उत्तरी भारत में सरयू नदी के तट पर बसी अयोध्या,जहाँ त्रेता युग में दशरथ के पुत्र राम का जन्म हुआ था। अयोध्या, अर्थात् जहाँ कभी युद्ध नहीं होता।
एक दिन विश्वामित्र आए और अपने आश्रम के संरक्षण हेतु दो राजकुमार - राम और लक्ष्मण माँगे। विश्वामित्र और दशरथ के गुरू वसिष्ठ का पुराना मनमुटाव प्रसिद्ध है।
कहते हैं, विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे और वसिष्ठ उन्हें ‘राजर्षि’ कहते थे। विश्वामित्र की इच्छा ‘ब्रम्हर्षि’ कहाने की थी। अंत में विश्वामित्र क्रोध पर विजय प्राप्त कर सचमुच में ब्रम्हर्षि बने।
पर जब विश्वामित्र ने इन बालकों की जोड़ी को अपने आश्रम की रक्षा के लिए माँगा तो वसिष्ठ ने सहर्ष आज्ञा दिलवा दी। मानवता का और समाज का कार्य भगवान राम के द्वारा संपन्न होना था। श्री राम जी ने आश्रम के पास पड़ी ऋषि-मुनियों की हड्डियाँ देखीं,
‘तब करौं नि शाचरहीन महि भुज उठाय प्रन कीन्ह।’
विश्वामित्र के आश्रम में राम-लक्ष्मण ने शस्त्रास्त्रों की विद्या और उनके प्रयोग में दक्षता प्राप्त की।
जनकपुरी में सीता स्वयंवर रचा जा रहा था। राजा जनक ने प्रण किया था, जो शिव-धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी से सीता का विवाह होगा। विश्वामित्र भी आश्रमवासियों के वेश में दोनों कुमारों सहित उस स्वयंवर में पधारे। जनकपुरी और अयोध्या राज्यों में स्पर्धा थी - राजा दशरथ को संभवतया निमंत्रण भी न था।
उस विशाल स्वयंवर में रावण आदि महाबली राजा भी धनुष न हिला सके। तब राजा जनक ने दु:खित होकर कहा,
‘वीर विहीन मही मैं जानी।’
इस पर लक्ष्मण को क्रोध आ गया। उन्होंने भाई की ओर ताका । विश्वामित्र का इशारा पाकर राम ने धनुष उठा लिया; पर प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। सीता ने स्वयंवर की वरमाला राम के गले में डाल दी।
अपने इष्टदेव के धनुष टूटने पर परशुराम जनक के दरबार में पहुँचे पर मानव जीवन में पुन: मर्यादायें स्थापित करने के लिए एक नए अवतार की आवश्यकता थी।
इस प्रकार भारत के दो शक्तिशाली घराने और राज्य एक बने। वसिष्ठ-विश्वामित्र की अभिसंधि सफल हुई। पुराना परशुराम युग गया और राम के नवयुग का सूत्रपात हुआ।
धनुष-यज्ञ प्रकरण के अनेक अर्थ लगाने का प्रयत्न हुआ है। कई लोग इसको अनातोलिया (अब एशियाई तुर्की) की कथा बताकर एक विचित्र अर्थ लगाते थे।
पुराने एशिया से यूरोप के व्यापार मार्ग बासपोरस (Bosporus) तथा दानियाल (Dardnelles) जलसंधियों को पार करके जाते थे। उसके उत्तर में फैला था काला सागर, कश्यप सागर और अरब सागर को संभवतया समेटता महासागर, जिसके कारण यूरोप (प्राचीन योरोपा, संस्कृत ‘सुरूपा’) एक महाद्वीप कहलाया।
इन्हीं के पास यूनान के त्रिशूल प्रदेश में जहॉं सलोनिका नगर है) से लेकर मरमरा सागर (Sea of Marmara) तक शिव के उपासक रहते थे। किंवदंती है कि ये व्यापारियों को लूटते-खसोटते और कर वसूलते थे। अनातोलिया का यह भाग धनुषाकार है।
सीता स्वयंवर के समय इसी को निरापद करने का कार्य शिव के धनुष का घेरा तोड़ना कहलाया। बदले में किए गए रावण द्वारा सीता-हरण की ध्वनि इलियड में ‘हेलेन’ व ‘ट्रॉय’ की कहानी में मिलती है। संसार की अनेक दंत-कथायें इसी प्रकार उलझी हुई हैं और उनके अनेक अर्थ लगाए जा सकते हैं।
विश्वामित्र के आश्रम में उनके जीवन का लक्ष्य निश्चित हो चुका था। पर अयोध्या आने पर दशरथ ने उनका राज्याभिषेक करने की सोची।
किंवदंती है कि इस पर देवताओं ने मंथरा दासी की मति फेर दी। युद्धस्थल में कैकेयी के अपूर्व साहस दिखाने पर दशरथ ने दो वर देने का वचन दिया था।
