चंपकलता जी
इसी तरह फिर “चंपकलता जी” का वर्णन आता है. जो पाँचवी सखी है. क्योकि जितनी भी अष्टसखी है और उनकी भी जो सेविकाएँ है. सब का उद्देश्य क्या है ? राधा माधव की सुख सामग्री को एकत्रित करना है. ब्रज में माधुर्य भाव की प्रधानता है. और गोपियाँ भगवान को “कांतभाव” से ही भजती है. उन सब में डाह या जलन नहीं है.
जब एक सखी कृष्ण विरह में डूबी हुई होती है. तो दूसरी उसे दिलासा देती है. कि कृष्ण कहीं नहीं गए है वो हमारे पास ही है . सब एक दूसरे को समझाती है. जब वह दूसरी सखी स्वयं ही विरह में आ जाती है तो पहली सही उसे दिलासा देती है. सब एक दूसरे के भावों को समझती है.उनमें जलन नहीं है, कि कृष्ण हमारे है. ये नहीं है .गोपी भाव इतना उच्च है कि उसमें इन सब की जगह ही नहीं है.
प्रेम से परिपूर्ण वो ब्रज है, प्रेम से ही भगवान बने है , वो प्रेम ही खाते है, पीते है, वो प्रेमावतार है. राधा जी और सखिया भागवान को प्रेम ही देती है. जहाँ सब ओर प्रेम ही प्रेम बसा है –
“प्रेम की परीक्षा होती, प्रेम का ही प्रश्न पत्र,
उद्धव जैसे ज्ञानी आए, यहाँ प्रेम पढने को, वृदावंन प्रेम की पवित्र पाठशाला है”
भगवान चाहते तो उद्धव को खुद ही प्रेम की शिक्षा दे देते, पर प्रत्यक्ष देखने के लिए उन्हेांनें उनको भेजा वृदांवन. क्योंकि वहीं उन्हें प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता, जहाँ पर सखियाँ प्रोफेसर है, जो प्रेम पढाती है और उस पाठशाला की हेड कौन है ?
वो ”श्री राधा जी” है. जिनके अनुसार सारी चीजें होती है. ब्रज में राधा जी की कृपा के बिना कोई प्रवेश नही कर सकता,क्योकि वहाँ कर्म की प्रधानता नहीं है. वहाँ कृपा साध्य है. व्यक्ति चाहे कि अपने पुरूषार्थ से वहाँ प्रवेश पा ले, तो ऐसा नहीं हो सकता, वहाँ कर्म सारे खत्म हो जाते है. वहाँ तो कृपा ही सब कुछ है. जिस पर राधा जी की कृपा हो जाए कितनी सारी निकुंज में लीलाएँ होती है.
प्रसंग १. – जैसे काम्यक वन में ललिता कुडं है जिसमें वो स्नान किया करती है. और जब स्नान करती थी तो राधा और कृष्ण को मिलाने की चेष्टा करती थी तो एक दिन वो बैठे-बैठे हार बनाती, और तोड देती, हर बार यही करती फिर बनाती और फिर तोड़ देती. तो नारद जी उपर से ये देखते है. तो आकर ललिता से पूछते है – कि आप ये क्या कर रही हो ?
तो वो कहती है. कि मै कृष्ण के लिए हार बनाती हूँ. और मुझे लगता है कि ये हार छोटा होगा कृष्ण को तो मै तोड कर दूसरा बनाती हूँ, पर फिर लगता है कि ये बडा ना हो तो उसे भी तोड देती हूँ. इसी में बार-बार बनाकर तोडती हूँ।
तो नारद जी कहते है – कि भगवान को बुला लो और उनके सामने बना दो तो नारद जी जाकर बालकृष्ण को ले आते है. तो ललिता जी उनके नाप का हार बनाकर पहना देती है. नारद जी तो पहले ही भगवान से कहकर आते है कि आज मुझे ललिता कृष्ण की लीला देखनी है कृष्ण और ललिता जी को नायक-नायिका के रूप में देखना है.
तो भगवान ललिता जी से कहते है – आओ झूले पर बैठो, तो ललिता जी कहती है- . कि अभी राधा जी आती होगीं, पर भगवान के जिद करने पर वो बैठ जाती है. क्योंकि गोपियों का उद्देश्य भगवान का सुख है. तो नारद जी दोंनों झूले में देखकर बडे प्रसन्न होते है.
