्यारी बिटिया, या सोने के ढेर और बिटिया की सोने की मूर्ति।' राजा ने गिड़गिड़ाकर माफ़ी मांगी, और कहा, 'मैं अपना सारा सोना छोड़ दूंगा, मेहरबानी करके मेरी बेटी मुझे लौटा दो, क्यांकि उसके बिना मेरी हर चीज़ मूल्यहीन हो गई है।' अजनबी ने राजा से कहा, - 'तुम पहले से बुद्धिमान हो गए हो।' और उसने अपने वरदान को वापिस ले लिया। राजा को अपनी बेटी फिर से मिल गई, और उसे एक एसी सीख मिली जिसे वह जिंदगी-भर नहीं भुला सका।

भगवान् बुद्ध का उपदेश


भगवान् बुद्ध के एक अनुयायी ने कहा, ” प्रभु ! मुझे आपसे एक निवेदन करना है” बुद्ध: बताओ क्या कहना है ?
अनुयायी: मेरे वस्त्र पुराने हो चुके हैं . अब ये पहनने लायक नहीं रहे . कृपया मुझे नए वस्त्र देने का कष्ट करें !
बुद्ध ने अनुयायी के वस्त्र देखे , वे सचमुच बिलकुल जीर्ण हो चुके थे और जगह जगह से घिस चुके थे। इसलिए उन्होंने एक अन्य अनुयायी को नए वस्त्र देने का आदेश दे दिए।
कुछ दिनों बाद बुद्ध अनुयायी के घर पहुंचे।
बुद्ध : क्या तुम अपने नए वस्त्रों में आराम से हो ? तुम्हे और कुछ तो नहीं चाहिए ? अनुयायी: धन्यवाद प्रभु . मैं इन वस्त्रों में बिल्कुल आराम से हूँ और मुझे और कुछ नहीं चाहिए। बुद्ध: अब जबकि तुम्हारे पास नए वस्त्र हैं तो तुमने पुराने वस्त्रों का क्या किया ? अनुयायी: मैं अब उसे ओढने के लिए प्रयोग कर रहा हूँ ?
बुद्ध: तो तुमने अपनी पुरानी ओढ़नी का क्या किया ?
अनुयायी: जी मैंने उसे खिड़की पर परदे की जगह लगा दिया है .
बुद्ध: तो क्या तुमने पुराने परदे फ़ेंक दिए ?
अनुयायी: जी नहीं , मैंने उसके चार टुकड़े किये और उनका प्रयोग रसोई में गरम पतीलों को आग से उतारने के लिए कर रहा हूँ.
बुद्ध: तो फिर रसॊइ के पुराने कपड़ों का क्या किया ?
अनुयायी: अब मैं उन्हें पोछा लगाने के लिए प्रयोग करूँगा .
बुद्ध: तो तुम्हारा पुराना पोछा क्या हुआ ?
अनुयायी: प्रभु वो अब इतना तार -तार हो चुका था कि उसका कुछ नहीं किया जा सकता था , इसलिए मैंने उसका एक -एक धागा अलग कर दिए की बातियाँ तैयार कर लीं। उन्ही में से एक कल रात आपके कक्ष में प्रकाशित था।
बुद्ध अनुयायी से संतुष्ट हो गए। वो प्रसन्न थे कि उनका शिष्य वस्तुओं को बर्बाद नहीं करता और उसमे समझ है कि उनका उपयोग किस तरह से किया जा सकता है

कृष्ण लीला- परछाई ना पकड़ पाने पर रोना।


एक दिन कान्हा को नई लीला सूझी भगवान का काम नित्य नयी नयी लीलाएं करके माता को आनंदित करना था। पूर्व जन्म में नंद बाबा और यशोदा मैया ने भगवान की उपासना करके भगवान से पुत्र रुप में वात्सल्य सुख की ही तो कामना की थी। भगवान उस इच्छा को अधूरी कैसे रहने देते? इसलिए वे नित्य नयी लीलाओं से मां को रिझाने का प्रयास करते रहते थे। कान्हा नंद के आंगन में घुटनो के बल खेल रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि अपनी परछाई पर पड़ी। जो उन्ही का अनुसरण कर रही थी। जब वे हंसते थे तो परछाई भी हंसती थी। कन्हैया बहुत खुख हुए सोचा- चलो एक नया साथी मिल गया। घर में अकेले खेलते खेलते मेरा मन ऊब गया था। अब यह रोज मेरा मन बहलाया करेगा।
कन्हैया अपनी परछाई से बोले- भैया तुम कहां रहते हो? चलो हम दोनों मित्र बन जाएं। जब मै माखन खाउंगा तो तुम्हें भी खिलाउंगा। जब दूध पीऊंगा तो तुम्हें भी पिलाऊंगा। दाऊ भैया मुझसे बड़े है इसलिए मुझसे लड़ जाते है। तुम मुझसे लड़ना नहीं। हम लोग खूब प्रेम से रहेंगे। यहां किसी चीज की कमा नहीं है। तुम्हें जितना भी माखन मिश्री चाहिए मै तुम्हें मैया से कहकर दिला दूंगा।
इस प्रकार करते हुए कन्हैया अपनी छाया को पकड़ने का प्रयास करने लगे। बार-बार आगे पीछे जाते, इधर घूमते उधर घूमते परंतु परछाई किसी के पकड़ में आई है जो कन्हैया के पकड़ में आती। जब कन्हैया थककर हार गए और परछाई नहीं पकड़ पाए तो रोने लगे। उन्हे रोता देख यशोदा मां ने पूछा- कन्हैया तुम्हें क्या हुआ, इस तरह क्यो रो रहे हो।
कन्हैया ने माता को अपना प्रतिबिंब दिखाकर बात बदल दी। श्री कृष्ण बोले मां यह कौन है? यह हमारे घर में माखन के लोभ में घुस आया है। मै क्रोध करता हूं तो यह भी क्रोध करता हूं। मैयै आओ ना हम दोनों मिलकर इसे बाहर कर दे। मैया कन्हैया के भोलेपन पर मुग्ध हो गयीं और कन्हैया के आंसू पोछकर उन्हें गोद में ले लिया।

योगमाया की भविष्यवाणी


इस बार मेरे काल ने जन्म लिया है यह सोचकर कंस घबराया हुआ था। उसने बंदीगृह में पहुंचते ही चिल्लाकर कहा- देवकी कहां है वह बालक? मै अभी अपनी तलवार से काटकर के टुकड़े- टुकड़े कर दूंगा, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
देवकी ने बड़े दु:क और करूणा से कहा- मेरे प्यारे भाई, यह तो कन्या है और यह भी तुम्हारी पुत्री के समान है। भला ये तुम्हे क्या मारेगी। तुम्हें इसकी हत्या नहीं करनी चाहिए। तुमने एक एक करके मेरे छह पुत्रों को मार डाला। मैने तुमसे कुछ नहीं कहा। मै तुमसे इसके प्राणों की भीख मांगती हूं। मै तुम्हारी छोटी बहन हूं। मुझ पर दया करों। यह मेरी अंतिम संतान है। मै हाथ जोड़कर तुमसे विनती करती हूं। यह मेरी अंतिम निशानी है।
कन्या को गोद में छिपाकर बड़ी दीनता के साथ देवकी ने याचना की। किंतु कंस बड़ा ही दुष्ट था। उसके ऊपर देवकी की विनती का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और कन्या को देवकी की गोद से छीनकर ले गया। प्रकृति भी उसकी क्रूरता पर चीख उठी। उसने जैसे ही कन्या को चट्टान पर पटकने की कोशिश की- वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई।
वह कन्या कोई सधारण कन्या तो था नहीं , साक्षात श्रीकृष्ण की योगमाया थी। आकाश में जाते ही वह देवी के रूप में बदल गई। देवता, गन्धर्व, अप्सराएं उसकी स्तुति करने लगे।
उस देवी ने कंस से कहा- रे मूर्ख! मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा। तुझे मारने वाला तेरा शत्रु कहीं और पैदा हो चुका है। अब तू निर्दोष बालको की हत्या मत कर। कंस से ऐसा कहकर ही भगवती योगमाया अंतर्धान हो गयीं और विन्ध्याचल की विन्ध्येश्वरी नाम से प्रसिद्ध हुई

काकासुर की हार


कंस ने दूसरे दिन अपने दरबार में मंत्रियों को बुलवाया और योगमाया की सारी बातें उनसे बतायीं। कंस के मंत्री दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही क्रूर थे। वे सब देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर उन सबों ने कहा- ‘यदि आपके शत्रु विष्णु ने कहीं और जन्म ले लिया है तो इस दस दिन के भीतर जन्में सभी बच्चों को आज ही मार डालेंगे। हम आज ही बड़े-बड़े नगरों, छोटे-छोटे गावों, अहीरों की बस्तियों में और अन्य स्थानों में जितने भी बच्चे पैदा हुए हैं, उन्हें खोजकर मारना शुरू कर देते हैं। शत्रु को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। इसलिए उसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए आप हम जैसे सेवकों को आदेश दीजिए’। एक तो कंस की बुद्धि वैसे ही बिगड़ी हुई थी, दूसरे उसके मंत्री उससे भी अधिक दुष्ट थे। कंस के आदेश से दुष्ट दैत्य नवजात बच्चों को जहां पाते, वहीं मार देते। गोकुल में भी उत्पात शुरू हो गए। अभी छठी के दिन भगवान का जात कर्म संस्कार ही हुआ था कि कंस के द्वारा भेजी गई पूतना श्रीकृष्ण को मारने के लिए नंद बाबा के घर पहुंची। उसने सुंदर गोपी का वेष बनाकर श्रीकृष्ण को गोद में उठा लिया और अपने विष लगे स्तनों का दूध पिलाने लगी। श्रीकृष्ण ने दूध के साथ उसके प्राणों को भी खींच लिया और उसे यमलोक भेज दिया। एक दिन की बात है, नन्हें-से कन्हाई पालने में लेटे हुए अकेले ही कुछ हूं-हां कर रहे थे और अपने हाथ, पैरों को हिला रहे थे। उसी समय कंस का भेजा हुआ एक दुष्ट राक्षस कौवे का वेष बनाकर उड़ता हुआ वहां आ पहुंचा। वह बहुत विकराल था और अपने पंखों को फड़फड़ा रहा था। वह पहले तो भयकंर रूप से बार-बार श्रीकृष्ण को डराने का प्रयास करने लगा, पर श्रीकृष्ण मुस्कुराते रहे। फिर वह क्रोधित होकर बालकृष्ण को मारने के लिए झपटा। बालरूप भगवान श्रीकृष्ण ने बायें हाथ से कसकर उसके गले को पकड़ लिया। उसके प्राण छटपटाने लगे। भगवान ने उसे घुमाकर इतनी जोर से फेंका कि वह कंस के सभा मंडप में जा गिरा। बड़ी मुश्किल से उसे होश में लाया गया। कंस ने घबड़ाकर उससे पूछा- तुम्हारी ये दशा किसने की? काकासुर ने कहा – राजन जिसने मेरी गर्दन मरोड़कर यहां फेंक दिया, वे कोई साधारण बालक नहीं हो सकता। निश्चित ही भगवान श्रीहरि ने अवतार ले लिया है।

पूतना वध


कंस को जब कृष्णु जन्म की सूचना मि ली तो पूतना नाम की राक्षसी को कृष्णो को मारने के लि्ए भेजा। कंस के भेजने पर पूतना सुंदर युवती का रूप धारण करके नंद के घर में घुसी और विष लगे अपने स्तनों से कृष्ण को दूध पिलाने लगी। गोकुल में पहुँच कर वह सीधे नन्दबाबा के महल में गई और शिशु के रूप में सोते हुये श्रीकृष्ण को गोद में उठाकर अपना दूध पिलाने लगी। उसकी मनोहरता और सुन्दरता ने यशोदा और रोहिणी को भी मोहित कर लिया, इसलिये उन्होंने बालक को उठाने और दूध पिलाने से नहीं रोका। पूतना ने कृष्ण, को चुरा लिंया और अपने वक्ष पर जहर लगाकर उन्हें अपना दूध पि लाने लगी। श्री कृष्णन ने पूतना के वक्ष स्थरल से उसके प्राण ही खींच लिए और विशालकाय राक्षसी खुद मृत्यु को प्राप्त हो गई। पूतना के शरीर ने गिरते-गिरते भी छः कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफ़ा के समान गहरे थे और स्तन पहाड़ से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आँखें अंधे कुऐं के समान गहरी, नितम्ब नदी के करार की तरह भयंकर; भुजाऐं, जाँघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भाँति जान पड़ता था। पूतना के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सर तो पहले ही फट से रहे थे। जब गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं, तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्ण को उठा लिया।

