Tuesday, 26 July 2016

अन्नपूर्णा

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‘प्र’ वणर्स्य देवी तु साऽन्नपूणार्स्ति देवता ।
पूषा बीजमहो ‘अं’ च पिप्पलादश्च स ऋषिः॥
अन्नपूणेर्श्वरी यन्त्रं तृप्ता पूणोर्दरी तथा ।
सन्ति भूती फलं तृप्तिरभावान्मुक्तिरेव च॥
अर्थात्- ‘प्र’ अक्षर की देवी-‘अन्नपूणार्,’ देवता-‘पूषा,’ बीज-‘अं’ ऋषि- पिप्पलाद, यन्त्र-‘अन्नपूणेर्श्वरीयन्त्रम्’,विभूति-‘तृप्ता’ एवं ‘पुणोर्दरी’ तथा प्रतिफल- ‘तृप्ति व अभावमुक्ति’ हैं ।
जीवन की प्रत्यक्ष आवश्यकताओं में प्रथम नाम ‘अन्न ‘ का आता है । भोजन के काम आने वाले धान्यों तथा अन्य पदार्थों को भी अन्न ही कहा जाता है । गायत्री की एक शक्ति अन्नपूणार् कहते हैं । इसका प्रभाव अन्नादि की आवश्यकताओं की सहज पूतिर् होते रहने के रूप में होता है ।
प्रायः गृह-लक्ष्मियों को अन्नपूर्णा कहते हैं । वे अपनी दूरदशिर्ता, सुव्यवस्था के द्वारा घर में ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने देती, जिससे अभाव ग्रस्तता का कष्ट-असंतोष एवं उपहास सहन करना पड़े । गृहलक्ष्मी जैसी सुसंस्कारी, समझदार को भी अन्नपूर्णा कहते हैं । यह जहाँ भी रहेगी , वहाँ दरिद्रता के दशर्न नहीं होते । परिस्थितियाँ संतोष-जनक बनी रहती हैं ।
अन्नपूर्णा गायत्री की वह चेतना शक्ति है जिसका साधक पर अवतरण होने से उसे अभाव ग्रस्तता की व्यथा नहीं सहनी पड़ती । आवश्यकताओं की पूर्ति का असमंजस खिन्न-उद्विग्न नहीं करता । तृप्ति, तृष्टि,और शान्ति की मनःस्थिति साधन-सामग्री के बाहुल्य से नहीं मिल सकते । ईंधन मिलने से तो आग और भड़कती जाती है ।
शान्ति तो जल से होती है । जल है संतोष-जिसमें औसत नागरिक के स्तर का निवार्ह पयार्प्त माना जाता है और अहंता की तृप्ति के लिए वैभव का प्रदर्शन नहीं, महानता का आदर्श अपनाना आवश्यक समझा जाता है । इस स्तर की सद्बुद्धि का उदय होते ही लगता है कि जीवन सम्पदा अपने आप में परिपूर्ण है । उसमें विभूतियों के अजस्र भंडार भरे पड़े हैं ।
वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है, वे प्रचार परिमाण में सहज ही उपलब्ध हैं ।
इस अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य सम्पदा कमाने और वैभव दिखाने की मूखतार् से विरत होता है । अपनी क्षमताओं को आदर्शों के परिपालन में लगाता है । व्यक्तित्व को महान् बनाने की महत्वाकांक्षा जगाता है और अपने पौरुष को उन प्रयोजनों में निरत करता है । जिनसे लोक मंगल के साधन सधते हैं ।
सृष्टा की विश्ववाटिका को अधिकाधिक सुन्दर,समुन्नत बनाने के लिये किया गया हर प्रयत्न बिना सफलता-असफलता की प्रतीक्षा किये हर घड़ी उच्च स्तरीय संतोष प्रदान करता रहता है । इसी आस्था को अन्नपूर्णा कहते है । गायत्री की यह अन्नपूर्णा धारा साधक को सहज संतोष के स्वगीर्य आनन्द का रसास्वादन निरन्तर कराती है ।
गायत्री उपासना से साधकों की आथिर्क स्थिति संतोष जनक रहती है और धन-धान्य का घाटा नहीं पड़ता । उन्हें ऋणी नहीं रहना पड़ता । असंतोष की आग में जलते रहने-लिप्सा-लालसाओं से उद्विग्न रहने की विपत्ति भी उन्हें संत्रस्त नहीं करती ।
इसका कारण यह नहीं कि उनके कोठों पर आसमान से अनाज की वर्षा होती है, या खेतों में चौगुनी फसल उत्पन्न होती है, वरन् कारण यह है कि साधनों को उपाजिर्त करने के लिए वे योग्यता बढ़ाने और कठोर परिश्रम करने में दत्तचित्त रहते हैं । दरिद्र तो आलसी-प्रमादी रहते हैं ।
जिन्हें पुरुषार्थ परायणता में रुचि है, जो श्रम एवं मनोयोग के सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित रहते हैं, उन्हें निवार्ह के आवश्यक साधन जुटाने में कमी-कभी नहीं पड़ती । यह अन्नपूर्णा प्रवृत्ति है जो गायत्री, उपासना से स्वभाव का अंग बनकर रहती है ।
अन्नपूर्णा प्रवृत्ति का दूसरा पक्ष है-मितव्ययिता । उपलब्ध साधनों का इस प्रकार उपयोग करना जिससे शारीरिक, पारिवारिक एवं पारमाथिर्क उद्देश्य संतुलित रूप से पूरे होते रहें । यह ऐसी सुसंस्कारिता है, जिसे अपनायें बिना कुबेर को भी दरिद्र बनकर ही रहना पड़ता है ।
व्यसन,फैशन, चटोरापन, विलासिता, उद्घत प्रदशर्न, शेखी खोरी , यारबाशी, आवारागर्दी जैसे दुगुर्णों में कोई व्यक्ति कितना ही धन अपव्यय कर सकता है । ऐसी दशा में आजीविका कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, वहाँ सदा तंगी ही बनी रहेगी, और उस कमी को पूरा करने के लिए रिश्वत-बेईमानी की ललक भड़कती रहेगी । यह सब करते रहने पर भी वह स्थिति नहीं आती , जिसमें संतोष अनुभव किया जा सकेे तथा आय-व्यय का संतुलन बन सकें ।
सम्पन्नता इस अर्थ सन्तुलन को ही कहते हैं, और वह धन के परिमाण पर नहीं, उस सत्प्रवृत्ति पर निभर्र है, जो उपाजर्न की योग्यता बढ़ाने में तथा अथक श्रम करने के लिए प्रोत्साहित करती है । साथ ही एक-एक पाई के सदुपयोग की मितव्ययता का महत्त्व भी सिखाती है ।
ऐसे व्यक्ति सीमित आजीविका का भी ऐसा क्रमबद्ध उपयोेग करते हैं जिससे उतने में ही ऐसी व्यवस्था बन जाती है, जिसे देखकर सुसम्पन्नों को भी ईष्यार् होने लगे । इसी परिस्थिति का नाम अन्नपूर्णा है ।
साधनों का उपार्जन एक पक्ष है-उपयोग दूसरा है । दोनों को मिलाकर चलने से ही सुसम्पन्नता बनती है । आमतौर से सम्पत्ति की बहुलता को ही सम्पन्नता माना जाता है । यह भारी भ्रम है । दुर्बुद्धि के रहते सम्पत्ति का उपयोग दुष्ट प्रयोजनों में ही होगा और उससे व्यक्ति, परिवार और समाज को प्रकारान्तर से अनेकानेक हानियाँ सहन करनी पड़ेगी ।
महत्व साधनों की मात्रा का नहीं, वरन् उस दूर-दशिर्ता का है जो सत्प्रयोजनों में अभीष्ट साधन जुटा लेने में पूणर्तया सफल होती है और कुशल उपयोग के आधार पर सीमित साधनों से ही सामायिक आवश्यकताओं को सुसंतुलित रीति से पूरा कर लेती हैं । यह सद्बुद्धि जहाँ भी होगी वहाँ अन्नपूर्णा कही जाने वाली संतुष्ट मनःस्थिति एवं प्रसन्न परिस्थितियों का दशर्न सदा ही होता रहेगा ।
अन्नपूर्णा के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षेप में तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
अन्नपूणार् के एक मुख,चार हाथ हैं । हाथों में अन्नपात्र और चम्मच-अन्नदान के प्रतीक हैं । दो हाथों में कमल, अन्न में सुसंस्कारिता पौष्टिकता के प्रतीक हैं । आसन-देवपीठ-दिव्य अनुशासन की प्रतीक हैं ।

