Saturday, 9 April 2016

आदिगुरु श्रीकृष्ण



वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानंद कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।

यह संसार एक बहुत बड़ी पाठशाला है । इसमें अगणित जीव शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते हैं, और यथाधिकार निर्दिष्ट काल तक शिक्षा - लाभ कर चले जाते हैं, और फिर कुछ विश्राम के पश्चात् पुन: नये वेशभूषा के साथ इसमें आकर प्रवेश करते हैं । कहने का आशय यह है कि जीवन का एक जन्म उसके लिये इस पाठशाला का एक अध्ययन दिवस है । जब तक कोई यहां की पूरी पढ़ाई समाप्त न कर ले तब तक उससे मुक्ति दूर ही रहती है - उसे बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ना ही पड़ता है ।

यह पाठशाला अनादिकाल से चली आ रही है । अत्यंत आदर्श पाठशाला है, अति विचित्र है और अति प्राचीन होने पर भी नित्य नवीन है । शिक्षा का ढंग भी ऐसा अद्भुत है कि विद्यार्थियों को यह पता भी कठिनता से लग पाता है कि उन्हें शिक्षा मिल रही है । स्वल्पबोध छात्रों को तो स्नेहमयी प्रकृतिजननी अपनी गोद में लेकर शिक्षा देती हैं, और प्रौढ़ विद्यार्थियों को स्वयं परमपिता जगद्गुरु की वाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है ।

यह वाणी जिस मूर्ति के द्वारा सुनी जाती है उसे गुरु कहते हैं, क्योंकि वह शिष्य के अज्ञान को नाश करती है । ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का निरोध को कहते हैं अर्थात् जो अंधकार का नास करता है वह गुरु कहलाता है । पर वस्तुत: एक मनुष्य दूसरे का गुरु नहीं हो सकता । सबका गुरु तो वहीं एक परमात्मा है, वहीं किसी शरीर के द्वारा दूसरे को उपदेश देता है । उसी निमित्त कारण को हम लोग गुरु मानकर उसका आदर करते हैं, और वस्तुत: वही हमारे लिये परमेश्वर की मूर्ति है ।

पाठशाला के समस्त पाठ्य ग्रंथ वेदशास्त्रादि में इन्हीं दो (प्रवृत्ति और निवृत्ति) धर्मों का निरूपण है । प्रवृत्ति लक्षण धर्म समग्र इष्ट भोगों का देनेवाला है और निवृत्ति लक्षण धर्म मोक्षदाता है । केवल प्रवृत्ति लक्षण ही दोनों फलों को दे सकता है यदि पूर्ण निष्कामभाव से कर्म किया जाएं, क्योंकि निष्कामभाव के साथ कर्म करने से चित्त शुद्धि होती है और चित्त शुद्धि से निवृत्ति लक्षण धर्म की भी योग्यता आ जाती है जिससे मुक्ति होती है । इस प्रकार यह प्रवृत्ति धर्म भी निष्कामभावपूर्वक करने से परंपरा से मोक्ष का कारण है । ऐसी बात न होती, यदि यह भी मोक्ष तक पहुंचानेवाला न होता तो इसे पाठ्य ग्रंथ में स्थान ही क्यों मिलता ? क्योंकि जीव का परम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्त करना है ।

आदिगुरु नारायण भगवान ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से सदा संपन्न हैं, सर्व भूतों के ईश्वर हैं, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव हैं । उनका जन्म तो होता नहीं, वे नित्य अव्यय हैं, अत: अपनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया मीलप्रकृति को वश में करके उसी माया द्वारा जन्म लिये हुए की भांति प्रतीत हुए और शरीर की तरह अनुग्रह करते हुए दिखायी दिये ।इस प्रकार वेद और ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिये आदिकर्ता नारायण ने देव की और वसुदेव के घर में अवतार घारण किया । उस समय पाठशाला का एक अति गुणी छात्र अर्जुन जो सखारूप से सरकार की उपासना करता था, क्षात्रर्मानुसार युद्ध में स्वयं प्रवृत्त होकर भी शोकऔर मोह से अभिभूत हो अपने धर्म से हटने लगा । इस पर जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने उस योग्य पात्र को प्रवृत्ति निवृत्ति लक्षण धर्मों के सार गीताज्ञान का उपदेश दिया, जिसे पीछे से बगवान वेदव्यास ने 700 श्लोकों में व्यक्त किया । यहीं संक्षेप में जगद्गुरु श्रीकृष्ण का दिव्य जन्म कर्म है ।

यह गीता जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से कही है, इसी से इसकी इतनी महिमा है । इस पाठशाला में आने वाले अधिसंख्यक विद्यार्थियों को उस जगद्गुरु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, इसके लिये खेद करने की आवश्यकता नहीं है । वह रूप तो कालविशेष और प्रयोजनविशेष के लिये ही प्रकट हुआ था । अत: कार्य पूरा होने पर अंतर्धान हो गया । पर यह नित्यरूप गीताज्ञान तो सदा के लिये इस पाठशाला में बना ही हुआ है, इसलिये जिसे यहां आकर जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस ज्ञानमय रूप का दर्शन नहीं हुआ उसका जन्म निष्फल हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है, और जिसने इस ज्ञान को हृदय में स्थान दिया उसके हृदय में जगद्गुरु श्रीकृष्ण विराजमान हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं 

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