कुरुक्षेत्र में दो मित्र थे - एक ब्राह्मण और दूसरा क्षत्रिय । ब्राह्मण का नाम पुण्डरीक और क्षत्रिय का अंबरीष । दोनों में गाढ़ी मित्रता थी । खाना पीना, टहलना सोना एक ही साथ होता था । जवान उम्र में पैसे पास हो और कोई देख - रेख करने वाला न हो तो मनुष्य को बिगड़ते देर नहीं लगती । कुसंग मिल जाएं तब तो कहना ही क्या । ये दोनों मित्र भी कुसंग में पड़ गये । देवपूजा, स्वाध्याय, श्राद्ध - तर्पण, पढ़ना - लिखना सबको छोड़ छोड़कर रात दिन वेश्या और शराब में ही मतवाले रहने लगे । कभी स्वप्न में भी वे परलोक की चिंता नहीं करते थे । इस प्रकार कुमार्ग में दोनों की आधी उम्र बीत गयी ।
पाप में दोनों का नष्ट हो गया । घर द्वार नीलाम हो गये । गिड़गिड़ाकर मांगने पर भी कहीं एक पैसा मिलना मुश्किल हो गया । धन - हीन समझकर कुसंगी मित्रों और वेश्याओं ने उन्हें घर से निकाल दिया । कुलक्षणी होने से समाज में तो कोई इनसे बोलना भी नहीं चाहता था । नितांत दु:खी और निराश होकर दोनों गंवा से निकल गये । पश्चात्ताप की अग्नि से सञ्जित पाप कुछ दग्ध हुए । भटकते - भटकते दोनों एक यज्ञमंडु के समीप जा पहुंचे । पापों के जल जाने से नीचे दबा हुआ कोई पूर्व का पुम्य प्रकट हुआ । ऋषियों की वेदध्वनि के शब्द इनके कानों में पड़े, कुठ पुण्य सञ्जय हुआ । यज्ञ देखने की इच्छा हुई । दोनों यज्ञशाला में जा पहुंचे और श्रद्धापूर्वक यज्ञ का दर्शन करने लगे । पवित्र वातावरण में आने से और यज्ञदर्सन से चित्त की कुच शुद्धि होने पर दोनों अपने पापों को याद कर - करके पछताने लगे ।
हाय ! हमारा इस दुष्कृतिरूप समुद्रकैसे उद्धार होगा ? हमने विषयलोलुप होकर जान बूझकर जो भयंकर पाप किये हैं, वे कैसे नष्ट होंगे ? अब क्या करें ? कौन हमें पापों से छुड़ाकर शांति की राह बतलावेगा ? हम जैसे अभागे और कौन होंगे, जिन्होंने अपने कुल के और माता पिता के धर्म को छोड़कर केवल पाप कमाने में में ही उम्र बिता दी ? इस सभा में ये ब्रह्मनिष्ठ महात्मा ब्राह्मण बड़े ही दयालु मालूम होते हैं, पापों से छूटने का कोई उपाय ये जरूर बतला देंगे ।
मन में ऐसा निष्चय करके पुण्डरीक और अंबरीष दोनों मित्र ऋषियों के चरणों में गिर पड़े और अपने अपने पापों को सरल चित्त से भलीभांति बखान बखान कर बतलाने लगे और रोते हुए कातर कण्ठ से पापों से छूटने का उपाय पूछने लगे । पाप और पुण्य दोनों ही ऐसी चीज हैं, जो छिपाने से बढ़ते हैं और प्रकट करने से घटते हैं । ज्यों ज्यों इनके पाप इन्हीं के मुंह से प्रक,ट हुए त्यों ही त्यों वे मानो नष्ट होने लगे । ब्राह्मण बड़े दयालु थे, उन्होंने बड़े धीरज से दोनों की बातें तो सुनीं, परंतु वे कुछ व्यवस्था नहीं दे सके, परस्पर एक दूसरे की ओर देखकर चुप रह गये । उन्हें ऐसा कोई प्रायश्चित्त ही न सूझ पड़ा जिससे इनके पापों का नाश हो सकता हो । ब्राह्मणों को चुप