मंथरा के उकसाने पर कैकेयी ने वे दोनों वर माँग लिये—भरत को राज्य और राम को चौदह वर्ष का वनवास। इसने इतिहास ही मोड़ दिया।
वन-गमन के मार्ग में राम के आश्रम के सहपाठी निषादराज का वृत्तांत आता है। उनकी नगरी श्रंगवेरपुर में उन्हीं की नौका से राम, लक्ष्मण और सीता ने गंगा पार की।
तब उन दिनों के सबसे विख्यात विश्वविद्यालय भरद्वाज मुनि के आश्रम में गए और उनके इंगित पर चित्रकूट। भरत और कैकेयी के अनुनय के बाद भी जब राम पिता का वचन पूरा किये बिना लौटने को राजी न हुए तो भरत उनकी पादुकायें ले आए। बाहर नंदि ग्राम में रहकर उन्होंने अयोध्या का शासन किया—राम की पादुकाओं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर, उनके प्रतिनिधि के रूप में।
राम वहाँ से पंचवटी गए। बाद की घटनाओं में दो संस्कृतियों के संघर्ष के दर्शन होते हैं। षड्रस व्यंजन त्याग जंगली कंद-मूल-फल खाए। ब्रम्हचारी वनवासी जीवन अपनाया।
रावण की बहन शूर्पणखा को राम का नहीं करना और अंत में सीता-हरण। राम ने स्नेह का आदर भीलनी शबरी के जूठे बेर खाकर किया। सैन्य-विहीन, निर्वासित अवस्था में लगभग अकेले ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ नामक वनवासीजातियों (ये उनके गण-चिन्ह थे, जिनसे वे जानी जाती थीं) का संगठन कर लंका पर अभियान किया।
रावण की विरोधी और राक्षसी अपार शक्ति को नष्ट कर राज्य विभीषण को सौंप दिया। लक्ष्मण के मन की बात समझकर कि इस सुख-सुविधा से भरपूर लंका में क्यों न रूकें, राम के मुख से प्रकटे वे अमर शब्द,
‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।‘
राम ने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया, इसी से ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ कहलाए। अयोध्या में राजा के रूप में प्रजा-वात्सल्य की एक अपूर्व घटना आती है, एक बार प्रजा की स्थिति जानने के लिए राम रात्रि में छिपकर घूम रहे थे कि एक धोबी अपनी पत्नी से कह रहा था,
‘अरी, तू कुलटा है, पराए घर में रह आई। मैं स्त्री – लोभी राम नहीं हूँ, जो तुझे रखूँ।‘
बहुतों के मुख से बात सुनने पर लोकापवाद के डर से उन्होंने अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण गर्भवती सीता का परित्याग किया। वह वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। उन्होंने दो जुड़वाँ पुत्र-लव और कुश—को जन्म दिया। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के भी दो-दो पुत्र हुए।
राम ने गृहस्थ मर्यादा के अनुरूप एक-पत्नीव्रत धारण किया था। इसलिए राजसूय यज्ञ के समय सीता की स्वर्ण मूर्ति अपनी बगल में बैठाकर यजन किया।
निर्वासित सीता ने राम को हृदय में धारण करते हुये अपने पुत्रों को वाल्मीकि के हाथों सौंपकर निर्वाण लिया। तब समाचार सुनकर राम अपने शोकावेश को रोक न सके।
वह ब्रम्हचर्य व्रत ले प्रजा-रंजन में लगे। पर उस दु:ख से कभी उबर न पाए। कहते हैं कि एक आदर्श राज्य का संचालन अनेक वर्षो तक करने के बाद एक दिन राम, भरत और लक्ष्मण ने (तथा उनके साथ कुछ अयोध्यावासियों ने) सरयू में जल-समाधि ले ली। अयोध्या उजड़ गई।
शत्रुघ्न ने मधुबन में मधु के पुत्र लवण राक्षस को मारकर वहाँ मथुरापुरी बसाई थी। लव के नाम पर लाहौर बसा और कुश ने बसाया महाकौशल का दक्षिणी भाग। जब अयोध्या की दशा का पता चला तब कुश की प्रेरणा से उनके पुत्रों ने पुन: अयोध्या बसाई।
सुंदर
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