Sunday, 27 September 2015

विद्या की परिभाषा

योवनम धन संपत्ति प्रभुत्व म अविवेकिता
एकैकम अनरथाय किमूयत्र चतुसथाय।
अथात: युवा अवस्था हो, धन संपत्ति प्रचुर मात्रा मे हो, कोई पोस्ट प्राप्त हो (जैसे सॉफ्टवेर इंजीनियर हु, मै आईएएस ही, मै कलेक्टर हु, मै इंजीनियर हु) इत्यादि और शास्त्र वेद का तत्वज्ञान प्रप्त न हो इन मे एक भी वस्तु अगर किसी को प्राप्त हो जाए तो जीव अपना अनर्थ कर बैठता है, और सभी वस्तु मे मिल जाए तो फिर तो वो जीव अपने आपको भगवान ही मान लेता है।
ग्रह ह्रहीत पुनि बात बस, तेहि पुनि बीछी मार । ताही पियाइअ बारुनी, कहहु कौन उपचार।
एक तो जीव का मन पहले से ही बंदर की तरह चंचल फिर उसे जीव(बंदर) को वायु रोग हो जाए और फिर उस जीव(बंदर) को बिच्छी डंक मार दे , और फिर जीव(बंदर) को मदिरा पिला दी जाए तो सोचिए उस जीव (बंदर) का क्या कोई उपचार कर सकता है वो जीव मदांध हो जाता है
इसी तरह किसी व्यक्ति को धन, संपत्ति, युवा अवस्था या कोई पोस्ट या डिग्री मिल जाए तो अहंकार से नहीं बच सकता है और भगवान शिव का केवल एक शत्रु है अहंकार जिस किसी व्यक्ति मे अहंकार आया की भगवान शिव मूड ऑफ हो जाता नो दो ग्यारह हो जाते।
विद्या की परिभाषा शास्त्रो मे कही गई है
सा विद्या या विमुक्तएत॥
विद्या वही है जो जीव को माया के बंधन से मुक्त करके भगवान शिव के प्रेम के बंधन मे बांध दे सदा के लिए इसके अलावा जितनी भी विद्याय है सब केवल अविद्या है अज्ञान है , श्रम ही फालतू का।
वसुदेव परा विद्या।
सा विद्या तन मतिर यया।
वही ज्ञान विद्या कहलाती है जो जीव को भगवान को ओर ले जाए अगर कोई विद्या जीव को संसार की ओर ले जाकर संसार के जड़ वस्तु और व्यक्ति मे आसक्ति कर व देती है तो महान अविद्या है अज्ञान है, नरक का द्वार है।
मनुष्य (स्त्री हो या पुरुष ) प्रत्येक को अपने शरीर मे कितनी आसक्ति होती है
जब की स्त्री के शरीर मे हाड़, मांस, मल, मूत्र , विस्टा, पाखाना , दुर्गन्द आदि भरा पड़ा है, इस अधम शरीर के प्रत्येक रोम रॉम से गंदगी ही निकलती रहती है, दो आँख से गंदगी, दो कान से गंदगी, मुह से दुर्गंध, प्रत्येक रोम रॉम से नहाते वक्त भी पसीना निकलता रेहता है, नाक से गंदगी, मूत्रइंद्रिय से गंदगी(एमसी , मूत्र) फिर मल आदि और पाँच किलो माल सदा प्रत्येक मनुष्य के पेट मे भरा पड़ा है ...
आश्चर्य है पुरुष को ये सब ज्ञान है फिर भी वह स्त्री के गंदे शरीर मे आसक्त हो जाता है ये इसलिए होता है पुरुष की बुद्धि जब तक काम युक्त है तभी तक उतने समय के लिए ही उस पुरुष को स्त्री के शरीर से सुख मिलता है
कामी है स्त्री अच्छी लगती है
लोभी है धन अच्छा लगता है
क्रोधी है लड़ाई करना, गली देना अच्छा लगता है
द्वेषी है निंदा करना अच्छा लग रहा है
रागी है स्तुति (स्त्री या प्रेमिका की तारीफ करना अच्छा लग रहा है)
तभी तक जब तक ये माया के विकार मन पर हावी है बस उतने ही समय तक...
वैसे भी संसार संबंधी कोई भी ज्ञान महा अज्ञान ही है अविद्या ही है
(जैसे सॉफ्टवेर इंजीनियर हु, मै आईएएस ही, मै कलेक्टर हु, मै इंजीनियर हु मै एमबीए हु )
माया के जगत का ज्ञान जीव को चौरासी लाख योनियो मे ही घूमता है जीव को परमात्मा से नहीं मिलता यह सब ज्ञान (अज्ञान) केवल जीविका चलाने का साधन है यह पेट भरने का काम तो कुत्ते , गधे, बिल्ली भी कर लेते है इसी संसारी पोस्ट का तुम्हें क्या अहंकार है एक बार यमराज का जिस क्षण ऑर्डर हो जाएगा उस शान आप लोगो की यह डिग्रीया(जैसे सॉफ्टवेर इंजीनियर हु, मै आईएएस ही, मै कलेक्टर हु, मै इंजीनियर हु मै एमबीए हु ) आपको चौरासी लाख प्रकार के योनीयो मे जाने से नहीं बचा सकता मृत्यु के बाद केवल आपके कर्म ही आपकी सहइयता करेंगे बस
इसलिए भक्ति करो जल्दी जल्दी भगवान शिव के चरणों मे मन की आसक्ति करो शरणागत हो जाओ और सदा को माला माल हो जाएओ।

मुरली कौन है?

