Wednesday, 24 February 2016

श्रीकृष्ण और भागवत धर्म


मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । भव बंधन से विमुक्त हो जाना, जीवात्मा का परमात्मा की सत्ता में विलीन हो जाना, आत्मतत्त्व का परमात्मतत्त्व के साथ अभेद हो जाना तथा हृदय के अंतस्तल में ‘वासुदेव: सर्वमिति, सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ इत्यादि त्रिकालावाधित सिद्धांतवादियों की दिव्य ज्योति का समुद्भासित हो उठना ही मोक्ष है, यही परम पुरुषार्थ है । इस अवस्था को ही ब्राह्मीस्थिति या सिद्धावस्था कहते हैं और इसकी प्राप्ति ही इस संसार में मनुष्य का परम साध्य या अंतिम ध्येय है । इस ब्राह्मी स्थिति की प्राप्ति के लिए कर्म, ज्ञान और भक्ति ये तीन मार्ग विवक्षित हैं और इन तीन मार्गों का आश्रय लेकर ही हमारे देश के मुमक्षुओं ने मोक्षसाधन किया है, ब्रह्मानंदसागर का निरवच्छिन्न रसपान किया है । यद्यपि मोक्षसाधन के लिए उपर्युक्त तीनों ही मार्ग श्रेयस्कर हैं फिर भी सर्वसाधारण जन के कल्याण के लिए व्यक्त सगुण ब्रह्म के स्वरूप का प्रेमपूर्वक अहर्निश चिंतन करना, अपनी वृत्ति को तदाकार बना लेना सबसे बढ़कर सहज उपाय माना गया है । यह साधन भी अन्य साधनों के समान ही अनादिकाल से हमारे देश में प्रचलित है और इसे ही उपासना या भक्ति मार्ग से शास्त्रों में अभिहित किया गया है । देहधारी मनुष्यों की स्वाभाविक मनोवृत्ति ही कुछ ऐसी होती है कि वह किसी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होने के लिए उसके नाम, रूप, रंग आदि इंद्रियगोचर आधार को ढूंढ़ती है । इस प्रकार का कोई आधार मन के सामने रखकर उस पर चित्त स्थिर करना, ध्यान को एकाग्र करना जितना सहज एवं सुलभ है उतना किसी अव्यक्त, निर्गुण, निराधार वस्तु पर चित्त को स्थिर करके अपनी मनोवृत्ति को तदाकार एवं तद्रूप करना सहज एवं सुसाध्य नहीं हो सकता । व्यक्त उपासना के इसी मार्ग का प्रतिपादन नारद, शाण्डिल्य आदि ऋषियों ने अपने ग्रंथों में किया है और भागवत धर्म के नाम से इसका विशद विवेचन श्रीमद्भागवत - जैसे बृहत् ग्रंथ में किया गया है । ज्ञानीशिरोमणि, अद्वैतवाद के आचार्य श्रीशंकराचार्य ने भी मोक्षप्राप्ति के समस्त साधनों में भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ साधन माना है - ‘मोश्रकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’ ।
भक्ति और कर्मयोग का यह सम्मिश्रण बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित था और भगवतधर्म के अंतर्गत समझा जाता था । यहीं भागवत धर्म भगवान श्रीकृष्णा के समय में इस देश से लुप्तप्राय हो रहा था इसी से भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से उसकी महिमा का बखान करके उसे पुन: स्थापित करने का महान उद्योग किया । इस परंपरागत भागवत धर्म को ही भगवान ने सब विद्याओं और गोपनीय विषयों में श्रेष्ठ, उत्तम, पवित्र, प्रत्यक्ष दिख पड़नेवाला, धर्मानुकूल और सहज से आचरण करने योग्य कहा है ।
इसी परम विद्यारूपी रहस्य को, भक्ति मार्गरूपी सहज साधन को सर्व जन सुलभ करने के लिए भगवान ने गीतोक्त भक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया है और इस भक्ति रस का जैसा सुंदर परिपाक गीता ग्रंथ में नहीं । गीता की लोकप्रियता का यही सबसे बड़ा कारण है । यदि अन्य बहुत से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथों के समान वह सर्व - जन - प्रिय कदापि नहीं हो सकती थी । इसी से भगवान ने अपने सगुण व्यक्त स्वरूप को लक्ष्य करके स्थान स्थानपर प्रथम पुरुष का प्रयोग किया है ।
इस कथन का यह आशय कदापि नहीं कि गीता में ज्ञान की महिमा कुछ घटाकर कही गयी है । यदि ऐसा होता तो ठौर - ठौर पर जो ज्ञानी की प्रशंसा की गयी है, वह नहीं मिलती । असल बात तो यह है कि इस प्रकार के ज्ञानी महात्मा अत्यंत दुर्लभ हैं जैसा कि भगवान ने कहा है -
हजारों मनुष्यों में कोई एक आध ही इस ज्ञानमार्ग द्वारा सिद्धिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है और इस प्रयत्न करनेवालों में भी एक आध ही मुझको वास्तविकरूप में जान पाते हैं । सृष्टि यावतीय पदार्थ वासुदेवमय हैं, उनसे भिन्न कुछ नहीं है, इस प्रकार का तत्त्वज्ञान अनेक जन्मों के बाद होता है । इसलिए ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है । बस एक ही शर्त है । भगवान में अनन्यभक्ति होनी चाहिए । यदि इस एक शर्त का पालन हो गया तो फिर कोई कैसा ही दुराचारी क्यों न रहा हो, साधु ही माना जाता है । क्यों ? इसलिए कि उसकी अनन्यभक्ति के परमोज्ज्वल प्रकाश के प्रभाव से उसका दुराचरणरूपी अंधकार क्षण में ही दूर हो जाता है, उसे अपने अंतस्थ में दिव्य ज्योति की अनुभूति होने लगती है, उसके मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं और वह बड़े से बड़े धर्मात्मा बनकर परम शांति का अधिकारी हो जाता है ।

