Wednesday, 21 September 2016

जनसेवा ही सच्चे अर्थों में ईश सेवा


एक व्यापारी का व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था। उसके पास धन की कई तिजोरियां भरी थीं। व्यापारी ने एक दिन बहुत ही मूल्यवान वस्तु खरीदी और उसे ईसा मसीह को अर्पित करने आया। अत्याधिक मुदित मन से वे ईसा के पास पहुंचा और अपनी भेंट उनके चरणों में रखकर बोला- प्रभु, मेरी इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करें। ईसा ने व्यापारी की ओर देखा, फिर उस कीमती वस्तु पर दुष्टि डाली और नीचे देखने लगे। उन्होंने उस वस्तु को हाथ भी नहीं लगाया। उनकी ऐसी भावभंगिमा देखकर व्यापारी का सारा उल्लास समाप्त हो गया और उसे बड़ी ठेस पहुंची। उसने विनम्रता से पुन: निवेदन किया- प्रभु, ये वस्तु अत्यंत कीमती है। मैने बड़ी कठिनाई से इसे जुटाया है। यदि आप इसे ग्रहण करेंगे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा। कृपाकर इसे लेकर मुझे उपकृत करें। ईसा ने दृष्टि उठाकर कहा- मैं इस भेंट को नहीं ले सकता। तुमने इसे चोरी के पैसे से खरीदा है।
व्यापारी को काटो तो खून नहीं। विस्मित होकर वे बोला- प्रभु, ये आप क्या कह रहे हैं? मैंने तो इसे अपनी कमाई के पैसे से खरीदा है। ईसा ने कहा- तुम्हारा पड़ोसी भूखा और वस्त्रहीन हो और तुम्हारी तिजोरी भरी हो, तो ये पैसा चोरी का नहीं, तो और किसका हो सकता है? तुम अपनी इस भेंट को ले जाकर बेच दो और जो पैसा मिले, उसे भूखों को भोजन कराने और वस्त्रहीन को वस्त्र देने में खर्च करो। व्यापारी ने आग्रह के स्वर में कहा- प्रभु, मेरे पास अभी बहुत धन है। मैं आपके आदेश का पालन करूंगा। किंतु इस भेंट को तो आप ले ही लीजिए। मगर ईसा ने वे भेंट नहीं ली। उन्होंने कहा- तो जरूरतमंदो की सहायता करता है, मुझे सबसे कीमती भेंट देता है। यदि तुम ऐसा करोगे तो मुझे स्वत: ही तुम्हारी ओर से मूल्यवान भेंट प्राप्त हो जाएगी। इंसानों की सेवा ही मेरी सेवा है।
शिक्षा- मानवता वही सार्थक होती है जहां भावना और आचरण की दिशा ‘निज’ से ऊपर उठकर ‘पर’ पर केंद्रित हो जाती है।

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