लोग कहते है मुरली भगवान शंकर है ठीक ही कहते है पर भगवान शंकर मुरली क्यो बने इसका तत्व किसिकों नहीं पता चलो हम बताते है
पुरानो के अनुसार जब हनुमान लंका दहन करके वापस आए श्री राम के पास माता सीता का कुशल मंगल बताने के लिए भगवान राम ने हनुमान से कहा
हनुमान तुम लंका जलाकर आए हो तुम थक गए हो मेरे मन मे इच्छा उतपन हो रही है की मै आप के चरण की सेवा करना चाहता हु... इसलिए मुझे अपने चरण दबाने की सेवा दीजिए और वैसे भी हनुमान मेरे ऊपर आपके अनंत उपकार है मै तूहरे एक एक उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकता ।
हनुमान ने कहा प्रभु आप स्वामी मै दास हु कैसे आप मेरे चरण दबाएँगे... लोग क्या कहेंगे दास होकर स्वामी से चरण दबवा रहा है॥ भगवान राम नहीं माने तो फिर हनुमानजी शंकर रूप मे भगवान राम को ये वरदान दिया की प्रभु इस अवतार मे रहने दीजिए अगले अवतार मे जब कृष्ण बनेंगे तो मै मुरली बानुगा उस मुरली मे छेद होंगे जिसे आप अपने कर कमलों से छेद को बंद करेंगे फिर खुला छोड़ देंगे इससे आप मेरी चरण दबाने का सौभाग्य प्राप्त कर लेंगे।
"शंकर स्वयं केशरीनंदन"
ये मुरली हनुमान जी है...... श्री कृष्ण सदा इस हनुमान रूपी मुरली के छेद को छेद छेद कर भगवान शिव के चरणों की सेवा करते है यही इसी मुरली के द्वारा अनंत गोपियो को भी अपनी प्रेम की ओर आकर्षित करते है इसी मुरली के प्रभाव से परमहंस समाधि भूल जाते है यही नहीं इसी मुरली के कारण राधा बावली हो जाती है मादनखय महाभाव की अवस्था से पीड़ित कर देती है॥
इसी तरह भगवान शिव लीला क्षेत्र मे शिवानी गोपी बनकर रास मे जाते है क्यूकी भगवान शिव अपनी इच्छा से रास मे नहीं जाते या भगवान शिव को कोई गरज नहीं है रास मे जाने की ये तो श्री कृष्ण को गरज है की वे भगवान शिव के दर्शन करेंगे। क्यूकी
भगवान शिव ही राधा कृष्ण भी है , भगवान शिव ही गौरी शंकर है सब कुछ है।
दोनों एक ही ही ही ही है
वेदो मे केवल मात्र भगवान शिव को ही """"तस्मात प्रेमाननदात """" के उपाधि से संबोधित किया है भगवान शिव का पर्याईवाची है प्रेमानन्द....
भगवान शिव की लीला दिव्य तमो गुण प्रधान ज्यादा हुई है इसलिए उनसे संबंधी जीतने पुराण है उन्हे दिव्य तमस पुराण कहा गया है जैसे की एक वैष्णव पुराण मे आया है ये जो तामस लीला भगवान शिव की होती ये दिव्य होती है माया से परे वाला ये दिव्य तमो गुण है
भगवान शिव के भीतर केवल दिव्य सत्व गुण है
.... इस दिव्य तमो गुण लीलाओ के द्वारा जिन जिन राक्षस को भगवान शिव ने मारा वे सब भगवान शिव के नित्या धाम महा कैलाश मे गए। सदा को आनंद मए बन गए।
अगर मायिक तामस होता तो भगवान शिव किसी भी राक्षस को मारते तो उसे भगवान शिव का धाम नहीं मिलता॥ मायिक तामस के द्वारा जो लोग मारे जाते है उन्हे 84 लाख प्रकार की योनिया प्राप्त होती है।
इसी तरह भगवान कृष्ण दिव्य सत्व गुण धरण करके अपनी अवतार लीला करते है
इसी तरह ब्रह्मा भी दिव्य रजो गुण धरण करके सृष्टि प्रगट करते है॥
एक बात सदा स्मरण रखिए जहा श्री कृष्ण होंगे वह भगवान शिव अवश्य होंगे और जहा भगवान शिव होंगे वह श्री कृष्ण अवश्य होंगे।
भगवान शिव अनंत कोटी ब्रह्मांड के स्वामी है भगवान शिव के स्वयं सृष्टि का कोई भी कार्य करते यह सब उनके अवतार करते है ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र आदि
भगवान शिव के अनंत नाम है, अनंत रूप है, अनंत अवतार है, अनंत धाम है, असंख्य भक्त भी है जिसमे (शांत भाव, दास्य भाव, सख्या भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव भी समाहित है)
भगवान शिव अपने भक्तो के साथ लीला करते है बस भगवान शिव की आयु नित्य 16 वर्ष की होती है इसी तरह माता पार्वती भी नित्य 16 वर्ष किशोरी होती है अपने महा कैलाश धाम मे...
भगवान शिव मे अनंत माधुर्य रस भरा पड़ा है किसी को भगवान शिव के माधुर्य रस पर अगर संदेह है तो साधना करके भगवान शिव के दर्शन कर ले संदेह अपने आप समाप्त हो जाएगा।
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शिव अथवा कृष्ण।
भगवान शिव और भगवान श्री कृष्ण दोनों एक तत्व है , एक ही परातपर तत्व है या भगवान शिव का पर्याईवाची नाम श्री कृष्ण या यू कह लो श्री कृष्ण का पर्याईवाची नाम शिव है।
1) एक ही परातपर ब्रह्म के तीन रूप है ब्रह्मा ने दिव्य रजो गुण के द्वारा सृष्टि को प्रगट करते है। (सृष्टि सृज विसरगे धातु से बना है जिसका अरथ है प्रगट करना जन्म देना नहीं)
2)विष्णु अथवा महाविष्णु दिव्य सत्व गुण के द्वारा सृष्टि का पालन करते है
3) रुद्र बनकर दिव्य तमो गुण के द्वारा सृष्टि का प्रलय करते है।
पर इन तीनों स्वरूप से भिन्न परा शिव है जो तीनों मायिक गुण + दिव्य सत्व (vishnu), दिव्य रज(ब्रह्मा), दिव्य तमो(रुद्र) से परे है।
लीला क्षेत्र मे यह सब नाटक करते है एक दूसरे की भक्ति करते है॥
लीला का अर्थ है नाटक तमाशा ड्रामा वास्तविकता नहीं है।