Tuesday, 23 February 2016

माता, पिता एवं गुरु की महिमा


श्रीसूत जी बोले - द्विजश्रेष्ठ ! चारों वर्णों के लिए पिता ही सबसे बड़ा अपना सहायक है । पिता के समान अन्य कोई अपना बंधु नहीं है, ऐसा वेदों का कथन है । माता - पिता और गुरु - ये तीनों पथप्रदर्शक हैं, पर इनमें माता ही सर्वोपरि है । भाइयों में जो क्रमश: बड़े हैं, वे क्रम - क्रम से ही विशेष आदर के पात्र हैं । इन्हें द्वादशी, अमावस्या तथा संक्रांति के दिन यथारुचि मणियुक्त वस्त्र दक्षिणा के रूप में देना चाहिए, दक्षिणायन और उत्तरायण में, विषुव संक्रांति में तथा चंद्र सूर्य ग्रहण के समय यथाशक्ति इन्हें भोजन कराना चाहिए, अनंतर इनकी चरण वंदना करनी चाहिए, क्योंकि विधिपूर्वक वंदन करने से ही सभी तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है । स्वर्ग और अपवर्ग - रूपी फल को प्रदान करने वाले एक आद्य ब्रह्मस्वरूप पिता को मैं नमस्कार करता हूं । जिनकी प्रसन्नता से संसार सुंदर रूप में दिखायी देता है, उन पिता का मैं तिलयुक्त जल से तर्पण करता हूं । पिता ही जन्म देता है, पिता ही पालन करता है, पितृगण ब्रह्मस्वरूप हैं, उन्हें नित्य पुन: पुन: नमस्कार है । हे पित: ! आपके अनुग्रह से लोकधर्म प्रवर्तित होता है, आप साक्षात् ब्रह्मरूप हैं, आपको नमस्कार है ।
जो अपने उदररूपी विवर में रखकर स्वयं उसकी सभी प्रकार से रक्षा करती है, उस परा प्रकृतिस्वरूपा जननी देवी को नमस्कार है । मात: ! आपने बड़े कष्ट से मुझे अपने उदर प्रदेश में धारण किया, आपके अनुग्रह से मुझे अपने उदर प्रदेस में धारण किया, आपको अनुग्रह से मुझे यह संसार देखने को मिला, आपको बार बार नमस्कार है । पृथ्वी पर जितने तीर्थ और सागर आदि हैं उन सबकी स्वरूपभूता आपको अपनी कल्याण प्राप्ति के लिए मैं नमस्कार करता हूं । जिन गुरुदेव के प्रसाद से मैंने यशस्करी विद्या प्राप्त की है, उन भवसागर के सेतुस्वरूप शिवरूप गुरुदेव को मेरा नमस्कार है । वेद और वेदांग शास्त्रों के तत्त्व आप में प्रतिष्ठित हैं । आप सभी प्राणियों के आधार हैं, आपको मेरा नमस्कार है । ब्राह्मण संपूर्ण संसार के चलते फिरते परम पावन तीर्थस्वरूप हैं । अत: हे विष्णुरूपी भूदेव ! आप मेरा पाप नष्ट करें, आपको मेरा नमस्कार है ।
द्विजो ! जैसे पिता श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पिता के बड़े - छोटे भाई और अपने बड़े भाई भी पिता के समान ही मान्य एवं पूज्य हैं । आचार्य ब्रह्मा की पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की और भाई अपनी ही मूर्ति हैं । पिता मेरुस्वरूप एवं वसिष्ठस्वरूप सनातन धर्ममूर्ति हैं । ये ही प्रत्यक्ष देवता हैं, अत: इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए । इसी प्रकार पितामह एवं पितामही (दादा - दादी) के भी पूजन वंदन, रक्षण, पालन और सेवन की अत्यंत महिमा है । इनकी सेवा के पुण्यों की तुलना में कोई नहीं है, क्योंकि ये माता पिता के भी परम पूज्य हैं 