ज्वालामुखी

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ज्वालामुखी तु ‘यो’ देवी जातवेदश्च देवता ।।
बीजं ‘रं’ स ऋषिश्चास्य याज्ञवल्क्योऽथ यन्त्रकम्॥
ऊजोर् भूती च स्वाहाऽथाजरा पुष्टिस्तथैव च ।।
आरोग्यं च फलं पूणर् कथितानी क्रमादिह॥
अर्थात् — ‘यो’ अक्षर की देवी- ‘ज्वालामुखी’, (प्राणाग्नि), देवता- ‘जातवेद’, बीज- ‘रं’, ऋषि — ‘याज्ञवल्क्य’, यंत्र- ‘ऊर्जायन्त्रम्’, विभूति- ‘स्वाहा एवं अजरा’ तथा प्रतिफल- ‘पुष्टि एवं आरोग्य’ है ।।
गायत्री के २४ प्रधान नामों एवं रूपों में ‘प्राणाग्नि’ भी है ।। प्राण एक सर्वव्यापी चेतना प्रवाह है ।। जब वह प्रचण्ड हो उठता है तो उसकी ऊर्जा अग्नि बनकर प्रकट होती है ।। प्राण- तत्त्व की प्रखरता और प्रचण्डता की स्थिति को प्राणाग्नि कहते हैं ।।
अग्नि की दाहक, ज्योतिर्मय एवं आत्मसात् कर लेने की विशेषता से सभी परिचित हैं ।। प्राणाग्नि की दिव्य क्षमता जहाँ भी प्रकट होती है वहाँ से कषाय- कल्मषों का नाश होकर ही रहता है ।। जहाँ यह क्षमता उत्पन्न होती है वहाँ अंधकार दीखेगा नहीं, सब कुछ प्रकाशवान् ही दिखाई देगा ।।
प्राणाग्नि की सामर्थ्य आपके सम्पर्क क्षेत्र को आत्मसात् कर लेती है ।। पदार्थ और प्राणी अनुकूल बनते हैं, अनुरूप ढलते चले जाते हैं ।। प्राणाग्नि सम्पन्न व्यक्तियों का वर्गीकरण ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी के रूप में किया जाता है ।।
प्राणाग्नि विद्या को पंचाग्नि विद्या कहा गया है ।। कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या सिखाकर उसे कृतकृत्य किया था ।। यह पाँच प्राणों का विज्ञान और विनियोग ही है, जिसे जानने, अपनाने वाला सच्चे अर्थों में महाप्राण बन जाता है ।।
गायत्री को प्राणाग्नि कहा गया है ।। गायत्री शब्द का अर्थ ही ‘प्राण- रक्षक’ होता है ।। प्राणशक्ति प्रखर- प्रचण्ड बनाने की क्षमता से सुसम्पन्न बनना गायत्री साधना का प्रमुख प्रतिफल है ।। प्राणवान् होने का प्रमाण सत्प्रयोजनों के लिए साहसिकता एवं उदारता प्रदर्शित करने के रूप में सामने आता है ।। सामान्य लोग स्वार्थ पूर्ति के लिए दुष्कर्म तक कर गुजरने में दुस्साहस करते पाए जाते हैं ।। सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ करने की तो मात्र कल्पना ही कभी- कभी उठती है ।। उसके लिए कुछ कर गुजरना बन ही नहीं पड़ता ।।
आदर्शों को अपनाने वालों को जीवनक्रम में कठोर संयम और अनुशासन का समावेश करना पड़ता है और हेय पर चलने- चलाने वालों से विरोध- असहयोग करना होता है ।। इस प्रबल पुरुषार्थ को कर सकने में महाप्राण ही सफल होते हैं ।।
प्राण की बहुलता सत्प्रयोजनों के लिए साहसिक कदम उठाने, त्याग बलिदान के अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने एवं सत्संकल्पों के निर्वाह में सुदृढ़ बने रहने के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।। अनीति से लड़ने एवं परिस्थितिवश कठिनाई आने पर धैर्य बनाए रखने तथा निराशाजनक परिस्थिति में भी उज्ज्वल प्रभाव की आशा करने में भी प्राणवान् होने का प्रमाण मिलता है ।। गायत्री उपासना से इस प्रखरता की अभिवृद्धि होती है ।।
प्राणाग्नि के स्वरूप, आसन आदि का वर्णन संक्षेप में इस तरह है –
प्राणाग्नि के एक मुख, चार हाथ है ।। स्रुवा- यज्ञीय कर्म का, अंकुश- शक्ति के नियंत्रण की क्षमता और श्रीफल- पूर्णाहुति कार्य को पूर्णता प्रदान करने के संकल्प का प्रतीक है ।।
आशीर्वाद मुद्रा — ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का संकेत है ।। आसन- यज्ञकुण्ड के यज्ञार्थ – लोकहितार्थ उपयोग की प्रतिबद्धता का प्रतीक है ।