जानिए ताड़का का वध क्यों किया था श्रीराम ने


वाल्मीकि रामायण के ऐतिहासिक पात्रों में से एक हैं। उन्हीं में से एक थी 'ताड़का'। ताड़का सुकेतु यक्ष की पुत्री थी, जो एक शाप के प्रभाव से राक्षसी बन गई थी। उसका विवाह सुंद नाम के दैत्य से हुआ था। ताड़का के दो पुत्र थे, उनके नाम थे सुबाहु और मारीच।
ताड़का का परिवार अयोध्या के नजदीक एक जंगल में रहता था। ताड़का का परिवार पूरी तरह से राक्षसी प्रवृत्तियों में लिप्त रहता था। वह देवी-देवताओं के लिए यज्ञ करने वाले ऋषि-मुनियों को तंग किया करते थे। सभी ऋषि मुनि ताड़का और उसके दोनों पुत्रों से परेशान थे।
जब उन्होंने यह बात ऋषि विश्वामित्र को बताई तो विश्वामित्र अपने दो शिष्यों राम और लक्ष्मण को लेकर यज्ञ भूमि पहुंचे। अयोध्या के दोनों राजकुमारों ने ताड़का के परिवार का अंत कर दिया। लेकिन मारीच बच निकला और लंका जा पहुंचा।
वह राम से प्रतिशोध लेना चाहता था क्योंकि उसकी मां ताड़का और भाई को श्रीराम ने मार दिया था। सीता-हरण के दौरान मारीच ने ही पर रावण ने मारीच की मायावी बुद्धि की सहायता ली थी। मारीच सीता हरण के दौरान सोने का हिरण बना था। जिसे देखकर ही उसका शिकार करने के लिए उधर भगवान श्रीराम उसके पीछे गए और इधर रावण ने सीता का हरण कर लिया था।
सुकेतु नाम का एक यक्ष था। उसकी कोई भी संतान नहीं थी। इसलिए उसने संतान प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और उन्होंने संतान प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय बाद सुकेतु यज्ञ के यहां ताड़का का जन्म हुआ। वरदान स्वरूप ताड़का के शरीर में हजार हाथियों का बल था।
तब सुकेतु यक्ष ने उसका विवाह सुंद नाम के दैत्य से किया। लेकिन ताड़का( ताड़का का एक अन्य नाम 'सुकेतुसुता' भी था।) दैत्यों की तरह व्यवहार करने लगी तब अगस्त्य ऋषि के शाप से वह भी राक्षसी हो गयी थी।
जब ये बात सुंद को पता चली तो वो अगस्त्य ऋषि को मारने पहुंचा। तब ऋषि ने सुंद को भस्म कर दिया। जब उसने अपने पति की मृत्यु के लिए अगस्त्य ऋषि से बदला लेना चाहा। ऐसी विषम परिस्थितियों में जब अगस्त्य ऋषि ने विश्वामित्र की सहायता मांगी तब विश्वामित्र के शिष्यों राम और लक्ष्मण ने मिलकर ताड़का का संहार किया था

भगवान श्रीराम से भेंट


हनुमान जी सुग्रीव आदि वानरों के साथ ऋष्यमूक पर्वत की एक बहुत ऊंची चोटी पर बैठे थे। उसी समय भगवान श्रीरामचंद्र जी सीता जी की खोज करते हुए लक्ष्मणजी के साथ ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुंचे। ऊंची चोटी पर से वानरों के राजा सुग्रीव ने उन लोगों को देखा। उसने सोचा कि ये बालि के भेजे हुए योद्धा हैं, जो मुझे मारने के लिए हाथ में धनुष-बाण लिए चले आ रहे हैं। दूर से देखने पर ये दोनों बहुत बलवान जान पड़ते हैं। डर से घबराकर उसने हनुमानजी से कहा- हनुमान! वह देखों, दो बहुत ही बलवान मनुष्य हाथ में धनुष-बाण लिए इधर ही बढ़े चले आ रहे हैं। लगता है, इन्हें बालि ने मुझे मारने के लिए भेजा है। ये मुझे ही चारों ओर खोज रहे हैं। तुम तुरंत तपस्वी ब्राह्मण का रूप बना लो और इन दोनों योद्धाओं के पास जाओ और ये पता लगाओ कि ये कौन हैं। यहां किस लिए घूम रहे हैं। अगर कोई भय की बात जान पड़े तो मुझे वहीं से संकेत कर देना। मैं तुरंत इस पर्वत को छोड़कर कहीं और भाग जाऊंगा।
सुग्रीव को अत्यंत डरा हुआ और घबराया देखकर हनुमानजी तुरंत तपस्वी ब्राह्मण का रूप बनाकर भगवान श्रीरामचंद्र और लक्ष्मणजी के पास जा पहुंचे। उन्होंने दोनों भाइयों को माथा झुकाकर प्रणाम करते हुए कहा “प्रभो! आप लोग कौन हैं? कहां से आए हैं? आप लोगों के पैर बहुत कोमल हैं और ये धरती कठोर हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से कोई हों या नर और नारायण नाम के प्रसिद्ध ऋषि हों। आप अपना परिचय देकर हमारा उपकार कीजिए”।
हनुमान जी की बातें सुनकर भगवान श्रीरामचंद्रजी ने अपना और लक्ष्मण का परिचय देते हुए कहा कि राक्षसों ने सीताजी का हरण कर लिया है। हम उन्हें खोजते हुए चारों ओर घूम रहे हैं। हे ब्राह्मणदेव! मेरा नाम राम और मेरे भाई का नाम लक्ष्मण है। हम अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं। अब आप अपना परिचय दीजिए। हनुमान ने जान लिया कि ये स्वयं भगवान ही हैं। बस, वे तुरंत ही उनके चरणों पर गिर पड़े। राम ने उठाकर उन्हें गले से लगा लिया।
हनुमानजी ने कहा, “प्रभो आप तो सारे संसार के स्वामी हैं। आप के चरणों की सेवा करने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। अब मुझे अपने परम पवित्र चरणों में जगह दीजिए”। भगवान श्रीराम ने प्रसन्न होकर उनके मस्तक पर अपना हाथ रख दिया। हनुमान जी ने उत्साह और प्रसन्नता से भरकर दोनों भाईयों को उठाकर कंधे पर बैठा लिया। हनुमानजी ने राम-लक्ष्मण को कंधे पर बिठाया- यही सुग्रीव के लिए संकेत था कि इनसे कोई भय नहीं है। सुग्रीव के पास आकर सुग्रीव का परिचय कराया। भगवान ने सुग्रीव के दुख और कष्ट की सारी बातें जानीं। उसे अपना मित्र बनाया और दुष्ट बालि को मारकर उसे किष्किन्धा का राजा बना दिया। इस प्रकार हनुमानजी की सहायता से सुग्रीव का सारा दुख दूर हो गया।

जनसेवा ही सच्चे अर्थों में ईश सेवा


एक व्यापारी का व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था। उसके पास धन की कई तिजोरियां भरी थीं। व्यापारी ने एक दिन बहुत ही मूल्यवान वस्तु खरीदी और उसे ईसा मसीह को अर्पित करने आया। अत्याधिक मुदित मन से वे ईसा के पास पहुंचा और अपनी भेंट उनके चरणों में रखकर बोला- प्रभु, मेरी इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करें। ईसा ने व्यापारी की ओर देखा, फिर उस कीमती वस्तु पर दुष्टि डाली और नीचे देखने लगे। उन्होंने उस वस्तु को हाथ भी नहीं लगाया। उनकी ऐसी भावभंगिमा देखकर व्यापारी का सारा उल्लास समाप्त हो गया और उसे बड़ी ठेस पहुंची। उसने विनम्रता से पुन: निवेदन किया- प्रभु, ये वस्तु अत्यंत कीमती है। मैने बड़ी कठिनाई से इसे जुटाया है। यदि आप इसे ग्रहण करेंगे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा। कृपाकर इसे लेकर मुझे उपकृत करें। ईसा ने दृष्टि उठाकर कहा- मैं इस भेंट को नहीं ले सकता। तुमने इसे चोरी के पैसे से खरीदा है।
व्यापारी को काटो तो खून नहीं। विस्मित होकर वे बोला- प्रभु, ये आप क्या कह रहे हैं? मैंने तो इसे अपनी कमाई के पैसे से खरीदा है। ईसा ने कहा- तुम्हारा पड़ोसी भूखा और वस्त्रहीन हो और तुम्हारी तिजोरी भरी हो, तो ये पैसा चोरी का नहीं, तो और किसका हो सकता है? तुम अपनी इस भेंट को ले जाकर बेच दो और जो पैसा मिले, उसे भूखों को भोजन कराने और वस्त्रहीन को वस्त्र देने में खर्च करो। व्यापारी ने आग्रह के स्वर में कहा- प्रभु, मेरे पास अभी बहुत धन है। मैं आपके आदेश का पालन करूंगा। किंतु इस भेंट को तो आप ले ही लीजिए। मगर ईसा ने वे भेंट नहीं ली। उन्होंने कहा- तो जरूरतमंदो की सहायता करता है, मुझे सबसे कीमती भेंट देता है। यदि तुम ऐसा करोगे तो मुझे स्वत: ही तुम्हारी ओर से मूल्यवान भेंट प्राप्त हो जाएगी। इंसानों की सेवा ही मेरी सेवा है।
शिक्षा- मानवता वही सार्थक होती है जहां भावना और आचरण की दिशा ‘निज’ से ऊपर उठकर ‘पर’ पर केंद्रित हो जाती है।

भगवान की चाहत


एक साधु नदी के पास ध्यान कर रहे थे, तभी एक युवा व्यक्ति ने उन्हें टोकते हुए पूछा, "गुरूजी, मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।" साधु ने कहा, "क्यों?" युवा व्यक्ति ने एक पल के लिए सोचा और फिर कहा, "क्यों कि मैं भगवान को पाना चाहता हूँ|"
गुरु बाहर की ओर आए, उन्होंने उस व्यक्ति की गर्दन को पकड़ा, उसे नदी में घसीटा, और उसका सर पानी के नीचे कर दिया। वहाँ उसे एक मिनट के लिए पकड़े रखा। वह व्यक्ति खुद को मुक्त करने के लिए लात मार रहा था। गुरु ने अंत में उसे नदी से बाहर खींच लिया। युवक सांस लेने के लिए हांफ रहा था। गुरूजी ने पूछा, "मुझे बताओ, जब तुम पानी के नीचे थे तो तुम्हे सबसे ज्यादा किस चीज की जरूरत थी।" "हवा की " आदमी ने जवाब दिया। "बहुत अच्छा, "गुरु ने कहा, "घर जाओ और मेरे पास वापस आना जब तुम्हे भगवान की चाहत भी उतनी ही हो जितनी तुम्हे अभी हवा की थी।"

समुद्रोल्लंघन की तैयारी


राक्षसों के राजा रावण की राजधानी चारों ओर समुद्र से घिरी हुई थी। वहाँ का दुर्ग (किला) भी बहुत विशाल और सुदृढ़ था। उसके चारो ओर बलवान राक्षसों का पहरा लगा रहता था। इस किले के चतुर्दिक गहरी खाई अभेध कवच की तरह इसकी सुरक्षा करती थी, जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर था। इसी किलेके भीतर एक वाटिका थी, जिसे अशोकवाटिका कहते थे। रावण ने माता सिता जी का हरण करके उन्हें इसी वाटिका में वन्दिनी बना रखा था। उनके आस-पास चारो ओर भयानक राक्षसों को पहरे पर बिठा रखा था। ऐसी स्थिति में किसी का भी सीता जी के पास पहुँच सकना एकदम असम्भव-जैसा था। सबसे बड़ी समस्या समुद्र को पार करने की थी। इसकी चौड़ाई सौ योजन(800 मील) थी। बिना इसको पार किये किसी के लिए भी लंका पहुँचना असम्भव था।
सब लोग इस समस्या को लेकर बहुत ही चिन्तित थे। अंगद ने सभी मुख्य-मुख्य सेनापतियों से समुद्र पार करने के विषय में अपनी-अपनी शक्ति और बलका परिचय देने को कहा। अंगद की बातें सुनकर वानर वीर गजने कहा, मैं दस योजना की छलाँग लगा सकता हूं। गवाक्ष ने बीस योजना तक जाने की बात कही। शरभ ने क्षमता तीस योजनतक बतायी। वानर श्रेष्ठ ऋषभ ने कहा, मैं चालीस योजन की छलाँग लगा सकता हूं। गन्दमादन नामक परम तेजस्वनी वानर ने एक छलाँग में पचास योजन तक चले जाने की बात बतायी। परम बलशाली वानरराज द्विविद ने कहा, मैं एक छलाँग में सत्तर योजन तक की दूरी पार कर सकता हूं।
सबकी बाते सुनकर भालुओं के सेनापति जाम्बवान ने कहा, अब मैं बहुत बूढ़ा हो चला हूं। मुझमें पहले-जैसा बल नहीं रह गया हैं। लेकिन मैं एक छलाँग में नब्बे योजन तक चला जाऊँगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अंगद ने कहा, मैं एक छलाँग में इस सौ योजन चौड़े समुद्र को पार कर जाऊँगा। लेकिन लौटते समय भी मुझमें इतनी ही शक्ति रह पायगी, इस बात को लेकर मेरे मन में सन्देह है।
अन्त में वृद्ध जाम्बवान ने हनुमान जी को देखा। वह उस समय चुपचाप एक किनारे शान्त बैठे हुए थे। जाम्बवान ने कहा, वीरवर हनुमान तुम पवन देवता के पुत्र हो उन्हीं के समान बलवान हो। तुम बल, बुद्धि, विवेक, शील में सर्वश्रेष्ठ हो। तुम्हारी समता करने वाला तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं हैं। बालपन में ही तुमने ऐसे- ऐसे अदभुत कार्य किये हो, जो दूसरों के लिये असम्भव है। लंका जाकर भगवान श्रीरामचन्द्र जी का संदेश माता सीता जी तक पहुँचाने के लिये मैं तुमसे अधिक योग्य किसी को नहीं समझता हुँ। इस सौ योजन चौड़े समुद्र को लाँघ जाना तुम्हारे लिये कौन-सी बड़ी बात है। तुम्हारा तो जन्म ही भगवान श्रीरामचन्द्र जी का कार्य पूरा करने के लिये हुआ है।