श्रीश्रीराधातत्त्व


श्रीराधा के संबंध में आलोचना करते समय सबसे पहले वैष्णवों के राधातत्त्व के अनुसार ही आलोचना करनी पड़ती है । वायुपुराण आदि में राधा की जैसी आलोचना है, इस लेख में हम उसका अनुसरण न कर वैष्णवोचित भाव से ही कुछ चर्चा करते हैं । राधातत्त्व के इतिहास के संबंध में किसी दूसरे निबंध में आलोचना की जा सकती है ।
प्राचीन वैष्णवों के श्रीकृष्ण ही एकमात्र आराध्य थे, वे श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानते थे । वे जानते थे कि श्रीकृष्ण ही परम पुरुष और आनंदघन हैं । आनंद ही उनका स्वरूप है । वे ही मूर्तिमान आनंद हैं । श्रीकृष्म का विश्लेषण कर वे उनमें भीतर बाहर सर्वत्र एक आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाते थे । परंतु बाद के वैष्णवों ने एक अपूर्ण आविष्कार किया । अद्वैत सत् - चित् आनंदस्वरूप वस्तु ही परमतत्त्व है । प्राचीन वैष्णवों की भांति परवर्ती संप्रदाय भी यह बात तो मानी । उन्होंने केवल इतना ही विशेष समझा कि ज्ञानी लोग इस परमतत्त्व है - प्राचीन वैष्णवों की भांति परवर्ती संप्रदाय ने भी यह बात तो मानी । उन्होंने केवल इतना ही विशेष समझा कि ज्ञानी लोग इस परमतत्त्व को सत्ताप्रधान ब्रह्म बतलाते हैं, योगीगण चैतन्यप्रधान परमात्मा मानकर उनका ध्यान करते हैं और प्रेमिकगण आनंदप्रधान विग्रहवान भगवान जानकर उनकी सेवा करते हैं । सभी अपनी अपनी प्रवृत्ति और अधिकार के अनुसार जो कुछ करते हैं, वहीं उनके लिए उपयोगी है, किंतु ‘आनंदघन भगवान’ की उपासना तो जीवमात्र के लिए ही सहज - स्वाभाविक है । जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवमात्र प्रतिक्षण कृष्णानुसंधान ही करते हैं । मूर्तिमान आनंद ही कृष्ण हैं । जीव आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहता - आनंद के बिना वह बच नहीं सकता । परंतु आनंद कैसे मिल सकता है, इस बात को जीव नहीं जानता, इसलिए वह स्त्री - पुत्र, धन संपत्ति आदि पार्थिव पदार्थों में आनंद को ढूंढ़ता है । यदि कोई मूर्तिमान आनंदस्वरूप श्रीकृष्ण को जान ले तो फिर वह स्त्री - पुत्रादि को नहीं चाहेगा ।
जीव के अंदर ऐसी बलवती आनंद लिप्सा क्यों है, इसी बात को समझने के लिए गौड़ीय वैष्णवों ने जीव के स्वरूप की आलोचना करते हुए राधा स्वरूप का आविष्कार किया है । वे कहते हैं जैसे एक ही सत्, चित्, आनंदस्वरूप परमतत्त्व सत्ताप्रधान होने से भगवान कहलाता है, वैसे ही सत्, चित् और आनंदस्वरूप वस्तु प्रेम प्रदान होने से शुद्ध जीव कहलाती है । सत्तास्वरूप वस्तु निर्विशेषभाव से रह सकती है और है भी, और चैतन्यस्वरूप वस्तु आप ही परिस्फुट है, इस दशा में आनंद का होना न होना समान ही हो जाता है ।
इसलिए वे श्रुति के वचनों को उद्धृत कर कहते हैं कि - ‘परब्रह्म ने अपने असत् समझा और बहुत होने की अभिलाषा की ।’ समझना, अभिलाषी होना कहनेमात्र को है, क्योंकि लीला ही आनंद का स्वभाव है और आनंद ही लीला का आस्वाद्य है । मनुष्य आनंदप्रणेदित होकर ही क्रीड़ा करके आनंद का ही आस्वादन करता है । किसी प्रकार का अभाव प्रतीत होने पर उसकी पूर्ति के लिए स्वत: ही इच्छा होती है, पूर्णानंदस्वरूप भगवान में किसी प्रकार का अभाव नहीं है इसलिए उनमें इच्छा भी नहीं है । वे अपने आप ही प्रतिनियत निजानंद का आस्वादन करते हैं, यहीं उनकी अप्राकृत नित्य लीला है और इस प्रकार के अप्राकृत प्रेमप्रधान भगवदंश ही शुद्ध जीव हैं अथवा भगवान की नित्य लीला के परिकर हैं ।
जहां आनंद है, वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है, वहीं आनंद है बिना प्रेम नहीं होता और प्रेम बिना आनंद नहीं रहता, आनंद के घनीभूत विग्रह श्रीकृष्ण हैं । और प्रेम की घनीभूत मूर्ति श्रीराधा हैं । अतएव जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहां श्रीराधा हैं वहीं श्रीकृष्म हैं, कृष्म बिना राधा अथवा राधा बिना कृष्ण रह ही नहीं सकते ।
श्रीराधा और सखियों की सेवा से भगवान को जितनी प्रसन्नता होती है, भगवान की सेवा करके उनके उससे कहीं अधिक आनंद होता है । निजानंद में ही नित्यप्रीत परमेश्वर को सेवा से कैसे प्रसन्नता होती है, इस बात को समझने के अधिकारी प्रेमी, रसिक और भावुकों के सिवा और कोई नहीं है । यहीं वैष्णव सिद्धांत हैं ।