महामाया

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‘चो’ देवी तु महामाया महादेवोऽथ देवता ।
बीजं ‘हं’ प्रोक्तमेतत्स ऋषिः कात्यायनस्तथा॥
योगिनी यन्त्रमेतच्च भूती मेधाऽथ पाशिनी ।
विद्यन्ते तत्त्वदृष्टिश्च भ्रममुक्तिः फलं द्वयम्॥
अर्थात्- ‘चो’ अक्षर की देवी-‘महामाया’,देवता-‘महादेव’, बीज-‘हं’, ऋषि-‘कात्यायन’, यन्त्र-‘योगिनीयन्त्रम्’, विभूति-‘मेधा एवं पाशिनी’ और प्रतिफल-‘तत्त्वदृष्टि व भ्रममुक्ति’ हैं ।
माया कहते हैं भ्रान्ति को-महामाया कहते हैं निभ्रार्न्ति को । माया पदार्थ परक है और महामाया ज्ञान परक । मानवी सत्ता सीमित रहने से वह समग्र का दशर्न नहीं कर पाती और जितनी उसकी परिधि है उसी को सब कुछ मान लेती है ।
मेढक कुए को ही समग्र विश्व मानता है, उसकी सीमित परिस्थिति में यही संभव भी है । किन्तु यदि उसे कुँए से बाहर निकलने का, आकाश में उड़ाने का-ब्रह्माण्डीय आकाश में विचरण करने का अवसर मिले, तो पता चलेगा कि कुँए में सीमित विश्व की पूर्व मान्यता गलत थी, यों उस समय वही सत्य एवं तथ्य प्रतीत होती थी ।
जीव माया-बन्धनों मे बँधा है अथार्त् संकीर्णता की परिधि में आबद्ध है । इच्छाएँ, विचारणाएँ, क्रियाएँ इसी भ्रम- जाल में फँसी होने के कारण अवांछनीय स्तर की रहती हैं और उस जंजाल में कस्तूरी के हिरन की तरह मृगमरीचिका में भटकने की तरह जीव सम्पदा का अपव्यय ही होता रहता है ।
माया से छूटने के प्रयत्नों में जिज्ञासु-मुमुक्ष संलग्न रहते हैं । जिस आत्म ज्ञान को जीवन को सफल बनाने वाली महान् उपलब्धि बताया जाता है, उसी का नाम महामाया है । मायाबद्ध दुख पाते हैं और महामाया की शरण में पहुँचने वाले परम शान्ति का रसास्वादन करते हैं । उन्हें श्रेय पथ प्रत्यक्ष दीखता है । उभरे हुए आत्मबल के सहारे उस पर चल पड़ना भी सरल रहता है ।
आत्मा को अपना अस्तित्व शरीर मात्र मान लेना पहले सिरे की भ्रान्ति है । इसी की खुमारी में मनुष्य वासना, तृष्णा, अहंता की बालक्रीड़ा में उलझा हुआ मानव-जन्म के सुयोग को पशु-प्रयोजनों में गँवा देता है ।
अन्ततः खाली हाथ बिदा होता है और पाप की गठरी सिर पर लाद ले जाना-चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण के बाद मिले हुए सुअवसर को गँवा बैठने पर रुदन करना-जीवन भर पाप-ताप के दुसह दुःख सहना,यह समस्त दुगर्ति माया रूपी भ्रान्ति में जकड़े रहने का दुष्परिणाम है । इस महासंकट से महामाया ही छुड़ाती है ।
गायत्री को महामाया कहा गया है । साधना से उसका अनुग्रह साधक की अन्तरात्मा में उतरता है और निभ्रार्न्त स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिलता है । यही दिव्य दृष्टि है-ज्ञान चक्षु का उन्मीलन इसी को कहते हैं । जीवन रहस्यों का उद्घाटन इसी स्थिति में होता है । जकड़ने वाले जंजाल पके हुए पत्तों की तरह झड़ जाते हैं , और आत्म जागरण के कारण सब कुछ नये सिरे से देखने-सोचने का अवसर मिलता है ।
रात्रि स्वप्नों के बाद प्रातःकाल का जागरण जिस प्रकार सारी स्थिति ही बदल देता है, उसी प्रकार महामाया का अनुग्रह जागृति की भूमिका में प्रवेश करने का द्वार खोलता है और इच्छा, विचरणा तथा क्रिया का स्वरूप ऐसा बना देता है जिसमें देवोपम स्वगीर्य जीवन का आनन्द मिलता रहे और बन्धन मुक्ति की ब्रह्मानुभूति का रसास्वादन अनवरत रूप से उपलब्ध होता रहे ।
महामाया परब्रह्म की समीपता तक पहुँचा देने वाली सच्ची देवमाता कही गई है । देवत्व ही उसका अनुग्रह है । गायत्री एक स्तर पर महामाया के रूप में साधक को हर दृष्टि से कृतकृत्य बनाती देखी गई है ।
महामाया के स्वरूप, आयुध, वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है–
महामाया के एक मुख, चार हाथों में इंगित, श्रीफल, पाश और दंड । इंगित देवानुशासन का संकेत, अनुशासन मानने पर श्रीफल-श्रेष्ठफल की प्राप्ति का तथा मयार्दा तोड़ने पर पाश से बंधने तथा दंड से दंड भोगने का बोध होता है । वाहन-हंस-हित-अहित निधार्रण के विवेक का प्रतीक है।