वैसा ही छोडकर वो राधा जी के पास आकर उनको भडकाने लगते है. और गाने लगते है. कि कृष्ण ललिता की जय हो, कृष्ण ललिता की जय हो, तो राधा जी कहती है क्या बात है नारद ? आज ललिता जी का नाम ले रहो, तो नारदजी कहती क्या प्यारी जोडी है झूले में ललिता और कृष्ण की.
तो राधा जी को रोष आ जाता है. और नारद जी वहाँ से चले जाते है. और वो झट ललिता कुडं में आकर देखती है कि यहाँ पर तो सारी सखियाँ झूला झुला रही है. तो वहाँ से चुपचाप चली जाती है. तो भवगान को लगता कि राधा जी अभी तक नहीं आई तो वो ढूढने जाते है. देखते है. तो राधा जी अपने निकुंज मे मान करते हुए बैठी है. तो वो मनाते है और राधा जी मान जाती है. फिर वो आकर माधव के साथ झूला झूलती है. और ललिता विषाखा जी सारी सखिया झूलाती है.
ये मान लीला है. राधा जी की. कोई साधारण नहीं है. राधा जी को लगता है. कि भगवान मेरे साथ-साथ ललिता जी को भी बिठाए झूले पर, राधा जी का इशारा पाकर भगवान ललिता जी को बिठा लेते है. तो फिर कुछ देर बाद फिर राधा रानी की इच्छा होती है कि अब मै झूले से उतर जाऊ और अब दूसरी ओर भगवान ललिता जी को बैठाए और वे वैसा ही करते है.
कहने का अभिप्राय कि ये वास्तव में लीला मात्र है. जो भगवान कृष्ण चाहते है. कि राधा जी मान करें राधा जी के अंदर मान, लेश मात्र नहीं है वो उच्च भाव में है. तो ऐसी निकुंज लीलाएँ है.
तो पाँचवी सखी है “चपंकलता सखी” है.
जो राधाकुडं के दक्षिण दिशा वाले दल पर “कामलता” नामक कुंज में निवास करती है. जो कि अतिशय सुख प्रदायनी है .शुद्ध स्वर्ण की तरह कांतिमय है. श्री चम्पकलता जी उसमे निकुज में विराजती है. ये कृष्ण की “वासक सज्जा” नायिका भाव से सेवा करती है.
यह वाम मध्या नायिका है चम्पक के समान इनकी देह कांति है ओर चातक छटा कि भांति श्वेत वस्त्र धारण करती है रत्नमाला पहराना और चामर झुलाने की सेवा है इनकी वयस १४ वर्ष २ मास १३ १/२ दिन की है माता का नाम- “वाटिका”, पिता का नाम – “आराम” और पति का नाम – “चंद्राक्ष” है.
राधा माधव सेवा –
निकुंज में “वासक सज्जा” और “चामर सेवा ” करती है .
श्री गौर लीला में –
कलियुग में श्री गौरलीला में यह “श्री शिवानंद” नाम से विख्यात हुई है.
चम्पकलता जी का मंत्र है –
“चम्पकलतायै स्वाहा “संत जन इसी मंत्र का उच्चारण करके ध्यान करते है –
चम्पकलता जी की ध्यान विधि –
चम्पकावलिसमान-कांतिकां चातकाभ-वासना सुभूषणाम् |
रत्नमाल्ययुत चामरोघातां चारुचम्पकलतां सदा भजे ||
इनकी वस्त्र सज्जा कैसी है – जैसे चास होता है, अर्थात नीलकंठ पक्षी के पंख के जैसे वस्त्र है. जिनकी अति श्रेष्ठ चंपक के जैसे अंग क्रांति है, जो सुन्दर रत्न जडित स्वर्ण चामर हाथ में धारण किये रहती है. जो नील के परों की भांति वस्त्र धारण करती है. जो गुणों मे विषाखा जी के समान है.हे राधे ! आपकी सखी की मै शरण ग्रहण करता हूँ.
वास्तव में राधा माधव से मिलने के लिए हमें गोपियों के चरण पकडने है. गोपीभाव उच्च है. जहाँ संतजन तपस्या के बाद भी नहीं पहुँच पाते है.
इनके यूथ में भी “आठ सखियाँ” है – कोरंगाक्षी, सुचरिता, मंडली, मणि कुण्डला, चंडिका, चन्दलतिका, कंदुकाक्षी, सुमंदरा ये आठ सखिया चम्पकलता के यूथ में सबसे प्रधान है, सारी सखियाँ इनकी सेवा में है.