विपुलस्वान मुनि और उनके पुत्रों की कथा


द्वापर युग की बात है मंदनपाल नाम का एक पक्षी था । उसके चार पुत्र थे, जो बड़े बुद्धिमान थे । उनमें द्रोण सबसे छोटा था । वह बड़ा धर्मात्मा और वेद - वेदांग में पारंगत था । उसने कंधर की अनुमति से उसकी पुत्री तार्क्षी से विवाह किया । कुछ समय बाद तार्क्षी गर्भवती हुई और साढ़े तीन मास के पश्चात वह कुरुक्षेत्र चली गयी । वहां वह भविष्यतावश कौरवों और पाण्डवों के भंयकर युद्ध के बीच घुस गयी । तब अर्जुन के बाण से उसकी खाल उधड़ गयी, जिससे उसका पेट फट गया और उसके चार अंडे अपनी आयु शेष रहने के कारण पृथ्वीपर ऐसे गिरे मानो रुई की ढेर पर गिरे हों । उनके गिरते ही राजा भगदत्त के सुप्रतीक नामक गजराज का विशाल घंटा, जिसकी जंजीर अर्जुन के ही बाण से कटी थी, नीचे गिर पड़ा । उसने भूतल को विदीर्ण कर दिया और मांस की ढेर पर पड़े तार्क्षी के उन अंडों को चारों ओर से ढक दिया ।
युद्ध की समाप्ति के बाद शमीक ऋषि उस स्थान पर आ तब उन्होंने शिष्यों के साथ उस घंटे को ऊपर उठाया और उन अनाथ एवं अजातपक्ष पक्षि शावकों को देखा । फिर तो उन्होंने शिष्यों से कहा - ‘इन पक्षि - शावकों को आश्रम में ले चलो और इन्हें ऐसे स्थान पर रखो, जहां बिलाव आदि का भय न हो ।’
मुनि कुमार पक्षि शावकों को लेकर आश्रम में आये । वहां मुनिवर शमीक ने प्रतिदिन भोजन, जल और संरक्षण के द्वारा उनका पालन पोषण किया । एक मास में ही वे सूर्यदेव के रथमार्ग पर उड़ने लगे, जिन्हें कौतुकवश आंखें फाड़कर मुनिकुमार देखा करते थे ।
जब उन पक्षि शावकों ने नगरों से भरी, समुद्र से घिरी, नदियों वाली और रथ के पहिये के समान गोल पृथ्वी का परिभ्रमण कर लिया, तब वे आश्रम में लौट आये । उस समय ऋषि शमीक शिष्यों पर अनुकंपा करके प्रवचन द्वारा धर्म कर्म का निर्णय कर रहे थे । उन पक्षि शावकों ने उनकी प्रदक्षिणा करके उनके चरणों की वंदना की और कहा - ‘मुनिवर ! आपने हमें भयंकर मृत्यु से मुक्त किया है, अत: आप हमारे पिता हैं और गुरु भी । जब हमलोग मां के पेट में थे, तभी हमारी मां मर गयी और पिता ने बी हमारा पालन पोषण नहीं किया । आपने हमें जीवनदान दिया है, जिससे हम बालक बचे हुए हैं । इस पृथ्वी पर आपका तेज अप्रतिहत है । आपने ही हाथी का घंटा उठाकर कीड़ों की भांति सूखते हुए हगमलोगों के कष्टों का निवारण किया है ।’
उन पक्षि शावकों की ऐसी स्पष्ट शुद्ध वाणी सुनकर शमीक मुनि ने उनसे पूछा - ‘ठीरक - ठीक बताओ, तुम्हें यह मानव वाणी कैसे मिली ? साथ ही यब भी बताओ कि किसके शाप से तुममें रूप और वाणी का ऐसा परिवर्तन हो गया ?’
पक्षियों ने कहा - विपुलस्वान नाम के एक प्रसिद्ध महामुनि थे । उनके दो पुत्र हुए - सुकृष और तुम्बुरु । हम चारों यतिराज सुकृष के ही पुत्र हैं और सदा विनम्रतापूर्वक व्यवहार और भक्तिभाव से उन्हीं की सेवा शुश्रूषा में लगे रहे हैं । तपश्चरण में लीन अपने पिता सुकृष मुनि की इच्छा के अनुसार हमने समिधा, पुष्प और भोज्य पदार्थ सब कुछ उन्हें समर्पित किया है । इस प्रकार जब हम वहां रहते रहे, तब एक बार हमारे आश्रम में विशाल देहधारी टूटे पंखवाले वृद्धावस्थाग्रस्त ताम्रवर्ण के नेभों से युक्त, शिथिल शरीर पक्षी के रूप में देवराज इंद्र पधारे । वे सुकृष ऋषि की परीक्षा लेने आये थे । उनका आगमन ही हमलोगों पर शाप का कारण बन गया । पक्षी रूपी इंद्र ने कहा - ‘बज्य विप्रवर ! मैं बुभुक्षित हूं । आप मेरी प्राणरक्षा करें । मैं भोजन की याचना करता हूं । आप ही हमारे एकमात्र उद्धारक हैं । मैं विध्याचल के शिखर पर रहनेवाला हूं, जहां से उड़ान भरने वाले पक्षियों के पंखों की वेगयुक्त वायु से मैं नीचे गिर पड़ा । गिरने के कारण मैं सप्ताह भर बेसुध पृथ्वी पर पड़ा रहा । आठवें दिन मेरी चेतना लौटी । तब क्षुधा पीड़ित मैं आपकी शरण में आया हूं । मैं बड़ा दु:खी हूं, मेरा मन बड़ा खिन्न है और मेरी प्रसन्नचा नष्ट हो चुकी है । बस, मुझे भोजन की अभिलाषा है । विप्रवर ! आप मुझे कुछ खाने को दें, जिससे मेरे प्राण बच जाएं । ’
ऐसा कहे जाने पर सुकृष ऋषि ने पक्षिरूपधारी इंद्र से कहा - ‘प्राणरक्षा के लिए तुम जो भी भोजन चाहो, मैं दूंगा ।’ ऐसा कहकर ऋषि ने फिर उस पक्षी से पूछा - ‘तुम्हारे लिए मैं किस प्रकार के भोजन की व्यवस्था करूं ?’ यह सुनकर उसने कहा - ‘नर मांस मिलने पर मैं पूर्णरूप से संतृप्त हो जाऊंगा ।’