सच्चिदानन्द के ज्योतिषी


भगवान शिव हैं श्रीराम के अनन्य भक्त। वे दिन-रात भगवान श्रीराम के पावन नाम का स्मरण करते हैं और उसी नाम के बल पर काशी में मरने वाले जीवों को मुक्ति का उपदेश दिया करते हैं। जब उन्होंने सुना की उनके इष्टदेव श्रीराम के अवतार अयोध्या में हो गया, तब उनके हृदय में भगवान श्रीराम के दर्शन की लालसा अत्यन्त ही बलवती हो गयी। वे सोचने लगे कि भगवान का दर्शन किस तरह हो? उन्होने भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त काकभुशुण्डि को बुलाया और उन्हें साथ लेकर आँख में प्रभु-दर्शन की लालसा लिये अयोध्या के लिये चल पड़े। इस प्रकार देवाधिदेव भगवान शिव और परम भागवत काकभुशुण्डि गुरु-शिष्य के रुप में अयोध्या पहुँचे। उस समय वे मनुष्य रुप थे, इसलिये उन्हें कोई पहचान न सका। बहुत देरतक इधर-उधर अयोध्या की गलियों में भ्रमण करने के बाद भी भगवान शिव को प्रभु के दर्शन का कोई उपयुक्त उपाय नहीं दिखायी दिया। अन्त में भगवान शिव एक जगह बैठ गये और काकभुशुण्डि जी ने क्षण भर में एक बहुत ही प्रसिद्ध एंव अत्यन्त अनुभव वृद्ध ज्योतिषी के आगमन की बात अयोध्या के घर-घर में फैला दी। लोग झुण्ड-के-झुण्ड ज्योतिषी के पास आने लगे और चारो ओर भगवान शिव की ज्योतिष-मर्मज्ञता की ही चर्चा हो रही थी।
कुछ समय में ही ज्योतिषी की विशेषता की चर्चा राजभवन के दासियों ने सुनीं और उन्होंने भी अपने बच्चोंके भविष्य की जानकारी ज्योतिषी महाराज से प्राप्त कीं। दासियों के माध्यम से राजभवन में कौसल्या अम्बा तक प्रकाण्य ज्योतिषी के आगमन का समाचार पहुँच गया। जल्दी ही भगवान शिव को सम्मान के साथ कौसल्या के महल में दासियों के द्वारा बुलवाया गया।
भगवान शिव के आनन्द का तो पारावार ही न रहा जब उन्होंने सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र प्रभु को कौसल्या अम्बा की गोदी में बैठकर मन्द-मन्द मुसकराते हुए देखा
भगवान शिव का राजमहल में यथोचित सत्कार किया गया। सुमित्रा तथा कैकेयी भी अपने पुत्रों के साथ कौसल्या के भवन में आ पहुँची। सभी माताओं ने भगवान शिव के चरणों में रखकर बालकों को प्रणाम करवाया और उनसे अपने बच्चों का भविष्य बताने की प्रार्थना कीं। भगवान शिव ने भगवान श्रीराम तथा शेष तीनों भाइयों के सुयश का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा, सीता-स्वयंवर, ताड़का-वध, राक्षसों के विनाश एव भक्तों के कल्याण की खुब चर्चा की। प्रभु श्रीराम के करारविन्दों को तो वे छोड़ना ही नहीं चाहते थे। परन्तु इस सुख से वे शीघ्र ही वंचित कर दिये गये, क्योंकि भगवान को भूख लग रही थी। तदनन्तर शंकर जी रनिवास को आनन्द में डूबा छोड़कर कैलास आये।

आरूणी की भक्ति


प्राचीन काल में आयोद धौम्य नाम के एक ऋषि थे। पूरे आश्रम में महेर्षि की मंत्र वाणी गूंजती रहती है। गुरुजी प्रात: 4 बजे उठकर गंगा स्नान करके लौटते, तब तक शिष्यगण भी नहा-धोकर बगीची से फूल तोड़कर गुरु को प्रणाम कर उपस्थित हो जाते। आश्रम, पवित्र यज्ञ धूम्र से सुगंधित रहता। आश्रम में एक तरफ बगीचा था। बगीचे के सामने झोपड़ियों में अनेक शिष्य रहते थे।
उनमें आरूणि नाम का शिष्य बड़ा ही नम्र, सेवाभावी और आज्ञापालक था। एक बार खूब वर्षा हुई। गुरु ने आरूणी को आश्रम के खेतों की देखभाल के लिए भेजा। आरुणि ने देखा कि खेत की मेड़ एक स्थान पर टूट गई है तथा वहां से बड़े जोर से पानी की धारा बहने लगी है। आरुणि ने टूटी मेड़ पर मिट्टी जमाकर पानी रोकना चाहा किंतु बहता पानी मिट्टी को बहा ले जाता।
आखिर आरूणी पानी रोकने के लिए स्वयं ही उस टूटी हुई सीमा में लेट गया। उसके शरीर के अवरोध के कारण बहता पानी तो रुक गया, परंतु इस तरह उसे सारी रात ठंडे पानी में लेटे रहना पड़ा। इस प्रकार उसने खेत की रक्षा की।
प्रातःकाल हुआ। आश्रम के सब शिष्य जब गुरुदेव को प्रणाम करने गये तब उनमें आरूणी दिखा नहीं। गुरु शिष्यों को साथ लेकर आरूणी को ढूँढने खेत की ओर गये और आवाज लगायी।
"आरूणी...! आरूणी...!!"
आरूणी ने गुरु की आवाज सुनी। उसका शरीर तो ठंड से ठिठुर गया था, आवाज दब गयी थी, फिर भी वह उठा और गुरुदेव को प्रणाण करके बोला "क्या आज्ञा है गुरुदेव?"
गुरु आयोद धौम्य का हृदय भर आया। शिष्य की सेवा देखकर उनका गुरुत्व छलक उठा। आरूणी के अंतर में शास्त्रों का ज्ञान अपने-आप प्रकट होने लगा। गुरु ने उसका नाम उद्दालक रखा। धन्य है गुरुभक्त आरूणी !

कोई दुख में भी खुश है तो कोई सुख में दुःखी


कुछ व्यक्ति यात्रा पर निकले। रात के अंधेरे में वे मार्ग भटक गए और एक पहाड़ी नदी के किनारे रात गुजारने के लिए ठहर गए। लेटे-लेटे एक बोला-हमारे पास खाने को कुछ नही है, भूख से हाल बेहाल हैं और इस पथरीली भूमि में पड़े हुए हैं। न सोने का ठिकाना हैं न भोजन का। उसकी निराशा भरी बातें सुनकर उसका दूसरा साथी बोला-घर पर रहते हुए सुख-सुविधा का जीवन भी तो बिताते हैं। संसार के हर क्षेत्र में सुख और दुख साथ चलते हैं। जिसने दुख का दर्द नहीं सहा, वह सुख का सच्चा आनंद भी नहीं ले सकता।
तभी तीसरे ने कहा-सही है भाई। वे बातें कर ही रहे थे, तभी वहां एक साधु आया और बोला-तुम लोग सुबह उठकर जब चलने लगो तो एक-एक मुट्ठी इस नदी की रेत अपनी-अपनी जेबों में भर लेना। उस बालू का दोपहरी में सूरज की रोशनी में देखना, तुम्हें दुःख और सुख के दर्शन हो जाएंगे। यह कहकर साधु वहां से चला गया।
सुबह वे उठे और साधु के निर्देश के अनुसार सबने एक-एक मुट्ठी नदी की रेत अपनी-अपनी जेब में डाल ली और चल पड़े। दोपहर को जब उन्होंने रेत को देखा तो आश्चर्य के मारे उनकी आंखें चौड़ी हो गई। जिसे वे रेत समझ रहे थे वे रत्न थे। जो संतोषी थे वे प्रसन्नता से चहकते हुए बोले-हम मालामाल हो गए। किंतु जो निराश मनोवृत्ति के थे बोले-अरे तुम हंस रहे हो, तुम्हें तो रोना चाहिए। ऐसा कहकर वे मुंह लटकाकर बैठ गए। साथियों ने पूछा-क्यों, क्या हुआ? उन्होंने कहा- यह सोचो कि एक मुट्ठी रेत की जगह हम थैला भर रेत भी तो ला सकते थे। अपने निराश साथी की बात सुनकर बाकी हंसते हुए बोले-उस साधु को मालूम था कि वह थैला भरने को बोलेगा तो कोई नहीं सुनेगा। इसीलिए उसने एक मुट्ठी रेत ही रखने को कहा। लेकिन हमें जीवन में हर स्थिति का सामना करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
सार- सुख और दुख मनुष्य को अपनी मनोवृत्ति के अनुसार मालूम पड़ते हैं। कुछ व्यक्ति दुःख में भी खुश रहते हैं और कुछ सुख में दुःख खोजकर दुःखी होते रहते हैं।

इसलिए देवव्रत का नाम पड़ा भीष्म


भीष्म पितामह गंगा तथा शान्तनु के पुत्र थे। ये महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे।
एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषाद कन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं।
यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी।
तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा।
महाभारत के प्रसंगों के अनुसार हर तरह की शस्र विद्या के ज्ञानी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया।

धर्म का रहस्य


जाजलि नामके एक ऋषि थे। एक बार वे महातपस्वी ऋषि निराहार रहकर केवल वायु-भक्षण करते हुए काष्ठ की भाँति अविचलभाव से खड़े हो घोर तपस्या में प्रवृत्त हुए । उस समय उन्हें कोई ठूँठ समक्षकर एक चिड़िये का जोड़ा उनकी जटाओं में अपने रहने का घोंसला बनाकर कभी-कभी तो पाँच-दस दिन बाद भी लौटता था, पर ऋषि बिना हिले-डुले ही खड़े रहते थे।
एक बार-जब वे पक्षी उड़ने के बाद एक महीने तक वापस नहीं लौटे तब भी जाजलि ऋषि ज्यों- के- त्यों खड़े रहे। अपने मस्तक पर चिड़ियों के पैदा होने और बढ़ने आदि की बातें याद करके वे अपने को महान धर्मात्मा समझ आकाश की ओर देखकर बोल उठे, मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया । इतनें में आकाश वाणी हुई- जाजलि तुम धर्म में तुलाधार की बराबरी नहीं कर सकते । काशीपुरी का धर्मात्मा तुलाधार भी ऐसी बात नहीं कहता ।
जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे तुलाधार को देखने काशी आये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने तुलाधार को सौदा बेचते हुए देखा । तुलाधार भी जाजलि को देखते ही उठकर खड़े हो गये फिर आगे बढ़कर बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्होंने जाजलि का स्वागत करते हुए कहा- आप मेरे पास आ रहें हैं यह बात मुझे मालुम हो गयी थी । आपने समुद्रतट पर एक वन में रहकर बड़ी भारी तपस्या की है। उसमें सिद्धि प्राप्त होने के बाद आपने मस्तक पर चिड़ियों के बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए और आपने उनकी भलीभाँति रक्षा की। जब वे इधर-उधर चले गये तब अपने को धर्मात्मा समझ कर आपको बड़ा गर्व हो गया। विप्रवर आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करुँ
जाजलि ने तुलाधार की बातों से अत्यन्त प्रभावित होकर उनके धर्म का रहस्य जानने की इच्छा व्यक्त की। रस, गन्ध, वनस्पति, ओषधि, मूल और फल आदि बेचने वाले तुलाधार को धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे प्राप्त हुई- यह जाजलि के लिये आश्चर्य की बात थी।
तुलाधार ने कहा – मैं परम प्राचीन और सबका हित करने वाले सनातन धर्म को उसके गूढ़ रहस्यों सहित जानता हूँ। किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जीविका चलाना श्रेष्ठ माना गया हैं। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। काठ और घास-फूँस से छाकर मैंने अपने रहने के लिये यह घर बनाया है। छोटी-बड़ी चीजें तो बेचता हूँ, पर मदिरा नहीं बेचता। सब चीजे मैं दूसरों के यहाँ से खरीदकर बेचता हूँ, स्वयं तैयार नहीं करता। माल बेचने में किसी प्रकार की ठगी या छल-कपच से काम नहीं लेता। मैं न किसी से मेल-जोल बढ़ाता हूँ, न विरोध करता हूँ, मेरा न कहीं राग हैं, न द्वेष, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मेरे मन में एक-सा भाव है। यही मेरा व्रत है। मेरा तराजू सबके लिये बराबर तौलता है। मैं दूसरों के कार्यो की निन्दा या स्तुति नहीं करता। मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में भेद नहीं मानता। अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानता हूँ। धर्म का तत्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं, कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। लोगों की देखा-देखी नहीं करता। जो मुझे मानता हैं तथा जो मेरी प्रशसां करता है, वे दोनों ही मेरे लिये समान हैं, मैं उनमें से किसी को प्रिय और अप्रिय नहीं मानता।

दशरथ थे सूर्य देव के उपासक


प्रतापी सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक वैवस्वत मनु हैं। सूर्य के श्राद्धदेव नाम के पुत्र हुए जिन्हें मनु भी कहते हैं। सूर्यवंश इनसे ही प्रारम्भ हुआ है। मनु मानव जाति के प्रथम शासक हुए।
मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु ने सरयू नदी के किनारे अयोध्या नगरी बसाई। तब से अयोध्या सूर्यवंश के अनेक प्रतापी राजाओं की जैसे कि सत्यवादी हरिश्चन्द्र, सागर, भागीरथ, दिलीप, रघु, अज, दशरथ तथा स्वयम् भगवान राम की राजधानी रही।
कालान्तर में सूर्यवंश रघुवंश के नाम से प्रसिद्ध हो गया क्योंकि चक्रवर्ती सम्राट रघु ने सर्वदक्षिणा यज्ञ में स्वयं के शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त अपनी समस्त सम्पत्ति दान-दक्षिणा में दे दी थी।
महाराजा दशरथ रघु के पौत्र थे। उनमें अपने पूर्वजों के सभी गुण विद्यमान थे। इसके साथ-साथ वे स्वयम् भी बड़े ही गुणज्ञ थे। वे इतने शक्तिशाली थे कि उनका कोई शत्रु नहीं था। उनकी सम्पदा इन्द्र तथा कुबेर दोनों से अधिक थी। दशरथ धर्मज्ञ तथा राज-ऋषि थे। नित्य प्रात:काल उठकर वे अपने कुलगुरु वशिष्ठ के साथ अपने इष्टदेव सूर्यदेवता की उपासना किया करते थे।