इसी तरह फिर “चंपकलता जी” का वर्णन आता है. जो पाँचवी सखी है. क्योकि जितनी भी अष्टसखी है और उनकी भी जो सेविकाएँ है. सब का उद्देश्य क्या है ? राधा माधव की सुख सामग्री को एकत्रित करना है. ब्रज में माधुर्य भाव की प्रधानता है. और गोपियाँ भगवान को “कांतभाव” से ही भजती है. उन सब में डाह या जलन नहीं है.
जब एक सखी कृष्ण विरह में डूबी हुई होती है. तो दूसरी उसे दिलासा देती है. कि कृष्ण कहीं नहीं गए है वो हमारे पास ही है . सब एक दूसरे को समझाती है. जब वह दूसरी सखी स्वयं ही विरह में आ जाती है तो पहली सही उसे दिलासा देती है. सब एक दूसरे के भावों को समझती है.उनमें जलन नहीं है, कि कृष्ण हमारे है. ये नहीं है .गोपी भाव इतना उच्च है कि उसमें इन सब की जगह ही नहीं है.
प्रेम से परिपूर्ण वो ब्रज है, प्रेम से ही भगवान बने है , वो प्रेम ही खाते है, पीते है, वो प्रेमावतार है. राधा जी और सखिया भागवान को प्रेम ही देती है. जहाँ सब ओर प्रेम ही प्रेम बसा है –
“प्रेम की परीक्षा होती, प्रेम का ही प्रश्न पत्र,
उद्धव जैसे ज्ञानी आए, यहाँ प्रेम पढने को, वृदावंन प्रेम की पवित्र पाठशाला है”
भगवान चाहते तो उद्धव को खुद ही प्रेम की शिक्षा दे देते, पर प्रत्यक्ष देखने के लिए उन्हेांनें उनको भेजा वृदांवन. क्योंकि वहीं उन्हें प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता, जहाँ पर सखियाँ प्रोफेसर है, जो प्रेम पढाती है और उस पाठशाला की हेड कौन है ?
वो ”श्री राधा जी” है. जिनके अनुसार सारी चीजें होती है. ब्रज में राधा जी की कृपा के बिना कोई प्रवेश नही कर सकता,क्योकि वहाँ कर्म की प्रधानता नहीं है. वहाँ कृपा साध्य है. व्यक्ति चाहे कि अपने पुरूषार्थ से वहाँ प्रवेश पा ले, तो ऐसा नहीं हो सकता, वहाँ कर्म सारे खत्म हो जाते है. वहाँ तो कृपा ही सब कुछ है. जिस पर राधा जी की कृपा हो जाए कितनी सारी निकुंज में लीलाएँ होती है.
प्रसंग १. – जैसे काम्यक वन में ललिता कुडं है जिसमें वो स्नान किया करती है. और जब स्नान करती थी तो राधा और कृष्ण को मिलाने की चेष्टा करती थी तो एक दिन वो बैठे-बैठे हार बनाती, और तोड देती, हर बार यही करती फिर बनाती और फिर तोड़ देती. तो नारद जी उपर से ये देखते है. तो आकर ललिता से पूछते है – कि आप ये क्या कर रही हो ?
तो वो कहती है. कि मै कृष्ण के लिए हार बनाती हूँ. और मुझे लगता है कि ये हार छोटा होगा कृष्ण को तो मै तोड कर दूसरा बनाती हूँ, पर फिर लगता है कि ये बडा ना हो तो उसे भी तोड देती हूँ. इसी में बार-बार बनाकर तोडती हूँ।
तो नारद जी कहते है – कि भगवान को बुला लो और उनके सामने बना दो तो नारद जी जाकर बालकृष्ण को ले आते है. तो ललिता जी उनके नाप का हार बनाकर पहना देती है. नारद जी तो पहले ही भगवान से कहकर आते है कि आज मुझे ललिता कृष्ण की लीला देखनी है कृष्ण और ललिता जी को नायक-नायिका के रूप में देखना है.
तो भगवान ललिता जी से कहते है – आओ झूले पर बैठो, तो ललिता जी कहती है- . कि अभी राधा जी आती होगीं, पर भगवान के जिद करने पर वो बैठ जाती है. क्योंकि गोपियों का उद्देश्य भगवान का सुख है. तो नारद जी दोंनों झूले में देखकर बडे प्रसन्न होते है.