ऋषि ने पक्षी से कहा - तुम्हारी कुमारवस्था एवं युवावस्था समाप्त हो चुकी है, अब तुम बुढ़ापे की अवस्था में हो । इस अवस्था में मनुष्य की सभी इच्छाएं दूर हो जाती हैं । फिर भी ऐसा क्यों है कि तुम इतने क्रूर हृदय हो ? कहां तो मनुष्य का मांस और कहां तुम्हारी अंतिम अवस्था, इससे तो यही सिद्ध होता अथवा मेरा यह सब कहना निष्प्रयोजन है, क्योंकि जब मैंने वचन दे दिया तब तो तुम्हें भोजन देनी ही है ।
उससे ऐसा कहकर और नर मांस देने का निश्चय करके विप्रवर सुकृष ने अविलंब हमलोगों को पुकारा और हमारे गुणों की प्रशंसा की । तत्पश्चात उन्होंने हमलोगों से, जो विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े बैठे थे, बड़ा कठोर वचन कहा - ‘अरे पुत्रों ! तुम सब आत्मज्ञानी होकर पूर्णमनोरथ हो चुके हो, किंतु जैसे मुझपर अतिथि ऋण है, वैसे ही तुम पर भी है, क्योंकि तुम्हीं मेरे पुत्र हो । यदि तुम अपने गुरु को जो तुम्हारा एकमात्र पिता है, पूज्य मानते हो तो निष्कलुष हृदय से मैं जैसा कहता हूं, वैसा करो ।’ उनके ऐसा कहने पर गुरु के प्रति श्रद्धालु हमलोगों के मुंह से निकल पड़ा कि ‘आपका जो भी आदेश होगा, उसके विषय में आप यहीं सोचें कि उसका पालन हो गया ।’
ऋषि ने कहा - ‘भूख और प्यास से व्याकुल हुआ यह पक्षी मेरी शरण में आया है । तुमलोगों के मांस से इसकी क्षणभर के लिए तृप्ति हो जाती तो अच्छा होता । तुमलोगों के रक्त से इसकी प्यास बुझ जाएं, इसके लिए तुमलोग अविलंब तैयार हो जाओ ।’ यह सुनकर हमलोग बड़े दु:खी हुए और हमारा शरीर कांप उठा, जिससे हमारे भीतर का भय बाहर निकल पड़ा और हम कह उठे - ‘ओह ! यह काम हमसे नहीं हो सकता ।’
हमलोगों की इस प्रकार की बात सुनकर सुकृष मुनि क्रोध से जल भुन उठे और बोले - ‘तुमलोगों ने मुझे वचन देकर भी उसके अनुसार कार्य नहीं किया, इसलिए मेरी शापाग्नि में जलकर पक्षियोंनि में जन्म लोगे ।’
हमलोगों से ऐसा कहकर उन्होंने उस पक्षी से कहा - ‘पक्षिराज ! मुझे अपना अंत्येष्टि संस्कार और शास्त्रीय विधि से श्राद्धादि कर लेने दो, इसके बाद तुम निश्चिंत होकर यहीं मुझे खा लेना । मैंने अपना ही शरीर तुम्हारे लिए भक्ष्य बना दिया है ।’ आप अपना योगबल से अपना शरीर छोड़ दें, क्योंकि मैं जीवित जंतु को नहीं खाता । पक्षी ने कहा । पक्षी के इस वचन को सुनकर मुनि सुकृष योगयुक्त हो गये । उनके शरीर त्याग के निश्चय को जानकर इंद्र ने अपना वास्तविक शरीर धारण कर लिया और कहा - ‘विप्रवर ! आप अपनी बुद्धि से ज्ञातव्य वस्तु को ज्ञान लीजिए । आप महाबुद्धिमान और परम पवित्र हैं ।आपकी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह अपराध किया है । आज से आपमें ऐंद्र अथवा परमैश्वर्ययुक्त ज्ञान प्रादुर्भूत होगा और आपके तपश्चरण तथा धर्म कर्म में कोई विघ्न उपस्थित न होगा ।’
ऐसा कहकर जब इंद्र चले गये, तब हमलोगों ने अपने क्रुद्ध पिता महामुनि सुकृष से सिर झुकाकर निवेदन किया - ‘पिताजी ! हम मृत्यु से भयभीत हो गये थे, हमें जीवन से मोह हो गया था, आप हम दोनों को क्षमा दान दें । तब उन्होंने कहा - ‘मेरे बच्चों ! मेरे मुंह से जो बात निकल चुकी है, वह कभी मिथ्या न होगी । आजतक मेरी वाणी से असत्य कभी भी नहीं निकला है । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि दैव ही समर्थ है और पौरुष व्यर्थ है । भाग्य से प्रेरित होने से ही मुझसे ऐसा अचिंतित अकार्य हो गया है । अब तुमलोगों ने मेरे सामने नतमस्तक होकर मुझे प्रसन्न किया है, इसलिए पक्षी की योनि में पहुंच जाने पर भी तुमलोग परमज्ञान को प्राप्त कर लोगे ।’ भगवन ! इस प्रकार पहले दुर्दैववश पिता सुकृष ऋषि ने हमें शाप दिया था, जिससे बहुत समय के बाद हमलोगों ने दूसरी योनि में जन्म लिया है ।
उनकी ऐसी बात सुनकर परमैश्वर्यवान शमीक मुनि ने समस्त समीपवर्ती द्विजगमों को संबोधित करके कहा - ‘मैंने आपलोगों के समक्ष पहले ही कहा था कि ये पक्षी साधारण पक्षी नहीं हैं, ये परमज्ञानी हैं, जो अमानुषिक युद्ध में भी मरने से बच गये ।’ इसके बाद प्रसन्नहृदय महात्मा शमीक मुनि की आज्ञा पाकर वे पक्षी पर्वतों में श्रेष्ठ, वृक्षों और लताओं से भरे विंध्याचल पर्वतपर चले गये ।
वे धर्मपक्षी आजतक उसी विंध्यपर्वत पर निवास कर रहे हैं और तपश्चरण तथा स्वाध्याय में लगे हैं एवं समाधि सिद्धि के लिए दृढ़ निश्चय कर चुके हैं ।