पयस्विनी

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‘द’ तु पयस्विनी देवी देवता वरुणस्तथा ।
बीजं ‘वं’ धौम्यं एवषिर्यर्न्त्रं वरुणयन्त्रकम्॥
विभूती च स्वधाद्रेर् द्वे विद्यन्तेऽपि फलं तथा ।
स्नेहः सरसता चेयं द्वयं देेवि यथाक्रमम्॥
अर्थात्– ‘द’ अक्षर की देवी-‘पयस्विनी’, देवता-‘वरुण’, बीज-‘वं’,ऋषि-‘धौम्य’,यन्त्र-‘वरुणयन्त्रम्’, विभूति-‘स्वधा एवं आद्रार्’ और प्रतिफल -‘स्नेह एवं सरसता’ है ।
पयस्विनी गौ माता को कहते हैं । स्वर्ग में निवास करने वाली कामधेनु को भी पयस्विनी कहा गया है । गायत्री साधना की सफलता के लिए साधक में ब्राह्मणत्व और गौ के सानिध्य में अत्यन्त घनिष्टता है । पंचामृत , पंचगव्य को अमृतोपम माना गया है । गोमय, गोमूत्र की उर्वरता और रोग निवारिणी शक्ति सवर् विदित है । भारतीय कृषिकर्म के लिए गौवंश के बिना काम ही नहीं चल सकता । पोषक आहार में गोरस अग्रणी है ।
गौ की संरचना में आदि से अन्त तक सात्विकता भरी पड़ी है । पयस्विनी का महत्त्व जब इस देश में समझा जाता था, तब यहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं और मनुष्य शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से देवोपम जीवन यापन करते थे ।
गायत्री साधक के अन्तःकरण में कामधेनु का अवतरण होता है । उसकी कामनाएँ भावनाओं में बदल जाती है । फलतः साधक को संसार के सबसे बड़े कष्ट-असंतोष से सहज ही निवृत्ति मिल जाती है । कामनाएँ असीम हैं । एक के तृप्त होते-होते, दूसरी उससे भी बड़े आकार में उठ खड़ी होती है । संसार भर के समस्त साधन-सम्पदा मिल कर भी किसी एक मनुष्य की कामनाएँ पूर्ण नहीं कर सकती ।
पूर्ण तो सद्भावनाएँ होती हैं, जो अभीष्ट परिणाम न मिलने पर भी अपनी इच्छा और चेष्टा में उत्कृष्टता भरी रहने के कारण आनन्द, उल्लास से उमगती रहती हैं । चिन्तन के इसी स्तर को कल्प-वृक्ष कहते हैं । प्रकारान्तर से यही कामधेनु है ।
कामधेनु गायत्री माता द्वारा प्रेरित प्रदत्त वह प्रवृत्ति है जो अन्तरात्मा में उच्चस्तरीय अध्यात्म-आस्था के रूप मे प्रकट होती है । यह साधक को वैसा ही आनन्द देती हैं जैसा बच्चे को अपनी माता का पयपान करते समय मिलता है । इसी को आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, परमानन्द कहते हैं ।
पूर्णता की परम तृप्ति पाना ही जीवन लक्ष्य है । गायत्री का उच्चस्तरीय अनुग्रह इसी रूप में उपलब्ध होता हैं । यही तृप्ति वरदान कामधेनु की उपलब्धि है । गायत्री साधक उस दैवी अनुकम्पा का रसास्वादन करते और साधना की सफलता का अनुभव करते हैं ।
गायत्री वर्ग में पाँच ‘ग’ परक श्रेष्ठताओं को समावेश है । गायत्री,गंगा, गौ, गीता, गोविन्द । गंगा और गायत्री का जन्म दिन एक ही है । गौ सेवा के सम्मिश्रण से वह त्रिवेणी बन जाती है । गायत्री उपासना सफलता में गौ सम्पर्क हर दृष्टि से सहायक होता है ।
गायत्री को कामधेनु कहा गया है । कामधेनु और पयस्विनी पयार्यवाची हैं । कामधेनु की चर्चा करते हुए शास्त्रकारों ने उसे कल्पवृक्ष के समान मनोकामनाओं की पूर्ति करने की विशेषता से युक्त बताया है । कामनाएँ तो इतनी असीम है कि उनकी पूतिर् कर सकना भगवान तक के लिए संभव नहीं हो सकता । पर कामनाओं को परिष्कृत करके वह आन्नद प्राप्त किया जा सकता है, जिनकी कामनाओं की पूर्ति होने पर मिलने की कल्पना की जाती है ।
