मनुष्य के खाने सोने और चलने-फिरने वाले शरीर के सम्बन्ध में सर्व साधारण को काम चलाऊ जानकारी भर है। उसके भरण-पोषण, चिकित्सा उपचार, साज-सज्जा एवं प्रसन्नता मनोरंजन के लिए जो कुछ सम्भव होता है सो अपनी बुद्धि और क्षमता के अनुरूप सभी करते हैं।
इसके उपरान्त मनुष्य का व्यक्तित्व आता है, जो गुण, कर्म, स्वभाव, शिक्षा एवं संगति पर निर्भर है।
व्यक्तित्ववान् प्रतिभाएं अपनी दूरदर्शिता के आधार पर बड़ी जिम्मेदारियाँ उठाती हैं और उन्हें सफल बनाकर दिखाती हैं। शरीर के स्वस्थ अथवा सुगढ़ सुन्दर होते हुए भी यदि आन्तरिक क्षमता दुर्बल हो तो दृश्यमान आकर्षण का प्रभाव ठहरता नहीं।
जल्दी ही उसकी मूर्खता एवं अनगढ़ स्थिति प्रकाश में आती है और लोग उनका मजाक बनाने लगते हैं। न ही वह अपने कामों को सही ढंग से कर सकता है और न उससे वार्तालाप करते हुए कोई प्रभावित या प्रसन्न होता है इसलिए शरीर की तरह ही मनुष्य के अन्तरंग का- व्यक्तित्व का भी महत्व माना गया है।
अध्यात्म क्षेत्र में शरीर और मन के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीरधारी आत्मा का भी अस्तित्व माना गया है। यह सूक्ष्म शरीर- काया के इर्द-गिर्द प्राण विद्युत की तरह विद्यमान रहता है और तेजोवलय के रूप में उसे विशेष यन्त्र उपकरणों से देखा परखा भी जा सकता है। इसी को सुविकसित एवं क्षमता सम्पन्न बनाने के लिए अनेक प्रकार की साधनाएं की जाती हैं।
आर्ष मान्यता है कि मरने के बाद भी सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। स्वर्ग नरक में उसी को जाना पड़ता है। नया जन्म न होने तक यह सत्ता अपना अस्तित्व बनाये रहती है। प्रिय अप्रिय जनों के साथ उसका भला-बुरा संपर्क भी बना रहता है।
नया जन्म लेने से इस सूक्ष्म शरीर का स्तर ही प्रधान भूमिका निभाता है।
जीवित स्थिति में यह सूक्ष्म शरीर यदि उपयुक्त क्षमता अर्जित कर ले तो सिद्ध पुरुष जैसी स्थिति उपलब्ध होती है। वह एक साथी या सहायक की तरह प्रत्यक्ष शरीर से एवं अन्यान्य लोगों को अपनी विशिष्टता से लाभान्वित करता रहता है।
व्यास जी बोलते गये और गणेश जी लिखते गये। इस प्रकार जब महाभारत पूरा हो गया तो व्यास जी ने गणेश जी से कहा- मैनें चौबीस लाख शब्द बोले पर उस समय में सर्वथा मौन रहे। एक शब्द भी न कहा। गणेश जी ने कहा- वादरायण, सभी प्राणियों में सीमित प्राण शक्ति है। जो उसे संयमपूर्वक व्यय करते हैं वे ही उसका समुचित लाभ उठा पाते हैं। संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है और संयम की प्रथम सीढ़ी है- वाचोमुक्ति अर्थात् वाणी का संयम।
मध्य पूर्व के नव निर्मित धर्मों की मान्यता है कि आत्मा कब्र में बैठी रहती है और महाप्रलय के दिन उसे ईश्वर के सम्मुख बुलाया जाता है। भले बुरे कर्मों का ईश्वर के दरबार में ही न्याय किया जाता है। किन्तु पुरातन काल के सभी धर्मों में मरने के बाद आत्मा के अन्तरिक्ष में निवास करने तथा इच्छित क्रिया-कलापों में निरत रहने की बात कही गई है।
पुरातन दर्शन एवं विज्ञान अनुसन्धान संस्थान के संस्थापक प्लूटो ने ईसा से 428-348 वर्ष पूर्व ‘फैडौ’ नामक पुस्तक में अपने गुरु सुकरात के उन सन्देशों को उद्धृत किया है जो प्लूटो को दिये गये थे।
जीवन के अन्तिम क्षणों में सुकरात ने कहा था कि “तुम्हें मेरी मृत्यु पर दुःख व्यक्त नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह नाशवान शरीर ही जलेगा, आत्मा नहीं।” एक और पुस्तक “रिपब्लिक” प्लूटो की बड़ी लोकप्रिय बन चुकी है जिसमें उनने आत्मा की अमरता को अंगीकार किया है। प्लूटो के इस ज्ञान का स्त्रोत मनीषीगण भारतीय दर्शन को ही मानते हैं।
