Saturday, 9 April 2016

चक्रिक भील

चक्रिक भील

अर्थात् ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और जो अन्य अन्त्यज लोग हैं, वे भी हरिभक्तिद्वारा भगवान की शरण होने से कृतार्थ हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है । यदि ब्राह्मण भी भगवान के विमुख हो तो उसे चाण्डाल से अधिक समझना चाहिए और यदि चाण्डाल भी भगवान का भक्त हो तो उसे भी ब्राह्मण से अधिक समझना चाहिये ।’

द्वापरयु में चक्रिक नामक एक भील वन में रहता था । भील होने पर भी उसके आचरण बहुत ही उत्तम थे । वह मीठा बोलने वाला, क्रोध जीतनेवाला, अहिंसापरायण, दयालु, दंभहीन और माता - पिता की सेवा करनेवाला था । यद्यपि उसने कभी शास्त्रों का श्रवण नहीं किया था तथापि उसके हृदय में भगवान की भक्ति का आविर्भाव हो गया था । सदा हरि, केशव, वासुदेव और जनार्दन आदि नामों का स्मरम किया करता था । वन में एक भगवान हरि की मूर्ति थी । वह भील वन में जब कोई सुंदर फल देखता तो पहले उसे मुंह में लेकर चखता, फल मीठा न होता तो उसे स्वयं खा लेता और यदि बहुत मधुर और स्वादिष्ट होता तो उसे मुंह से निकालकर भक्तिपूर्वक भगवान के अर्पण करता । वह प्रतिदिन इस तरह पहले चखकर स्वादिष्ट फल का भगवान के श्रद्धा से भोग लगाया करता । उसको यह पता नहीं था कि जूठा फल भगवान के भोग नहीं लगाना चाहिए । अपनी जाति के संस्कार के अनुसार ही वह सरलता से ऐसा आचरण किया करता ।

एक दिन वन में घूमते हुए भील कुमार चक्रिक ने एक पियाल वृक्ष का एक पका हुआ फल देखा । उसने फल तोड़कर स्वाद जानने के लिए उसको जीभपर रखा, फल बहुत ही स्वादिष्ट था, परंतु जीभ पर रखते ही वह गले में उतर गया । चक्रिक को बड़ा विषाद हुआ, भगवान के भोग लगाने लायक अत्यंत स्वादिष्ट फल खाने का वह अपना अधिकार नहीं समझता था । ‘सबसे अच्छी चीज ही भगवान को अर्पण करनी चाहिए’ उसकी सरल बुद्धि में यहीं सत्य समाया हुआ था । उसने दाहिने हाथ से अपना गला दबा लिया कि जिससे फल पेट में चला जाएं । वह चिंता करने लगा कि ‘अहो ! आज मैं भगवान को मीठा फल न खिला सका, मेरे समान पापी और कौन होगा ? ’ मुंह में अंगुली डालकर उसने वमन किया तब भी गले में अटका हुआ फल नहीं निकला । चक्रिक श्रीहरि का एकांत सरल भक्त था, उसने भगवान की मूर्ति के समीप आकर कुल्हाड़ी से अपना गला एक तरफ से काटकर फल निकाला और भगवान के अर्पण किया । गले से खून बह रहा था । पीड़ा के मारे व्याकुल हो चक्रिक बेहोश होकर गिर पड़ा । कृपामय भगवान उस सरल हृदय शुद्धांत:करण प्रेमी भक्त की महती भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये और चतुर्भुजरूप से साक्षात् प्रकट होकर कहने लगे -

इस चक्रिक के समान मेरा भक्त कोई नहीं, क्योंकि इसने अपना कण्ठ काटकर मुझे फल प्रदान किया है -

‘यद् द्त्त्वानृण्यमाप्नोति तथा वस्तु किमस्ति मे ।’

‘मेरे पास ऐसी क्या वस्तु है जिसे देकर मैं इससे उऋण हो सकूं ? इस भील पुत्र को धन्य है ! मैं ब्रहत्व, शिवत्व या विष्णुत्व देकर भी इससे उऋण नहीं हो सकता ।’

इतना कहकर भगवान ने उसके मस्तक पर हाथ रखा । कोमल करकमल का स्पर्श होते ही उसकी सारी व्यथा दूर हो गयी और वह क्षण उठ बैठा । भगवान उसे उठाकर अपने पीतांबर से जैसे पिता अपने प्यारे पुत्र के अंग की धूल झाड़ता है, उसके अंग की धूल झाड़ने लगे । चक्रिक ने भगवान को साक्षात् अपने सम्मुख देखकर हर्ष से मधुर वाक्यों से उनकी स्तुति की -

‘हे गोविंद, हे केशव, हे हरि, हे जगदीश, हे विष्णु ! यद्यपि मैं आपकी प्रार्थना करने योग्य वचन नहीं जानता तथापि मेरी रसना आपकी स्तुति करना चाहती है । हे स्वामी ! कृपाकर मेरे इस महान दोष का नाश कीजिए । हे चराचरपति, चक्रधारी ! जिस पूजा से प्रसन्न होकर आपने मुझपर कृपा की है, आपकी उस पूजा को छोड़कर संसार में जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं ।’

भगवान उसकी स्तुति से बड़े संतुष्ट हुए और उसे वर मांगने को कहा । सरल भक्त बोला -

हे परब्रह्म ! हे परमधाम !! हे कृपामय परमात्मन !! जब मैंने साक्षात् आपके दर्शन प्राप्त कर लिये हैं तो मुझे और वर की क्या आवश्यकता है ? परंतु हे लक्ष्मीनारायण ! आप वर देना ही चाहते हैं तो कृपाकर यहीं वर दीजिए कि मेरा चित्त आप में ही अचलरूप से लगा रहे ।

भक्तों को इस वर के सिवा और कौन सा वर चाहिए ? भगवान परम प्रसन्न हो अपनी चारों विशाल भुजाओं से चक्रिक का आलिंगन करके, भक्ति का वर दे, वहां से अंतर्धान हो गये । तदंतर चक्रिक द्वार का चला गया और वहां भगवत्कृपा से ज्ञान लाभकर अंत में देवदुर्लभ मोक्ष पद को प्राप्त हो गया । जो कोई भी भगवान की सरल, शुद्ध भक्ति करता है वहीं उन्हें पाता है -
जो मनुष्य दृढ़ भक्ति के द्वारा इंद्रादि देवपूजित वासुदेव भगवान के चरणकमल युगल की पूजा करता है, वहीं मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।

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