दशरथ थे सूर्य देव के उपासक


प्रतापी सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक वैवस्वत मनु हैं। सूर्य के श्राद्धदेव नाम के पुत्र हुए जिन्हें मनु भी कहते हैं। सूर्यवंश इनसे ही प्रारम्भ हुआ है। मनु मानव जाति के प्रथम शासक हुए।
मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु ने सरयू नदी के किनारे अयोध्या नगरी बसाई। तब से अयोध्या सूर्यवंश के अनेक प्रतापी राजाओं की जैसे कि सत्यवादी हरिश्चन्द्र, सागर, भागीरथ, दिलीप, रघु, अज, दशरथ तथा स्वयम् भगवान राम की राजधानी रही।
कालान्तर में सूर्यवंश रघुवंश के नाम से प्रसिद्ध हो गया क्योंकि चक्रवर्ती सम्राट रघु ने सर्वदक्षिणा यज्ञ में स्वयं के शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त अपनी समस्त सम्पत्ति दान-दक्षिणा में दे दी थी।
महाराजा दशरथ रघु के पौत्र थे। उनमें अपने पूर्वजों के सभी गुण विद्यमान थे। इसके साथ-साथ वे स्वयम् भी बड़े ही गुणज्ञ थे। वे इतने शक्तिशाली थे कि उनका कोई शत्रु नहीं था। उनकी सम्पदा इन्द्र तथा कुबेर दोनों से अधिक थी। दशरथ धर्मज्ञ तथा राज-ऋषि थे। नित्य प्रात:काल उठकर वे अपने कुलगुरु वशिष्ठ के साथ अपने इष्टदेव सूर्यदेवता की उपासना किया करते थे।

व्यक्ति की सफलता का आधार बिंदु है व्यवहार


एक राज्य के राजकुमार का स्वभाव बहुत उत्पाती था। राजा ने राजकुमार को सुधारने का बहुत प्रयत्न किया, परंतु हर बार असफल रहे। तभी उस राज्य में एक संत का आगमन हुआ। राजा संत से आशीर्वाद लेने गए। राजा को परेशान देखकर संत ने कारण पुछा।राजा ने अपने पुत्र के संबंध में शारी बातें बताई। संत ने कहा- कल सुबह राजकुमार को मेरे पास भेजना।
दूसरे दिन राजा ने राजकुमार को संत के पास भेजा।राजकुमार संत के पास आया और प्रणाम किया। संत राजकुमार को घुमाने ले गए। रास्ते में एक नीम का पौधा देखा। संत ने पौधे की ओर इशारा करते हुए राजकुमार से कहा- राजकुमार, जरा इन पत्तियों का स्वाद चखना। राजकुमार ने पत्तियां तोड़कर मुंह में रखी। उसका मुंह कड़वाहट से भर गया। मुंह कड़वा होने से राजकुमार गुस्से में आ गया और उसने तुरंत ही उस पौधे को उखाड़ दिया। संत ने राजकुमार से पूछा-तुमने पौधे को क्यों नष्ट कर दिया। राजकुमार ने कहा- इसकी पत्तियां मुंह में रखते ही मुंह कड़वा हो गया।इसलिए मैंने इसे नष्ट कर दिया। यह सुनकर संत मुस्कराए। संत को मुस्कराते हुए देख राजकुमार ने उसका कारण पूछा तो संत ने कहा-राजकुमार, सोचो यदि तुम्हारे कड़वा आचरण को देख कोई तुम्हारे प्रति भी ऐसा ही व्यवहार करे तो तुम भी नष्ट हो जाओगे। अगर फलना-फूलना चाहते हो, तो अपने स्वभाव को मीठा, सरल और सदभावपूर्ण बनाओ। जैसा तुम दूसरों के प्रति व्यवहार करोगे, दूसरे भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे। राजकुमार को संत की बात समझ में आ गई और उसी पल से उसका व्यवहार शालीन हो गया।
सार- जो जिस तरह का व्यवहार करता है दूसरे भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा है- दूसरों के साथ इस तरह का व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसंद नहीं। व्यवहार व्यक्ति की सफलता का आधार बिंदु है।

व्यक्ति की सफलता का आधार बिंदु है व्यवहार


एक राज्य के राजकुमार का स्वभाव बहुत उत्पाती था। राजा ने राजकुमार को सुधारने का बहुत प्रयत्न किया, परंतु हर बार असफल रहे। तभी उस राज्य में एक संत का आगमन हुआ। राजा संत से आशीर्वाद लेने गए। राजा को परेशान देखकर संत ने कारण पुछा।राजा ने अपने पुत्र के संबंध में शारी बातें बताई। संत ने कहा- कल सुबह राजकुमार को मेरे पास भेजना।
दूसरे दिन राजा ने राजकुमार को संत के पास भेजा।राजकुमार संत के पास आया और प्रणाम किया। संत राजकुमार को घुमाने ले गए। रास्ते में एक नीम का पौधा देखा। संत ने पौधे की ओर इशारा करते हुए राजकुमार से कहा- राजकुमार, जरा इन पत्तियों का स्वाद चखना। राजकुमार ने पत्तियां तोड़कर मुंह में रखी। उसका मुंह कड़वाहट से भर गया। मुंह कड़वा होने से राजकुमार गुस्से में आ गया और उसने तुरंत ही उस पौधे को उखाड़ दिया। संत ने राजकुमार से पूछा-तुमने पौधे को क्यों नष्ट कर दिया। राजकुमार ने कहा- इसकी पत्तियां मुंह में रखते ही मुंह कड़वा हो गया।इसलिए मैंने इसे नष्ट कर दिया। यह सुनकर संत मुस्कराए। संत को मुस्कराते हुए देख राजकुमार ने उसका कारण पूछा तो संत ने कहा-राजकुमार, सोचो यदि तुम्हारे कड़वा आचरण को देख कोई तुम्हारे प्रति भी ऐसा ही व्यवहार करे तो तुम भी नष्ट हो जाओगे। अगर फलना-फूलना चाहते हो, तो अपने स्वभाव को मीठा, सरल और सदभावपूर्ण बनाओ। जैसा तुम दूसरों के प्रति व्यवहार करोगे, दूसरे भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे। राजकुमार को संत की बात समझ में आ गई और उसी पल से उसका व्यवहार शालीन हो गया।
सार- जो जिस तरह का व्यवहार करता है दूसरे भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा है- दूसरों के साथ इस तरह का व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसंद नहीं। व्यवहार व्यक्ति की सफलता का आधार बिंदु है।

सद्परिणाम और सम्मान देती है कर्मशीलता


एक छोटा सा गांव था। वहां एक निर्धन किसान रहता था। उसके पास एक छोटा खेत था। एक बार वहां के ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यहां सात साल तक पानी नहीं बरसेगा। किसान ने यह भविष्यवाणी सुन अपने हल उठाकर खेत में रख दिए। इस प्रकार बैठे बैठे एक हफ्ता हो गया। वह किसान परेशान हो गया। उसने सोचा कि अगर मै सात साल कर खेत में जुताई नहीं करूंगा तो हल चलाना ही भूल जाऊंगा। इसलिए मुझे अपना काम नहीं छोड़ना चाहिए। उसने फिर से अपने हल उठा लिए और खेत जोतने लगा। गांव वाले उसका उपहास करते रहे, मगर उसने उनकी परवाह नहीं की और अपने काम में जुटा रहा।
एक दिन वह खेत में हल चला रहा था तभी आकाश में एक बदली निकली। चूंकि ऐसी कई बदलियां बिना बरसे ही निकल चुकी थी, इसलिए किसान ने अब आसमान में देखना ही बंद कर दिया था। बदली को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी न बरसने की भविष्यवाणी के बाद भी यह किसान खेत क्यों जोत रहा है। उसने किसान से पूछा तूने सुना नहीं की तेरे गांव में सात साल तक बारिश नहीं होगी। फिर यह अनावश्यक परिश्रम क्यों कर रहा है। तब किसान ने जवाब दिया- मै बैठे बैठे उकता गया था। सोचा कि अपना काम ही करूं। किसान की बात सुनकर बदली की आंखे खुल गई। उसे लगा किसान सच कह रहा है अपना काम कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मै भी यदि सात साल तक ना बरसी तो कहीं बरसना ही न भूल जाऊ। यह सोचकर वह शीघ्र ही बरसने लगी और किसान का काम सिद्ध हो गया। हर इंसान को अपने निर्धारित कर्म करते रहने चाहिए। कर्म करेंगे तभी उसका सद्परिणाम पाएंगे।

अखंड सौभाग्य के लिए करें हरतालिका तीज व्रत

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भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हरितालिका तीज का त्यौहार शिव और पार्वती के पुर्नमिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि मां पार्वती ने 107 जन्म लिए थे कल्याणकारी भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए। अंततः मां पार्वती के कठोर तप के कारण उनके 108वें जन्म में भोले बाबा ने पार्वती जी को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया था। उसी समय से ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से मां पार्वती प्रसन्न होकर पतियों को दीर्घायु होने का आशीर्वाद देती है।
हरितालिका तीज की पूजन सामग्री
गीली मिट्टी या बालू रेत। बेलपत्र, शमी पत्र, केले का पत्ता, धतूरे का फल, अकांव का फूल, मंजरी, जनैव, वस्त्र व सभी प्रकार के फल एंव फूल पत्ते आदि। पार्वती मॉ के लिए सुहाग सामग्री-मेंहदी, चूड़ी, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, माहौर, बाजार में उपलब्ध सुहाग आदि। श्रीफल, कलश, अबीर, चन्दन, घी-तेल, कपूर, कुमकुम, दीपक, दही, चीनी, दूध, शहद व गंगाजल पंचामृत के लिए।
हरितालिका तीज की विधि
हरितालिका तीज के दिन महिलायें निर्जला व्रत रखती है। इस दिन शंकर-पार्वती की बालू या मिट्टी की मूति बनाकर पूजन किया जाता है। घर को स्वच्छ करके तोरण-मंडप आदि सजाया जाता है। एक पवित्र चौकी पर शुद्ध मिट्टी में गंगाजल मिलाकर शिलिंग, रिद्धि-सिद्धि सहित गणेश, पार्वती व उनकी सखी की आकृति बनायें। तत्पश्चात देवताओं का आवाहन कर षोडशेपचार पूजन करें। इस व्रत का पूजन पूरी रात्रि चलता है। प्रत्येक पहर में भगवान शंकर का पूजन व आरती होती है।

श्री गणेश से गजानन बनने की कहानी


एक समय जब माता पार्वती मानसरोवर में स्नान कर रही थी तब उन्होंने स्नान स्थल पर कोई आ न सके इस हेतु अपनी माया से गणेश को जन्म देकर 'बाल गणेश' को पहरा देने के लिए नियुक्त कर दिया।
इसी दौरान भगवान शिव उधर आ जाते हैं। गणेशजी उन्हें रोक कर कहते हैं कि आप उधर नहीं जा सकते हैं। यह सुनकर भगवान शिव क्रोधित हो जाते हैं और गणेश जी को रास्ते से हटने का कहते हैं किंतु गणेश जी अड़े रहते हैं तब दोनों में युद्ध हो जाता है। युद्ध के दौरान क्रोधित होकर शिवजी बाल गणेश का सिर धड़ से अलग कर देते हैं।
शिव के इस कृत्य का जब पार्वती को पता चलता है तो वे विलाप और क्रोध से प्रलय का सृजन करते हुए कहती है कि तुमने मेरे पुत्र को मार डाला। माता का रौद्र रूप देख शिव एक हाथी का सिर गणेश के धड़ से जोड़कर गणेश जी को पुन: जीवित कर देते हैं। तभी से भगवान गणेश को गजानन गणेश कहा जाने लगा।