देवता आप्तकाम होते हैं । आप्तकाम उसे कहते हैं, जिसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायें । पूर्ण एवं तृप्त वे उच्चस्तरीय कामनाएँ ही हो सकती हैं, जिन्हें सद्भावना कहते हैं । उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श पालन में किसी को कभी कुछ कठिनाई नहीं हो सकती । सद्भावनाओं को हर हालत में चरितार्थ किया जा सकता है । आप्तकाम को ही तुष्टि,तृप्ति एवं शान्ति का आनन्द मिलता है । कल्पवृक्ष स्वर्ग में है- देवता आप्तकाम होते हैं । कल्पवृक्ष कामनाओं की पूर्ति करता है ।
यह समस्त प्रतिपादन एक ही तथ्य को प्रकट करता है, कि देवत्व और आप्तकाम मनःस्थिति एक ही बात है । अतृप्ति की उद्विग्नता देवताओं के पास फटकने नहीं पाती । यह सब लिप्सा-लालसाओं की कामनाओं को सद्भावनाओं और शुभेच्छाओं में बदलने से ही संभव हो सकता है । कल्पवृक्ष और कामधेनु दोनों की विशेषता यही है कि वे कामनाओं की पूर्ति तत्काल कर देते हैं ।
गायत्री को कल्पवृक्ष भी कहते हैं, और कामधेनु भी, उसकी छाया में बैठने वाला, पयपान करने वाला आप्तकाम रहता है । कामनाओं के परिष्कृत और लालसाओं के समाप्त होने पर मनुष्य को असीम संतोष एवं अजस्त्र आनन्द की प्राप्ति होती है । कामधेनु की अनुकम्पा इसी रूप में होती है । कथा है कि गुरु वशिष्ठ के पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय थी । उसने राजा विश्वामित्र को उपहार भी दिया और कुकृत्य का दण्ड भी ।
नन्दिनी के इन्हीं चमत्कारों से प्रभावित होकर विश्वामित्र ने राज्य छोड़कर तप करने का निश्चय किया था । यह नन्दिनी अथवा कामधेनु गायत्री ही है ।
कामधेनु का पयपान करने वाले देवता अजर-अमर रहते हैं । अजर अर्थात् जरा रहित-बुढ़ापे से दूर-चिरयौवन का आनन्द लेने वाले । शरीर क्रम में तो यह संभव नहीं । सृष्टिक्रम में हर शरीर को जन्म-मरण के चक्र में घूमना पड़ता है और समयनुसार वृद्घावस्था भी आती है । कामधेनु का पयपान करने से जिस स्वास्थ्य और सौन्दर्य की चर्चा की गई , वह शरीरिक नहीं मानसिक और आत्मिक है ।
गायत्री उपासना कामधेनु का कृपापात्र मानसिक दृष्टि से सदा युवा ही बना रहता है । उसकी आशाएँ, उमंगें कभी धूमिल नहीं पड़ने पाती । आंखों में चमक,चेहरे पर तेज, होठों पर मुसकान कभी घटती नहीं है । यही चिर यौवन है । इसी को अजर स्थिति कहते हैं । कामधेनु का- गायत्री का यह देवोपम स्वत प्रत्यक्ष वरदान है । कामधेनु का पयपान करने वाले अमर हो जाते हैं । गायत्री उपासक भी अमर होते हैं ।
शरीर धारण करने पर तो हर किसी को समयानुसार मरना ही पड़ेगा, पर आत्मा की वस्तुस्थिति का ज्ञान हो जाने पर अमरता का ही अनुभव होता है । शरीर बदलते रहने पर भी मरण जैसी विभीषिका आत्मज्ञानी के सामने खड़ी नहीं होती । उसके सत्कर्म,एंव आदर्श ऐसे अनुकरणीय होते हैं कि उनके कारण यश अमर ही बना रहता है । गायत्री को पयस्विनी इसी कारण कहा गया है और उसे धरती की कामधेनु कह कर पुकारा गया है ।
पयस्विनी के स्वरूप, आसन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है–
पयस्विनी के एक मुख चार हाथों में-पय कलश, पयपान से दिव्य क्षमता पोषण के लिए, कमल से सुसंस्कारिता और कमण्डलु से विराग का, आशीर्वाद मुद्रा से भक्त वत्सलता का बोध होता है । आसन-कमल-निविर्कारिता का प्रतीक है ।

