Wednesday, 23 March 2016

स्वर्ग:-


ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्रों में स्वर्ग का वर्णन पाया जाता है-
” ये नद्यौं रुग्रा पृथिवी च दृढ़ा ये नस्व: स्तंभित: येन नाक:।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान : कस्मै देवाय हविषा वि धेम। ”
ऋग्वेद – 10 । 21 1-10
जिसने अन्तरिक्ष, दृढ़ पृथिवी, स्वर्लोक, आदित्य, तथा अन्तरिक्षस्थ महान जल राशि का निर्माण किया आओ उसी को भजें।
अथर्ववेद में भी उसका वर्णन है-
” ईजानश्र्चित मारुक्षदिग्नं नाकस्य पृष्टाद् दिविमुत्पतिष्यन्।
तस्मै प्रभात नभसो ज्योतिमान् स्वर्ग : पन्था : सुकृते देवयान : । ”
अथर्व . 18 । 4 । 14
जो मनुष्य सुख भोग के लोक से प्रकाशमय ‘द्यौ’ लोक के प्रति ऊपर उठना चाहता हुआ, और इस प्रयोजन से वास्तविक यजन करता हुआ चित् स्वरूप अग्नि का आश्रय ग्रहण करता है, उस ही शोभन कर्म वाले मनुष्य के लिए ज्योतिर्मय स्वर्ग, आत्म सुख को प्राप्त कराने वाला देव यान मार्ग, इस प्रकाश रहित संसार आकाश के बीच में प्रकाशित हो जाता है-
” सह्स्त्रहण्यम् विपतौ अस्ययक्षौं हरेर्हं सस्य पतत : स्वर्गम्।
सदेवान्त्सर्वानुरस्यपदद्य संपश्यन् यातिभुववनानि वि श्र्वा । ”
अथर्व . 18-8
स्वर्ग को जाते हुए इस ह्रियमाण या हरणशील जीवात्मा हंस के पंख सह्स्त्रो दिनों से खुले हुए हैं, वह हंस सब देवों को अपने हृदय में लिए हुए सब भुवनों को देखता हुआ जा रहा है।
मनु संहिता अध्याय 11 के श्लोक 238 और 241 में स्वर्ग का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
” औषधन्य गदो विद्धाद बीच विविधास्थिति:।
तपसैवप्रसिधयन्ति तपस्तेषां हि साधनम्। ”
”औषध नीरोगता और विद्या बल तथा अनेक प्रकार से स्वर्ग में स्थिति तपस्या से ही प्राप्त होती है”-
” कीटाश्र्चाहि पतंगाश्र्चपश्वश्र्च वयांसि च।
स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपो बलात्। ”
”कीट सर्प पतंग पशु पक्षी और स्थावर आदि तपो बल से ही स्वर्ग में जाते हैं।”
बौद्ध ग्रन्थों में भी स्वर्ग का निरूपण पाया जाता है-‘धम्मपद’ के निम्नलिखित श्लोक इसका प्रमाण है-
‘‘ गब्भ मेके उपज्जन्तिनिरियं पाय कम्मिनो।
सगां सुगतिनोयन्ति परि निब्बन्ति अनासवा।। ”
”कोई-कोई मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं, पापात्मा लोग नरक में उत्पन्न होते हैं। पुण्यात्मा स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। आशातीत महात्मा गण निर्वाण में जातेहैं-
” अन्धिभूतो अयं लोको तनु कैत्थ विपस्सति।
सकुन्तो जाल मुत्तोव अप्पो सग्गाय गच्छति।। ”
”यह लोक बिल्कुल अंधकार मय है, इसमें बिरले ही कोई ज्ञानी होते हैं। जाल से मुक्त पक्षी के सामन थोड़े ही मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं।”
हमारे पुराण ग्रन्थों में स्वर्ग का जैसा विस्तृत वर्णन है, वह अविदित नहीं है। सर्व साधारण भी उससे अभिज्ञ हैं, पुराणों का स्वर्ग वर्णन विलक्षण तो है ही, लोकोत्तर भी है।
जो विशेषताएँ उसमें पाई जाती हैं, और उसकी जैसी विभूतियाँ हैं, वे सर्वथा उसकी महत्ता के अनुकूल हैं। किसी धर्म के स्वर्ग में उतना विशद, विमुग्धकर, उदात्ता, और अलौकिक महत्व नहीं पाया जाता, जितना पौराणिक स्वर्ग में।