गणेश जी पर शनि की दृष्टि


एक बार कैलाश पर्वत पर, महायोगी सूर्यपुत्र शनैश्चर शंकरनंदन गणेश को देखने के लिए आये। उनका मुख अत्यंत नम्र था, आंखें कुछ मुंदी हुई थीं और मन एकमात्र श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, अत: वे बाहर - भीतर श्रीकृष्ण का स्मरण कर रहे थे। वे तप: फल को खाने वाले, तेजस्वी, धधकती हुई अग्नि की शिखा के समान प्रकाशमान, अत्यंत सुंदर, श्यामवर्ण और पीतांबर धारण किए हुए थे। उन्होंने वहां पहले विष्णु, ब्रह्मा, शिव, धर्म, सूर्य, देवगणों और मुनिवरों को प्रणाम किया। फिर उनकी आज्ञा से वे उस बालक को देखने के लिए गये। भीतर जाकर शनैश्चर ने सिर झुकाकर पार्वती देवी को नमस्कार किया। उस समय वे पुत्र को छाती से चिपटाये रत्नसिंहासन पर विराजमान हो आनंदपूर्वक मुस्करा रही थीं। पांच सखियां निरंतर उन पर श्वेत चंवर डुलाती जाती थीं। वे सखी द्वारा दिये गये सुवासित तांबूल को चबा रही थीं। उनके शरीर पर वह्निशुद्ध स्वर्णिम साड़ी शोभायमान थी। रत्नों के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। सहसा सूर्यनंदन शनैश्चर को सिर झुकाये देखकर पार्वती जी ने उन्हें शीघ्र ही शुभाशीर्वाद दिया और उनका कुशल मंगल पूछा - ‘ग्रहेश्वर ! इस समय तुम्हारा मुख नीचे की ओर क्यों झूका हुआ है तथा तुम मुझे अथवा इस बालक की ओर देख क्यों नहीं रहे हो ?’
शनैश्चर ने कहा - ‘शंकरवल्लभे! मैं एक परम गोपनीय इतिहास, यद्यपि वह लज्जाजनक तथा माता के समक्ष कहने योग्य नहीं है, तथापि आपसे कहता हूं, सुनिये। मैं बचपन से श्रीकृष्ण का भक्त था। मेरा मन सदा एकमात्र श्रीकृष्ण के ध्यान में ही लगा रहता था। मैं विषयों से विरक्त होकर निरंतर तपस्या में रत रहता था। पिताजी ने चित्ररथ की कन्या से मेरा विवाह कर दिया। वह सती - साध्वी नारी अत्यंत तेजस्विनी तथा सतत तपस्या में रत रहने वाली थी। एक दिन ऋतु स्नान करके वह मेरे पास आयी। उस समय मैं भगवच्चरणों का ध्यान कर रहा था। मुझे बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं था। अत: मैं उसकी ओर देखा भी नहीं। पत्नी ने अपना ऋतुकाल निष्फल जानकर मुझे शाप दे दिया कि ‘तुम अब जिसकी ओर दृष्टि डालोगे, वहीं नष्ट हो जाएगा।’ तदनंतर जब मैं ध्यान से विरत हुआ, तब मैंने उस सती को संतुष्ट किया, परंतु अब तो वह शाप से मुक्त कराने में असमर्थ थी, अत: पश्चाताप करने लगी। माता ! इसी कारण मैं किसी वस्तु को अपने नेत्रों से नहीं देखता और तभी से मैं जीवहिंसा के भय से स्वाभाविक ही अपने मुख को नीचे किये रहता हूं।’ शनैश्चर की बात सुनकर पार्वती हंसने लगीं। शनैश्चर का वचन सुनकर पार्वती जी ने परमेश्वर श्रीहरि का स्मरण किया और इस प्रकार कहा - ‘सारा जगत ईश्वर की इच्छा के वशीभूत ही है।’ फिर दैववशीभऊता पार्वती देवी ने कौतूहलवश शनैश्चर से कहा - ‘तुम मेरी तथा मेरे बालक की ओर देखो। भला, इस निषेक (कर्मफलभोग) को कौन हटा सकता है ?’ तब पार्वती का वचन सुनकर शनैश्चर स्वयं मन ही मन यों विचार करने लगे - ‘अहो ! क्या मैं इस पार्वती नंदन पर दृष्टिपात करूं अथवा न करूं ? क्योंकि यदि मैं बालक को देख लूंगा तो निश्चय ही उसका अनिष्ट हो जाएगा ।’ इस प्रकार कहकर धर्मात्मा शनैश्चर ने धर्म को साक्षी बनाकर बालक को तो देखने का विचार किया, परंतु बालक की माता को नहीं। शनि की दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक धड़ से अलग हो गया। तब शनैश्चर ने अपनी आंख फेर ली और फिर वे नीचे मुख करके खड़े हो गये। इसके पश्चात उस बालक का खून से लथपथ हुआ सारा शरीर तो पार्वती की गोद में पड़ा रह गया। परंतु मस्तक अपने अभीष्ट गोलोक में जाकर श्रीकृष्ण में प्रविष्ट हो गया। यह देखकर पार्वती देवी बालक को छाती से चिपटाकर फूट फूट कर विलाप करने लगीं और उन्मत्त की भांति भूमि पर गिरकर मूर्च्छित हो गयीं। तब वहां उपस्थित सभी देवता, देवियां, पर्वत, गंधर्व, शिव तथा कैलाश वासी जन यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उस समय उनकी दशा चित्रलिखित पुत्तलिका के समान जड़ हो गयी।
इस प्रकार उन सबको मूर्च्छित देखकर श्रीहरि गरुड पर सवार हुए और उत्तरदिशा में स्थित पुष्पभद्रा के निकट गये। वहां उन्होंने पुष्पभद्रा नदी के तट पर वन में स्थित एक गजेंद्र को देखा, जो निद्रा के वशीभूत हो बच्चों से घिरकर हथिनी के साथ सो रहा था। उसका सिर उत्तर दिशा की ओर था, मन परमानंद से पूर्ण था और वह परिश्रम से थका हुआ था। फिर तो श्रीहरि ने शीघ्र ही सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट लिया और रक्त से भीगे हुए उस मनोहर मस्तक को बड़े हर्, के साथ गरुड पर रख लिया। गज के कटे हुए अंह के गिरने से हथिनी की नींद टूट गयी। तब अमंगल शब्द करती हुई उसने अपने शावकों को भी जगाया। फिर वह शोक से विह्वल हो शावकों के साथ विलख - विलखकर चित्कार करने लगी। तत्पश्चात् उसने भगवान विष्णु का स्तवन किया। उसकी स्तुति प्रसन्न होकर भगवान ने उसे वर दिया और दूसरे गज का मस्तक काटकर इसके धड़ से जोड़ दिया। फिर उन ब्रह्मवेत्ता ने ब्रह्मज्ञान से उसे जीवित कर दिया और उस गजेंद्र के सर्वांग में अपने चरणकमल का स्पर्श कराते हुए कहा - ‘गज! तू अपने कुटुंब के साथ एक कल्पपर्यन्त जीवित रह।’ इस प्रकार कहकर मन के समान वेगशाली भगवान कैलाश पर जा पहुंचे।
वहां पार्वती के वासस्थान पर आकर उन्होंने उस बालक को अपनी छाती से चिपटा लिया और उस हाथी के मस्तर को सुंदर बनाकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। फिर ब्रह्मस्वरूप भगवान ने ब्रह्मज्ञान से हुंकारोच्चारण किया और खेल - खेल में ही उसे जीवित कर दिया। पुन: श्रीकृष्ण ने पार्वती को सचेत करके उस शिशु को उनकी गोद में रख दिया और आध्यात्मिक ज्ञानद्वारा पार्वती को समझाना आरंभ किया। श्रीविष्णु का कथन सुनकर पार्वती का मन संतुष्ट हो गया। तब वे उन गदाधर भगवान को प्रणाम करके शिशु को दूध पिलाने लगीं। तदनंतर प्रसन्न हुई पार्वती ने शंकर जी की प्रेरणा से अंजलि बांधकर भक्तिपूर्वक उन कमलापति भगवान विष्णु की स्तुति की 

दिया था ब्राह्मण ने अंग राज कर्ण को शाप


एक दिन सूर्य पुत्र कर्ण शिकार खेलने गए थे। झाड़ियों के पीछे किसी हिंसक प्राणी की आशंका होने पर बिना पड़ताल किए ही कर्ण बाण चला देते हैं। दुर्भाग्य वश वह एक गाय होती है। उस गाय का रखवाला ब्राह्मण यह दृश्य देख बहुत क्रुद्ध हो जाता है।
कर्ण उस ब्राह्मण से माफी मांगने लगते है, पर वह ब्राह्मण कहता है कि मैं तुम्हे माफ तो कर दूंगा पर पहले मेरी इस गाय को जीवित कर के दो, इसका भूखा बछड़ा मेरे घर पर बंधा हुआ है, और वह भूख से बिलख रहा होगा, मुझे इस गाय को उसके बछड़े के पास जीवित ले कर जाना है!
कर्ण ऐसा करने के लिए अपनी असमर्थता बताते हैं। तभी वह ब्राह्मण कर्ण को अपनी उस गलती के लिए शाप देता है कि
➡जिस तरह तुम रथ पर सवार हो कर, अपनी शक्तियों के मध में खुद को श्रेष्ठ समझने लगे हो, और दूसरों पर बिना सोचे समझे कहर ढा रहे हो, एक दिन जब तुम अपने जीवन की सब से बड़ी लड़ाई लड़ रहे होगे तब तुम्हारे रथ के पहिये जमीन में धंस जाएंगे और भय का राक्षस तुम्हें चारों ओर से घेर लेगा⬅
भविष्य में जब कर्ण अपने जीवन की सब से बड़ी लड़ाई अर्जुन से लड़ रहे होते हैं तभी कर्ण के रथ के पहिये रण भूमि में जमीन में धस जाते हैं और तब कर्ण जमीन में धसा पहिया निकालने नीचे उतरते हैं। इस अवसर का लाभ उठा कर अर्जुन कर्ण का वध कर देते हैं। इस तरह ब्राह्मण का शाप सत्य हो जाता है।

जब लिंकन ने सिखाया बड़प्पन का पाठ


प्रतिदिन भ्रमण पर जाना अब्राहम लिंकन का नियम था और इस दौरान प्रत्येक मिलने वाले से वे अत्यंत स्नेह से वार्तालाप करते। एक दिन वे अपनी घोड़ाबग्घी पर बैठकर भ्रमण पर निकल ही रहे थे कि उनके एक मित्र आ गए। लिंकन ने पहले उनका उचित सत्कार किया। फिर उनसे आग्रह किया ‘मैं नित्य ही भ्रमण पर जाता हूं। आज आप आ गए हैं तो कृपा कर आप भी इसमें शरीक हो। हम दोनों की बातचीत भी हो जाएगी और भ्रमण भी हो जाएगा’। मित्र ने लिंकन की बात मान ली। दोनों घोड़ाबग्घी पर सवार होकर निकले। थोड़ी दूर जाने पर मार्ग के एक ओर एक श्रमिक खड़ा दिखाई दिया। उसने लिंकन को देखते ही उन्हें झुककर नमस्कार किया। प्रत्युत्तर में लिंकन ने उससे भी अधिक झुककर उसे नमस्कार किया। लिंकन को ऐसा करते देखकर उनके मित्र को बड़ा अजीब लगा। उन्होंने मन में सोचा कि कहां लिंकन, जो इतने बड़े देश के राष्ट्रपति हैं और कहां ‘ये श्रमिक?’ आखिर उनसे रहा नहीं गया, सो उन्होंने लिंकन से पूछ ही लिया ‘आपने उस श्रमिक को इतना अधिक झुककर नमस्कार क्यों किया?’ तब लिंकन बोले ‘मैं अपने से अधिक नम्र अन्य किसी को देखना नहीं चाहता’। यह सुनकर लिंकन का मित्र उनकी महानता के समक्ष नतमस्तक हो गया।
शिक्षा- वस्तुत: बड़ा वही होता है जो ‘खास’ होते हुए भी स्वयं को ‘आम’ ही समझे और अन्यों के साथ तदनुरूप ही आचरण करे। बड़प्पन बड़ा बनकर रहने में नहीं वरन् बड़ा होकर भी छोटा बनकर रहने में निहित है।

अपराध एक नहीं दो


बात उन दिनों की है जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारकापुरी बसायी जा रही थी। एक दिन यदुवंशी बालक पानी की इच्छा से इधर-उधर धूम रहे थे। इतने में ही उन्हे एक कूप दिखाई पड़ा, जिसका ऊपरी भाग घास फूस और लताओं ढ़का हुआ था। बालक ने जब परिश्रम करके वहां से घास फूस हटाया तो उन्हें उसके भीतर एक गिरगिट बैठा दिखाई पड़ा। बालक हजारों की संख्या में थे, सब मिलकर उस गिरगिट को वहां से निकालने में लग गए। किंतु लड़के उस गिरगिट को निकाल नहीं पाए। हारकर सभी ने श्रीकृष्ण को यह वृतांत सुनाया।
यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने उस गिरगिट को कुएं से बाहर निकाला। श्रकृष्ण के पावन हाथों का स्पर्श पाकर उस गिरगिट की देह से एक दिव्य पुरुष निकल कर भगवान को प्रणाम करने लगा। बच्चे आश्चर्यचकित होकर गिरगिट और उस दिव्य पुरूष को देखने लगे। भगवान श्री कृष्ण के कहने पर उसने पूर्वजन्म का वृतांत सुनाया-

पूर्व जन्म में मैं राजा नृग था। एक अग्निहोत्री ब्राह्मण के परदेस चले जाने पर उसकी एक गाय भाग कर मेरी गौओं के झुंड में आ मिली। मेरे ग्वालों ने दान के लिए मंगाई हुई एक हजार गौओं में उसकी भी गिनती करा दी और मैंने उस एक ब्राह्मण को दान कर दिया। परदेश से वापस आकर जब उस ब्राह्मण को अपनी गाय ढूंढते-ढूंढ़ते उस ब्राह्मण के घर मिली जिसे मैंने दान किया था तब उस गाय को लेकर उन दोनों में झगड़ा होने लगा और दोनों ही क्रोध में भर कर मेरे पास आए।
मैं धर्मसंकट में था, इस कारण मैंने दान लेने वाले ब्राह्मण से कहा, ‘‘भगवन्! मैं इस गाय के बदले आपको दस हजार गौएं देता हूं, आप इनकी गाय इन्हें वापस दे दीजिए।’’
उसने जवाब दिया, ‘‘महाराज! यह गाय सीधी-सादी, मीठा दूध देने वाली है। धन्य भाग, जो यह मेरे घर आई। यह अपने दूध से प्रतिदिन मेरे मातृहीन दुर्बल बच्चे का पालन करती है मैं इसे कदापि नहीं दे सकता।’’
यह कह कर वह वहां से चल दिया। तब मैंने दूसरे ब्राह्मण से प्रार्थना की, ‘‘भगवन! आप उसके बदले में एक लाख गौएं और ले लीजिए।’’
वह बोला, ‘‘मैं राजाओं का दान नहीं लेता, मैं अपने लिए धन का उपार्जन करने में समर्थ हूं। मुझे तो शीघ्र मेरी वही गौ ला दीजिए।’’
मैंने उसे बहुत प्रलोभन दिया, परंतु वह उत्तम ब्राह्मण कुछ न लेकर तत्काल चुपचाप चला गया।
इसी बीच काल की प्रेरणा से मुझे शरीर त्यागना पड़ा और पितृलोक में पहुंच कर मैं यमराज से मिला। उन्होंने मेरा बहुत आदर-सत्कार करके दो पाप कर्मों का फल पहले या पीछे भोगने-हेतु पूछा। जब मैंने दो पाप कर्म सुन कर आश्चर्य किया, तब धर्मराज ने कहा, ‘‘आपने प्रजा के धन-जन की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा की थी; किन्तु उस ब्राह्मण की गाय खो जाने के कारण वह प्रतिज्ञा झूठी हो गई। दूसरी बात यह है कि आपने ब्राह्मण के धन का भूल से अपहरण भी कर लिया था, इस तरह आपके द्वारा एक नहीं दो अपराध हुए हैं।’’
पाप कर्मों के फलस्वरूप मुझे गिरगिट की योनि मिली। गिरगिट का जन्म पाकर भी मेरी स्मरण शक्ति ने साथ नहीं छोड़ा था। भगवन! आपने मेरा उद्धार कर दिया, अब मुझे स्वर्गलोक जाने की आज्ञा दीजिए।
भगवान श्री कृष्ण ने राजा नृग को आज्ञा देकर कहा, ‘‘समझदार मनुष्य को ब्राह्मण के धन का अपहरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि चुराया हुआ ब्राह्मण का धन चोर का ही नाश कर देता है।’’

