मौन रहने व कम बोलने से ना केवल हमारी वाणी का संयम होता है, अपितु इससे हमारी जीवनी शक्ति का भी संचय होता है। मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों व उनसे उत्पन्न होने वाली बड़ी परेशानियों से बचा लेता है। इसके विपरीत जो आदतन चुप नहीं रह सकते, अपनी समझदारी का बखान करने के लिए एक के बदले दस जवाब देते हैं, उनकी बड़ी परेशानियों में फंसने की संभावनाएं अधिक रहती है। मौन रहने से भी अभिव्यक्तियां प्रकट होती है, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती और यह भी अपना प्रभाव दिखाता है।
केवल न बोलना ही मौन नहीं है। अक्सर लोग वाणी के विराम को मौन समझ लेते है। लेकिन यदि किसी के मन में विचारों की उथल- पुथल हो रहीं हो या उसके भीतर मन में किली अन्य व्यक्ति के लिए द्वेष का ज्वार उठ रहा हो तो इसे मौन नहीं कह सकते। वाणी पर संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंत: मौन। जबकि वास्तविक व पूर्ण मौन वह है, जिसमें मन और वाणी दोनों ही पूरी तरह शांत हो।
मौन हमारी इंद्रियों को संयमित रखता है। इसके द्वारा वाणी के माध्यम से व्यय होने वाली ऊर्जा का संरक्षण होता है। इसलिए कहा जाता है कि जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है, वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है।
ऐसा नहीं है कि हर समय मौन रहने की आवश्यकता है। जहां जरूरी है, वहां अवश्य बोलना चाहिए, सारगर्भित शब्दों में स्वंय को अभिव्यक्त करना चाहिए और व्यर्थ के वाद-विवादों से यथा-संभव बचना चाहिए।
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