Sunday, 21 February 2016

कर्तव्यपरायणता का अद्भुत आदर्श -


प्राचीन काल में सर्वसमृद्धिपूर्ण वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का एक धर्मात्मा राजा था । एक दिन उसके दरबार में वीरवर नाम का एक गुणी व्यक्ति अपनी पत्नी, कन्या एवं पुत्र के साथ वृत्ति के लिए उपस्थित हुआ । राजा ने उसकी विनयपूर्ण बातों को सुनकर प्रतिदिन एक सहस्त्र स्वर्णमुद्रा का वेतन नियत कर सिंहद्वार के रक्षक के रूप में उसकी नियुक्ति कर ली । दूसरे दिन राजा ने अपने गुप्तचरों से जब पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वह अपना अधिकांश द्रव्य यज्ञ, तीर्थ, शिव, विष्णु के मंदिरों में अत्यल्प शेष से अपने परिजनों का पालन करता है । इससे राजा ने प्रसन्न होकर उसकी नियुक्ति को पूर्णरूप से स्थायी कर दिया ।
एक दिन आधी रात में जब मुसलधार वृष्टि, बादलों की गरज, विद्युत एवं झंझावात से रात्रि की विभीषिका सीमा स्पर्श कर रही थी, श्मशान से किसी नारी के करुण - क्रंदन की ध्वनि राजा के कानों में पड़ी । राजा ने सिंहद्वार पर उपस्थित वीरवर तलवार लेकर चला तब राजा भी उसके भय की आसंका तथा सहयोगार्थ एक तलवार लेकर गुप्तरूप से उसके पीछे लग गया । वीरवर ने श्मशान पहुंचकर एक स्त्री को वहां रोते देखा और उससे जब इसका कारण पूछा, तब उसने कहा कि ‘मुझे इस राज्य की लक्ष्मी अथवा राष्ट्रलक्ष्मी समझो । इसी मास के अंत में राजा रूपसेन की मृत्यु हो जाने पर मैं अनाथ होकर कहां जाऊंगी, इसलिए रो रही हूं ।’ वीरवर ने राजा के दीर्घायु के लिए जब उससे उपाय पूछा, तब उसने वीरवर के पुत्र की चण्डिका के सामने बलि देने से राजा के शतायु होने की बात कही । फिर क्या था ? वीरवर उल्टे पांव घर लौटकर पत्नी, पुत्र आदि को जगाकर और उनकी सम्मति लेकर उनके साथ चण्डिका - मंदिर में पहुंचा । राजा भी गुप्तरूप से पीछे - पीछे सर्वत्र जाता रहा । वीरवर ने देवी की प्रार्थना कर राजा की आयु बढ़ाने के लिए अपने पुत्र की बलि चढ़ दी । इसे देखते ही उसकी बहन का दु:ख से हृदयस्फोट हो गया । फिर उसकी माता भी चल बसी । वीरवर इन तीनों का दाहकर स्वयं भी राजा की आयु की वृद्धि के लिए बलि चढ़ गया ।
राजा छिपकर यह सब देख रहा था । उसने देवी की प्रार्थना की । अपने जीवन को व्यर्थ बताते हुए और अपना सिर काटने के लिए उसने ज्यों ही तलवार खींची त्यों ही देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और वर मांगने के लिए कहा । राजा ने देवी ने सबको जला दिया और राजा चुपके से वहां से चलकर अपनी अट्टालि का में जाकर लेट गया । इधर वीरवर भी चकित होता हुआ तथा देवी की कृपा मानता हुआ अपने पुनर्जीवित परिवार को घर पर छोड़कर राजा प्रसाद के सिंहद्वार पर खड़ा हो गया । जब राजा ने उसके वहां उपस्थित के लक्षणों से परिचित होकर उसे बुलाकर अज्ञात नारी के रुदन का कारण पूछा, तब वीरवर ने कहा, ‘राजन ! वह कोई चुड़ैल थी और मुझे देखते ही अदृश्य हो गयी, चिंता की कोई बात नहीं ।’
इस पर राजा ने मन ही मन उसकी धीरता तथा स्वामिभक्ति की प्रशंसा की और प्रात:काल सारी बात को अपने सभासदों से बतलाकर वीरवर को पुत्रसहित कर्नाट एवं लाटदेस (महाराष्ट्र - गुजरात) का अधिपति बना दिया । उन्होंने वीरवर को अपने तुल्य ही समृद्धिशाली बनाकर अपनी मैत्री की दृढ़ता का निश्चय किया ।

