कांतिदी के सुरम्य तट पर संयुक्त प्रांत की मथुरा नगरी में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था । उन्होंने शैशवकाल में ही अनेक बार अपनी अतिमानुष एवं अलौकिक शक्तियों को दिखलाकर सबको चकित कर दिया था । अनेक भयानक पक्षियों, वन्य पशुओं और यमुना जी में रहने वाले कालिय - सर्प को मारकर लोगों को निर्भय किया था । उनके मधुर मुरली - रव को सुनकर मनुष्यों को तो कहना ही क्या, पशु - पक्षी तक व्याकुल हो जाते और दौड़कर उनके पास चले जाते थे । वे जहां रहते, वहीं सर्वत्र आनंद और प्रेम का साम्राज्य छा जाता । गोकुल के ग्वाल बालों तथा गोप बालिकाओं के विनोद के लिए वे वृंदावन के रम्य उपवनों और कुञ्जों में विविध प्रकार की क्रीड़ाएं किया करते और वन - भोजन का आनंद लूटते ।
युवा होने पर वे अपनी बाल - लीलाओं को भुलाकर एक गंभीर राजनीतिज्ञ तथा सुयोग्य और शक्तिशाली शासक बन गये थे । इसका कारण यह था कि उन्हें राजनैतिक - क्षेत्र में भी बहुत कुछ काम करना था ।
ऋषि सांदीपनि के आश्रम में उन्होंने अपने बड़े भाई बलराम जी के साथ वेद,शास्त्र, राजनीति, विज्ञान, धनुर्वेद एवं युद्ध विद्या की शिक्षा प्राप्त की थी । उस समय देश में चारों ओर फूट फैली हुई थी । उन्होंने सारे झगड़ों को शांत किया, आततायियों को दण्ड दिया गया और उनको दयालुता का पाठ पढ़ाया, जिससे हिंसा एवं दु:ख के स्थान में सुख शांति का साम्राज्य हो गया ।
एक दिन श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी से कहने लगे ‘ प्रिये ! तुमने अन्य शक्तिशाली राजाओं को छोड़कर मुझसे विवाह करके अच्छा नहीं किया । मेरे पास कोई राज्य नहीं है, मैं भयभीत होकर समुद्र के किनारे इस द्वारकापूरी में आ बसा हूं । मेरे चरित्र एवं आचरण अनोखे तथा मर्यादा के प्रतिकूल हैं । मेरे भावों को कोई नहीं समझता । मेरे जैसे पुरुषों की स्त्रियां सदा दु:ख पाती हैं । मुझे दीन हीन पुरुषों का संग प्रिय है, इसी से अमीर लोग मुझसे मिलना नहीं चाहते । मेरा न अपने शरीर से प्रेम है, न घर से । स्त्री, बाल - बच्चे, धन अथवा ऐश आराम किसी से मेरा प्रेम नहीं है । मेरे जैसे लोग अपने में ही संतुष्ट रहते हैं । अत: विदर्भ राजकुमारी ! तुमने मेरे साथ विवाह करके बुद्धिमानी का काम नहीं किया ।’ इस छोटी - सी वक्तृता में उनकी वैदांतिक बुद्धि और परहंस वृत्ति छल की पड़ती है ।
भगवान श्रीकृष्ण पूर्णावतार थे, वे ईश्वर की पूर्ण कला अथवा शक्ति को लेकर अवतीर्ण हुए थे । वे एक उच्च श्रेणी के राजनीति विशारद, सुधारक, योगी और ज्ञानी थे । उन्हें हठ योग की ब्रजोली मुद्र सिद्ध थी, इसलिए वे गोपियों में रहते हुए भी ब्रह्मचारी कहलाए । गोपियों के साथ उनका दिव्य प्रेम था, उसमें कामवासना की गंध भी नहीं थी । दस - ग्यारह वर्ष के बालक में कामवासना हो भी कैसे सकती थी ? वे सदा ही निर्गुण अनन्त ब्रह्म में स्थित रहते थे और अपने मन तथा शरीर का करणरूप से व्यवहार करते थे । वे प्रकृति के कार्यों के साक्षी थे । इसलिए वे ‘नित्य ब्रह्मचारी’ कहलाते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण को लोग साधारण बोल - चाल में ‘मुरलीमनोहर’ कहते हैं । यह उस शब्दब्रह्म का ही रूप है, जिससे सारे जगत की सृष्टि हुई हा । जब भगवान श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे, तब उसकी ध्वनि गोपियों के (कानों को केवल मधुर ही नहीं लगती थी, उन्हें जो देवताओं के अवतार थीं) एक विलक्षण प्रकार का दिव्य संदेश मिलता था । श्रीकृष्ण का त्रिभंगी होकर खड़े होना सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के अधिष्ठातृत्व का ही द्योतक है ।
‘क्लीं’ भगवान श्रीकृष्ण का बीजाक्षर है । इस मंत्र में बड़ी शक्ति है । इससे मनस्तत्त्व में जोर का स्पंदन होता है, जिससे मन की राजसी वृत्ति बदल जाती है । इससे चित्त एक प्रकार की प्रबल आध्यात्मिक कल्पना उत्पन्न होती है, जिससे उसकी शुद्धि, एकाग्रता तथा ध्यान में बड़ी सहायता मिलती है । इससे वैराग्य और अंतर्मुखी वृत्ति जागृत होती जागृत होती है, वासनाओं और विषय संस्कारों का क्षय होता है एवं संकल्प विकल्प का दमन होता है ।
हमारा हृदय ही असली वृंदावन है । भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए तुम्हें वृंदावन में ढूंढ़ना चाहिए । रुक्मिणी और राधा ये भगवान श्रीकृष्ण की दो शक्तियों हैं । अर्जुन जीवात्मा है और भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा हैं । हमारा मन जिसमें वृत्तियों का युद्ध हो रहा है - कुरुक्षेत्र हैं, मन, इंद्रिय, विषय - संस्कार, विषय - वृत्ति तथा स्वभाव के साथ युद्ध करना ही वास्तविक युद्ध है । द्रौपदी मन है, पांचों पाण्डव पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, जन्मांध धृतराष्ट्र मूल अविद्या है, गोपियां नाड़ी हैं, भिन्न भिन्न नाड़ियों को वश में करके आत्मनंद का अनुभव ही गोपियों के साथ विहार है, यही महाभारत युद्ध का आंतरिक अभिप्राय है ।
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