भगवान गणेश के 8 अति प्राचीन मंदिर


अष्टविनायक से अभिप्राय है- “आठ गणपति”। यह आठ अति प्राचीन मंदिर भगवान गणेश के आठ शक्तिपीठ भी कहलाते है । महाराष्ट्र में गणपति के आठ प्राचीन मंदिर स्थित हैं। इन मंदिरों में विराजित गणेश जी की प्रतिमा स्वयंभू मानी जाती है। इन गणेश मंदिर के दर्शन करने से प्रत्येक व्यक्ति की मन्नतें पूर्ण हो जाती हैं। विघ्नहर्ता श्रीगणेश अपने भक्तों से सभी विघ्नों को हर लेते हैं। उनके दर्शन मात्र से ही सभी चिंताओं बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। आइए जानें गणपति के चमत्कारी मंदिरों के बारे में-
सिद्धिविनायक मंदिर
पुणे से लगभग 200 कि.मी. दूर भीम नदी के किनारे सिद्धिविनायक मंदिर स्थित है। यह मंदिर करीब 200 वर्ष पुराना है। माना जाता है कि यहां भगवान विष्णु ने तपस्या की थी और गणेश जी ने उन्हें दर्शन देकर सिद्धियां प्रदान की थी। भगवान विष्णु ने यहां श्रीगणेश के मंदिर का निर्माण करवाया था। यह मंदिर एक पहाड़ की चोटी पर बना हुआ है। यहां गणेशजी की प्रतिमा 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। माना जाता है कि श्रीगणेश यहां आने वाले अपने भक्तों को रिद्धि- सिद्धि देते हैं। कहा जाता है कि समीप में बहने वाली भीमा नदी का प्रवाह तीव्र होने पर भी उसका शोर नहीं है।
श्री मयूरेश्वर मंदिर
महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 80 कि.मी. दूर मोरे गांव में विनायक मयूरेश्वर मंदिर स्थित है। मंदिर के चारों कोनों में मीनारें और लंबे पत्थरों की दीवारें हैं। यहां चार द्वार चारों युग, सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के सूचक हैं। मंदिर के द्वार पर नंदी बैल की प्रतिमा है। इसका मुख गणेश जी की प्रतिमा का ओर है। कहा जाता है कि भोलेनाथ और नंदी इस मंदिर में आराम करने के लिए रूके थे। नंदी को ये स्थान इतना भा गया कि उन्होंने यहां से जाने से मना कर दिया। उस समय से ही नंदी यहां स्थित हैं। मंदिर में गणेश जी बैठी मुद्रा में विराजमान हैं। माना जाता है कि श्रीगणेश ने मोर पर सवार होकर सिंधुरासुर से युद्ध करके उसका वध किया था। इसलिए गणेशजी को मयूरेश्वर कहा जाता है।
श्री वरदविनायक
महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड़ गांव में वरद विेनायक मंदिर स्थित है। श्रीगणेश यहां आने वाले भक्तों की प्रत्येक इच्छाएं पूर्ण करते हैं। मंदिर में नंददीप नाम का एक दीपक है। कहा जाता है कि यह दीपक कई वर्षों से प्रज्वलित है। वरदविनायक का नाम लेने मात्र से संपूर्ण इच्छाओं को पूरा करने का वरदान मिलता है।
बल्लालेश्वर विरनायक
मुंबई पुणे राष्ट्रीय राजमार्ग पर पाली में बल्लालेश्वर विमनायक विराजमान हैं। कहा जाता है कि श्रीगणेश के भक्त बल्लाल ने उनकी पूजा का आयोजन किया। गांव के बहुत से बच्चे वहां आकर पूजा में इतने मग्न हो गए कि उन्हें जाने का याद ही नहीं रहा। जब बच्चे काफी समय बाद भी घर न आए तो उनके माता-पिता को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने गणेश जी की प्रतिमा और बल्लाल को वन में फेंक दिया। बल्लाल बेहोशी की हालत में भी श्रीगणेश का स्मरण करते रहे। श्रीगणेश ने अपने भक्त को दर्शन दिए। गणेश जी के दर्शन करने के बाद बल्लाल ने कहा कि वह उनके साथ यहीं रहे। अपने भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए इसी स्थान पर विराजमान हो गए।
चिंतामणि गणपति
पुणे जिले के हवेली क्षेत्र में चिंतामणि गणपति है। कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने अपने विचलित मन को वश में करने के लिए श्रीगणेश की आराधना की थी। इसलिए गणेश जी चिंतामणि कहलाए। यहां पर चिंतामणि गणपति के दर्शन मात्र से ही सारी चिंताओं से मुक्ति मिल जाती है।
श्री गिरजात्मज गणपति
पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से लगभग 90 कि.मी. दूर एक गुफा में श्री गिरजात्मज गणपति विराजमान हैं। यहां गणेश जी का पूजन माता गिरिजा अर्थात देवी पार्वती के पुत्र के रुप में की जाती है। एक बड़े पत्थर को काट कर इस मंदिर का निर्माण किया गया है। इस गुफा को गणेश गुफा भी कहा जाता है।
विघ्नेश्वर गणपति मंदिर
पुणे के ओझर जिले के जूनर क्षेत्र में विघ्नेश्वर गणपति विराजमान हैं। कहा जाता है कि विघ्नासुर दैत्य ने साधु-संतों को तंग कर रखा था। साधु-संतों ने श्रीगणेश की आराधना की। तब गणेश जी ने प्रकट होकर विघ्नासुर का वध कर सभी को दैत्य के अत्याचार से मुक्ति दिलवाई। गणपति के विघ्नेश्वर स्वरूप के दर्शन से सारे विघ्न दूर हो जाते हैं।
महागणपति मंदिर
महाराष्ट्र के राजनांद गांव में विरनायक महागणपति मंदिर स्थित है। यह मंदिर पुणे- अहमदनगर राजमार्ग पर 50 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां श्रीगणेश की प्रतिमा को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि यहां त्रिपुरों का वध करने से पूर्व भगवान शिव ने गणेश जी का पूजन किया था।

पैरों के निशान


एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर जा रहे थे। रास्ते में कहीं भी पेड़ नहीं थे। चारों तरफ सिर्फ रेत ही रेत थी। रेत पर चलने के कारण सभी के पैरों के निशान बनते जा रहे थे।
ये निशान सुंदर थे। तभी अचानक शिष्यों को दूर एक पेड़ दिखाई दिया। सभी ने वहां विश्राम किया। तथागत् और सभी शिष्य उस पेड़ की छांव के नीचे आराम करने लगे। तभी वहां एक ज्योतिषी आए वो उसी रास्ते से अपने घर जा रहे थे।
उन्होंने रेत पर बुद्ध के पैरों के निशान देखे। उन्होंने अपने जीवन में ऐसे पदचिन्ह नहीं देखे थे। ज्योतिषी ने सोचा शायद यह पदचिन्ह किसी चक्रवर्ती सम्राट के हो सकते हैं। लेकिन सामने जब उसने बुद्ध को देखा तो उसे यकीन नहीं हुआ। क्योंकि यह पद चिन्ह एक संन्यासी व्यक्ति के थे।
बुद्ध के चेहरे पर एक चमकती कांति थी। ज्योआतिषी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि आपके पैरों में जो पद्म है, वह अति दुर्लभ है, हजारों साल में कभी किसी भाग्यशाली में देखने को मिलता है। हमारी ज्यो तिष विद्या कहती है कि आपको चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए, परंतु आप तो…?
भगवान बुद्ध हंसे और कहा, 'आपका यह ज्यो तिष सही था पर अब मैं सब बंधनों से मुक्तल हो गया हूं।'
सार- जब आप सारे बंधनों से मुक्त हो जाते हैं तो न कोई ज्योतिष और न कोई ओर विद्या काम करती है। बस रहता है तो ईश्वर का परमतत्व ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति का रास्ता। बुद्ध का यह प्रसंग इसी बात को दर्शाता है।

देवी पार्वती के शिव की अर्धांगिनी बनने की कथा


भगवती पार्वती अपने पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या सती के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। उस समय भी उन्हें भगवान शंकर की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दक्ष यज्ञ में अपने पति भगवान शिव के अपमान से क्षुब्ध होकर योगाग्नि में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। सती ने देह त्याग करते समय यह संकल्प किया कि, ‘‘मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म ग्रहण कर पुन: भगवान शिव की अर्धांगिनी बनूं।’’
कुछ समय बाद ही माता सती हिमालय पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट हुईं और यथा समय उनका प्राकट्य हुआ। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वह पार्वती कहलाईं। जब वह कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता उनके अनुरूप वर के लिए चिंतित रहने लगे। एक दिन अकस्मात देवर्षि नारद हिमवान के घर पधारे।
पर्वत राज ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया। उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती को भी बुलाकर मुनि के चरणों में प्रणाम करवाया तथा उनसे अपनी पुत्री के भविष्य के विषय में कुछ बताने की प्रार्थना की।
नारद जी ने हंस कर कहा, ‘‘गिरिराज! तुम्हारी पुत्री सब गुणों की खान है। आगे चल कर यह उमा, अम्बिका और भवानी आदि नामों से प्रसिद्ध होगी। यह अपने पति को प्राणों से भी अधिक प्यारी होगी तथा इसका सुहाग अचल रहेगा, किन्तु इसको माता-पिता से रहित, उदासीन तथा अलग वेश वाला पति मिलेगा। मैंने वर के जितने दोष बताए हैं मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि तुम्हारी कन्या भगवान शिव की तपस्या करे और वह प्रसन्न होकर इससे विवाह के लिए तैयार हो जाए तो इसका सभी तरह से कल्याण होगा।’’
देवर्षि नारद के उपदेश को हृदय में धारण कर भगवती पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का निर्णय लिया और माता-पिता के मना करने पर भी हिमालय के सुंदर शिखर पर कठोर तपस्या आरंभ कर दी। उनकी कठोर तपस्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पहले पार्वती की परीक्षा के लिए सप्तऋषियों को भेजा और पीछे वेश बदल कर स्वयं आए। पार्वती की अविचल निष्ठा को देख कर शिव जी अपने को अधिक देर तक न छिपा सके और असली रूप में उनके सामने प्रकट हो गए।
भगवती पार्वती की इच्छा पूर्ण हुई और उन्हें शिवजी के पाणिग्रहण का वरदान मिला। पार्वती जी तपस्या पूर्ण करके घर लौट आई और माता-पिता को उन्होंने शंकर जी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। तत्पश्चात शंकर जी ने सप्तऋषियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमवान के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई। वर पक्ष की ओर से ब्रह्मा, विष्णु और इंद्रादि देवता बारात लेकर आए। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। फिर भगवान शिव के साथ भगवती पार्वती कैलाश आईं। दो अनादि दम्पतियों का पुनर्मिलन हुआ फिर पार्वती जी के द्वितीय पुत्र गणेश उत्पन्न हुए। भगवती पार्वती समस्त पतिव्रताओं में शिरोमणि हैं। भगवती सीता जी इन्हीं की आराधिका थीं।

देवी पार्वती के शिव की अर्धांगिनी बनने की कथा


भगवती पार्वती अपने पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या सती के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। उस समय भी उन्हें भगवान शंकर की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दक्ष यज्ञ में अपने पति भगवान शिव के अपमान से क्षुब्ध होकर योगाग्नि में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। सती ने देह त्याग करते समय यह संकल्प किया कि, ‘‘मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म ग्रहण कर पुन: भगवान शिव की अर्धांगिनी बनूं।’’
कुछ समय बाद ही माता सती हिमालय पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट हुईं और यथा समय उनका प्राकट्य हुआ। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वह पार्वती कहलाईं। जब वह कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता उनके अनुरूप वर के लिए चिंतित रहने लगे। एक दिन अकस्मात देवर्षि नारद हिमवान के घर पधारे।
पर्वत राज ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया। उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती को भी बुलाकर मुनि के चरणों में प्रणाम करवाया तथा उनसे अपनी पुत्री के भविष्य के विषय में कुछ बताने की प्रार्थना की।
नारद जी ने हंस कर कहा, ‘‘गिरिराज! तुम्हारी पुत्री सब गुणों की खान है। आगे चल कर यह उमा, अम्बिका और भवानी आदि नामों से प्रसिद्ध होगी। यह अपने पति को प्राणों से भी अधिक प्यारी होगी तथा इसका सुहाग अचल रहेगा, किन्तु इसको माता-पिता से रहित, उदासीन तथा अलग वेश वाला पति मिलेगा। मैंने वर के जितने दोष बताए हैं मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि तुम्हारी कन्या भगवान शिव की तपस्या करे और वह प्रसन्न होकर इससे विवाह के लिए तैयार हो जाए तो इसका सभी तरह से कल्याण होगा।’’
देवर्षि नारद के उपदेश को हृदय में धारण कर भगवती पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का निर्णय लिया और माता-पिता के मना करने पर भी हिमालय के सुंदर शिखर पर कठोर तपस्या आरंभ कर दी। उनकी कठोर तपस्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पहले पार्वती की परीक्षा के लिए सप्तऋषियों को भेजा और पीछे वेश बदल कर स्वयं आए। पार्वती की अविचल निष्ठा को देख कर शिव जी अपने को अधिक देर तक न छिपा सके और असली रूप में उनके सामने प्रकट हो गए।
भगवती पार्वती की इच्छा पूर्ण हुई और उन्हें शिवजी के पाणिग्रहण का वरदान मिला। पार्वती जी तपस्या पूर्ण करके घर लौट आई और माता-पिता को उन्होंने शंकर जी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। तत्पश्चात शंकर जी ने सप्तऋषियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमवान के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई। वर पक्ष की ओर से ब्रह्मा, विष्णु और इंद्रादि देवता बारात लेकर आए। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। फिर भगवान शिव के साथ भगवती पार्वती कैलाश आईं। दो अनादि दम्पतियों का पुनर्मिलन हुआ फिर पार्वती जी के द्वितीय पुत्र गणेश उत्पन्न हुए। भगवती पार्वती समस्त पतिव्रताओं में शिरोमणि हैं। भगवती सीता जी इन्हीं की आराधिका थीं।