चौसठ योगिनी और उनका जीवन में योगदान:-


स्त्री पुरुष की सहभागिनी है,पुरुष का जन्म सकारात्मकता के लिये और स्त्री का जन्म नकारात्मकता को प्रकट करने के लिये किया जाता है। स्त्री का रूप धरती के समान है और पुरुष का रूप उस धरती पर फ़सल पैदा करने वाले किसान के समान है।
स्त्रियों की शक्ति को विश्लेषण करने के लिये चौसठ योगिनी की प्रकृति को समझना जरूरी है। पुरुष के बिना स्त्री अधूरी है और स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है।
योगिनी की पूजा का कारण शक्ति की समस्त भावनाओं को मानसिक धारणा में समाहित करना और उनका विभिन्न अवसरों पर प्रकट करना और प्रयोग करना माना जाता है,
बिना शक्ति को समझे और बिना शक्ति की उपासना किये यानी उसके प्रयोग को करने के बाद मिलने वाले फ़लों को बिना समझे शक्ति को केवल एक ही शक्ति समझना निराट दुर्बुद्धि ही मानी जायेगी,और यह काम उसी प्रकार से समझा जायेगा,जैसे एक ही विद्या का सभी कारणों में प्रयोग करना।
1. दिव्ययोग की दिव्ययोगिनी :- योग शब्द से बनी योगिनी का मूल्य शक्ति के रूप में समय के लिये प्रतिपादित है,एक दिन और एक रात में 1440 मिनट होते है,और एक योग की योगिनी का समय 22.5 मिनट का होता है,सूर्योदय से 22.5 मिनट तक इस योग की योगिनी का रूप प्रकट होता है,
यह जीवन में जन्म के समय,साल के शुरु के दिन में महिने शुरु के दिन में और दिन के शुरु में माना जाता है,इस योग की योगिनी का रूप दिव्य योग की दिव्य योगिनी के रूप में जाना जाता है,इस योगिनी के समय में जो भी समय उत्पन्न होता है वह समय सम्पूर्ण जीवन,वर्ष महिना और दिन के लिये प्रकट रूप से अपनी योग्यता को प्रकट करता है।
उदयति मिहिरो विदलित तिमिरो नामक कथन के अनुसार इस योग में उत्पन्न व्यक्ति समय वस्तु नकारात्मकता को समाप्त करने के लिये योगकारक माने जाते है,इस योग में अगर किसी का जन्म होता है तो वह चाहे कितने ही गरीब परिवार में जन्म ले लेकिन अपनी योग्यता और इस योगिनी की शक्ति से अपने बाहुबल से गरीबी को अमीरी में पैदा कर देता है,इस योगिनी के समय काल के लिये कोई भी समय अकाट्य होता है।
2. महायोग की महायोगिनी :- यह योगिनी रूपी शक्ति का रूप अपनी शक्ति से महानता के लिये माना जाता है,अगर कोई व्यक्ति इस महायोगिनी के सानिध्य में जन्म लेता है,और इस योग में जन्मी शक्ति का साथ लेकर चलता है तो वह अपने को महान बनाने के लिये उत्तम माना जाता है।
3. सिद्ध योग की सिद्धयोगिनी:– इस योग में उत्पन्न वस्तु और व्यक्ति का साथ लेने से सिद्ध योगिनी नामक शक्ति का साथ हो जाता है,और कार्य शिक्षा और वस्तु या व्यक्ति के विश्लेषण करने के लिये उत्तम माना जाता है।
4. महेश्वर की माहेश्वरी :- महा-ईश्वर के रूप में जन्म होता है विद्या और साधनाओं में स्थान मिलता है.
5. पिशाच की पिशाचिनी :- बहता हुआ खून देखकर खुश होना और खून बहाने में रत रहना.
6. डंक की डांकिनी :- बात में कार्य में व्यवहार में चुभने वाली स्थिति पैदा करना.
7. कालधूम की कालरात्रि :- भ्रम की स्थिति में और अधिक भ्रम पैदा करना.
8. निशाचर की निशाचरी :- रात के समय विचरण करने और कार्य करने की शक्ति देना छुपकर कार्य करना.
9. कंकाल की कंकाली :- शरीर से उग्र रहना और हमेशा गुस्से से रहना,न खुद सही रहना और न रहने देना.
10. रौद्र की रौद्री :- मारपीट और उत्पात करने की शक्ति समाहित करना अपने अहम को जिन्दा रखना.
11. हुँकार की हुँकारिनी :- बात को अभिमान से पूर्ण रखना,अपनी उपस्थिति का आवाज से बोध करवाना.
12. ऊर्ध्वकेश की ऊर्ध्वकेशिनी :- खडे बाल और चालाकी के काम करना.
13. विरूपक्ष की विरूपक्षिनी :- आसपास के व्यवहार को बिगाडने में दक्ष होना.
14. शुष्कांग की शुष्कांगिनी :- सूखे अंगों से युक्त मरियल जैसा रूप लेकर दया का पात्र बनना.
15. नरभोजी की नरभोजिनी :- मनसा वाचा कर्मणा जिससे जुडना उसे सभी तरह चूसते रहना.
16. फ़टकार की फ़टकारिणी :- बात बात में उत्तेजना में आना और आदेश देने में दुरुस्त होना.
17. वीरभद्र की वीरभद्रिनी :- सहायता के कामों में आगे रहना और दूसरे की सहायता के लिये तत्पर रहना.
18. धूम्राक्ष की धूम्राक्षिणी :- हमेशा अपनी औकात को छुपाना और जान पहचान वालों के लिये मुसीबत बनना.
19. कलह की कलहप्रिय :- सुबह से शाम तक किसी न किसी बात पर क्लेश करते रहना.
20. रक्ताक्ष की रक्ताक्षिणी :- केवल खून खराबे पर विश्वास रखना.
21. राक्षस की राक्षसी :- अमानवीय कार्यों को करते रहना और दया धर्म रीति नीति का भाव नही रखना.
22. घोर की घोरणी :- गन्दे माहौल में रहना और दैनिक क्रियाओं से दूर रहना.
23. विश्वरूप की विश्वरूपिणी :- अपनी पहचान को अपनी कला कौशल से संसार में फ़ैलाते रहना.
24. भयंकर की भयंकरी :- अपनी उपस्थिति को भयावह रूप में प्रस्तुत करना और डराने में कुशल होना.
25. कामक्ष की कामाक्षी :- हमेशा समागम की इच्छा रखना और मर्यादा का ख्याल नही रखना.
26. उग्रचामुण्ड की उग्रचामुण्डी :- शांति में अशांति को फ़ैलाना और एक दूसरे को लडाकर दूर से मजे लेना.
27. भीषण की भीषणी. :- किसी भी भयानक कार्य को करने लग जाना और बहादुरी का परिचय देना.
28. त्रिपुरान्तक की त्रिपुरान्तकी :- भूत प्रेत वाली विद्याओं में निपुण होना और इन्ही कारको में व्यस्त रहना.
29. वीरकुमार की वीरकुमारी :- निडर होकर अपने कार्यों को करना मान मर्यादा के लिये जीवन जीना.
30. चण्ड की चण्डी :- चालाकी से अपने कार्य करना और स्वार्थ की पूर्ति के लिये कोई भी बुरा कर जाना.
31. वाराह की वाराही :- पूरे परिवार के सभी कार्यों को करना संसार हित में जीवन बिताना.
32. मुण्ड की मुण्डधारिणी :- जनशक्ति पर विश्वास रखना और संतान पैदा करने में अग्रणी रहना.
33. भैरव की भैरवी :- तामसी भोजन में अपने मन को लगाना और सहायता करने के लिये तत्पर रहना.
34. हस्त की हस्तिनी :- हमेशा भारी कार्य करना और शरीर को पनपाते रहना.
35. क्रोध की क्रोधदुर्मुख्ययी :- क्रोध करने में आगे रहना लेकिन किसी का बुरा नही करना.
36. प्रेतवाहन की प्रेतवाहिनी :- जन्म से लेकर बुराइयों को लेकर चलना और पीछे से कुछ नही कहना.
37. खटवांग खटवांगदीर्घलम्बोष्ठयी :- जन्म से ही विकृत रूप में जन्म लेना और संतान को इसी प्रकार से जन्म देना.
38. मलित की मालती
39. मन्त्रयोगी की मन्त्रयोगिनी
40. अस्थि की अस्थिरूपिणी
41. चक्र की चक्रिणी
42. ग्राह की ग्राहिणी
43. भुवनेश्वर की भुवनेश्वरी
44. कण्टक की कण्टिकिनी
45. कारक की कारकी
46. शुभ्र की शुभ्रणी
47. कर्म की क्रिया
48. दूत की दूती
49. कराल की कराली
50. शंख की शंखिनी
51. पद्म की पद्मिनी
52. क्षीर की क्षीरिणी
53. असन्ध असिन्धनी
54. प्रहर की प्रहारिणी
55. लक्ष की लक्ष्मी
56. काम की कामिनी
57. लोल की लोलिनी
58. काक की काकद्रिष्टि
59. अधोमुख की अधोमुखी
60. धूर्जट की धूर्जटी
61. मलिन की मालिनी
62. घोर की घोरिणी
63. कपाल की कपाली
64. विष की विषभोजिनी..