आप जीवात्मा है ।

जीवात्मा का संबंध केवल एक मात्र भगवान से ""ही ""(भी नहीं) है।
पहले आपलोग संबद्ध का अर्थ समझ लीजिए।
संबंध किसे कहते है
संबंध 2 शब्द मिलकर बना हुआ है
सम + बंध
सम का अर्थ होता है सम्यक (परिपूर्ण, चारो तरफ से), बंध का अर्थ होता है बंधन
सम्यक माने चारो तरफ से बंधन , परिपूर्ण बंधन, नित्या बंधन
संबंध उसे कहते है जिस संबंध मे संबंध का विछेद न हो,
लेकिन शरीर के संबंधी माता, पिता , बेटा, स्त्री , पति, प्रेमी, प्रेमिका , धन आदि से हमारा नित्य संबंध कहा रेहता है
पुत्र जीवित है पिता मर गया, पिता जीवित है, पुत्र मर गया, माता जीवित है पुत्र मर गया, पत्नी 25 वर्ष की थी तभी उसका पति रोड एक्सिडेंट मे मारा गया और वैसे भी शादी के पहले तो ये पति पत्नी बचपन मे एक दूसरे को जानते तो नहीं थे एक दिन साथ चक्कर लगाय और बन गई अर्धांगिनी,और दोनों का य तो तलाक हो जाता है य तो मर जाते है दोनों मे से एक,
और फिर संसारी माता , पिता , पुत्र , पुत्री , मित्र से जो संबंध होता भी है उसका रीज़न केवल एकमात्र स्वार्थ है।
देखिए तुलसीदास ने क्या कहा
जाते कछु निज स्वरथ होई तापे ममता करे सब को
संसारी माता , पिता, पुत्र , प्रेमी, प्रेमिका ये सब एक दूसरे से आपस मे स्वार्थ सिद्ध करते रहते है,
सुर नर मुनि सबकी यह रीति स्वार्थ लागे कराही सब प्रीति।
संसारी माता पिता को छोड़िए, देवता इंद्र भी स्वार्थी होता है।
तुम्हारा अपना शरीर भी तुम्हारा साथ नहीं देगा यह भी तुम्हें छोड़ देगा तो फिर संसारी माता, पिता , पत्नी कितना दिन साथ देंगे।,
और वैसे भी सनातन धर्म मे जीव अनादि है, इस जन्म मे कोई माँ बनी, कोई पिता बना, कोई स्त्री बनी, कोई पुत्र बना फिर मरने के अगले जन्म मे फिर एक नई माँ बनेगी, फिर एक नया पिता बनेगा, फिर नया पुत्र बनेगा.....अरे कहा तक काहू कुत्ते, बिल्ली, गधे, सुवर भी हमारे माता , पिता बन चुके है और अगले जन्म मे भी बनते रहंगे, वर्तमान जन्म के माता , पिता , पुत्र, पत्नी भी अगले 84 प्रकार के शरीर मे घूमेंगे और तुम्हारे साथ नहीं जाएंगे सब अपने कर्म फल भोगने कोई नरक मे जाएगा, कोई स्वर्ग मे जाएगा, कोई मृत्यु लोक मे घूमेगा तो तुम्हारे ये संसारी माता पिता से तो संबंद एक ही जन्म मे विच्छेद हो गया ये काइके संबंधी है।
कोई पति पत्नी संतान पैदा नहीं करती , जब कीसी जोड़े की नई नई शादी है तो वे लोग तो कामआन्ध होकर एक दूसरे के शरीर का विषयभोग(संभोग) करते है, वे दंपति थोड़ी बच्चे पैदा करते है, उन्हे पता ही नहीं पेट मे क्या हो रहा है ये तो भगवान जीव माता के रज और पिता के वीर्य से माता के गर्भ मे जीव का शरीर बनाते है, फिर माँ के गर्भ मे रहकर की अपने पुत्र जीव के शरीर की रक्षा करते है , भगवान अपने जीव के खाने का इंताजाम करते है माता के पेट मे जो माता खाती है वही जीव को भी मिलता है , जो सास माता लेती है जीव को प्राप्त होता ऐसे वैज्ञानिक ढंग से ये काम भगवान चोरी चोरी करते है अपने जीव के लिए कोई संसारी माता क्या करेगी वो तो अल्पज्ञ है उसे पता ही नहीं गर्भ मे इतनी सारी क्रिये हो रही है ,फिर 9 महीने बाद माता के गर्भ से जीव को बाहर निकालते है।
फिर जब जीव संसार मे आता है तो भगवान को यह चिंता होती है की मेरा पुत्र क्या कहेगा अभी तो इसके दात नहीं निकले है तो शिव जी माता के स्तनो मे दूध पैदा कर देते ऑटोमैटिक क्या कोई माता अपने स्तनो मे मशीन लगाकर बिना पुत्र पैदा किए दूध पैदा कर सकती है स्तनो मे।
फिर मेरा पुत्र कब दूध के सहारे जीवित रहगा उसके दात निकाल आए फिर शिव जी पुत्र के लिए अनंत सब्जी पहले से तैयार राखी है, फल खाये, सब्जी खाए,फिर जीव के पाप और पुनयो का फल भी देता है बड़ा होने पर जो उसने पूरव जन्म के कर्म किए होंगे॥
तुम्हारा भगवान शिव से ही नित्या संबंध है। शिवजी से तुम्हारा सम्यक संबंद है परिपूर्ण संबंध है तुम नरह मे जाओगे शिवजी तुम्हारे साथ नरक मे भी जायेंगे बस अंतर यह होगा तुम कर्म फल भोकते हुए रोकर जाओगे , शिवजी मुस्कराते हुए जायेंगे, तुम कुत्ते बनोगे शिवजी तुम्हारे साथ कुत्ते के शरीर मे भी आयंगे, तुम बिल्ली बनोगे , शिवजी बिल्ली के शारीर मे तुम्हारी आत्मा मे बैठे रहंगे तुम्हारे कर्म फल भुगत्वंगे जबर्दस्ती, तुम देवता के शरीर मे जाओगे तो वह भी शिव तुम्हारे हृदय मे बैठे रहंगे...
जिस जिस शरीर मे जाओगे शिवजी तुम्हारे हृदय मे सदा , नित्या बैठे रहंगे, तुम्हारे साथ रहंगे एक क्षण के लिए तुमसे अलग नहीं होंगे, मतलब संबंध विच्छेद नहीं होगा, अनादि काल से शिवजी तुम्हारे हृदय मे बैठे है सदा तुम्हारे हरिदाय मे साथ रहंगे एक पल के साथ नहीं छोड़ते भगवत प्राप्ति के बाद भी तुम्हारे साथ रहंगे।
(वेद :
द्वा सुपर्णा, सयुजा। सखाया, समानम वृक्षस्य स्वजाते svetasvatara उप)
भगवान शिव की कृपा का वर्णन करने चालू तो मेरी मृतु हो जाएगी गिर भी मई नहीं बता पाऊँगा अनंत काल तक भी मई बताता राहू फिर भी नहीं बता सकता
संसारी माता , पिता, पुत्र, पत्नी कितने जन्म मे तुम्हारे साथ रहंगे एक जन्म मे भी साथ नहीं जायेंगे ।
एक रसिक ने कहा है
कति नाम, लालिता, सुतह, कति वा नेह वधुर , भुंजीही,
क्वानुते क्वानुताश्च व वयं भाव संघ खलु पांथ समागमह।
अर्थात
जीव ने अनंत जन्मो मे अनंत माता, अनंत बाप, अनंत पुत्र, अनंत पत्नी बना चुका है सब कहा है , कहा गए है नहीं जी हुमे नहीं याद है की पिछले जन्म मे हमारी माता कौन थी , अगले जन्म कौन है,,,, यह तो पथिकोका संग है जैसे बस और ट्रेन मे यात्री बैठे रहते है और यात्री आपस मे बाते करते है लेकिन जब यात्री का अपना गंतव्य स्थान आता है तो यात्री अपने स्टेशन उतार जाता है इसी तरह यह संसारी माता पिता पुत्र है अपने कर्म पीएचएल भोगेंगे और अपने समय पर मृत्यु के प्राप्त होकर मरने के बाद भी कर्म के अनुसार कोई नरक मे जाएगा, कोई स्वर्ग मे जाएगा, कोई मृत्यु लोक...
इसलिए आपके, माता, पिता, भ्राता सारे संबंध केवल परमात्मा से है।
देखिए वेद क्या कहता है
य आतमनीतिसथती।
जीवात्मा के नित्य संबंधी एकमात्र भगवान शिव है,
अमृतस्य वै पुत्र:।
जीवात्मा भगवान का पुत्र है,अनंत जीवो का संबंध केवल एकमात्र भगवान शिव से है।
गीता
ममेवंशों जीव लोके जीव भूतस्यसनातन:।
भगवान कह रहे है जीव मेरा अंश है,
ब्रहमसूत्र
अंशोनानाव्यापदेशात।
प्रत्येक जीव का केवल एकमात्र भगवान से नाना संबंध है।
तुम दिव्य आत्मा हो।
नैव स्त्री न पुमानेश न चैवअयम नपुंसक:।
यधचछशरीरमादते तेने तेने स यूजयते॥ ( sv up)
जीव जिस जिस शरीर को प्राप्त करता है उस शरीर या देह को अपना मै मान लेता है।
उधारण:स्त्री का शरीर प्राप्त हुआ जीव को तो अपने आपको स्त्री मान लेता है, पुरुष का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको पुरुष मान लेता है,नपुंसक का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको नपुंसक मान लेता है,कुतिया का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको कुतिया मान लेता है, सुवर का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको सुवर मान लेता है 84 लाख प्रकार के शरीर मे मे जिस जिस शरीर मे जाता है उस उस शरीर को अपना मान लेता है।
तुम शरीर नहीं आत्मा हो पहले यह ज्ञान सदा याद रखो।
फिर अध्यमिक जगत मे आगे बढ़ सकोगे।
जाके प्रिय न राम-बैदेही.
तजिये ताहि
--------कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ||१ ||
जिसको भगवान प्यारे नहीं लगते उसको त्याग दीजिए दुश्मन की तरह भले ही आपका परम आत्मीय क्यू न हो।
सो छाँड़िये
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी.
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ||२ ||
प्रह्लाद ने भगवान के प्रेम के लिए अपने पिता का त्याग कर दिया,
विभीषण ने भगवान के प्रेम के लिए अपने भ्राता रावण का त्याग कर दिया
भरत ने प्रभु राम के अपने सग्गी माता कैकई का त्याग कर दिया।
राजा बलि ने भगवान के प्रेम के लिए अपने गुरु का त्याग कर दिया,
गोपियो ने श्री कृष्ण के प्रेम के लिए अपने पति का त्याग कर दिया,
फिर भी इनको नरक नहीं मिला सब भगवान के धाम गोलोक मे गए भगवान की सेवा प्राप्त की,
प्रभु राम को जब वनवास के लिए कैकई ने भेजा तो भरत जी को पता चला तो उन्होने क्या उत्तर दिया
वाल्मीकि रामायण
हान्यामहमीमाम पापाम कैकाइम दुश्त्चारिनिम
यदि मे धार्मिकों रमो नसयेनमातरघातकम।
अर्थात:
भरत जी कह रहे कोई मुझे विश्वास दिला दे मेरे इस कृत से प्रभु राम मेरा त्याग न करेंगे तो मै अपनी माता की हत्या कर दु।
इसी तरह माता सीता और लक्ष्मण ने भी प्रभु राम की बात नहीं मानी।
भगवान की भक्ति मे जो भक्ति मे जो भी बढ़ा आए आप उसका त्याग कर सकते है डरिए मत।
संसार मे रहकर अपना कर्तव्य निभाये न की मन की आसक्ति करे, मन से प्यार केवल भगवान से करे यह मानव देह एकमात्र भगवत प्राप्त की लिए दिया गया है माता , पिता, पुत्र, पत्नी की सेवा तो आप लोगो ने अनंत जन्म मे की है और जब तक भगवत प्राप्ति नहीं होगी तब तब किसी न किसी की सेवा काओरगे ही चाहे संसारी रिश्ते दार की सेवा करोगे नहीं तो कोई अपने ही शरीर की सेवा करोगे....
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों.
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ||३ ||
तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो.
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ||४ ||
एक शिवजी ही तुम्हारे सर्वस्व है,शिवजी तुम्हारे माता, पिता , भ्राता सारे संबंध एकमात्र शिवजी से ही है.....................