Saturday, 20 February 2016

दो मित्र भक्त


कुरुक्षेत्र में दो मित्र थे - एक ब्राह्मण और दूसरा क्षत्रिय । ब्राह्मण का नाम पुण्डरीक और क्षत्रिय का अंबरीष । दोनों में गाढ़ी मित्रता थी । खाना पीना, टहलना सोना एक ही साथ होता था । जवान उम्र में पैसे पास हो और कोई देख - रेख करने वाला न हो तो मनुष्य को बिगड़ते देर नहीं लगती । कुसंग मिल जाएं तब तो कहना ही क्या । ये दोनों मित्र भी कुसंग में पड़ गये । देवपूजा, स्वाध्याय, श्राद्ध - तर्पण, पढ़ना - लिखना सबको छोड़ छोड़कर रात दिन वेश्या और शराब में ही मतवाले रहने लगे । कभी स्वप्न में भी वे परलोक की चिंता नहीं करते थे । इस प्रकार कुमार्ग में दोनों की आधी उम्र बीत गयी ।
पाप में दोनों का नष्ट हो गया । घर द्वार नीलाम हो गये । गिड़गिड़ाकर मांगने पर भी कहीं एक पैसा मिलना मुश्किल हो गया । धन - हीन समझकर कुसंगी मित्रों और वेश्याओं ने उन्हें घर से निकाल दिया । कुलक्षणी होने से समाज में तो कोई इनसे बोलना भी नहीं चाहता था । नितांत दु:खी और निराश होकर दोनों गंवा से निकल गये । पश्चात्ताप की अग्नि से सञ्जित पाप कुछ दग्ध हुए । भटकते - भटकते दोनों एक यज्ञमंडु के समीप जा पहुंचे । पापों के जल जाने से नीचे दबा हुआ कोई पूर्व का पुम्य प्रकट हुआ । ऋषियों की वेदध्वनि के शब्द इनके कानों में पड़े, कुठ पुण्य सञ्जय हुआ । यज्ञ देखने की इच्छा हुई । दोनों यज्ञशाला में जा पहुंचे और श्रद्धापूर्वक यज्ञ का दर्शन करने लगे । पवित्र वातावरण में आने से और यज्ञदर्सन से चित्त की कुच शुद्धि होने पर दोनों अपने पापों को याद कर - करके पछताने लगे ।
हाय ! हमारा इस दुष्कृतिरूप समुद्रकैसे उद्धार होगा ? हमने विषयलोलुप होकर जान बूझकर जो भयंकर पाप किये हैं, वे कैसे नष्ट होंगे ? अब क्या करें ? कौन हमें पापों से छुड़ाकर शांति की राह बतलावेगा ? हम जैसे अभागे और कौन होंगे, जिन्होंने अपने कुल के और माता पिता के धर्म को छोड़कर केवल पाप कमाने में में ही उम्र बिता दी ? इस सभा में ये ब्रह्मनिष्ठ महात्मा ब्राह्मण बड़े ही दयालु मालूम होते हैं, पापों से छूटने का कोई उपाय ये जरूर बतला देंगे ।
मन में ऐसा निष्चय करके पुण्डरीक और अंबरीष दोनों मित्र ऋषियों के चरणों में गिर पड़े और अपने अपने पापों को सरल चित्त से भलीभांति बखान बखान कर बतलाने लगे और रोते हुए कातर कण्ठ से पापों से छूटने का उपाय पूछने लगे । पाप और पुण्य दोनों ही ऐसी चीज हैं, जो छिपाने से बढ़ते हैं और प्रकट करने से घटते हैं । ज्यों ज्यों इनके पाप इन्हीं के मुंह से प्रक,ट हुए त्यों ही त्यों वे मानो नष्ट होने लगे । ब्राह्मण बड़े दयालु थे, उन्होंने बड़े धीरज से दोनों की बातें तो सुनीं, परंतु वे कुछ व्यवस्था नहीं दे सके, परस्पर एक दूसरे की ओर देखकर चुप रह गये । उन्हें ऐसा कोई प्रायश्चित्त ही न सूझ पड़ा जिससे इनके पापों का नाश हो सकता हो । ब्राह्मणों को चुप देखकर दोनों मित्र और भी हताश होकर रोने लगे । तब ब्राह्मणों के समूह में बैठे हुए एक दयार्द्रहृदय भक्त ने बड़े ही स्नेह के साथ मुस्कुराते हुए उन्हें धीरज बंधाकर कहा - ‘हे ब्राह्मण और क्षत्रिय ! घबराओ नहीं, भगवान के शरण हो जाओ । भगवत्कृपा से शरणागत के सारे पाप तुरंत नष्ट हो जाते है । तुम अपने पापों के लिए जो पश्चात्ताप कर रहे हो, यह बड़ा ही शुभ लक्षण है । जो मनुष्य पूर्व में किए गये पापों के लिए पश्चात्ताप करता है, आगे पाप न करने का दृढ़ संकल्प कर लेता है और अपना शे, जीवन भगवान के चरणों में सौंपकर भगवान का भजन करने लगता है, उसके सारे पाप तुरंत नष्ट हो जाते हैं और भगवत्कृपा से वह भगवान के दुर्लभ दर्शन पाकर कृतार्थ होता है । अतएव यदि तुम पापों से छूटना चाहते हो तो शीघ्र ही श्रीजगन्नाथधाम - पुरी में जाओ और वहां भगवान दारुमय पुरुषोत्तम के दर्शन करो । उन शंकचक्र गदाधारी जगन्नाथ के शरण होने पर तुम्हारे पाप नष्ट हो जाएंगे । तुम उन विभु भगवान के शरण हो जाओ, वे कृपासागर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे ।’
भक्त महर्षि से इस प्रकार उपदेश प्राप्त कर दोनों मित्र बड़े हर्ष से पुरुषोत्तम क्षेत्र को चले और मन ही मन भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए अपने पूर्व के पापों के लिए अत्यंत ही अनुतप्त हुए दोनों कुछ दिनों में भगवान के धाम पुरी में जा पहुंचे । उन्होंने तीर्थराज समुद्र के जल में स्नान किया और भगवान के मंदिर के दरवाजे पर साष्टांग प्रणाम करते हुए वे भगवान की ओर देखने लगे । परंतु उन्हें भगवान की मूर्ति के दर्शन नहीं हुए । भगवत मूर्ति के दर्शन न होने से उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे भगवान के पापनाशक नाम का अत्यंत आर्तभाव से कीर्तन करते हुए वहीं पड़े रहे । तीसरे दिन रात को उन्हें एक ज्योति के दर्शन हुए । उसके बाद तीन दिन वे निश्चल भाव से फिर कीर्तन करते हुए वहीं रहे । सातवीं रात्रि को उन्हें भगवान की मूर्ति के दर्शन हुए । फिर देवताओं का स्तवन सुनायी दिया । तब वे पाप से छूटकर साक्षात् भगवान का दर्शन पाने लगे ।
उन्होंने देखा, भगवान के हाथों में संख, चक्र, गदा और पद्म हैं । दिव्य अलंकारों से भगवान सजे हुए हैं । भगवान के चरणों में रत्नजटित पादुकाएं हैं । खिले हुए कमल के समान भगवान के नेत्र हैं और वे प्रसन्नमुख है । बायीं ओर भगवती लक्ष्मी जी विराजमान हैं और भगवान को पान का बीड़ा दे रही हैं । अनेक परिचारिकाएं भांति - भांति से भगवान की सेवा कर रही हैं । देवता, सिद्ध और सनकादि दिव्य मुनिगण सिर झुकाए और हाथ जोड़े भगवान का स्तवन कर रहे हैं । भगवान मुस्कुराते हुए और कृपा की नजर से देखते हुए उन्हें निहाल कर रहे हैं । भगवान भक्तों के गाये हुए संगीत में मन लगाकर उन पर अत्यंत अनुकंपा प्रकट कर रहे हैं । प्रह्लाद आदि भक्तशिरोमणि सामने बैठे हुए उनके स्वरूप का एकाग्रभाव से ध्यान कर रहे हैं और भगवान मानो उन्हें अपने में लीन किये लेते हैं । भगवान के वक्ष:स्थल पर स्थित कौस्तुभमणि में सामने बैठे हुए देव गंधर्वादि का प्रतिबिंब पड़ने से मानो साक्षात् उनकी विश्वरूप मूर्ति प्रकट हो रही है । भगवान के मस्तक पर अनवरत पुष्पवृष्टि हो रही है । इस प्रकार नाना भांति से दिव्य लीलाविलासी भगवान के दर्शन करते ही उसी क्षण पुण्डरीक और अंबरीष को सारी विद्याएं प्राप्त हो गयीं । सरस्वती मानो उनकी जीभपर आ विराजीं । वेदों ने उनके हृदय में स्थान कर लिया और वे हाथ जोड़कर भगवान की बारंबार प्रदक्षिणा करके अत्यंत हर्षपूर्वक साष्टांग दण्डवत् कर भांति भांति से भगवान का स्तवन करने लगे ।
उन दोनों के स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान का स्तवन और पूजन किया । अनंतर सब देवता वहां से चले गये । तब पुण्डरीक और अंबरीष की आंखें खुलीं और उन्होंने ज्ञानचक्षुओं के द्वारा स्वप्न की भांति भगवान की दिव्य लीलाओं को देखा । कुछ काल के लिए वे दिव्य भावापन्न हो गये । इसके बाद उन्होंने फिर भगवान का दिव्य दर्शन किया । तब की बार उन्होंने देखा भगवान दिव्य सिंहासन पर विराजमान हैं । उनके शरीर की कांति नील मेध के समान है । दोनों नेत्र खिले हुए कमल की भांति शोभा पा रहे हैं । लाल - लाल ओठ, मनोहर नासिका और कानों में दिव्य कुण्डल शोभित हैं । गले में वनमाला, हाथों में शंख, चक्र, गद, पद्म धारण किये हुए हैं । चौड़ी छाती है । गले में मनोहर हार है । मस्तक पर अमूल्य मणियों का मुकुट शोभा पा रहा है । वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और कौस्तुभमणि तथा हाथों में दिव्य बाजूबंद धारण किये हुए हैं । भगवान की लंबी भुजाएं हैं, जो दीन और आर्त प्राणियों के परित्राण के लिए सदा ही प्रस्तुत हैं । भगवान दिव्य पीतांबर पहने हुए हैं । कटिदेश में सुवर्ण सूत्र है । दिव्य माला और दिव्य गंध से भूषित हुए सुवर्णपद्मासन पर विराजमान हैं । पास ही दाहिनी ओर हलायुधधारी श्रीबलदेव जी तथा दोनों के बीच में सुभद्रा देवी जी शोभित हैं । भगवान के बायीं ओर सुदर्शन चक्र है । इस प्रकार उन्होंने भगवान के दर्शन करके उनका स्तवन किया और दोनों कृतार्थ हो गये । तदंनतर वे भगवान विष्णु के प्रति भक्ति परायण के परमधाम को प्राप्त हुए ।
कोई कितना भी पापी क्यों न हो, यदि वह पूर्व के पापों के लिए पश्चात्ताप करे, रो रोकर अपने पापों को प्रकट करें और भगवान के अनन्यशरण हो जाएं तो भगवत्कृपा से उसके पापों का शीघ्र ही नाश हो जाता है और वह भगवान के दुर्लभ दर्शन कर कृतार्थ होता है । पुण्डरीक और अंबरीष का यह इतिहास इस सिद्धांत का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।