यहूदी भाषा में आत्मा को ‘नैफेस’ की संज्ञा दी गयी है। जिसका अर्थ है- “सजीव शरीर के साथ जुड़ा हुआ सूक्ष्म”। अर्थात् आत्मा का शरीर से अलग रहकर कोई अस्तित्व नहीं रहा जाता। वह स्थूल अथवा सूक्ष्म शरीर को धारण किये ही रहती है।
उक्त तथ्य की पुष्टि ईसाइयों के धर्मग्रंथ बाइबिल के जैनेसिस 2:7 में भी की गयी है। “न्यू टैस्टामैंट” में भी आत्मा के अजर-अमर होने के प्रमाण स्पष्ट रूप से पढ़ने को मिलते हैं। न्यू टैस्टामैंट में वर्णित ‘शुके’ शब्द भी यहूदी ‘नैफेस’ के समरूप समझा जाता है। ‘शुके’ शब्द का दो प्रकार से प्रयोग होता आया है।
एक तो वह आत्मा जो निम्न कोटि के जीवधारियों तथा प्राणियों में कार्यरत रहती है और दूसरा स्वरूप वह जो ऊँच-नीच, भेद-भाव आदि के झंझटों से मुक्त रहता है। इनमें से एक को प्रेतात्मा अथवा प्राणी कहा जा सकता है और दूसरे को स्वर्गस्थ जीवन मुक्त।
संसार भर के अन्यान्य पुरातन ग्रन्थों और घटनाक्रमों को देखने सुनने से पता चलता है कि आत्मा का शरीर से पृथक होने की ही मान्यता नहीं रही है, वरन् यह भी माना जाता है कि मरणोत्तर जीवन भी लम्बे समय तक बना रहता है।
नवीन जन्म कब मिलता है और किस कारण किस प्रकार का शरीर धारण करना पड़ता है, इस सम्बन्ध में मतभेद होते हुए भी यह मान्यता अधिकतर दार्शनिकों की है कि आत्मा का अस्तित्व सूक्ष्म शरीर के रूप में मरने के बाद भी बना रहता है और वह लौकिक गतिविधियों में अपना हस्तक्षेप तथा योगदान किसी न किसी रूप में करती ही रहती है। देवताओं और मनुष्यों के बीच सन्देश वाहक जैसी भूमिका उसकी रहती है।
भारतीय तत्त्वदर्शन तो इस संदर्भ में अनादि काल से ही मानता रहा है कि मृत्यु केवल शरीर की होती है और उसके उपरान्त भी सूक्ष्म शरीर समेत आत्मा की गतिविधियों का क्रिया-कलाप जारी रहता है। स्वर्ग या मुक्ति की दशा में ही संसार से सम्बन्ध विच्छेद करती है और परम शान्ति को प्राप्त करती है। जब तक वह स्थिति नहीं आती तब तक सूक्ष्म शरीर संसार में अदृश्य रूप से रहता है और स्वार्थ या परमार्थ के लिए कुछ न कुछ करता ही रहता है।
स्वार्थी अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए उस प्रकार के घटनाक्रमों के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं और शरीर न होने पर भी वे इच्छित स्वभाव के अनुरूप जहाँ वातावरण दिखता है वहाँ जा पहुँचते हैं। जिनसे अपनी मित्रता या शत्रुता रही है उन्हें लाभ-हानि पहुँचाने का भी जो कुछ प्रयास बन पड़ता है उसे करते रहते हैं। इन्हें प्रेत स्तर का कहा जाता है। परमार्थ परायण आत्माएं कष्ट पीड़ितों की सहायता करने जा पहुँचती हैं और “अदृश्य सहायकों” की भूमिका निभाती हैं किन्हीं को प्रेरणा देकर उनके शरीरों से वह काम करा लेती है जिसे करने के लिए उनकी परमार्थ भावना उमड़ती है।
शरीर धारी मनुष्य लोकहित के अनेक कामों में योगदान देते रहते हैं। जिनकी वह प्रवृत्ति बनी रहती है, वे मरने के बाद भी ऐसे अवसर तलाशती रहती हैं और उस वातावरण में सम्मिलित होकर कुछ न कुछ ऐसा करती रहती हैं, जिससे सत्प्रयोजनों में सफलता मिले और दुष्टों के मनोरथ विफल होते रहें। उस प्रकार के घटनाक्रमों से जो सत्परिणाम उपस्थित होते हैं उनकी अनुभूति ही उन्हें सन्तोष देती है। अस्तु! अपनी निज की प्रसन्नता और दूसरों की सुविधा के लिए सूक्ष्म शरीरधारी भी कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।
यह संसार कर्मक्षेत्र है। शरीर का गठन भी कुछ ऐसा हुआ कि वह बिना कर्म किये रह नहीं सकता। जीवित रहते हुए मनुष्य को जैसा कुछ करने का अभ्यास रहा होता है उसी के अनुरूप उसकी गतिविधियाँ मरणोत्तर काल में उस समय तक चलती रहती हैं जब तक कि उन्हें नया जन्म नहीं मिल जाता और सद्गति वाले शान्तिलोक में उन्हें विश्राम नहीं मिल जाता।
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