हिंदुकुश पर्वत के पास है अमरता का रहस्य:-


हिंदुकुश पर्वत के पास एक ऐसा झरना है जहां अमरता का रहस्य छिपा हुआ है। किंवदंतियों के रूप में सिकंदर और योगी की कहानी से यह रहस्य खुलता है। लेकिन, वह कौन सा स्थान है, इसे कोई नहीं जानता है।
हिंदूकुश वही स्थान है जहां देवराज इंद्र की पसंदीदा सोमलता मिलती है। वर्तमान में यह पर्वत अफगानिस्तान में है।इस बारे में सिर्फ इतनी जानकारी है कि पर्वत के पास जंगल में स्थित एक गुफा के अंदर तालाब में अमरता का रहस्य है।
इससे जुड़ी सिकंदर की कथा बताते है। इस संसार में हर कोई अमर होना चाहता है। लोग इस अमरता के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन, इस अमरता के करीब पहुंच कर भी शरीर की नश्वरता को स्वीकार करना ही होता है।
कुछ ऐसा ही हुआ दुनिया जीतने का सपना लेकर निकले अलेेक्जेंडर द ग्रेट या सिकंदर के साथ। सिकंदर हिंदुकुश पर्वत पर एक योगी से मिला। उसने उससे पूछा कि क्या तुम मुझे अमर होने की कला सिखा सकते हो।
मैंने सुना है कि भारत के योगी हजारों सालों तक जीवित रहते हैं। वे अमरत्व पा चुके हैं। उसके बदले मैं तुम्हें जो मांगो, दे सकता हूं। योगी ने उससे कहा कि तुम मुझे दे क्या सकते हो! सिकंदर ने जीते गए राज्यों से लूटी गई सारी संपत्ति रख दी।
योगी ने कहा कि यह तो बेकार की चीज है। इससे तुम्हारी भूख-प्यास कुछ भी नहीं मिट सकती है। लेकिन, सिकंदर ने योगी से कहा कि उसे हर हाल में अमर होना है।
यदि योगी ने उसकी बात नहीं मानी तो वह योगी को मौत के घाट उतार देगा। योगी ने कहा कि भारतीय संतों को मौत का डर नहीं रहता। अब सिकंदर अनुनय-विनय पर उतर आया। तब योगी ने कहा कि यदि तुम अमरता पाने के लिए इतने ही व्याकुल हो तो सुनो।
सामने जंगल में उन्होंने सिकंदर को एक स्थान का रास्ता बताया। कहा कि वहां एक गुफा में तुम्हें एक छोटा सा जलकुंड मिलेगा। उस जलकुंड से पानी पी लेना। तुम अमर हो जाओगे। सिकंदर ने काफी दिनों तक भटकने के बाद आखिर उस गुफा को खोज कर निकाल लिया। वह अकेला ही गुफा में घुसा।
जलकुंड से पानी लेकर वह पीने ही वाला था तभी एक कौवे ने उसे रोक दिया। उसने कहा, सिकंदर, तुम महान नहीं मूर्ख हो। कौवे ने कहा कि उसने भी अमर होने की चाह में इस कुंड का पानी पी लिया था। उसके बाद वह चाह कर भी मर नहीं पा रहा है। अब वह इस जीवन से ऊब चुका है।
लेकिन, अमरता का जल पीने के बाद उसे मौत भी नहीं आ रही है। उसने सिकंदर से कहा कि वह इस जल को पीने से पहले एक बार सोच जरूर ले। सिकंदर ने काफी सोच विचार किया और अचानक ही उस जल कुंड से दूर भाग गया। उसने समझ लिया था कि एक समय के बाद यह अमरता भी उसके लिए बोझ बनने वाली है।