अखंड भारत का संपुर्ण शैव दर्शन

1) कश्मीरी शैव सम्प्रदाय :-
वसुगुप्त ने 9 वीं शताब्दी के उतरार्ध्द में कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का गठन किया। इनके कल्लट और सोमानन्द दो प्रसिध्द शिष्य थे। इनका दार्शनिक मत ईश्वराद्वयवाद था। सोमानन्द ने ”प्रत्यभिज्ञा मत” का प्रतिपादन किया। प्रतिभिज्ञा शब्द का तात्पर्य है कि साधक अपनी पूर्वज्ञात वस्तु को पुन: जान ले। इस अवस्था में साधक को अनिवर्चनीय आनन्दानुभूति होती है। वे अद्वैतभाव में द्वैतभाव और निर्गुण में भी सगुण की कल्पना कर लेते थे। उन्होने मोक्ष प्राप्ति के लिए कोरे ज्ञान और निरीभक्ति को असमर्थ बतलाया। दोनो का समन्वय से ही मोक्ष प्राप्ति करा सकता है। यद्यपि शुध्द भक्ति बिना द्वैतभाव के संभव नही है और द्वैतभाव अज्ञान मूलक है किन्तु ज्ञान प्राप्त कर लेने पर जब द्वैत मूलक भाव की कल्पना कर ली जाती है तब उससे किसी प्रकार की हानि की संभावना नही रहती। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में कतिपय ऐसे भी साधक थे जो योग-क्रिया द्वारा रहस्य का वास्तविक पता पाना चाहते थे क्योंकि उनकी धारणा थी कि योग-क्रिया से हम माया के आवरण को समाप्त कर सकते है और इस दशा में ही मोक्ष की सिध्द सम्भव है।
2) वीरशैव
2) वीरशैव एक ऐसी परम्परा है जिसमें भक्त शिव परम्परा से बन्धा हो । यह दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय हुई है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, ये भारत का तीसरा सबसे बड़ा शैव मत है पर इसके ज़्यादातर उपासक कर्नाटक में हैं और भारत का दक्षिण राज्यो महाराष्ट्र आंद्रप्रदेश केरला ओर तमिलनाड मे वीरशैव उपासक अदिक्तम है । ये एकेश्वरवादी धर्म है। तमिल में इस धर्म को शिवाद्वैत धर्म अथवा लिंगायत धर्म भी कहते हैं। उत्तर भारत में इस धर्म का औपचारिक नाम ” शैवा आगम” है। वीरशैव की सभ्यता को द्राविड सभ्यता कहते हैं । इतिहासकारों के दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ईसापूर्व में वीरशैव अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये । तभी से वो लोग (उनके विद्वान आचार्य ) अपने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे । पहले चार वेद मे शिव भगवान को परमब्रह्म प्रतिपादन को प्रमाण किया श्रीकर भाष्य ने , जिनमें ऋग्वेद प्रथम था । उसके बाद जगद्गुरु श्री वागिश पंडितारध्य शिवाचार्य उपनिषद जैसे ग्रन्थ को प्रस्थान त्रय ग्रन्थ मे शिवोत्तम का प्रतिपाध्य किया गये। १२ शताब्दी में बसवेश्वर जी ने जन भाष्य में सरल शिवतत्व का दर्शन दिया शक्ति विशिष्टाद्वैत
शक्ति ‘ को विशिष्ट रूप से उपासन करने की कई पंथ हैं, जिसमें से शक्ति वुशिष्टाद्वैत प्रमुख है | इसके अनुसार त्रिगुणात्मक माया तथा विशिष्टाद्वैत के अंशी – भाव दोनों मिलके शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाती है, ऐसे वीरशैव मत के दार्शनिक प्रतिपादन है | वीरशैव दर्शन के प्रकार २८ शैवागम हैं, जिसमे से एक है ‘ वीरागम ‘ | इसमें ” सर्व वेदेषुयत द्रष्टन्तत सर्वन्तु शिवागमे || ” मतलब सर्व वेद तथा वेदोचित सिद्धांतो को ‘ शिवागम ‘ सम्मत करती है, यह तात्पर्य है | इस वाक्य के अनुसार ‘ वीरशैव ‘ दर्शन भी वेदानुसारी है , यह ध्वनि निकलती है | पारमेश्वर तंत्र में वीरशैव दर्शन को बाकी वैदिक मतों से जोड़ा गया है |
” वीरशैवं वैष्णवंच शाक्तं सौरम विनायकं |
कापालिकमिति विज्नेयम दर्शानानि षडेवहि || ”
पाणिनि के सूत्रानुसार ‘ वी ‘ नामक धातु को ‘ गमन ‘ अर्थ है और उसके लक्षनार्थ ‘ ज्ञान ‘ कहा जाता है | ‘ र ‘ मतलब ‘ रमना ‘ – इस प्रकार वीरशैव का मतलब ज्ञान में रमनेवाले ( ‘ संतुष्ट होनेवाले ‘ ) शिव-भक्त, ऐसे वीरशैव दर्शन कहता है | (देखिये – सर्व धर्म दर्शन – पुट संख्या ४९ ) वीरशैव दर्शन में “ आशब्धिम स्पर्शरूपं अव्ययं अस्तूलम अनन्वहृस्वदीर्घमलोहितं ” यह उपनिषत प्रमाण और ” तदैक्षत बहूस्यामप्रजायेय ” श्रुति वाक्य को प्रमाण देकर वेद-प्रामाण्य को सम्मति दी है | वीरशैव दर्शन में ‘ शक्ति ‘ को प्राधान्यता रहने की कारण, इसे ‘ शक्ति विशिष्टाद्वैत ‘ कहा गया है | ‘ शक्ति ‘ को ही सत्व – राजस – तमो नामक त्रिगुण माया, ऐसे दर्शाया है | इस तरह शक्ति के २ रूप है , एक है सत – चित – आनंद रूप | दूसरा, गुण-त्रयों से मिला हुवा ‘ मायारूप ‘ | इन दो रूपों की मिलन को वीरशैव दर्शन पराशक्ति ‘ नाम से पुकारती है |
3)कापालिक शैव
कापालिक-सम्प्रदाय महाव्रत -सम्प्रदाय कापालिक -सम्प्रदाय का ही नामान्तर प्रतीत होता है । यामुन मुनि के आगम प्रामाण्य , शिवपुराण तथा आगमपुराण में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों के भेद दिखाय गये हैं । वाचस्पति मिश्र ने चार माहेश्वर सम्प्रदायों के नाम लिये हैं । यह प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष ने नैषध (१० ,८८ ) में समसिद्धान्त नाम से जिसका उल्लिखित है , वह कापालिक सम्प्रदाय ही है ।
