Tuesday, 26 July 2016

त्रिपुरा

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‘यात्’ वणर्स्य देवी तु त्रिपुरा देवताऽथ च ।
त्र्यम्बकः ‘त्रीं’ च बीजं तन्माकर्ण्डेयश्च स ऋषिः॥
त्रिधा यन्त्रं च विद्यन्ते त्रिशूलाऽथ त्रिधाऽपि च ।
विभूती तापमुक्तिः सा त्रिगुणाधिकृतिः फलम् ॥

अर्थात्-‘यात्’ अक्षर की देवी -‘त्रिपुरा’, देवता- ‘त्रयम्बक’, बीज- ‘त्रीं’, ऋषि- ‘माकर्ण्डेय’, यन्त्र-‘त्रिधायन्त्रम्’,विभूति-‘त्रिधा एवं त्रिशूला’ तथा प्रतिफल-त्रिगुणाधिकार एवं त्रितापमुक्ति हैं ।

दक्षिणमार्गी गायत्री साधना त्रिपदा कहलाती है और वाममार्गी को त्रिपुरा नाम से सम्बोधित किया जाता है । त्रिपदा का कायर्क्षेत्र-सत्यं-शिवम्-सुन्दरम्, स्वगर्-मुक्ति और शान्ति है । सत्-चित्-आनन्द-ज्ञान, कर्म, भक्ति है ।
त्रिपुरा में उत्पादन-अभिवधर्न-परिवतर्न, धन-बल-कौशल, साहस-उत्साह-पराक्रम की प्रतिभा, प्रखरता भरी पड़ी है । आत्मिक प्रयोजनों के लिए त्रिपदा का और भौतिक प्रयोजनों के लिए त्रिपुरा का आश्रय लिया जाता है । योग और तन्त्र के दो पथ इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए हैं ।

साधना ग्रन्थों में त्रिपुरा महाशक्ति को त्रिपुर सुन्दरी-त्रिपुर भैरवी नाम भी दिये गये हैं । इन रूपों में उसके कितने ही कथानक हैं । देवी भागवत एवं माकर्ण्डेय पुराण में इसका वणर्न, विवेचन अधिक विस्तार पूवर्क हुआ है । उनके प्रभाव और प्रयोगों का वणर्न अन्य ग्रन्थों में भी मिलता है ।
त्रिपुर भैरवी का लीला प्रयोजन असुर विदारिणी-विपत्ति निवारिणी के रूप में हुआ है । वह विकराल एवं युद्धरत है । त्रिपुर सुन्दरी को सिद्धिदात्री, सौभाग्य दायिनी, सवार्ङ्ग-सुन्दर बनाया है । भैरवी अभय दान देती है और सुन्दरी का अनुग्रह भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुखद सौन्दयर् से भरा बनाता है ।

महिषासुर, मधुकैटभ,शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज, वृत्रासुर आदि दैत्यों को निरस्त करने की गाथाओं में त्रिपुरा के प्रचण्ड पराक्रम का उल्लेख है । अज्ञान-अभाव, आलस्य, प्रमाद, पतन, पराभव जैसे संकट ही वे असुर हैं, जिन्हें त्रिपुरा के साहस, पराक्रम, उत्साह का त्रिशूल विदीर्ण करके रख देता है । तंत्र-सम्प्रदाय में इस त्रिविध संघ को दुर्गा-काली-कुण्डलिनी का नाम दिया गया है ।
इन्हीं को चण्डी, महाशक्ति, अम्बा आदि नामों से संबोधित किया गया है । कालरात्रि-महारात्रि-मोहरात्रि के रूप में होली, दिवाली एवं शिवरात्रि के अवसर पर विशिष्ट उपासना की जाती है । क्रियायोग, जपयोग,ध्यानयोग से त्रिपदा और प्राणयोग, हठयोग, तंत्रयोग से त्रिपुरा की साधना की जाती है । एक को योगाभ्यास की और दूसरी को तपश्चयार् की अधिष्ठात्री कहा जाता है ।

त्रिपदा और त्रिपुरा को परा और अपरा कहा गया है । दोनों की सम्मिश्रित साधना से प्राण और काया के समन्वय से चलने वाले जीवन जैसी स्थिति बनती है । ब्रह्मवर्चस् साधना में दोनों को परस्पर पूरक माना गया है और उनको संयोग, सुयोग का-ओजस्, तेजस्, का ऋद्धि-सिद्धि का, ज्ञान एवं वैभव का समन्वित आधार कहा गया है । यह गायत्री महाशक्ति की ही दिव्य धाराएँ हैं, जिन्हें साधना द्वारा व्यक्तित्व के क्षेत्र में आमंत्रित-अवतरित किया जा सकता है ।

त्रिपुरा के स्वरूप, आयुध एवं वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
त्रिपुरा के तीन मुख-तीन आयामी सृष्टि, त्रिगुण, त्रिकाल के प्रतीक हैं । चार हाथों में त्रिशूल से त्रिताप नाश का,फल से श्रेष्ठ परिणाम प्राप्ति का कमण्डलु से पात्रता का और आशीर्वाद मुद्रा से दिव्य अनुदान का बोध होता है । वाहन-हंस उज्ज्वलता का प्रतीक है ।

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