टैक्स

बहुत पुरानी कथा है,अरूणाचंल का राजा दिमुकुबो एक स्वार्थी राजा था। उसने अपने ऐशोआराम के खर्चे पूरे करने के लिये प्रजा पर तरह-तरह से टैक्स/लगान लगाने शुरू कर दिये। राजा के और उसके नुमाइंदों के अत्याचारों से प्रजा त्राही-त्राही कर उठी। किसी को भी समझ में नहीं आ रहा था कि दिमुकुबो को राजपद से कैसे विमुख किया जाये।
एक दिन वहाँ एक साधू आये, और लोगों से उनकी परेशानी जान कर बोले-अगर वास्तव में राजा से मुक्ति पाना चाहते हो तो पहले स्वंय के लालच को छोड़ना होगा।
लोग बोले-हमारे लालच से दिमुकुबो के द्वारा किये जाने वाले अत्याचार का क्या संबंध।
साधु बोला- हर एक के लालच का आपस में परस्पर संबंध है। तुम खेती कर धान उगा कर चाहते हो कि धान के अच्छे दाम मिलें, और अधिक दाम की मांग पूरी करने के चक्कर में मंडी में कम धान लाते हो ताकी जरूरतमंद अधिक दाम देने पर मजबूर हो जाये। इसी तरह प्रत्येक नागरिक अपने स्वार्थपूर्ति हेतू टैक्स की चोरी कर राजस्व को घाटे में ले जाता है। और राजा अपने तथा राज्य के खर्चे पूर्ण न होते देख नया टैक्स लगा देता है। यह ठीक वैसा ही है कि यदि प्रत्येक को बोला जाये कुँड में दूध का एक लोटा डालो, और हर एक यही सोचे कि बाकी सब तो दूध डालेंगें मैं गर पानी का एक लोटा डालूँ तो किसी को क्या पता चलेगा, इसतरह कुडँ दूध की जगह पानी से भर जाता है।
प्रजा को बात समझ में आई लालच का चुँबक ही सारे फसाद की जड़ है, उन्होंने लागत के अनुसार वस्तुओं की कीमत तय करी और मंडी में बेच भारी मुनाफा कमाया।
धीरे- धीरे राजस्व बढ़ने लगा तो लगान भी कम होने लगा और प्रजा खुश हो गई। तब राजा दिमुकुबो ने प्रजा के कुछ नुमाइंदों को बुलाया और बोला- अब तो आप सब मुझे स्वार्थी और ऐयाश नहीं कहेगें। अच्छा हुआ जो आप सबने साधू की बात मानी। प्रजा के कुछ नुमाइंदे सोच में पड़ गये हर वक्त महल में रहने वाले को साधू की बात कैसे पता चली। उन्हें सोच में पड़े देख राजा साधू की दाढ़ी लगा कर बोला समझ आया लालच का चुँबक। 
मित्रों आजकल हम सब का भी यही हाल है, एक के साथ दो फ्री सामान लेने के छोटे से लालच ने हमें कितने तरह के टैक्सों से घेर लिया है और हम सब बस सरकार बदलने की सोचते रहते हैं। अगर सहमत हैं तो लाइक करें।