कपालिक नाम के उदय का कारण नर -कपाल धारण करना बताय जाता है । वस्तुतः यह भी बहिरंग मत ही है । इसका अन्तरंग रहस्य प्रबोध -चन्द्रोदय की प्रकाश नाम की टीका में प्रकट किया गया है । तदनुसार इस सम्प्रदाय के साधक कपालस्थ अर्थात् ‍ ब्रह्मारन्ध्र उपलक्षित नरकपालस्थ अमृत या चान्द्रीपान करते थे । इस प्रकार के नामकरण का यही रहस्य है । इन लोगों की धारणा के अनुसार यह अमृतपान है , इसी से लोग महाव्रत की समाप्ति करते थे , यही व्रतपारणा थी । बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के सम्प्रदाय विद्यमान थे । सरबरतन्त्र में १२ कापालिक गुरुओं और उनके १२ शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं । गुरुओं के नाम हैं — आदिनाथ , अनादि , काल , अमिताभ , कराल , विकराल आदि । शिष्यों के नाम हैं –नागार्जुन , जडभरत , हरिश्चन्द्र , चर्पट आदि। ये सब शिष्य तन्त्र के प्रवर्तक रहे हैं । पुराणादि में कापालिक मत के प्रवर्तक धनद या कुबेर का उल्लेख है ।
4) लकुलीश सम्प्रदाय
वैदिक लकुलीश लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में लकुलीश मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत में फैला।
लकुलीश सम्प्रदाय या ‘नकुलीश सम्प्रदाय’ के प्रवर्तक ‘लकुलीश’ माने जाते हैं। लकुलीश को स्वयं भगवान शिव का अवतार माना गया है। लकुलीश सिद्धांत पाशुपतों का ही एक विशिष्ट मत है। इसका उदय गुजरात में हुआ था। वहाँ इसके दार्शनिक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था। इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना।
यह सम्प्रदाय छठी से नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था।
शिव के अवतारों की सूची, जो वायुपुराण से लिंगपुराण और कूर्मपुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख करती है।
लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख किया गया है, जो गुजरात के ‘झरपतन’ नामक स्थान में है।
लकुलीश की यह मूर्ति सातवीं शताब्दी की बनी हुई प्रतीत होती है
लिंगपुराण में लकुलीश के मुख्य चार शिष्यों के नाम ‘कुशिक’, ‘गर्ग’, ‘मित्र’ और ‘कौरुष्य’ मिलते हैं।
प्राचीन काल में इस सम्प्रदाय के अनुयायी बहुत थे, जिनमें मुख्य साधु होते थे।
इस संप्रदाय का विशेष वृत्तांत शिलालेखों तथा विष्णुपुराण, लिंगपुराण आदि में मिलता है।
इसके अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते और उनका उत्पत्ति-स्थान ‘कायावरोहण’ बतलाते थे.
5) आंध्र के कालमुख शैव :- वारंगल 12वीं सदी में उत्कर्ष पर रहे आन्ध्र प्रदेश के काकतीयों की प्राचीन राजधानी था। वर्तमान शहर के दक्षिण–पूर्व में स्थित वारंगल क़िला कभी दो दीवारों से घिरा हुआ था। जिनमें भीतरी दीवार के पत्थर के द्वार (संचार) और बाहरी दीवार के अवशेष मौजूद हैं। 1162 में निर्मित 1000 स्तम्भों वाला शिव मन्दिर शहर के भीतर ही स्थित है। कालमुख य अरध्य शैव के कवियों ने तेलुगु भाषाओं की अभूतपूर्व उन्नति कियी । शैव मत के अंतर्गत कालमुख सम्प्रदाय का यह उत्कर्षकाल था।
वारंगल के संस्ककृत कवियों में सर्वशास्त्र विशारद का लेखक वीरभल्लातदेशिक, और नलकीर्तिकामुदी के रचयिता अगस्त्य के नाम उल्लेखनीय हें। कहा जाता है कि अलंकारशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रतापरुद्रभूषण का लेखक विद्यनाथ यही अगस्त्य था। गणपति का हस्तिसेनापति जयप, नृत्यरत्नावली का रचयिता था। संस्कृत कवि शाकल्यमल्ल भी इसी का समकालीन था। तेलगु के कवियों में रंगनाथ रामायणुम का लेखक पलकुरिकी सोमनाथ मुख्य हैं। इसी समय भास्कर रामायणुम भी लिखी गई। वारंगल नरेश प्रतापरुद्र स्वयं भी तेलगु का अच्छा कवि था।
आज के प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर में जो मूर्ति है (बालाजी य वेंकटेश्वर ) व मूर्ति वीरभद्र स्वामी का है कहा जाता है की कृष्ण देवराय के काल में रामानुज आचार्य ने इस मंदिर को वैष्णवीकरण किया है और वीरभद्र के मूर्ति को बालाजी का नाम दिया गया
6) तमिल शैव छठी से नवीं शताब्दी के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ, जो कवि भी थे।सन्त तिरुमूलर शिवभक्त तथा प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ तिरुमंत्रम् के रचयिता थे। तमिल शैव सिद्धांत यह एक महत्वपूर्ण दक्षिण भारतीय अनेकांत यथार्थवादी समूह रही . इसके अनुसार विश्व वास्तविक तथा आत्माएं अनेक है . यह आंदोलन अंशत: आदि शैव संतों की कविताओं तथा अंशत नयनारों (७वि से १०वी सदी के बीच ) की उत्तम भक्ति पूर्ण कविताओं से विक्सित हुआ . इस पंथ के मान्य ग्रंथों के चार वर्गों में १, वेद २, २८ आगम ३,१२ तिमुरई तथा ४, १४ शैव सिद्धान्त शास्त्र शामिल है हालांकि वेदों का उच्च स्थान है . पर एक्यं शिव द्वारा अपने भक्तो के लिए वर्णित गोपनीय आगमों को ज्यादा महत्त्व दिया गया है .१३वी तथा १४ सदी के आरंभ में ६ आचार्य ( ज्यादातर अब्राह्मण तथा निम्न उत्पति वाले ) द्वारा सिद्धांत शास्त्र रचे गए थे तमिल शैव ग्रंथो तथा कविताओं में तिन महान शैव आचार्यों अप्पर तिरुज्ञान, संबंध , एवं सुन्दर मूर्ति की रचानें शामिल है .अघोर शिवाचार्य जी को संस्थापक माना जाता है .