भक्त का त्याग संभव नहीं


महाराज युधिष्ठिर अर्जुन पौत्र कुमार परिक्षित को राजद्दी पर बिठाकर तथा कृपाचार्य एवं धृतराष्ट्र- पुत्र युयुत्यु को उनकी देख भाल में नियुक्त करके अपने चारों भाइयों तथा द्रौपदी को साथ लेकर हस्तिनापुर से चल पड़े। पृथ्वी- प्रदक्षिणा के उदेश्य से कई देशों में घूमते हुए वे हिमालय को पार कर मेरु पर्वत की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में देवी दौपदी तथा इनके चारों भाई एक एक करके क्रमश: गिरते गए। इनके गिरने की परवाह न करते हुए युधिष्ठिर आगे बढ़ते गए। इतने में ही स्वयं देवराज इंद्र सफेद घोड़े से युक्त दिव्य रथ को लेकर सारथी सहित इन्हें लेने के लिए आए और इनसे रथ पर चढ़ जाने को कहा।
युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा पत्नी द्रौपदी के बिना अकेले रथ पर बैठना स्वीकार नहीं किया। इंद्र के यह विश्वास दिलाने पर कि वे लोग आपसे पहले ही स्वर्ग पहुंच चुके है, इन्होंने रथ पर चढ़ना स्वीकार किया। परंतु इनके साथ एक कुत्ता भी था जो शुरू से ही इनके साथ चल रहा था।
देवराज इंद्र ने कहा- धर्मराज, कुत्ता रखने वालों के लिए स्वर्ग में कोई जगह नहीं है। आपको अमरता, ऐश्वर्य और सिद्धी की प्राप्ति हुई है, साथ ही स्वर्गीय सुख भी सुलभ हुए है। अत: इस कुत्ते को यहीं छोड़कर आप मेरे साथ चले।
युधिष्ठिर ने कहा- देवराज भक्त का त्याग करने से जो पाप होता है,उसका कभी अंत नही होता। संसार में वह ब्रह्म हत्या के समान माना गया है। यह कुत्ता मेरे साथ है, मेरा भक्त है फिर मै इसका त्याग कैसे कर सकता हूं।
देवराज ने कहा- मनुष्य जो कुछ दान, स्वाध्याय अथवा हवन आदि पुण्यकर्म करता है, उस पर यदि कुत्ते की दृष्टि भी पड़ जाए तो उसके फल को राक्षस हर लेते है।
इसलिए आप इस कुत्ते का त्याग कर दें। इससे आपको देवलोक की प्राप्ति होगी।
युधिष्ठिर ने कहा - भगवन्, संसार में यह निश्चित बात है कि मरे हुए मनुष्यों के साथ न किसी का मेल होता है, न विरोध। दौपदी तथा अपने भाइयों को जीवित करना मेरे वश में नहीं है।अत: मर जाने पर ही मैने उनका त्याग किया है। शरण में आए हुए को भय देना, स्त्री का वध करना, ब्राह्मण का धन लूटना और मित्रों के साथ द्रोह करना ये चार अधर्म एक ओर और भक्त का त्याग दूसरी ओर हो, तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है। इस समय यह कुत्ता मेरा भक्त है। और मै इसका परित्याग कभी नहीं कर सकता।
युधिष्ठिर के दृढ़ निश्चय को देखकर कुत्ते के रूप में स्थित धर्मस्वरूप भगवान धर्मराज प्रसन्न होकर अपने वास्तविक रूप में आ गए और बोले- क्षुद्र कुत्ते के लिए भी आप इंद्र के रथ का परित्याग करने के लिए आप तैयार हो गए। अत:स्वर्ग लोकर में आपकी समानता करने वाला कोई नहीं है।

विद्वत्ता का घमंड


महाकवि कालिदास के कंठ में साक्षात सरस्वती का वास था। शास्त्रार्थ मंं उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। अपार यश, प्रतिष्ठा और सम्मान पाकर एक बार कालिदास को अपनी विद्वत्ता का घमंड हो गया।
उन्हें लगा कि उन्होंने विश्व का सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है और अब सीखने को कुछ बाकी नहीं बचा। उनसे बड़ा ज्ञानी संसार में कोई दूसरा नहीं। एक बार पड़ोसी राज्य से शास्त्रार्थ का निमंत्रण पाकर कालिदास विक्रमादित्य से अनुमति लेकर अपने घोड़े पर रवाना हुए।
गर्मी का मौसम था। धूप काफी तेज और लगातार यात्रा से कालिदास को प्यास लग आई। थोड़ी तलाश करने पर उन्हें एक टूटी झोपड़ी दिखाई दी। पानी की आशा में वह उस ओर बढ़ चले। झोपड़ी के सामने एक कुआं भी था।
कालिदास ने सोचा कि कोई झोपड़ी में हो तो उससे पानी देने का अनुरोध किया जाए। उसी समय झोपड़ी से एक छोटी बच्ची मटका लेकर निकली। बच्ची ने कुएं से पानी भरा और वहां से जाने लगी।
कालिदास उसके पास जाकर बोले- बालिके ! बहुत प्यास लगी है जरा पानी पिला दे। बच्ची ने पूछा- आप कौन हैं ? मैं आपको जानती भी नहीं, पहले अपना परिचय दीजिए। कालिदास को लगा कि मुझे कौन नहीं जानता भला, मुझे परिचय देने की क्या आवश्यकता ?
फिर भी प्यास से बेहाल थे तो बोले- बालिके अभी तुम छोटी हो। इसलिए मुझे नहीं जानती। घर में कोई बड़ा हो तो उसको भेजो। वह मुझे देखते ही पहचान लेगा। मेरा बहुत नाम और सम्मान है दूर-दूर तक। मैं बहुत विद्वान व्यक्ति हूं।
कालिदास के बड़बोलेपन और घमंड भरे वचनों से अप्रभावित बालिका बोली- आप असत्य कह रहे हैं। संसार में सिर्फ दो ही बलवान हैं और उन दोनों को मैं जानती हूं। अपनी प्यास बुझाना चाहते हैं तो उन दोनों का नाम बताएं ?
थोड़ा सोचकर कालिदास बोले- मुझे नहीं पता, तुम ही बता दो मगर मुझे पानी पिला दो। मेरा गला सूख रहा है। बालिका बोली- दो बलवान हैं ‘अन्न’ और ‘जल’। भूख और प्यास में इतनी शक्ति है कि बड़े से बड़े बलवान को भी झुका दें। देखिए प्यास ने आपकी क्या हालत बना दी है।
कालिदास चकित रह गए। लड़की का तर्क अकाट्य था। बड़े-बड़े विद्वानों को पराजित कर चुके कालिदास एक बच्ची के सामने निरुत्तर खड़े थे।
बालिका ने पुनः पूछा- सत्य बताएं, कौन हैं आप ? वह चलने की तैयारी में थी।
कालिदास थोड़ा नम्र होकर बोले- बालिके! मैं बटोही हूं।
मुस्कुराते हुए बच्ची बोली- आप अभी भी झूठ बोल रहे हैं। संसार में दो ही बटोही हैं। उन दोनों को मैं जानती हूं, बताइए वे दोनों कौन हैं ?
तेज प्यास ने पहले ही कालिदास की बुद्धि क्षीण कर दी थी पर लाचार होकर उन्होंने फिर से अनभिज्ञता व्यक्त कर दी।
बच्ची बोली- आप स्वयं को बड़ा विद्वान बता रहे हैं और यह भी नहीं जानते ? एक स्थान से दूसरे स्थान तक बिना थके जाने वाला बटोही कहलाता है। बटोही दो ही हैं, एक चंद्रमा और दूसरा सूर्य जो बिना थके चलते रहते हैं। आप तो थक गए हैं। भूख-प्यास से बेदम हैं। आप कैसे बटोही हो सकते हैं ?
इतना कहकर बालिका ने पानी से भरा मटका उठाया और झोपड़ी के भीतर चली गई। अब तो कालिदास और भी दुखी हो गए। इतने अपमानित वे जीवन में कभी नहीं हुए। प्यास से शरीर की शक्ति घट रही थी। दिमाग चकरा रहा था। उन्होंने आशा से झोपड़ी की तरफ देखा। तभी अंदर से एक वृद्ध स्त्री निकली।
उसके हाथ में खाली मटका था। वह कुएं से पानी भरने लगी। अब तक काफी विनम्र हो चुके कालिदास बोले- माते पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य होगा।
स्त्री बोली- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं। अपना परिचय दो। मैं अवश्य पानी पिला दूंगी। कालिदास ने कहा- मैं मेहमान हूं, कृपया पानी पिला दें।
स्त्री बोली- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश कालिदास बोले- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।
स्त्री ने कहा- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है।दूसरे, पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?
कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले- मैं हठी हूं।
स्त्री बोली- फिर असत्य। हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ? पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके कालिदास ने कहा- फिर तो मैं मूर्ख ही हूं।
नहीं, तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए गलत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।
कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे।
वृद्धा ने कहा- उठो वत्स ! आवाज सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी। कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए।
माता ने कहा- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार। तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।
कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़ेg

भीम के पास कैसे आया हजारों हाथियों का बल


कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था। पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया। हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई। तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए। जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा। उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा और इस प्रकार भीम के पास हजारों हाथियों का बल आ गया।

रामराज्य का वर्णन



कहा जाता है जब तक श्रीराम जी ने राज्य किया, तब तक उनके राज्य काल में न तो कोई स्त्री विधवा हुई, न किसी को रोग ने सताया और न ही किसी को सांप ने काटा। डाकू, चोरों का तो श्रीराम राज्य में नाम तक नहीं था। श्रीराम राज्य में ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि किसी बूढ़े ने किसी बालक का मृतक कर्म किया हो। श्रीरामराज्य में सभी अपने वर्णानुसार धर्मकृत्यों में तत्पर रहते थे। इसलिए सभी लोग सदा खुश रहते थे। श्रीराम चंद्र जी उदास होंगे इस विचार से लोग किसी का जी तक नहीं दुखाते थे। श्री राम राज्य में वृक्ष्यों में सदा फूल लगे रहते थे, वे सदा फला करते थे। यथासमय वर्षा होती थी और सुखस्पर्शी हवा चलती थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र को ई भी लोभी लालची नहीं था। सब लोग अपना अपना कार्य करते हुए संतुष्ट रहते थे। श्रीराम राज्य में सारी प्रजा धर्मरत और झूठ से दूर रहती थी। सब लोग शुभ लक्षमों से युक्त पाए जाते थे। सभी लोग धर्मपरायण होते थे।
स्त्रोत- वाल्मीकि रामायण

अनंत चतुर्दशी व्रत से मिलती है अक्षय संपत्ति


भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी का व्रत किया जाता है। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनंत देव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है। अनंत चतुर्दशी को भगवान विष्णु का दिन माना जाता है और ऐसी मान्‍यता भी है कि इस दिन व्रत करने वाला व्रती यदि विष्‍णु सहस्‍त्रनाम स्‍तोत्र का पाठ भी करे, तो उसकी वांछित मनोकामना की पूर्ति जरूर होती है और भगवान श्री हरि विष्‍णु उस प्रार्थना करने वाले व्रती पर प्रसन्‍न हाेकर उसे सुख, संपदा, धन-धान्य, यश-वैभव, लक्ष्मी, पुत्र आदि सभी प्रकार के सुख प्रदान करते हैं।
पूजन विधि
शास्त्रों में बताया गया है कि अनंत चतुर्दशी के पूजन में व्रत रखने वाले को सुबह स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए। इसके बाद पूजा घर में कलश स्थापित करके कलश पर भगवान विष्णु का चित्र स्थापित करें। इसके बाद कच्चा धागा लें जिस पर चौदह गांठे बांधे। जब यह तैयारी हो जाए तब भगवान विष्णु के साथ अनंतसूत्र की षोडशोपचार-विधि से पूजन करें।
अनंत चतुर्दशी व्रत कथा
महाभारत में कथा है कि जुए में सब कुछ हार जाने के बाद पांडवों को अपना राज पाट गवांकर वन-वन भटकना पड़ा। ऐसे समय में भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि आप सभी भाई मिलकर भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्दशी तिथि का व्रत करें। इस व्रत से अनंत भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। इसी व्रत से आपको पुनः राजलक्ष्मी की प्राप्ति होगी और आपको आपका खोया हुआ राज पाट मिलेगा। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।

देश की खातिर नेताजी ने ठुकराई नौकरी


नेताजी सुभाषचंद्र बोस कट्टर राष्ट्रभक्त थे और उन्हें अपने देश के खिलाफ कुछ भी सुनना कतई पसंद नहीं था। उनकी राष्ट्रभक्ति को दर्शाती एक घटना है। विदेश से उच्च शिक्षा हासिल करने और आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्हें नौकरी तभी प्राप्त हो पाएगी, जब वह एक और लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर लेंगे। नेताजी ने लिखित परीक्षा की तैयारी आरंभ कर दी।
परीक्षा के दिन नेताजी तयशुदा समय पर परीक्षा हॉल में पहुंच गए। जब प्रश्नपत्र उनके हाथ में आया तो उन्होंने उसे ध्यान से पढ़ा। उसमें एक प्रश्न ऐसा था, जिसे देखकर नेताजी की त्यौरियां चढ़ गई। वस्तुत: वह एक अंश था, जिसका सभी को अपनी-अपनी मातृभाषा में अनुवाद करना था। इस अंश में कहा गया था, ‘इंजियन सोल्यर्स आर जनरली डिसऑनैस्ट’, अर्थात भारतीय सैनिक प्राय: ईमानदार नही होते नेता जी ने निरीक्षक से उन प्रश्न को हटा देने का आग्रह किया। निरीक्षक ने कहा- इसे काटा नहीं जाएगा। यह विशेष रूप से रखा गया है। यदि आप इसे हल नहीं करेंगे तो आपको नौकरी से वंचित होना पड़ेगा। इतना सुनना था कि नेताजी तमतमाकर उठे और प्रश्नपत्र के टुकड़े करते हुए बोले- ये रही तुम्हारी नौकरी। अपने वतन के लोगों पर कलंक सहने से भूखा मर जाना ज्यादा अच्छा है।
कहानी का सार - राष्ट्र के सम्मान की खातिर आजीविका को भी ठुकराने वाले सुभाषचंद्र बोस के ये उच्च विचार राष्ट्रभक्ति का महान संदेश देते हैं। वही व्यक्ति सच्चा राष्ट्रभक्त है, जिसके विचार और कर्म का केंद्र बिंदु राष्ट्र होता है, न कि निजी हित।g