Tuesday, 22 March 2016

मरणोत्तर जीवन में सूक्ष्म शरीर की गतिविधियाँ :-


मनुष्य के खाने सोने और चलने-फिरने वाले शरीर के सम्बन्ध में सर्व साधारण को काम चलाऊ जानकारी भर है। उसके भरण-पोषण, चिकित्सा उपचार, साज-सज्जा एवं प्रसन्नता मनोरंजन के लिए जो कुछ सम्भव होता है सो अपनी बुद्धि और क्षमता के अनुरूप सभी करते हैं।
इसके उपरान्त मनुष्य का व्यक्तित्व आता है, जो गुण, कर्म, स्वभाव, शिक्षा एवं संगति पर निर्भर है।
व्यक्तित्ववान् प्रतिभाएं अपनी दूरदर्शिता के आधार पर बड़ी जिम्मेदारियाँ उठाती हैं और उन्हें सफल बनाकर दिखाती हैं। शरीर के स्वस्थ अथवा सुगढ़ सुन्दर होते हुए भी यदि आन्तरिक क्षमता दुर्बल हो तो दृश्यमान आकर्षण का प्रभाव ठहरता नहीं।
जल्दी ही उसकी मूर्खता एवं अनगढ़ स्थिति प्रकाश में आती है और लोग उनका मजाक बनाने लगते हैं। न ही वह अपने कामों को सही ढंग से कर सकता है और न उससे वार्तालाप करते हुए कोई प्रभावित या प्रसन्न होता है इसलिए शरीर की तरह ही मनुष्य के अन्तरंग का- व्यक्तित्व का भी महत्व माना गया है।
अध्यात्म क्षेत्र में शरीर और मन के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीरधारी आत्मा का भी अस्तित्व माना गया है। यह सूक्ष्म शरीर- काया के इर्द-गिर्द प्राण विद्युत की तरह विद्यमान रहता है और तेजोवलय के रूप में उसे विशेष यन्त्र उपकरणों से देखा परखा भी जा सकता है। इसी को सुविकसित एवं क्षमता सम्पन्न बनाने के लिए अनेक प्रकार की साधनाएं की जाती हैं।
आर्ष मान्यता है कि मरने के बाद भी सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। स्वर्ग नरक में उसी को जाना पड़ता है। नया जन्म न होने तक यह सत्ता अपना अस्तित्व बनाये रहती है। प्रिय अप्रिय जनों के साथ उसका भला-बुरा संपर्क भी बना रहता है।
नया जन्म लेने से इस सूक्ष्म शरीर का स्तर ही प्रधान भूमिका निभाता है।
जीवित स्थिति में यह सूक्ष्म शरीर यदि उपयुक्त क्षमता अर्जित कर ले तो सिद्ध पुरुष जैसी स्थिति उपलब्ध होती है। वह एक साथी या सहायक की तरह प्रत्यक्ष शरीर से एवं अन्यान्य लोगों को अपनी विशिष्टता से लाभान्वित करता रहता है।
व्यास जी बोलते गये और गणेश जी लिखते गये। इस प्रकार जब महाभारत पूरा हो गया तो व्यास जी ने गणेश जी से कहा- मैनें चौबीस लाख शब्द बोले पर उस समय में सर्वथा मौन रहे। एक शब्द भी न कहा। गणेश जी ने कहा- वादरायण, सभी प्राणियों में सीमित प्राण शक्ति है। जो उसे संयमपूर्वक व्यय करते हैं वे ही उसका समुचित लाभ उठा पाते हैं। संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है और संयम की प्रथम सीढ़ी है- वाचोमुक्ति अर्थात् वाणी का संयम।
मध्य पूर्व के नव निर्मित धर्मों की मान्यता है कि आत्मा कब्र में बैठी रहती है और महाप्रलय के दिन उसे ईश्वर के सम्मुख बुलाया जाता है। भले बुरे कर्मों का ईश्वर के दरबार में ही न्याय किया जाता है। किन्तु पुरातन काल के सभी धर्मों में मरने के बाद आत्मा के अन्तरिक्ष में निवास करने तथा इच्छित क्रिया-कलापों में निरत रहने की बात कही गई है।
पुरातन दर्शन एवं विज्ञान अनुसन्धान संस्थान के संस्थापक प्लूटो ने ईसा से 428-348 वर्ष पूर्व ‘फैडौ’ नामक पुस्तक में अपने गुरु सुकरात के उन सन्देशों को उद्धृत किया है जो प्लूटो को दिये गये थे।
जीवन के अन्तिम क्षणों में सुकरात ने कहा था कि “तुम्हें मेरी मृत्यु पर दुःख व्यक्त नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह नाशवान शरीर ही जलेगा, आत्मा नहीं।” एक और पुस्तक “रिपब्लिक” प्लूटो की बड़ी लोकप्रिय बन चुकी है जिसमें उनने आत्मा की अमरता को अंगीकार किया है। प्लूटो के इस ज्ञान का स्त्रोत मनीषीगण भारतीय दर्शन को ही मानते हैं।