भगवान भैरव की महिमा

भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी आराधना का खास समय भी मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे का माना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के दो स्वरूप बताए गए हैं। एक स्वरूप में महादेव अपने भक्तों को अभय देने वाले विश्वेश्वरस्वरूप हैं वहीं दूसरे स्वरूप में भगवान शिव दुष्टों को दंड देने वाले कालभैरव स्वरूप में विद्यमान हैं। शिवजी का विश्वेश्वरस्वरूप अत्यंत ही सौम्य और शांत हैं यह भक्तों को सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करता है।वहीं भैरवस्वरूप रौद्र रूप वाले हैं, इनका रूप भयानक और विकराल होता है। इनकी पूजा करने वाले भक्तों को किसी भी प्रकार डर कभी परेशान नहीं करता। कलयुग में काल के भय से बचने के लिए कालभैरव की आराधना सबसे अच्छा उपाय है। कालभैरव को शिवजी का ही रूप माना गया है। कालभैरव की पूजा करने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार का डर नहीं सताता है।
भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।
रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है। कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योति प्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा।
इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।
लौकिक और अलौकिक शक्तियों के द्वारा मानव जीवन में सफलता पायी जा सकती है, लेकिन शक्तियां जहां स्थिर रहती है, वहीं अलौकिक शक्तियां हर पल, हर क्षण मनुष्य के साथ-साथ रहती है। अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने का श्रोत मात्र देवी देवताओं की साधना, उपासना शीघ्र फलदायी मानी गई है। कालभैरव भगवान शिव के पांचवें स्वरूप है तो विष्णु के अंश भी है। इनकी उपासना मात्र से ही सभी प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक परेशानियों से शीघ्र मुक्ति मिलती है। कोई भी मानव इनकी पुजा, आराधना, उपासना से लाभ उठा सकता है। आज इस विषमता भरे युग में मानव को कदम-कदम पर बाधाओं, विपत्तियों और शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मंत्र साधना ही इन सब समस्याओं पर विजय दिलाता है। शत्रुओं का सामना करने, सुख-शान्ति समृद्धि में यह साधना अति उत्तम है। शिव पुराण में वर्णित है--
भैरव: पूर्ण रूपोहि शंकर परात्मन: भूगेस्तेवैन जानंति मोहिता शिव भामया:।
देवताओं ने श्री कालभैरव की उपासना करते हुए बताया है कि काल की तरह रौद्र होने के कारण यह कालराज है। मृत्यु भी इनसे भयभीत रहती है। यह कालभैरव है इसलिए दुष्टों और शत्रुओं का नाश करने में सक्षम है। तंत्र शास्त्र के प्रव‌र्त्तक आचार्यो ने प्रत्येक उपासना कर्म की सिद्धि के लिए किए जाने वाले जप पाठ आदि कर्र्मो के आरंभ में भगवान भैरवनाथ की आज्ञा प्राप्त करने का निर्देश किया है।
अतिक्रूर महाकाय, कल्पानत-दहनोपय,भैरवाय नमस्तुभ्यमेनुझां दातुमहसि।
इससे स्पष्ट है कि सभी पुजा पाठों की आरंभिक प्रक्रिया में भैरवनाथ का स्मरण, पूजन, मंत्रजाप आवश्यक होते है। श्री काल भैरव का नाम सुनते ही बहुत से लोग भयभीत हो जाते है और कहते है कि ये उग्र देवता है। अत: इनकी साधना वाम मार्ग से होती है इसलिए यह हमारे लिए उपयोगी नहीं है। लेकिन यह मात्र उनका भ्रम है। प्रत्येक देवता सात्विक, राजस और तामस स्वरूप वाले होते है, किंतु ये स्वरूप उनके द्वारा भक्त के कार्र्यो की सिद्धि के लिए ही धरण किये जाते है। श्री कालभैरव इतने कृपालु एवं भक्तवत्सल है कि सामान्य स्मरण एवं स्तुति से ही प्रसन्न होकर भक्त के संकटों का तत्काल निवारण कर देते है।
तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है।
तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीहदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- 'विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌ सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'
भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।
श्री तंत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं
'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।
स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी 'काशी' में आकर दोष मुक्त हुए।
ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव, ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं।
भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है।
भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं।
जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्‍ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगानालाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है।
खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है।
शिव के अवतार श्री कालभैरव अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं। साथ ही इनकी आराधना करने पर हमारे कई बुरे गुण स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। आदर्श और उच्च जीवन व्यतीत करने के लिए कालभैरव से भी शिक्षा ली जा सकती हैं। जीवन प्रबंधन से जुड़े कई संदेश श्री भैरव देते हैं-
भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है। भगवान शंकर के इस अवतार से हमें अवगुणों को त्यागना सीखना चाहिए। भैरव के बारे में प्रचलित है कि ये अति क्रोधी, तामसिक गुणों वाले तथा मदिरा के सेवन करने वाले हैं। इस अवतार का मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने सारे अवगुण जैसे- मदिरापान, तामसिक भोजन, क्रोधी स्वभाव आदि भैरव को समर्पित कर पूर्णत: धर्ममय आचरण करें। भैरव अवतार हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हर कार्य सोच-विचार कर करना ही ठीक रहता है। बिना विचारे कार्य करने से पद व प्रतिष्ठा धूमिल होती है।
श्रीभैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है- विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। शनिवार 1दिसम्बर को कालभैरवाष्टमी है। इस दिन भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।
कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।
इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।
साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्‍‌व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।
इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं।