त्रिपुरा

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‘यात्’ वणर्स्य देवी तु त्रिपुरा देवताऽथ च ।
त्र्यम्बकः ‘त्रीं’ च बीजं तन्माकर्ण्डेयश्च स ऋषिः॥
त्रिधा यन्त्रं च विद्यन्ते त्रिशूलाऽथ त्रिधाऽपि च ।
विभूती तापमुक्तिः सा त्रिगुणाधिकृतिः फलम् ॥

अर्थात्-‘यात्’ अक्षर की देवी -‘त्रिपुरा’, देवता- ‘त्रयम्बक’, बीज- ‘त्रीं’, ऋषि- ‘माकर्ण्डेय’, यन्त्र-‘त्रिधायन्त्रम्’,विभूति-‘त्रिधा एवं त्रिशूला’ तथा प्रतिफल-त्रिगुणाधिकार एवं त्रितापमुक्ति हैं ।

दक्षिणमार्गी गायत्री साधना त्रिपदा कहलाती है और वाममार्गी को त्रिपुरा नाम से सम्बोधित किया जाता है । त्रिपदा का कायर्क्षेत्र-सत्यं-शिवम्-सुन्दरम्, स्वगर्-मुक्ति और शान्ति है । सत्-चित्-आनन्द-ज्ञान, कर्म, भक्ति है ।
त्रिपुरा में उत्पादन-अभिवधर्न-परिवतर्न, धन-बल-कौशल, साहस-उत्साह-पराक्रम की प्रतिभा, प्रखरता भरी पड़ी है । आत्मिक प्रयोजनों के लिए त्रिपदा का और भौतिक प्रयोजनों के लिए त्रिपुरा का आश्रय लिया जाता है । योग और तन्त्र के दो पथ इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए हैं ।

साधना ग्रन्थों में त्रिपुरा महाशक्ति को त्रिपुर सुन्दरी-त्रिपुर भैरवी नाम भी दिये गये हैं । इन रूपों में उसके कितने ही कथानक हैं । देवी भागवत एवं माकर्ण्डेय पुराण में इसका वणर्न, विवेचन अधिक विस्तार पूवर्क हुआ है । उनके प्रभाव और प्रयोगों का वणर्न अन्य ग्रन्थों में भी मिलता है ।
त्रिपुर भैरवी का लीला प्रयोजन असुर विदारिणी-विपत्ति निवारिणी के रूप में हुआ है । वह विकराल एवं युद्धरत है । त्रिपुर सुन्दरी को सिद्धिदात्री, सौभाग्य दायिनी, सवार्ङ्ग-सुन्दर बनाया है । भैरवी अभय दान देती है और सुन्दरी का अनुग्रह भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुखद सौन्दयर् से भरा बनाता है ।