भगवान श्रीकृष्ण और उनका दिव्य उपदेश


कांतिदी के सुरम्य तट पर संयुक्त प्रांत की मथुरा नगरी में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था । उन्होंने शैशवकाल में ही अनेक बार अपनी अतिमानुष एवं अलौकिक शक्तियों को दिखलाकर सबको चकित कर दिया था । अनेक भयानक पक्षियों, वन्य पशुओं और यमुना जी में रहने वाले कालिय - सर्प को मारकर लोगों को निर्भय किया था । उनके मधुर मुरली - रव को सुनकर मनुष्यों को तो कहना ही क्या, पशु - पक्षी तक व्याकुल हो जाते और दौड़कर उनके पास चले जाते थे । वे जहां रहते, वहीं सर्वत्र आनंद और प्रेम का साम्राज्य छा जाता । गोकुल के ग्वाल बालों तथा गोप बालिकाओं के विनोद के लिए वे वृंदावन के रम्य उपवनों और कुञ्जों में विविध प्रकार की क्रीड़ाएं किया करते और वन - भोजन का आनंद लूटते ।
युवा होने पर वे अपनी बाल - लीलाओं को भुलाकर एक गंभीर राजनीतिज्ञ तथा सुयोग्य और शक्तिशाली शासक बन गये थे । इसका कारण यह था कि उन्हें राजनैतिक - क्षेत्र में भी बहुत कुछ काम करना था ।
ऋषि सांदीपनि के आश्रम में उन्होंने अपने बड़े भाई बलराम जी के साथ वेद,शास्त्र, राजनीति, विज्ञान, धनुर्वेद एवं युद्ध विद्या की शिक्षा प्राप्त की थी । उस समय देश में चारों ओर फूट फैली हुई थी । उन्होंने सारे झगड़ों को शांत किया, आततायियों को दण्ड दिया गया और उनको दयालुता का पाठ पढ़ाया, जिससे हिंसा एवं दु:ख के स्थान में सुख शांति का साम्राज्य हो गया ।
एक दिन श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी से कहने लगे ‘ प्रिये ! तुमने अन्य शक्तिशाली राजाओं को छोड़कर मुझसे विवाह करके अच्छा नहीं किया । मेरे पास कोई राज्य नहीं है, मैं भयभीत होकर समुद्र के किनारे इस द्वारकापूरी में आ बसा हूं । मेरे चरित्र एवं आचरण अनोखे तथा मर्यादा के प्रतिकूल हैं । मेरे भावों को कोई नहीं समझता । मेरे जैसे पुरुषों की स्त्रियां सदा दु:ख पाती हैं । मुझे दीन हीन पुरुषों का संग प्रिय है, इसी से अमीर लोग मुझसे मिलना नहीं चाहते । मेरा न अपने शरीर से प्रेम है, न घर से । स्त्री, बाल - बच्चे, धन अथवा ऐश आराम किसी से मेरा प्रेम नहीं है । मेरे जैसे लोग अपने में ही संतुष्ट रहते हैं । अत: विदर्भ राजकुमारी ! तुमने मेरे साथ विवाह करके बुद्धिमानी का काम नहीं किया ।’ इस छोटी - सी वक्तृता में उनकी वैदांतिक बुद्धि और परहंस वृत्ति छल की पड़ती है ।
भगवान श्रीकृष्ण पूर्णावतार थे, वे ईश्वर की पूर्ण कला अथवा शक्ति को लेकर अवतीर्ण हुए थे । वे एक उच्च श्रेणी के राजनीति विशारद, सुधारक, योगी और ज्ञानी थे । उन्हें हठ योग की ब्रजोली मुद्र सिद्ध थी, इसलिए वे गोपियों में रहते हुए भी ब्रह्मचारी कहलाए । गोपियों के साथ उनका दिव्य प्रेम था, उसमें कामवासना की गंध भी नहीं थी । दस - ग्यारह वर्ष के बालक में कामवासना हो भी कैसे सकती थी ? वे सदा ही निर्गुण अनन्त ब्रह्म में स्थित रहते थे और अपने मन तथा शरीर का करणरूप से व्यवहार करते थे । वे प्रकृति के कार्यों के साक्षी थे । इसलिए वे ‘नित्य ब्रह्मचारी’ कहलाते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण को लोग साधारण बोल - चाल में ‘मुरलीमनोहर’ कहते हैं । यह उस शब्दब्रह्म का ही रूप है, जिससे सारे जगत की सृष्टि हुई हा । जब भगवान श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे, तब उसकी ध्वनि गोपियों के (कानों को केवल मधुर ही नहीं लगती थी, उन्हें जो देवताओं के अवतार थीं) एक विलक्षण प्रकार का दिव्य संदेश मिलता था । श्रीकृष्ण का त्रिभंगी होकर खड़े होना सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के अधिष्ठातृत्व का ही द्योतक है ।
‘क्लीं’ भगवान श्रीकृष्ण का बीजाक्षर है । इस मंत्र में बड़ी शक्ति है । इससे मनस्तत्त्व में जोर का स्पंदन होता है, जिससे मन की राजसी वृत्ति बदल जाती है । इससे चित्त एक प्रकार की प्रबल आध्यात्मिक कल्पना उत्पन्न होती है, जिससे उसकी शुद्धि, एकाग्रता तथा ध्यान में बड़ी सहायता मिलती है । इससे वैराग्य और अंतर्मुखी वृत्ति जागृत होती जागृत होती है, वासनाओं और विषय संस्कारों का क्षय होता है एवं संकल्प विकल्प का दमन होता है ।
हमारा हृदय ही असली वृंदावन है । भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए तुम्हें वृंदावन में ढूंढ़ना चाहिए । रुक्मिणी और राधा ये भगवान श्रीकृष्ण की दो शक्तियों हैं । अर्जुन जीवात्मा है और भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा हैं । हमारा मन जिसमें वृत्तियों का युद्ध हो रहा है - कुरुक्षेत्र हैं, मन, इंद्रिय, विषय - संस्कार, विषय - वृत्ति तथा स्वभाव के साथ युद्ध करना ही वास्तविक युद्ध है । द्रौपदी मन है, पांचों पाण्डव पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, जन्मांध धृतराष्ट्र मूल अविद्या है, गोपियां नाड़ी हैं, भिन्न भिन्न नाड़ियों को वश में करके आत्मनंद का अनुभव ही गोपियों के साथ विहार है, यही महाभारत युद्ध का आंतरिक अभिप्राय है ।