Saturday, 26 September 2015

अनंत व्रत कथा

प्रचीन काल में सुमन्तु नाम के एक वशिष्ठ गोत्रीय मुनि थे ! उनकी पत्नी का नाम दीक्षा था ! और उनकी पुत्री का नाम शीला था ! दीक्षा के मृत्यु के पश्चात् सुमन्तु मुनि ने करकश से विवाह कर लिया, विवाहोपरांत करकश शीला को बहुत परेसान करती थी ! लेकिन शीला अत्यंत सुशील थी ! सुमन्तु ने अपने पुत्री का विवाह कौंडिन्य मुनि के साथ कर दिया था !
सभी आरम्भ में साथ में ही रहते थे पर सौतेली माँ का व्यवहार देखकर कौंडिन्य मुनि वह आश्रम छोड़ कर चले गए ! जब आश्रम का परित्याग कर आगे बढ़े तो एक नदी के तट पर कौंडिन्य मुनि स्नान हेतु रुक गए !
कौंडिन्य मुनि स्नान कर रहे थे तभी कुछ स्त्रियों का झुण्ड उस नदी पर अन्नत पूजन करने को आया तो शीला उस झुण्ड में शामिल हो गई और उनसे उस व्रत के बारे में पूछा ! ये कौन सा व्रत हैं ? और इसे कैसे और क्यू करते हैं ?
तब वहाँ उपस्थित स्त्रियों ने उस व्रत की सारी महिमा का व्याख्यान किया !
उन्होंने कहा कि - यह अनंत चतुर्दशी का व्रत हैं ! और इस व्रत को करने से मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती हैं !
इस व्रत को करने के लिए नित्य कर्म आदि से निवृत होकर, स्नान कर कुछ विशेष प्रसाद में घरगा और अनरसे का विशेष भोजन तैयार किया जाता हैं !
आधा भोजन ब्रह्मण को दान में दिया जाता हैं! यह पूजा किसी नदी या सरोवर के किनारे होती हैं ! इसलिए हम सब यहाँ आये है!
दूभ या दूर्वा से नाग का आकर बनाया जाता हैं जिसे बांस के टोकरी में रखकर लाते हैं! और फिर इस नाग शेष अवतार की फूल और अगरबत्ती आदि से पूजा की जाती हैं! 
दीप धुप से पूजन के बाद एक सिल्क का सूत्र भगवान को चढाते हैं जो की पूजा के बाद कलाई या भुजा में पहन लिया जाता हैं ! यह सूत्र ही अनंत सूत्र हैं ! 
इस अनंत के सूत्र में १४ गाँठे होती हैं, और इसे कुमकुम से रंग कर स्त्रियाँ दाहिने हाथ में और पुरुष बाएं हाथ में पहनते हैं !
यह अनंत सूत्र बाँधने और पूजन से सुख सौभाग्य में वृद्धी के साथ दैवीय वैभव की प्राप्ति भी होती हैं ! 
यह सब विधि पूजन सुनने के बाद शीला भी उस व्रत को करने का संकल्प ले वह व्रत करती हैं और अनंत सूत्र को अपने बाहु में बांध लेती हैं !
शीला ने भाद्र पद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत भगवान् का व्रत किया और अनंत सूत्र अपने बांये हाथ में अनंत सूत्र को बाँध लिया ! 
भगवान् अंनत की कृपा से शीला और कौंडिन्य के घर में सभी प्रकार की सुख - समृद्धि आ गई ! उनका जीवन सुखमय हो गया !
एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने यह क्या बांधा हैं? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया - जी, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। यह पूजन आरम्भ करने के बाद ही हमे यह वैभव और सुख प्राप्त हुआ हैं !
परन्तु परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा ! उस वैभव का कारण उन्होंने अपने परिश्रम और बुद्धिमता को बताया ! और अनन्त सूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझा !
और दुर्भाग्यवश एक दिन कौंडिन्य मुनि ने क्रोध में आकर शीला के हाथ में बंधा अनंत सूत्र तोड़कर आग में फेंक दिया !
इससे उनकी सब धन और संपत्ति नष्ट हो गई और वे बहुत दुखी रहने लगे ! कौंडिन्य मुनि को अब भाष हो गया था कि वह सारा वैभव अनंत व्रत के प्रभाव से ही था !
उन्होंने तभी संकल्प किया कि वह अपने इस गलत कृत का प्रायश्चित करेंगे और तब तक ताप करेंगे जब तक कि भगवान अनंत स्वयं उन्हें दर्शन न दे दे !
एक दिन दुखी होकर कौंडिन्य मुनि वन में चले गए ! वन में उन्होंने देखा कि एक आम का वृक्ष पके हुए आम से भरा पीडीए हैं पर कोई भी उसके फल को नहीं खा रहा हैं ! तब पास आकर देखा तो उस पुरे वृक्ष पर कीड़े लगे थे ! उस वृक्ष से कौंडिन्य मुनि ने पूछा की आपने अनंत भगवान् को देखा है ?
लेकिन उत्तर ऋणात्मक ही मिला ! 
आगे जाने पर उन्होंने देखा कि एक गाय और उसके बछड़े को, आगे और जाने पर एक बैल मिला सब एक हरे भरे मैदान में थे पर कोई भी घास नहीं खा रहा था ! फिर आगे जाने पर दो नदियों को देखा जो एक दूसरे से एक किनारे पर मिल रही थी ! पर उसके पानी को भी कोई नहीं ले रहा था ! इस प्रकार सभी से उन लता, वृक्ष, जीव - जंतुओं, से अनंत भगवान का पता पूछने लगे ! पर सब ने मन कर दिया तब वह निराश हो अपने जीवन का अंत करने की सोच आगे बड़े तो दयानिधि भगवान् अनंत वृद्ध ब्राह्मण के रूप में कौंडिन्य मुनि को दर्शन दिया और अनन्त व्रत करने को कहा !
भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्यमुनिने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
शीला और कौंडिन्य मुनि ने अनंत व्रत को किया और वे पुनह सुख पूर्वक रहने लगे ! इस् व्रत को करने से मुक्ति और भुक्ति दोनों की उपलब्धि होती हैं !
अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

