मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । भव बंधन से विमुक्त हो जाना, जीवात्मा का परमात्मा की सत्ता में विलीन हो जाना, आत्मतत्त्व का परमात्मतत्त्व के साथ अभेद हो जाना तथा हृदय के अंतस्तल में ‘वासुदेव: सर्वमिति, सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ इत्यादि त्रिकालावाधित सिद्धांतवादियों की दिव्य ज्योति का समुद्भासित हो उठना ही मोक्ष है, यही परम पुरुषार्थ है । इस अवस्था को ही ब्राह्मीस्थिति या सिद्धावस्था कहते हैं और इसकी प्राप्ति ही इस संसार में मनुष्य का परम साध्य या अंतिम ध्येय है । इस ब्राह्मी स्थिति की प्राप्ति के लिए कर्म, ज्ञान और भक्ति ये तीन मार्ग विवक्षित हैं और इन तीन मार्गों का आश्रय लेकर ही हमारे देश के मुमक्षुओं ने मोक्षसाधन किया है, ब्रह्मानंदसागर का निरवच्छिन्न रसपान किया है । यद्यपि मोक्षसाधन के लिए उपर्युक्त तीनों ही मार्ग श्रेयस्कर हैं फिर भी सर्वसाधारण जन के कल्याण के लिए व्यक्त सगुण ब्रह्म के स्वरूप का प्रेमपूर्वक अहर्निश चिंतन करना, अपनी वृत्ति को तदाकार बना लेना सबसे बढ़कर सहज उपाय माना गया है । यह साधन भी अन्य साधनों के समान ही अनादिकाल से हमारे देश में प्रचलित है और इसे ही उपासना या भक्ति मार्ग से शास्त्रों में अभिहित किया गया है । देहधारी मनुष्यों की स्वाभाविक मनोवृत्ति ही कुछ ऐसी होती है कि वह किसी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होने के लिए उसके नाम, रूप, रंग आदि इंद्रियगोचर आधार को ढूंढ़ती है । इस प्रकार का कोई आधार मन के सामने रखकर उस पर चित्त स्थिर करना, ध्यान को एकाग्र करना जितना सहज एवं सुलभ है उतना किसी अव्यक्त, निर्गुण, निराधार वस्तु पर चित्त को स्थिर करके अपनी मनोवृत्ति को तदाकार एवं तद्रूप करना सहज एवं सुसाध्य नहीं हो सकता । व्यक्त उपासना के इसी मार्ग का प्रतिपादन नारद, शाण्डिल्य आदि ऋषियों ने अपने ग्रंथों में किया है और भागवत धर्म के नाम से इसका विशद विवेचन श्रीमद्भागवत - जैसे बृहत् ग्रंथ में किया गया है । ज्ञानीशिरोमणि, अद्वैतवाद के आचार्य श्रीशंकराचार्य ने भी मोक्षप्राप्ति के समस्त साधनों में भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ साधन माना है - ‘मोश्रकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’ ।
भक्ति और कर्मयोग का यह सम्मिश्रण बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित था और भगवतधर्म के अंतर्गत समझा जाता था । यहीं भागवत धर्म भगवान श्रीकृष्णा के समय में इस देश से लुप्तप्राय हो रहा था इसी से भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से उसकी महिमा का बखान करके उसे पुन: स्थापित करने का महान उद्योग किया । इस परंपरागत भागवत धर्म को ही भगवान ने सब विद्याओं और गोपनीय विषयों में श्रेष्ठ, उत्तम, पवित्र, प्रत्यक्ष दिख पड़नेवाला, धर्मानुकूल और सहज से आचरण करने योग्य कहा है ।
इसी परम विद्यारूपी रहस्य को, भक्ति मार्गरूपी सहज साधन को सर्व जन सुलभ करने के लिए भगवान ने गीतोक्त भक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया है और इस भक्ति रस का जैसा सुंदर परिपाक गीता ग्रंथ में नहीं । गीता की लोकप्रियता का यही सबसे बड़ा कारण है । यदि अन्य बहुत से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथों के समान वह सर्व - जन - प्रिय कदापि नहीं हो सकती थी । इसी से भगवान ने अपने सगुण व्यक्त स्वरूप को लक्ष्य करके स्थान स्थानपर प्रथम पुरुष का प्रयोग किया है ।
इस कथन का यह आशय कदापि नहीं कि गीता में ज्ञान की महिमा कुछ घटाकर कही गयी है । यदि ऐसा होता तो ठौर - ठौर पर जो ज्ञानी की प्रशंसा की गयी है, वह नहीं मिलती । असल बात तो यह है कि इस प्रकार के ज्ञानी महात्मा अत्यंत दुर्लभ हैं जैसा कि भगवान ने कहा है -
हजारों मनुष्यों में कोई एक आध ही इस ज्ञानमार्ग द्वारा सिद्धिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है और इस प्रयत्न करनेवालों में भी एक आध ही मुझको वास्तविकरूप में जान पाते हैं । सृष्टि यावतीय पदार्थ वासुदेवमय हैं, उनसे भिन्न कुछ नहीं है, इस प्रकार का तत्त्वज्ञान अनेक जन्मों के बाद होता है । इसलिए ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है । बस एक ही शर्त है । भगवान में अनन्यभक्ति होनी चाहिए । यदि इस एक शर्त का पालन हो गया तो फिर कोई कैसा ही दुराचारी क्यों न रहा हो, साधु ही माना जाता है । क्यों ? इसलिए कि उसकी अनन्यभक्ति के परमोज्ज्वल प्रकाश के प्रभाव से उसका दुराचरणरूपी अंधकार क्षण में ही दूर हो जाता है, उसे अपने अंतस्थ में दिव्य ज्योति की अनुभूति होने लगती है, उसके मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं और वह बड़े से बड़े धर्मात्मा बनकर परम शांति का अधिकारी हो जाता है ।
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