महिषासुर, मधुकैटभ,शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज, वृत्रासुर आदि दैत्यों को निरस्त करने की गाथाओं में त्रिपुरा के प्रचण्ड पराक्रम का उल्लेख है । अज्ञान-अभाव, आलस्य, प्रमाद, पतन, पराभव जैसे संकट ही वे असुर हैं, जिन्हें त्रिपुरा के साहस, पराक्रम, उत्साह का त्रिशूल विदीर्ण करके रख देता है । तंत्र-सम्प्रदाय में इस त्रिविध संघ को दुर्गा-काली-कुण्डलिनी का नाम दिया गया है ।
इन्हीं को चण्डी, महाशक्ति, अम्बा आदि नामों से संबोधित किया गया है । कालरात्रि-महारात्रि-मोहरात्रि के रूप में होली, दिवाली एवं शिवरात्रि के अवसर पर विशिष्ट उपासना की जाती है । क्रियायोग, जपयोग,ध्यानयोग से त्रिपदा और प्राणयोग, हठयोग, तंत्रयोग से त्रिपुरा की साधना की जाती है । एक को योगाभ्यास की और दूसरी को तपश्चयार् की अधिष्ठात्री कहा जाता है ।

त्रिपदा और त्रिपुरा को परा और अपरा कहा गया है । दोनों की सम्मिश्रित साधना से प्राण और काया के समन्वय से चलने वाले जीवन जैसी स्थिति बनती है । ब्रह्मवर्चस् साधना में दोनों को परस्पर पूरक माना गया है और उनको संयोग, सुयोग का-ओजस्, तेजस्, का ऋद्धि-सिद्धि का, ज्ञान एवं वैभव का समन्वित आधार कहा गया है । यह गायत्री महाशक्ति की ही दिव्य धाराएँ हैं, जिन्हें साधना द्वारा व्यक्तित्व के क्षेत्र में आमंत्रित-अवतरित किया जा सकता है ।

त्रिपुरा के स्वरूप, आयुध एवं वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
त्रिपुरा के तीन मुख-तीन आयामी सृष्टि, त्रिगुण, त्रिकाल के प्रतीक हैं । चार हाथों में त्रिशूल से त्रिताप नाश का,फल से श्रेष्ठ परिणाम प्राप्ति का कमण्डलु से पात्रता का और आशीर्वाद मुद्रा से दिव्य अनुदान का बोध होता है । वाहन-हंस उज्ज्वलता का प्रतीक है ।

मानव आकृति की उपस्थिति न होने के बावजूद वीणा में एक 'मानवीय उपस्थिति' को महसूस किया जा सकता है