श्राद्ध


जिसका अर्थ है कि पितर जाते समय भूखे न रह जाये तथा दीपक जला कर उनके मार्ग को प्रकाशमय करें। श्राद्ध का आरम्भ भाद्रपद की पूर्णिमा और आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से होता हैं और आश्विन मास की अमावस्या तक पितृपक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता हैं।
श्राद्ध करने का अधिकार ज्येष्ठ पुत्र अथवा नाती को होता हैं। पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को और औरत के श्राद्ध में ब्राह्मणी को भोजन कराते हैं। भोजन में खीर पूरी होती हैं। भोजन कराने के बाद दक्षिणा दी जाती है। पितृपक्ष में पितरों की मरने की तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। गया में श्राद्ध करने का बड़ा महत्व माना गया हैं। पितृपक्ष में देवताओं को जल देने के पश्चात् मृतकों का नामोच्चारण करके उन्हें भी जल देना चाहिए। बुजुर्गो की मृत्यु तिथि के दिन श्रद्धापूर्वक तर्पण और ब्राह्मण को भोजन करना ही श्राद्ध हैं।
तर्पण : पान, सुपारी, काला तिल, जौ, गेहूं, चंदन, जनेऊ, तुलसी, पुष्प, दूब, कच्चा दूध, पानी आदि सामग्री पूजा हेतु एकत्रित कर लेनी चाहिये। पूजा का स्थान गाय के गोबर से साफ कर लेना चाहिये। मृत पितृ के निमित्त और उनकी तिथि स्मरण करके नैवेघ निकाल देना चाहिये। एक थाली में गाय का (पंच ग्रास) तथा एक थाली में ब्राह्मण भोजन निकाले।

सुख और दुःख प्रभु की ही कृपा और कोप का परिणाम ही तो हैं

एक बार भगवान राम और लक्ष्मण एक सरोवर में स्नान के लिए उतरे। उतरते समय उन्होंने अपने-अपने धनुष बाहर तट पर गाड़ दिए जब वे स्नान करके बाहर निकले तो लक्ष्मण ने देखा की उनकी धनुष की नोक पर रक्त लगा हुआ था! उन्होंने भगवान राम से कहा -" भ्राता ! लगता है कि अनजाने में कोई हिंसा हो गई ।" दोनों ने मिट्टी हटाकर देखा तो पता चला कि वहां एक मेढ़क मरणासन्न पड़ा है
भगवान राम ने करुणावश मेंढक से कहा- "तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? कुछ हलचल, छटपटाहट तो करनी थी। हम लोग तुम्हें बचा लेते जब सांप पकड़ता है तब तुम खूब आवाज लगाते हो। धनुष लगा तो क्यों नहीं बोले ?
मेंढक बोला - प्रभु! जब सांप पकड़ता है तब मैं 'राम- राम' चिल्लाता हूं एक आशा और विश्वास रहता है, प्रभु अवश्य पुकार सुनेंगे। पर आज देखा कि साक्षात भगवान श्री राम स्वयं धनुष लगा रहे है तो किसे पुकारता? आपके सिवा किसी का नाम याद नहीं आया बस इसे अपना सौभाग्य मानकर चुपचाप सहता रहा।"
कहानी का सार- सच्चे भक्त जीवन के हर क्षण को भगवान का आशीर्वाद मानकर उसे स्वीकार करते हैं सुख और दुःख प्रभु की ही कृपा और कोप का परिणाम ही तो हैं

ज़िन्दगी का कड़वा सच


एक भिखारी वह न ठीक से खाता था, न पीता था, जिस वजह से उसका बूढ़ा शरीर सूखकर कांटा हो गया था। उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। उसकी आंखों की ज्योति चली गई थी। उसे कोढ़ हो गया था। बेचारा रास्ते के एक ओर बैठकर गिड़गिड़ाते हुए भीख मांगा करता था। एक युवक उस रास्ते से रोज निकलता था। भिखारी को देखकर उसे बड़ा बुरा लगता। उसका मन बहुत ही दुखी होता। वह सोचता, वह क्यों भीख मांगता है? जीने से उसे मोह क्यों है? भगवान उसे उठा क्यों नहीं लेते? एक दिन उससे न रहा गया। वह भिखारी के पास गया और बोला " बाबा, तुम्हारी ऐसी हालत हो गई है फिर भी तुम जीना चाहते हो? तुम भीख मांगते हो, पर ईश्वर से यह प्रार्थना क्यों नहीं करते कि वह तुम्हें अपने पास बुला ले ?" भिखारी ने मुंह खोला " भैया तुम जो कह रहे हो, वही बात मेरे मन में भी उठती है। मैं भगवान से बराबर प्रार्थना करता हूं, पर वह मेरी सुनता ही नहीं। शायद वह चाहता है कि मैं इस धरती पर रहूं, जिससे दुनिया के लोग मुझे देखें और समझें कि एक दिन मैं भी उनकी ही तरह था, लेकिन यह दिन भी आ सकता है, वे मेरी तरह हो सकते हैं। इसलिए किसी को घमंड नहीं करना
चाहिए|" लड़का भिखारी की ओर देखता रह गया। उसने जो कहा था, उसमें कितनी बड़ी सच्चाई समाई हुई थी। यह जिंदगी का एक कड़वा सच था, जिसे मानने वाले प्रभु की सीख भी मानते हैं।

Monday, 22 August 2016

वेदोंका विभाग भगवान् व्यासजीने किया है ।



    भारतवर्ष में प्रचलित प्रायः समस्त सम्प्रदायोंने  भगवान् के ज्ञानावतार वेदव्यासजीको वेदोंका विभागकरता स्वीकार किया है । किन्तु आधुनिक समयमें स्वघोषित आर्योंने पुराणोंकी निन्दा करने में कोई कमी नहीं छोड़ी और पुराणोंके वचन का सर्वदा विरोध ही किया कि व्यासजीने वेदोंका विभाग कैसे किया ? जबकि वेदोंके अनुसार तो परमात्माने ही "ऋक्०,यजु०,साम० आदि वेद ऋषियोंको प्रदान किये ?    
   अब इसका समाधान करना भी आवश्यक है ,यद्यपि परमात्मा ने "ऋक्,यजु,साम " आदि वेद ऋषियोंको प्रदान किये तथापि वेदोंको चार भागोंमें व्यासजी ने किया । भगवान् ने ब्रह्माजीको "ऋक्,यजु,साम" वेद मन्त्र प्रदान किये थे  । अर्थात् - पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विरामका निश्चित नियम रहता है । अतः निश्चित अक्षर संख्या और पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रोंकी संज्ञा "ऋक् " है जो कि पद्यात्मक है । जिन मन्त्रोंमें छंदके नियमानुसार अक्षर-संख्या और पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं हैं ,वे गद्य हैं उन मन्त्रोंकी संज्ञा "यजु:" है जो कि पद्यात्मक है , और जितने मन्त्र गानात्मक हैं वे मन्त्र "साम"कहलाते हैं जो कि गीत हैं । ऋग्वेद "ऋक्" मन्त्रोंके कारण ऋग्वेदमें मात्र पद्यात्मक ही मन्त्र होते जबकि ऋग्वेदमें पद्यात्मक मन्त्रों का बाहुल्य तो ,किन्तु ऋग्वेद में गद्यात्मक मन्त्र और साममन्त्र भी हैं । इसीप्रकार यजुर्वेदमें केवल गद्यात्मक मन्त्र ही होने चाहिये थे जबकि यजुर्वेदमें पद्यात्मक मन्त्र भी हैं , यजुर्वेद में ऋग्वेद और अथर्ववेदके मन्त्र भी हैं इसीप्रकार सामवेदमें सम्पूर्ण मन्त्र ऋग्वेदके ही मन्त्र हैं , सामवेदके १८७५ मन्त्रोंमें १८०० मन्त्र ऋग्वेदकी शाकल शाखा में पाये जाते हैं और बाकी ७५ मन्त्र शांखायन शाखाके हैं ।  अथर्ववेद में तीनों मन्त्र "ऋक्,यजु:,साम" पाये जाते हैं इसलिए अथर्ववेद का नाम मन्त्रोके कारण न होकर प्रतिपाद्यविषयके कारण है । भगवान् वेदव्यासजीने "ऋक्,यजु:,साम" मन्त्रों का अलग अलग विभाग करके ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद को अपने शिष्य पैल ,वैशम्पायन,जैमिनी और सुमन्तु को पढ़ाया । जिन मन्त्रोंमें पद्य अधिक हैं उन्हें ऋग्वेद ,जिन मन्त्रोंमें गद्य अधिक हैं उन्हें यजुर्वेद,जिन मन्त्रोंमें साम अधिक हैं उन मन्त्रोंको सामवेद और जिन "ऋक्,यजु:,साम " तीनों मन्त्रों का अथर्ववेद का विभाग किया । अब गुरुमुख श्रवणकी स्वस्थ्य परम्परा का लोप होने से ज्ञान कहाँ से होगा ?

Tuesday, 16 August 2016

सच्ची गुरुदक्षिणा

प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।
उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूँ वापस करना है। जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।
एक शिष्य गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पुट्टल बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।
कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो उन्होंने जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पुट्टल बताई जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पुट्टल के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उससे अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा- गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ हैं और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।
लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बाँटता है वही श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। मूलतः गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है।

सबसे बड़ा संयम है मौन

मौन रहने व कम बोलने से ना केवल हमारी वाणी का संयम होता है, अपितु इससे हमारी जीवनी शक्ति का भी संचय होता है। मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों व उनसे उत्पन्न होने वाली बड़ी परेशानियों से बचा लेता है। इसके विपरीत जो आदतन चुप नहीं रह सकते, अपनी समझदारी का बखान करने के लिए एक के बदले दस जवाब देते हैं, उनकी बड़ी परेशानियों में फंसने की संभावनाएं अधिक रहती है। मौन रहने से भी अभिव्यक्तियां प्रकट होती है, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती और यह भी अपना प्रभाव दिखाता है।
केवल न बोलना ही मौन नहीं है। अक्सर लोग वाणी के विराम को मौन समझ लेते है। लेकिन यदि  किसी के मन में विचारों की उथल- पुथल हो रहीं हो या उसके भीतर मन में किली अन्य व्यक्ति के लिए द्वेष का ज्वार उठ रहा हो तो इसे मौन नहीं कह सकते। वाणी पर संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंत: मौन। जबकि वास्तविक व पूर्ण मौन वह है, जिसमें मन और वाणी दोनों ही पूरी तरह शांत हो।
मौन हमारी इंद्रियों को संयमित रखता है। इसके द्वारा वाणी के माध्यम से व्यय होने वाली ऊर्जा का संरक्षण होता है। इसलिए कहा जाता है कि जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है, वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है।
ऐसा नहीं है कि हर समय मौन रहने की आवश्यकता है। जहां जरूरी है, वहां अवश्य बोलना चाहिए, सारगर्भित शब्दों में स्वंय को अभिव्यक्त करना चाहिए और व्यर्थ के वाद-विवादों से यथा-संभव बचना चाहिए।

जानिए किन चार तरह के व्यक्तियों को नींद नहीं आती-



‘महाभारत’ की कथा के महत्वपूर्ण पात्र विदुर को कौरव-वंश की गाथा में विशेष स्थान प्राप्त है। विदुर हस्तिनापुर राज्य के शीर्ष स्तंभों में से एक अत्यंत नीतिपूर्ण, न्यायोचित सलाह देने वाले माने गए है।

वे जो सलाह देते थे, उसमें संपूर्ण मनुष्य जाति का भला छिपा होता था। उनकी  इन सलाहों को विदुर नीति के नाम से जाना जाता है...।

विदुर का कहना था, कोई भी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों के जीवन में ये चार बातें होती हैं, तब उसकी नींद उड़ जाती है और मन अशांत हो जाता है। ये चार बातें कौन-कौन सी हैं, आईये जानते हैं।

➡ जब किसी स्त्री या पुरुष की शत्रुता उससे अधिक  बलवान व्यक्ति से हो जाती है तो भी उसकी नींद उड़ जाती है। निर्बल और साधनहीन व्यक्ति हर पल बलवान शत्रु से बचने के उपाय सोचता रहता है क्यूंकि उसे हमेशा यह भय सताता है कि कहीं बलवान शत्रु की वजह से कोई अनहोनी न हो जाए।

➡ विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा कि यदि किसी व्यक्ति के मन में कामभाव जाग गया हो तो उसकी नींदें उड़ जाती है और जब तक उस व्यक्ति की काम भावना तृप्त नहीं हो जाती तब तक वह सो नहीं सकता है।

➡ यदि किसी व्यक्ति का सब कुछ छीन लिया गया हो तो उसकी रातों की नींद उड़ जाती है। ऐसा इंसान न तो चैन से जी पाता है और ना ही सो पाता है। इस परिस्थिति में व्यक्ति हर पल छीनी  हुई वस्तुओं को पुन: पाने की योजनाएं बनाता  रहता है और जब तक वह अपनी वस्तुएं पुन: पा नहीं लेता है, तब तक उसे नींद नहीं आती है।

➡ यदि किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति चोरी की है या जो चोरी करके ही अपने उदर की पूर्ति करता है, जिसे चोरी करने की आदत पड़ गई है, जो दूसरों का धन चुराने की योजनाएं बनाते रहता है, उसे भी नींद नहीं आती है। चोर हमेशा रात में चोरी करता है और दिन में इस बात से डरता है कि कहीं उसकी चोरी पकड़ी ना जाए। इस वजह से उसकी नींद भी उड़ी रहती है।

ये चारों बातें व्यवहारिक और हर युग में सटीक मालूम पड़ती हैं, उम्मीद करते हैं कि महात्मा विदुर की बातों से आप भी अपनी सीख लेंगे और दूसरों को भी प्रेरित करेंगे।