देखकर दोनों मित्र और भी हताश होकर रोने लगे । तब ब्राह्मणों के समूह में बैठे हुए एक दयार्द्रहृदय भक्त ने बड़े ही स्नेह के साथ मुस्कुराते हुए उन्हें धीरज बंधाकर कहा - ‘हे ब्राह्मण और क्षत्रिय ! घबराओ नहीं, भगवान के शरण हो जाओ । भगवत्कृपा से शरणागत के सारे पाप तुरंत नष्ट हो जाते है । तुम अपने पापों के लिए जो पश्चात्ताप कर रहे हो, यह बड़ा ही शुभ लक्षण है । जो मनुष्य पूर्व में किए गये पापों के लिए पश्चात्ताप करता है, आगे पाप न करने का दृढ़ संकल्प कर लेता है और अपना शे, जीवन भगवान के चरणों में सौंपकर भगवान का भजन करने लगता है, उसके सारे पाप तुरंत नष्ट हो जाते हैं और भगवत्कृपा से वह भगवान के दुर्लभ दर्शन पाकर कृतार्थ होता है । अतएव यदि तुम पापों से छूटना चाहते हो तो शीघ्र ही श्रीजगन्नाथधाम - पुरी में जाओ और वहां भगवान दारुमय पुरुषोत्तम के दर्शन करो । उन शंकचक्र गदाधारी जगन्नाथ के शरण होने पर तुम्हारे पाप नष्ट हो जाएंगे । तुम उन विभु भगवान के शरण हो जाओ, वे कृपासागर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे ।’
भक्त महर्षि से इस प्रकार उपदेश प्राप्त कर दोनों मित्र बड़े हर्ष से पुरुषोत्तम क्षेत्र को चले और मन ही मन भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए अपने पूर्व के पापों के लिए अत्यंत ही अनुतप्त हुए दोनों कुछ दिनों में भगवान के धाम पुरी में जा पहुंचे । उन्होंने तीर्थराज समुद्र के जल में स्नान किया और भगवान के मंदिर के दरवाजे पर साष्टांग प्रणाम करते हुए वे भगवान की ओर देखने लगे । परंतु उन्हें भगवान की मूर्ति के दर्शन नहीं हुए । भगवत मूर्ति के दर्शन न होने से उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे भगवान के पापनाशक नाम का अत्यंत आर्तभाव से कीर्तन करते हुए वहीं पड़े रहे । तीसरे दिन रात को उन्हें एक ज्योति के दर्शन हुए । उसके बाद तीन दिन वे निश्चल भाव से फिर कीर्तन करते हुए वहीं रहे । सातवीं रात्रि को उन्हें भगवान की मूर्ति के दर्शन हुए । फिर देवताओं का स्तवन सुनायी दिया । तब वे पाप से छूटकर साक्षात् भगवान का दर्शन पाने लगे ।
उन्होंने देखा, भगवान के हाथों में संख, चक्र, गदा और पद्म हैं । दिव्य अलंकारों से भगवान सजे हुए हैं । भगवान के चरणों में रत्नजटित पादुकाएं हैं । खिले हुए कमल के समान भगवान के नेत्र हैं और वे प्रसन्नमुख है । बायीं ओर भगवती लक्ष्मी जी विराजमान हैं और भगवान को पान का बीड़ा दे रही हैं । अनेक परिचारिकाएं भांति - भांति से भगवान की सेवा कर रही हैं । देवता, सिद्ध और सनकादि दिव्य मुनिगण सिर झुकाए और हाथ जोड़े भगवान का स्तवन कर रहे हैं । भगवान मुस्कुराते हुए और कृपा की नजर से देखते हुए उन्हें निहाल कर रहे हैं । भगवान भक्तों के गाये हुए संगीत में मन लगाकर उन पर अत्यंत अनुकंपा प्रकट कर रहे हैं । प्रह्लाद आदि भक्तशिरोमणि सामने बैठे हुए उनके स्वरूप का एकाग्रभाव से ध्यान कर रहे हैं और भगवान मानो उन्हें अपने में लीन किये लेते हैं । भगवान के वक्ष:स्थल पर स्थित कौस्तुभमणि में सामने बैठे हुए देव गंधर्वादि का प्रतिबिंब पड़ने से मानो साक्षात् उनकी विश्वरूप मूर्ति प्रकट हो रही है । भगवान के मस्तक पर अनवरत पुष्पवृष्टि हो रही है । इस प्रकार नाना भांति से दिव्य लीलाविलासी भगवान के दर्शन करते ही उसी क्षण पुण्डरीक और अंबरीष को सारी विद्याएं प्राप्त हो गयीं । सरस्वती मानो उनकी जीभपर आ विराजीं । वेदों ने उनके हृदय में स्थान कर लिया और वे हाथ जोड़कर भगवान की बारंबार प्रदक्षिणा करके अत्यंत हर्षपूर्वक साष्टांग दण्डवत् कर भांति भांति से भगवान का स्तवन करने लगे ।
उन दोनों के स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान का स्तवन और पूजन किया । अनंतर सब देवता वहां से चले गये । तब पुण्डरीक और अंबरीष की आंखें खुलीं और उन्होंने ज्ञानचक्षुओं के द्वारा स्वप्न की भांति भगवान की दिव्य लीलाओं को देखा । कुछ काल के लिए वे दिव्य भावापन्न हो गये । इसके बाद उन्होंने फिर भगवान का दिव्य दर्शन किया । तब की बार उन्होंने देखा भगवान दिव्य सिंहासन पर विराजमान हैं । उनके शरीर की कांति नील मेध के समान है । दोनों नेत्र खिले हुए कमल की भांति शोभा पा रहे हैं । लाल - लाल ओठ, मनोहर नासिका और कानों में दिव्य कुण्डल शोभित हैं । गले में वनमाला, हाथों में शंख, चक्र, गद, पद्म धारण किये हुए हैं । चौड़ी छाती है । गले में मनोहर हार है । मस्तक पर अमूल्य मणियों का मुकुट शोभा पा रहा है । वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और कौस्तुभमणि तथा हाथों में दिव्य बाजूबंद धारण किये हुए हैं । भगवान की लंबी भुजाएं हैं, जो दीन और आर्त प्राणियों के परित्राण के लिए सदा ही प्रस्तुत हैं । भगवान दिव्य पीतांबर पहने हुए हैं । कटिदेश में सुवर्ण सूत्र है । दिव्य माला और दिव्य गंध से भूषित हुए सुवर्णपद्मासन पर विराजमान हैं । पास ही दाहिनी ओर हलायुधधारी श्रीबलदेव जी तथा दोनों के बीच में सुभद्रा देवी जी शोभित हैं । भगवान के बायीं ओर सुदर्शन चक्र है । इस प्रकार उन्होंने भगवान के दर्शन करके उनका स्तवन किया और दोनों कृतार्थ हो गये । तदंनतर वे भगवान विष्णु के प्रति भक्ति परायण के परमधाम को प्राप्त हुए ।
कोई कितना भी पापी क्यों न हो, यदि वह पूर्व के पापों के लिए पश्चात्ताप करे, रो रोकर अपने पापों को प्रकट करें और भगवान के अनन्यशरण हो जाएं तो भगवत्कृपा से उसके पापों का शीघ्र ही नाश हो जाता है और वह भगवान के दुर्लभ दर्शन कर कृतार्थ होता है । पुण्डरीक और अंबरीष का यह इतिहास इस सिद्धांत का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।
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