वैसा ही छोडकर वो राधा जी के पास आकर उनको भडकाने लगते है. और गाने लगते है. कि कृष्ण ललिता की जय हो, कृष्ण ललिता की जय हो, तो राधा जी कहती है क्या बात है नारद ? आज ललिता जी का नाम ले रहो, तो नारदजी कहती क्या प्यारी जोडी है झूले में ललिता और कृष्ण की.
तो राधा जी को रोष आ जाता है. और नारद जी वहाँ से चले जाते है. और वो झट ललिता कुडं में आकर देखती है कि यहाँ पर तो सारी सखियाँ झूला झुला रही है. तो वहाँ से चुपचाप चली जाती है. तो भवगान को लगता कि राधा जी अभी तक नहीं आई तो वो ढूढने जाते है. देखते है. तो राधा जी अपने निकुंज मे मान करते हुए बैठी है. तो वो मनाते है और राधा जी मान जाती है. फिर वो आकर माधव के साथ झूला झूलती है. और ललिता विषाखा जी सारी सखिया झूलाती है.
ये मान लीला है. राधा जी की. कोई साधारण नहीं है. राधा जी को लगता है. कि भगवान मेरे साथ-साथ ललिता जी को भी बिठाए झूले पर, राधा जी का इशारा पाकर भगवान ललिता जी को बिठा लेते है. तो फिर कुछ देर बाद फिर राधा रानी की इच्छा होती है कि अब मै झूले से उतर जाऊ और अब दूसरी ओर भगवान ललिता जी को बैठाए और वे वैसा ही करते है.
कहने का अभिप्राय कि ये वास्तव में लीला मात्र है. जो भगवान कृष्ण चाहते है. कि राधा जी मान करें राधा जी के अंदर मान, लेश मात्र नहीं है वो उच्च भाव में है. तो ऐसी निकुंज लीलाएँ है.
तो पाँचवी सखी है “चपंकलता सखी” है.
जो राधाकुडं के दक्षिण दिशा वाले दल पर “कामलता” नामक कुंज में निवास करती है. जो कि अतिशय सुख प्रदायनी है .शुद्ध स्वर्ण की तरह कांतिमय है. श्री चम्पकलता जी उसमे निकुज में विराजती है. ये कृष्ण की “वासक सज्जा” नायिका भाव से सेवा करती है.
यह वाम मध्या नायिका है चम्पक के समान इनकी देह कांति है ओर चातक छटा कि भांति श्वेत वस्त्र धारण करती है रत्नमाला पहराना और चामर झुलाने की सेवा है इनकी वयस १४ वर्ष २ मास १३ १/२ दिन की है माता का नाम- “वाटिका”, पिता का नाम – “आराम” और पति का नाम – “चंद्राक्ष” है.
राधा माधव सेवा –
निकुंज में “वासक सज्जा” और “चामर सेवा ” करती है .
श्री गौर लीला में –
कलियुग में श्री गौरलीला में यह “श्री शिवानंद” नाम से विख्यात हुई है.
चम्पकलता जी का मंत्र है –
“चम्पकलतायै स्वाहा “संत जन इसी मंत्र का उच्चारण करके ध्यान करते है –
चम्पकलता जी की ध्यान विधि –
चम्पकावलिसमान-कांतिकां चातकाभ-वासना सुभूषणाम् |
रत्नमाल्ययुत चामरोघातां चारुचम्पकलतां सदा भजे ||
इनकी वस्त्र सज्जा कैसी है – जैसे चास होता है, अर्थात नीलकंठ पक्षी के पंख के जैसे वस्त्र है. जिनकी अति श्रेष्ठ चंपक के जैसे अंग क्रांति है, जो सुन्दर रत्न जडित स्वर्ण चामर हाथ में धारण किये रहती है. जो नील के परों की भांति वस्त्र धारण करती है. जो गुणों मे विषाखा जी के समान है.हे राधे ! आपकी सखी की मै शरण ग्रहण करता हूँ.
वास्तव में राधा माधव से मिलने के लिए हमें गोपियों के चरण पकडने है. गोपीभाव उच्च है. जहाँ संतजन तपस्या के बाद भी नहीं पहुँच पाते है.
इनके यूथ में भी “आठ सखियाँ” है – कोरंगाक्षी, सुचरिता, मंडली, मणि कुण्डला, चंडिका, चन्दलतिका, कंदुकाक्षी, सुमंदरा ये आठ सखिया चम्पकलता के यूथ में सबसे प्रधान है, सारी सखियाँ इनकी सेवा में है.
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