ऋषि मुनि वेदों से कई आविष्कार और सिद्धांत प्रतिपादित करते थे ,, मह्रिषी भारद्वाज ने अपने विमान शास्त्र का श्रेय वेद को ही दिया है ....इसके बोधानंद भाष्यकार ने कहा है कि वेद रूपी समुन्द्र का मंथन कर विमान शास्त्र रचा ..इसी तरह वेदों से संगीत की उत्पति हुई गायन ओर वाद यंत्रो की .. इसमें हम वीणा के बारे में बात करेंगे ..
सरस्वती नामक देवी के हाथ में भी वीणा लिए हुए चित्र होता है इससे भी वीणा का महत्व काफी समय से हमारे भारत में है .. वीणा का आविष्कार ऋषियों ने वेदों से शरीर विज्ञान ओर ध्वनी विज्ञान को समझ किया ...
ध्वनी को आगे गति के लिए वायु आदि माध्यम की आवश्यकता होती है .. और वायु में विक्षोभ से तरह तरह की सुरीली ध्वनी निकाली जा सकती है इसी को समझते हुए ऋषियों ने तार लकड़ी आदि से एक वाद्य यंत्र वीणा का निर्माण किया .. असल में शरीर के आधार पर ही वीणा बनी है ..
वीणा की शरीर से तुलना करते हुए प्रसिद्ध संगीत विशेषज्ञ ऋषि नारद अपनी नारद शिक्षा (साम गान ,मन्त्र उच्चारण आदि संगीत शिक्षा का ग्रन्थ ) में कहते है -
दारावी गात्रवीणा च द्वे वीणा गानजातिषु | सामिकी गात्रवीणा तु तस्य श्र्रणुत लक्षणम ||१/६/१नारदीय शिक्षा ||
विभिन्न प्रकार के गानों में प्रयुक्त शरीररूप वीणा और दारुकृत वीणा दो प्रकार की होती है .. साम गान में शरीर रूपी वीणा का प्रयोग करना चाहिए ..अर्थात साम वेद के गायन वाद यंत्र के स्थान पर स्वयम के मुख से करना (शरीर रूपी वीणा ) से करना चाहिए।
यहाँ दोनों वीणा की तुलना की है और आगे शरीर रूप वीणा का कार्य कहा है। ऐतरय आरण्य में स्पष्ट वर्णन है शरीर से वीणा बनाने का जो निम्न पंक्तियों से स्पष्ट होता है -
(१) शरीर रूपी वीणा से काष्ठ निर्मित वीणा बनी -
अथ खलिव्य्म देवी वीणा भवति तदनुकृतिरसो मानुषी वीणा भवति ,इति ||३/२/५/३ ऐतरय आरंडय ||
यह शरीर रूपी देवी वीणा है ,इसी का अनुक्रमण करते हुए मनुष्य द्वारा निर्मित वीणा है ।
(२ )आगे दोनों में समानता बताई है जिससे ज्ञात होता है कि शरीर विज्ञान से कैसे वीणा निर्मित की -
यथास्या: शिर एवम्मुष्य: शिरो यथाsस्या उदरमेवममनुष्या अम्भण यथाsस्ये जिहेवममनुष्ये वादनम यथाsस्यास्तन्त्रय एवमनुष्या अन्गुलयो यथाsस्या स्वरा एवममनुष्या: स्वरा यथाsस्या: स्पर्शा: एवममुष्या: स्पर्शा यथा हवेवेय शब्दवती तदर्मवत्येवमसो लोमेशेंन चर्मणाs पिहिता ,इति ||३/२/५/४ ऐतरय आरण्य ||
-जिस प्रकार शरीर में सर होता है उसी प्रकार कृत्रिम वीणा में सर बनाया गया। जिस प्रकार शरीर में उदर होता है उसी प्रकार कृत्रिम वीणा में छिद्ररूप उदर निर्मित किया। जिस तरह शरीर में जिह्वा होती है उसी तरह कृत्रिम वीणा में वादन (स्वर उत्त्पति का हेतु ) होता है।
जिस तरह शरीर में उंगलिया उसी तरह कृत्रिम वीणा में दीर्घ तंत्रिया होती है। जिस तरह शरीर रूप वीणा में स्वर होता है उसी तरह कृत्रिम में षड्ज आदि स्वर विकसित किये है। जिस तरह शरीर रूपी वीणा में वायु के स्पर्श से स्वर निकलते है उसी तरह काष्ठ निर्मित वीणा में अंगुलियों के स्पर्श से निकलते है।
जिस तरह शरीर रूप वीणा धमनी आदि से घिरी हुई होती है उसी तरह कृत्रिम वीणा को तारो से घेरा गया है | जिस तरह शरीर चमड़े ओर बालो से घिरा रहता है उसी तरह कृत्रिम वीणा चमड़े या बालो से युक्त थैले कवर आदि में ढका या रखा जाता है ..
इन वर्णनों से स्पष्ट है कि शरीर विज्ञान और ध्वनी विज्ञान का अध्ययन कर ऋषियों ने वीणा निर्मित की ...
यहाँ केवल वीणा का आविष्कार बताना उद्देश्य नही बल्कि ऋषियों की अनुसन्धात्मक ,वैज्ञानिक सोच बताना ओर उनका उच्च बुद्धि स्तर का दर्शन कराना ही उद्देश्य है |

प्राचीन काल मे आयुर्वेद को जानने वाले Genes व क्रोमोसोम को जानते थे।


चित्र मे भरद्वाज ने प्रश्न किया है कि लँगड़े,अंधे व अन्य विकृति वालों की सन्तान विकृत क्यों नहीं होती।
यहाँ पर महर्षि पुनर्वसु आत्रेय उत्तर देते हैं कि बीजभाग अवयव का जो अंश उतप्त (आंशिक विकृत) होता है वही अंग सन्तान में विकृत होता है।
बीज = स्पर्म, Ovum,
बीजभाग - न्यूक्लियस
बीजभाग अवयव - क्रोमोसोम
जिस अंग का बीज भाग अवयव उतप्त होता है उसी अंग में विकृति उत्पन्न होती है।
यदि गर्भाश्य बनाने वाला बीजभाग अवयव विकृत होता है तो बंध्या सन्तान उत्पन्न होती है (शायद XO या XXX)
यदि बीजभाग अवयव का गर्भाश्य के स्थान पर कोई अन्य भाग विकृत होता है तो पूति प्रजा उत्पन्न होती है। यद्यपि पूति का अर्थ सड़ा हुआ होता है परंतु मेरे अनुमान से यहाँ जेनेटिकल क्रोमोसोम से संबन्धित विकृत सन्तान (जैसे हीमोफीलिया, कलर ब्लाईंडनेस) आदि
आगे की पंक्ति तो और अधिक महत्वपूर्ण है__
बीजभाग अवयव के एक देश (क्रोमोसोम का एक अंश) कारण शरीर का स्त्रीकरण होता है यदि उसमे दोष आ जाता है तब स्त्री आकृति वाली सन्तान उत्पन्न होती है जो केवल कहने मे स्त्री होती है।
ये ऊपर वाला सारा अंश OVUM मे जेनेटिक क्रोमोसोम की विकृति से संबन्धित है।
आगे स्पर्म की विकृति मे भी यही कहा है।
1 बंध्या उत्पति
2 पूति प्रजा उत्पत्ति
ये दोनों स्त्री सन्तान के दोष है।
पुरुष सन्तान के दोष__
3 विकृत केवल पुरुषाकृति होता है (शायद XXY)