यहूदी भाषा में आत्मा को ‘नैफेस’ की संज्ञा दी गयी है। जिसका अर्थ है- “सजीव शरीर के साथ जुड़ा हुआ सूक्ष्म”। अर्थात् आत्मा का शरीर से अलग रहकर कोई अस्तित्व नहीं रहा जाता। वह स्थूल अथवा सूक्ष्म शरीर को धारण किये ही रहती है।
उक्त तथ्य की पुष्टि ईसाइयों के धर्मग्रंथ बाइबिल के जैनेसिस 2:7 में भी की गयी है। “न्यू टैस्टामैंट” में भी आत्मा के अजर-अमर होने के प्रमाण स्पष्ट रूप से पढ़ने को मिलते हैं। न्यू टैस्टामैंट में वर्णित ‘शुके’ शब्द भी यहूदी ‘नैफेस’ के समरूप समझा जाता है। ‘शुके’ शब्द का दो प्रकार से प्रयोग होता आया है।
एक तो वह आत्मा जो निम्न कोटि के जीवधारियों तथा प्राणियों में कार्यरत रहती है और दूसरा स्वरूप वह जो ऊँच-नीच, भेद-भाव आदि के झंझटों से मुक्त रहता है। इनमें से एक को प्रेतात्मा अथवा प्राणी कहा जा सकता है और दूसरे को स्वर्गस्थ जीवन मुक्त।
संसार भर के अन्यान्य पुरातन ग्रन्थों और घटनाक्रमों को देखने सुनने से पता चलता है कि आत्मा का शरीर से पृथक होने की ही मान्यता नहीं रही है, वरन् यह भी माना जाता है कि मरणोत्तर जीवन भी लम्बे समय तक बना रहता है।
नवीन जन्म कब मिलता है और किस कारण किस प्रकार का शरीर धारण करना पड़ता है, इस सम्बन्ध में मतभेद होते हुए भी यह मान्यता अधिकतर दार्शनिकों की है कि आत्मा का अस्तित्व सूक्ष्म शरीर के रूप में मरने के बाद भी बना रहता है और वह लौकिक गतिविधियों में अपना हस्तक्षेप तथा योगदान किसी न किसी रूप में करती ही रहती है। देवताओं और मनुष्यों के बीच सन्देश वाहक जैसी भूमिका उसकी रहती है।
भारतीय तत्त्वदर्शन तो इस संदर्भ में अनादि काल से ही मानता रहा है कि मृत्यु केवल शरीर की होती है और उसके उपरान्त भी सूक्ष्म शरीर समेत आत्मा की गतिविधियों का क्रिया-कलाप जारी रहता है। स्वर्ग या मुक्ति की दशा में ही संसार से सम्बन्ध विच्छेद करती है और परम शान्ति को प्राप्त करती है। जब तक वह स्थिति नहीं आती तब तक सूक्ष्म शरीर संसार में अदृश्य रूप से रहता है और स्वार्थ या परमार्थ के लिए कुछ न कुछ करता ही रहता है।
स्वार्थी अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए उस प्रकार के घटनाक्रमों के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं और शरीर न होने पर भी वे इच्छित स्वभाव के अनुरूप जहाँ वातावरण दिखता है वहाँ जा पहुँचते हैं। जिनसे अपनी मित्रता या शत्रुता रही है उन्हें लाभ-हानि पहुँचाने का भी जो कुछ प्रयास बन पड़ता है उसे करते रहते हैं। इन्हें प्रेत स्तर का कहा जाता है। परमार्थ परायण आत्माएं कष्ट पीड़ितों की सहायता करने जा पहुँचती हैं और “अदृश्य सहायकों” की भूमिका निभाती हैं किन्हीं को प्रेरणा देकर उनके शरीरों से वह काम करा लेती है जिसे करने के लिए उनकी परमार्थ भावना उमड़ती है।
शरीर धारी मनुष्य लोकहित के अनेक कामों में योगदान देते रहते हैं। जिनकी वह प्रवृत्ति बनी रहती है, वे मरने के बाद भी ऐसे अवसर तलाशती रहती हैं और उस वातावरण में सम्मिलित होकर कुछ न कुछ ऐसा करती रहती हैं, जिससे सत्प्रयोजनों में सफलता मिले और दुष्टों के मनोरथ विफल होते रहें। उस प्रकार के घटनाक्रमों से जो सत्परिणाम उपस्थित होते हैं उनकी अनुभूति ही उन्हें सन्तोष देती है। अस्तु! अपनी निज की प्रसन्नता और दूसरों की सुविधा के लिए सूक्ष्म शरीरधारी भी कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।
यह संसार कर्मक्षेत्र है। शरीर का गठन भी कुछ ऐसा हुआ कि वह बिना कर्म किये रह नहीं सकता। जीवित रहते हुए मनुष्य को जैसा कुछ करने का अभ्यास रहा होता है उसी के अनुरूप उसकी गतिविधियाँ मरणोत्तर काल में उस समय तक चलती रहती हैं जब तक कि उन्हें नया जन्म नहीं मिल जाता और सद्गति वाले शान्तिलोक में उन्हें विश्राम नहीं मिल जाता।