सोया भाग्य

एक व्यक्ति जीवन से हर प्रकार से निराश था | लोग उसे मनहूस के नाम से बुलाते थे |
एक ज्ञानी पंडित ने उसे बताया कि तेरा भाग्य फलां पर्वत पर सोया हुआ है , तू उसे जाकर जगा ले तो भाग्य तेरे साथ हो जाएगा |
बस ! फिर क्या था वो चल पड़ा अपना सोया भाग्य जगाने |
रास्ते में जंगल पड़ा तो एक शेर उसे खाने को लपका , वो बोला भाई ! मुझे मत खाओ , मैं अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा हूँ |
शेर ने कहा कि तुम्हारा भाग्य जाग जाये तो मेरी एक समस्या है , उसका समाधान पूछते लाना | मेरी समस्या ये है कि मैं कितना भी खाऊं ... मेरा पेट भरता ही नहीं है , हर समय पेट भूख की ज्वाला से जलता रहता है |
मनहूस ने कहा-- ठीक है |
आगे जाने पर एक किसान के घर उसने रात बिताई | बातों बातों में पता चलने पर कि वो अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा है , किसान ने कहा कि मेरा भी एक सवाल है .. अपने भाग्य से पूछकर उसका समाधान लेते आना ... मेरे खेत में , मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ ... पैदावार अच्छी होती ही नहीं | मेरी शादी योग्य एक कन्या है , उसका विवाह इन परिस्थितियों में मैं कैसे कर पाऊंगा ?
मनहूस बोला -- ठीक है |
और आगे जाने पर वो एक राजा के घर मेहमान बना |
रात्री भोज के उपरान्त राजा ने ये जानने पर कि वो अपने भाग्य को जगाने जा रहा है , उससे कहा कि मेरी परेशानी का हल भी अपने भाग्य से पूछते आना | मेरी परेशानी ये है कि कितनी भी समझदारी से राज्य चलाऊं... मेरे राज्य में अराजकता का बोलबाला ही बना रहता है |
मनहूस ने उससे भी कहा -- ठीक है |
अब वो पर्वत के पास पहुँच चुका था | वहां पर उसने अपने सोये भाग्य को झिंझोड़ कर जगाया--- उठो ! उठो ! मैं तुम्हें जगाने आया हूँ | उसके भाग्य ने एक अंगडाई ली और उसके साथ चल दिया | उसका भाग्य बोला -- अब मैं तुम्हारे साथ हरदम रहूँगा |
अब वो मनहूस न रह गया था बल्कि भाग्यशाली व्यक्ति बन गया था और अपने भाग्य की बदौलत वो सारे सवालों के जवाब जानता था |
वापसी यात्रा में वो उसी राजा का मेहमान बना और राजा की परेशानी का हल बताते हुए वो बोला -- चूँकि तुम एक स्त्री हो और पुरुष वेश में रहकर राज - काज संभालती हो , इसीलिए राज्य में अराजकता का बोलबाला है | तुम किसी योग्य पुरुष के साथ विवाह कर लो , दोनों मिलकर राज्य भार संभालो तो तुम्हारे राज्य में शांति स्थापित हो जाएगी |
रानी बोली -- तुम्हीं मुझ से ब्याह कर लो और यहीं रह जाओ |
भाग्यशाली बन चुका वो मनहूस इन्कार करते हुए बोला -- नहीं नहीं ! मेरा तो भाग्य जाग चुका है | तुम किसी और से विवाह कर लो | तब रानी ने अपने मंत्री से विवाह किया और सुखपूर्वक राज्य चलाने लगी | कुछ दिन राजकीय मेहमान बनने के बाद उसने वहां से विदा ली |
चलते चलते वो किसान के घर पहुंचा और उसके सवाल के जवाब में बताया कि तुम्हारे खेत में सात कलश हीरे जवाहरात के गड़े हैं , उस खजाने को निकाल लेने पर तुम्हारी जमीन उपजाऊ हो जाएगी और उस धन से तुम अपनी बेटी का ब्याह भी धूमधाम से कर सकोगे |
किसान ने अनुग्रहित होते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ , तुम ही मेरी बेटी के साथ ब्याह कर लो |
पर भाग्यशाली बन चुका वह व्यक्ति बोला कि नहीं !नहीं ! मेरा तो भाग्योदय हो चुका है , तुम कहीं और अपनी सुन्दर कन्या का विवाह करो | किसान ने उचित वर देखकर अपनी कन्या का विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा |
कुछ दिन किसान की मेहमाननवाजी भोगने के बाद वो जंगल में पहुंचा और शेर से उसकी समस्या के समाधानस्वरुप कहा कि यदि तुम किसी बड़े मूर्ख को खा लोगे तो तुम्हारी ये क्षुधा शांत हो जाएगी |
शेर ने उसकी बड़ी आवभगत करी और यात्रा का पूरा हाल जाना |
सारी बात पता चलने के बाद शेर ने कहा कि भाग्योदय होने के बाद इतने अच्छे और बड़े दो मौके गंवाने वाले ऐ इंसान ! तुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ? तुझे खाकर ही मेरी भूख शांत होगी |
और इस तरह वो इंसान शेर का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त हुआ |
सच है ----
यदि आपके पास सही मौका परखने का विवेक और अवसर को पकड़ लेने का ज्ञान नहीं है तो भाग्य भी आपके साथ आकर
आपका कुछ भला नहीं कर सकता |.