विवाह —


प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे — ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच।
ब्राह्म — ब्राह्म विवाह उसे कहा जाता था जिसमें कोई भी सद्गृहस्थ अपनी कन्या को उसी के अनुरूप योग्यता, विद्या, चरित्र, धन-सम्पत्ति एवं कुल के आधार पर वैदिक मंत्रोच्चार के सहित अपने सगे-सम्बन्धियों, पारिवारिक जनों के साथ प्रतिज्ञापूर्वक विवाह करके कन्या को वर के साथ विदा करता था। आज भी यह परम्परा यत्र-तत्र सर्वत्र देखी जा रही है। मनु ने इस विवाह की परिभाषा करते हुए कहा है कि कन्या को वस्त्राभूषण पहनाकर उसकी पूजा करके वेद के जानकार तथा शीलवान् वरको अपने घर बुलाकर कन्या देनी चाहिए।
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम् ।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रर्कीतित:।।
दैव - दैव विवाह उसे कहते थे जिसमें वर की योग्यता को देखकर उससे प्रभावित कन्या का पिता दान रूप में विधिपूर्वक संकल्प करके अपनी कन्या वर को प्रदान कर देता था।
आर्ष - आर्ष विवाह में वरपक्ष के लोगों द्वारा कन्या प्राप्त करने के लिए कन्या के पिता को एक जोड़ी बैल और एक गाय दिया जाता था।
प्राजापत्य - इस विवाह के अन्तर्गत प्रजापति व्रत को लेने वाले वर को कन्या का पिता सम्पूर्ण जीवनपर्यन्त एक साथ जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा करके कन्या का दान करता था। इन चारों विवाहों की ऋषियों ने प्रशंसा की है। शेष अन्य चार विवाह निन्दित माने गये थे।
केवल गान्धर्व विवाह की छूट वैदिक काल में थी। जहाँ अनेक राजाओं की कन्याएँ अपनी इच्छानुसार वर का वरण करती थीं। अस्तु! आगे ब्रह्म विवाह सम्बन्धी समस्त कृत्यों के मुहूर्त पर प्रकाश डाला जा रहा है।
वर्ष शुद्धि ज्ञान - प्राय: समस्त आचार्यों की मान्यता है कि जिस वर्ष कन्या का विवाह करना हो उसमें ग्रहों की स्थिति, वर्ष, अयन, मास, तिथि, वार, नक्षत्र, लग्न आदि की शुभता का विचार करके विवाह करना उचित होता है।
प्राचीनकाल में सात वर्ष के बाद ही कन्या का विवाह प्रशस्त माना गया था। किन्तु आधुनिक काल में अठारह वर्ष के पूर्व कन्या का विवाह दण्डनीय अपराध माना गया है। शास्त्रों में आठ वर्ष की कन्या को गौरी, नौ वर्ष की कन्या को रोहिणी तथा दस वर्ष की होने पर कन्या की संज्ञा और इसके बाद रजोमति की संज्ञा दी गयी है।
इन कन्याओं के विवाह के समय में ग्रह बल देखने की परम्परा थी। गौरी का विवाह करते समय गुरु का बल, रोहिणी में सूर्य का बल और कन्या में चन्द्र का बल देखकर ही विवाह करने का विधान था। अठारह वर्ष की आयु के बाद किसका बल देखना चाहिए इसका उल्लेख कहीं नहीं है।
समय शुद्धि विचार - आचार्य श्रीपति ने कहा है कि सूर्य, चन्द्र एवं गुरु की शुद्धि का विचार कन्या के दस वर्ष की आयु तक ही करना चाहिए उसके पश्चात् इन ग्रहों का दोष नहीं रह जाता है।
नारद ने तो यहां तक कह दिया है कि गुरु निर्बल हो, सूर्य अशुभ हो तथा चन्द्रमा भी अनुवूâल न हो तो भी ग्यारह वर्ष की अवस्था के पश्चात् जो ज्योतिषी ग्रहशुद्धि की गणना करता है उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है।
गुरुरबलो रविरशुभ: प्राप्ते एकादशाब्दया कन्या।
गणयति गणकविशुद्ध: स गणको ब्रह्महा भवति।। (नारदसंहिता)
दीपिका नामक ग्रन्थ में बताया गया है कि जो आयोजित, सन्धि से प्राप्त, खरीदी हुई, प्रेम से अर्पित तथा स्वयं आयी हुई कन्या हो उसमें ग्रह मेलापक का विचार नहीं करना चाहिए।
दीपिका ग्रन्थकार लिखते हैं कि जिस पुरुष व स्त्री के मन व नेत्र मिल जाय अर्थात् दोनों सन्तुष्ट हो जाय तब उसमें अन्य किसी प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए।
ज्योर्तिनिबन्धावली ग्रन्थ में कहा गया है कि सपिण्ड, गोत्र शुद्धि, स्वभाव, शारीरिक लक्षण, नक्षत्र मेलापक, गुणों का विचार तथा मंगली आदि दोषों का वाग्दान के पूर्व विचार कर लेना चाहिए। वाग्दान हो जाने पर पुन: इन सबका विचार नहीं करना चाहिए।
कन्या दोष ज्ञान - आचार्य त्रिविक्रम ने बताया है कि मरण, पौश्चल्य, वैधव्य, दारिद्र्य व सन्तान शून्यता इन दोषों को कन्या की कुण्डली में अच्छी रीति से समझकर विवाह का आदेश देना चाहिए। विवाह में पाँच दोषों का विचार प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए - निर्धनता, मृत्यु, रोग, विधवा तथा नि:सन्तति योग।
निर्धनता योग - कन्या या वर की कुण्डली में दूसरा, चौथा तथा नवाँ भाव यदि दूषित हो तो निर्धनता का योग होता है। दोनों कुण्डलियों के मेलापक से यदि दोनों की राशियाँ परस्पर दूसरी व बारहवीं हों तो इसे द्विद्र्वादश कहते हैं और यदि राशीश आपस में मित्र न हों तो निर्धनता का प्रबल योग बन जाता है।
मृत्यु योग - लग्न कुण्डली से या चन्द्र कुण्डली से सप्तम एवं अष्टम स्थान पाप ग्रहों से आक्रान्त हों, सप्तमेश एवं अष्टमेश पीड़ित हों, मारकेश ग्रह की दशा चल रही हो तथा आयु योग स्वल्प हो तो विवाह नहीं करना चाहिए।
कुलटा योग - सूर्य एवं मंगल लग्न या सप्तम स्थान में अपने उच्च राशि में स्थित हों और पाप ग्रह पाँचवें स्थान में बली हो तो कन्या के कुलटा होने का योग बनता है।
वैधव्य योग - जिस कन्या की कुण्डली में लग्न या चन्द्रमा से सप्तम में शनि और बुध हो, अष्टम में मंगल या राहु हों तो उसे वैधव्य योग प्राप्त होता है। जिसकी कुण्डली में चर संज्ञक लग्न तथा चर राशि में चन्द्रमा हो, बलवान् पाप ग्रह केन्द्र में हो, द्विस्वभाव राशियों में पाप ग्रह शुभ ग्रहों से न देखे जाते हों तो ऐसी कन्याओं को दो पति का योग बनता है।
व्यभिचारिणी योग - जिस कन्या की कुण्डली में लग्न में शनि या मंगल की राशि हो और उसमें शुक्र-चन्द्रमा पाप ग्रहों से देखे जाते हों तो यह योग पड़ता है अथवा लग्न या चन्द्रमा दो पाप ग्रहों के बीच में हों तो भी वह कन्या अपने कुल को कलंक लगाती है।
साध्वी (सुशीला) योग - जिस कन्या की कुण्डली में चर लग्न में चन्द्रमा मंगल का योग हो, गुरु केन्द्र में पाप ग्रह से रहित हो अथवा नवम पंचम स्थान में शुभ ग्रह हो तो कन्या साध्वी एवं सुशीला होती है और जिसकी कुण्डली में चन्द्रमा व लग्न शुभ ग्रह से युक्त हो वह कन्या भी पतिव्रता होती है।
प्रीति योग - जिसकी कुण्डली में लग्नेश और सप्तमेश की युति होती है उनका परस्पर अधिक प्रेम होता है। यदि दोनों की एक राशि हो अथवा राशीश एक हों तो दोनों में महाप्रीति योग बनता है। जिस पुरुष की कुण्डली में सप्तमेश लग्न में होता है उसकी पत्नी, पति का आदेश मानने वाली होती है और स्त्री की कुण्डलियों में लग्नेश सप्तम भाव में हो तो पति सदा स्त्री का आदेश मानने वाला होता है।
कलह योग - जिसकी कुण्डली में लग्नेश व सप्तमेश आपस में शत्रु हों और दोनों पर शत्रु ग्रहों की दृष्टि हो तो दोनों में कलह होता रहता है।
वन्ध्या योग - जिसकी कुण्डली में आठवें स्थान में अपनी राशि का शनि या सूर्य हो वह कन्या पूर्ण वन्ध्या होती है तथा जिसके आठवें स्थान में चन्द्रमा एवं बुध एक साथ हों और पंचम भाव पीड़ित हो वह काक वन्ध्या होती है अर्थात् उसे एक ही सन्तान प्राप्त हो पाती है।
मृतवत्सा योग - जिस कन्या की कुण्डली में आठवें भाव में गुरु एवं शुक्र हो तथा पंचमेश दु:स्थान में हो उस कन्या की सन्तान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है।
नक्षत्र विचार - विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न कन्या देवर के लिए घातक होती है। कुछ आचार्यों का मत है कि विशाखा का चतुर्थ चरण ही देवर के लिए नाश करने वाला होगा। मूल नक्षत्र में उत्पन्न कन्या ससुर के लिए घातक तथा आश्लेषा में उत्पन्न कन्या सास का नाश करने वाली तथा ज्येष्ठा नक्षत्र की कन्या अपने जेठ के लिए घातक होती है।

ॐ का माहात्म्य :-


सभी हिन्दू ’ॐ’ पद का अत्यधिक सम्मान करते हैं । जहाँ एक ओर वैदिक पाठों में तो इसका उच्चारण होता ही है, परन्तु अन्य अवैदिक स्तुतियों, भजनों, पूजाओं में भी इसका विशेष स्थान पाया जाता है । यहाँ तक कि अन्य धर्मों में भी इसका बोलबाला है । ईसाइयों का ’आमैन्’ और मुसलमानों का ’आमीन्’ स्पष्ट रूप से ॐ के अपभ्रंश हैं । हर प्रार्थना के बाद इसे जोड़ा जाता है ।
इनके धर्म-ज्ञाताओं से इन शब्दों के अर्थ पूछे जाएं, या उनके महत्त्व पर प्रकाश डालने को कहा जाए, तो वे कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न दे पायेंगे । वस्तुतः, कब ॐ उन देशों में पहुंचा, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है । बौद्ध धर्म तो हिन्दू-धर्म के बहुत निकट है ।
सो, वहां ॐ जैसा का तैसा पाया जाता है –
“ॐ मणि पद्मे हुम्’
वैदिक संस्कृति में, जबकि परमात्मा के नाम असंख्य हैं, ॐ का स्थान शिखर पर है । ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न पर इस लेख में विचार किया गया है।
पहले हम देखते हैं कि किसने हमें बताया कि ॐ परमात्मा का मुख्य नाम है । एक ओर जहां ब्राह्मण-ग्रन्थों ने उसके माहात्म्य का वर्णन किया है, वहीं प्रायः सभी उपनिषदों ने इसकी स्तुति में कसर नहीं छोड़ी है । कुछ ऐसे ही श्लोक नीचे दिये हैं –
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि – ओमित्येतत् ॥ कठ० १।२।१५ ॥
यहां यमराज नचिकेता को परम सत्य बताते हुए कहते हैं कि, “जिस प्राप्तव्य को सब वेद बार-बार कहते हैं, जिस के लिए सभी तप बताये गये हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य जैसे कठिन व्रत का आचरण किया जाता है, वह संक्षेप में ’ॐ’ – यह पद है ।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ मुण्डक० २।२।४ ॥
उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उसपर चढ़ जाओ, और अपने लक्ष्य को बींध दो, प्राप्त कर लो । ॐ के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता । यही बात एक अन्य श्लोक कहता है –
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ कठ० १।२।१७ ॥
इस ॐ का ही आलम्बन श्रेष्ठ है, सबसे ऊंचा है । जो इस आश्रय को जान गया, वह ब्रह्म के लोक में महत्त्व पाता है, अर्थात् ब्रह्म को पा जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनः पुनः आध्यात्मिक शास्त्र हमें बता रहे हैं कि ॐ को अपने मार्ग का दीपक बनाओ, क्योंकि यही सब से शक्तिशाली और प्रभावात्मक आलम्बन है ।
फिर भी, यह स्पष्ट नही हुआ कि ॐ में वह कौन सी विशेषता है जिसके कारण सब ऋषि-मुनि हमें यह बता रहे हैं ! इसको समझने के लिए थोड़ा और अन्वेषण करते हैं ।
ॐ की एक व्युत्पत्ति ’अव’ धातु से मन् प्रत्यय लगाकर बताई गई है । इस धातु को पाणिनि के धातु-पाठ में इस प्रकार पढ़ा गया है – अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ-याचन- क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-दान-भाग-वृद्धिषु ।
उपर्युक्त प्रकार से सन्धि-विच्छेद करने से २० अर्थ बनते हैं; ’स्वामी+अर्थ’ को एक पद मानने से, और ’दान’ के बदले ’आदान’ पढ़ने से दो अर्थ और बनते हैं । इस प्रकार यहां कुल २२ अर्थों का योग है ।
इतने अधिक अर्थ पाणिनि ने किसी और धातु के नहीं लिखे ! इसीसे इस धातु की विशेषता ज्ञात होती है । फिर, ये सभी अर्थ कर्ता या कर्म या दोनों के रूप में परमात्मा में घटाए जा सकते हैं । यथा –
प्रवेश – जो सब में प्रवेश करे अर्थात् सर्वव्यापक है (कर्ता)
याचन – जिसे या जिससे सब मांगें (कर्म)
अवाप्ति – जिसको सब प्राप्त है (कर्ता), और जो सब वस्तुओं में प्राप्त होता है (कर्म)
इस नाम में परमात्मा के अन्य सभी नाम समाहित हो जाते हैं । इस विशेषता के कारण ही केवल यही पद परमात्मा का निज नाम होने योग्य है; अन्य किसी का भी यह नाम नहीं हो सकता – तस्य वाचकः प्रणवः (योगदर्शनम् १।२५) ।
जहां इन्द्र, आदि, शब्द विभिन्न प्रकरणों में जीवात्मा, मेघ, विद्युत्, आदि के द्योतक हो सकते हैं, वहां ॐ शब्द किसी और का वाचक सम्भव ही नहीं है । अपितु इस शब्द का अपने वाच्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसको परमात्मा की तरह अक्षर = अकाट्य, नाश-रहित ही कहा गया है, जबकि यह २ अक्षरों का बना हुआ है –
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म ॥ कठ० १।२।१६ ॥ – यह ’ॐ’ अक्षर ही ब्रह्म है ।
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं ।
भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव ।
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ माण्डूक्य० १ ॥
ॐ यह अक्षर (ब्रह्म) है । इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ दिख रहा है, वह इसका उपव्याख्यान – इसको कुछ अंश में कहने वाला है । (उदाहरण के लिए -) जो भूत, वर्तमान और भविष्य में हुआ, है और होगा, वे सभी ओंकार ही हैं । और जो इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है । कितनी सुन्दरता से ऋषि ने ॐ का व्याख्यान किया है !
माण्डूक्य ने इसका एक अन्य प्रकार से विवरण दिया है । वहां ॐ को ३ मात्राओं में विभक्त किया गया है – अ, उ और म् । फिर अकार को ब्रह्म का जागरित रूप बताया है, जिस प्रकार प्राणी की जागरित-अवस्था होती है ।
इस रूप में परमात्मा इस विराट् ब्रह्माण्ड की रचना करके वैश्वानर अग्नि के समान सब में व्याप्त होता है, और सब प्राणियों के ज्ञान और व्यवहार के लिए प्रकट होता है । इसलिए मोटी टाइप में दिये शब्द भी इस अकार के अन्तर्गत अर्थ हैं ।
उकार से परमात्मा का स्वप्नस्थान अभिप्रेत है, जो कि जागरित और सुषुप्ति के बीच की अवस्था है । उस समय मन अन्दर ही अन्दर काम करता है, बाहरी विषयों से दूर । इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के सृजन में सूक्ष्मावस्था को प्राप्त प्रकृति का रूप, उत्पन्न होते हुए भी, अप्रकट होता है । वहां परमात्मा तैजस और हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित होता है । उस सूक्ष्मावस्था को वायु से भी सम्बोधित किया जाता है ।
मकार में शब्द के उच्चारण के अन्त के साथ-साथ जैसे परमात्मा भी सुषुप्ति में चले जाते हैं ! सुषुप्ति प्रलयावस्था या कारण जगत् की द्योतक है । इस अवस्था में केवल एक ईश्वर ही प्राज्ञ रहता है, जबकि अन्य सब सुषुप्ति में पहुंच जाते हैं । इस रूप को आदित्य = न नष्ट होने वाला भी कहा गया है ।
माण्डूक्य ने एक चौथी मात्रा भी बताई है, जो सबसे गूढ़ है । ॐ के उच्चारण का अन्त होने पर जो नीरवता है, उसे ऋषि ने अव्यवहार्य मात्रा बताया है, जो परमात्मा के निराकार रूप की द्योतक है, जो कि इस प्रपञ्च से अतीत है । इस अवस्था को वेदों ने इस प्रकार कहा है –
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ यजु० ३१।३ ॥
अर्थात् परमात्मा के एक पाद में तो यह समूचा विश्व है, और उसके शेष तीन पादों में वह अपने अमिश्रित, अमृत, प्रकाशमय रूप में स्थित है । सो, जो ॐ की चार मात्राओं में से यह अन्तिम मात्रा है, वही वास्तव में तीन मात्राओं के बराबर है, जबकि अन्य तीन मात्राएं महत्त्व में एक मात्रा के बराबर हैं !
मनु इस विषय में कहते हैं –
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।
वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ मनुस्मृतिः २।७६ ॥
तीनों वेदों से प्रजापति ने एक-एक मात्रा – अ, उ और म् – दुह कर निकाली,
और उसी प्रकार तीन व्याहृतियां – भूः, भुवः, स्वः – भी वेदों का निचोड़ हैं ।
इस प्रकार ॐ पद को ऋषियों ने सदा से परमात्मा का समीपतम नाम माना है, बल्कि उसको सही रूप में व्यक्त करने वाला बताया है । ॐ के विभिन्न अर्थों से भी ज्ञात होता है कि ॐ में अर्थों का सागर समाया हुआ है ।
जिस प्रकार ईश्वर अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है, उसी प्रकार यह छोटा-सा नाम उन सभी को प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता है । उसकी सरलता में भी परमात्मा का एक गुण सन्निहित है । परमात्मा भी सरल स्वभाव वाले हैं, उनमें कोई धोखा या दिखावा नहीं है । और ऐसे ही मनुष्य उसे प्रिय भी हैं !