समय का स्वाभाविक नपना एक अहोरात्र (दिन-रात) है। इसी का सूक्ष्म रूप ‘होरा’ है, जिससे अंग्रेजी इकाई ‘आवर’ (hour) बनी। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक वर्ष घूमती है, जिसमें ऋतुओं का एक क्रम पूर्ण होता है। इसे ज्योतिष में ‘सायन वर्ष’ कहते हैं। यह ३६५.२५६ अहोरात्र के बराबर है।
चंद्रमा, जिसका एक ओर का चेहरा ही सदा पृथ्वी से दिखता है, एक चंद्रमास में (जो २७ अहोरात्र ७ घंटा ४३ मिनट ८ सेकेंड का होता है) पृथ्वी का एक चक्कर लगाता है। हमारे पंचांग में चंद्रमास से गणना एवं सौर गणना की असंगति को मिटाने के लिए ढाई वर्ष के अनंतर एक चंद्रमास बढ़ा देने की परंपरा है, जिसे अधिमास (अर्थात अधिक मास) कहते हैं।
प्राचीन काल से समय की गणना भारत स्थित उज्जैन के समय ( देशांतर ८२०.३०) से होती थी, जो ग्रीनविच (Greenwich) समय से ५.३० घंटे पहले है। यह पुरातन काल में अंतरराष्ट्रीय काल-गणना की पद्धति थी।
भारतीय ज्योतिष (astronomy) के ‘सूर्य- सिद्धान्त’ के अनुसार एक महायुगीन इकाई ‘मन्वंतर’ है। कृतयुग (सतयुग), त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलाकर एक चतुर्युगी हुई। कलियुग के ४,३२,००० वर्ष होते हैं, द्वापर उसका दुगुना, त्रेता उसका तिगुना और कृतयुग उसका चौगुना है। अर्थात एक चतुर्युगी कलियुग की दस गुनी हुई।
इस प्रकार ७१ चतुर्युग एक ‘मन्वंतर’ बनाते हैं। प्रत्येक मन्वंतर के बाद कृतयुग के बराबर (१७,२८,००० वर्ष) की संध्या अथवा संधिकाल है। इस प्रकार 14 मन्वंतर और उनके संधिकाल की १५ संध्या ( जो स्वयं मिलकर ६ चतुर्युगों के बराबर है), अर्थात १००० चतुर्युगों के बराबर एक ‘कल्प’ (४.३२x१०^९ वर्ष) है। यह ब्रम्हा का एक दिवस है।
2 कल्प मिलकर ब्रम्हा का ‘अहोरात्र’ और ऐसे ३६० ब्रम्ह अहोरात्र मिलकर ब्रम्हा का एक वर्ष कहाते है।
काल के जिस प्रथम क्षण से हमारे यहाँ गणना आरंभ हुई, उससे इस समय ब्रम्हा के ५१ वें वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात कल्प है।
काल के जिस प्रथम क्षण से हमारे यहाँ गणना आरंभ हुई, उससे इस समय ब्रम्हा के ५१ वें वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात कल्प है।
इस कल्प के भी ६ मन्वंतर अपनी संध्या सहित बीत चुके हैं। यह सातवाँ (वैवस्वत) मन्वंतर चल रहा है। इसके २७ चतुर्युग बीत चुके हैं, अब २८वें चतुर्युग के कलियुग का प्रारंभ है। यह विक्रमी संवत कलियुग के ३०४४ वर्ष बीतने पर प्रारंभ हुआ।
जब हम किसी धार्मिक कृत्य के प्रारंभ में ‘संकल्प’ करते हैं तो कहते हैं—‘ब्रम्हा के द्वितीय परार्द्ध में, श्वेत वारह कल्प में, ७वें ( वैवस्वत) मन्वंतर की २८वीं चतुर्युगी के कलियुग में, इस विक्रमी संवत की इस चंद्रमास की इस तिथि को, मैं संकल्प करता हूँ—‘ इतने विशाल ‘काल’ इकाई की आवश्यकता सृष्टि एवं सौरमंडल के काल-निर्धारण के लिए हुई।
खगोलीय वेध से ग्रहों की गति जानने के बाद हमारे पूर्वजों ने सोचा होगा, वह कौन सा वर्ष होगा जिसके प्रारंभ के क्षण सभी ग्रह एक पंक्ति में रहे होंगे। यह विज्ञान की उस कल्पना के अनुरूप है जो सौरमंडल का जन्म किसी अज्ञात आकाशीय भीमकाय पिंड के सूर्य के पास से गुजरने को मानते हैं, जिससे उसका कुछ भाग गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर तथा ठंडा होकर सूर्य के चक्कर लगाते भिन्न-भिन्न ग्रहों के रूप में सिकुड़ गया।
तभी से काल-गणना का प्रारंभ मान लिया। इस प्रकार यह कल्प अर्थात ब्रम्हांड विक्रमी संवत के १.२१५३१०४१x१०^८ वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। अपने यहाँ इसे प्रलय के बाद नवीन सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं। इस समय ब्रम्हा की रात्रि समाप्त हुई, संकोचन समाप्त हुआ और विमोचन से सृष्टि फिर जागी। सुदूर अतीत में की गई भारतीय ज्योतिष की इस काल-गणना को आधुनिक खोजों ने सर्वोत्तम सन्निकट अनुमान बताया है।
सौरमंडल कैसे बना, इसके बारे में वैज्ञानिकों के दो मत हैं। पहले सौरमंडल की उष्ण उत्पत्ति की परिकल्पना थी। सूर्य के प्रचंड तरपमान पर, जहॉं सारी धातुऍं तापदीप्त वाष्प अवस्था में हैं, यह चक्कर खाता सूर्य गोला जब किसी विशाल आकाशीय पिंड के पास से गुजरा तो उसके प्रबल गुरूत्वाकर्षण से इसका एक भाग टूटकर अलग हो गया।
परंतु फिर भी सूर्य के गुरूत्वाकर्षण से बँध रहकर यह सूर्य की परिक्रमा करने लगा। कालांतर में ठंडा होकर उसके टुकड़े हो गए और वे ठोस होकर ग्रह बने। इसी से सूर्य के सबसे पास और सबसे दूर के ग्रह सबसे छोटे हैं तथा बीच का ग्रह बृहस्पति सबसे बड़ा है।
संभवतया एक ग्रह मंगल एवं बृहस्पति के बीच में था, जो किसी कारण से चकनाचूर हो गया और उसके भग्नावशेष छोटी-छोटी ग्रहिकाओं के रूप में दिखते हैं। पृथ्वी, जो कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि नाशपाती की तरह थी, के सिर का टुकड़ा टूटकर पृथ्वी की परिक्रमा करने लगा। इसी से प्रशांत महासागर का गड्ढा और चंद्रमा उपग्रह बना। अमृत मंथन की पौराणिक गाथा है कि सागर से चंद्रमा का जन्म हुआ।
धीरे-धीरे ऊपरी पपड़ी जम गई, पर भूगर्भ की अग्नि कभी-कभी ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ती है। वर्तमान में सौरमंडल की शीत उत्पति की एक नई कल्पना प्रस्तुत हुई है। पर साधारणतया आज वैज्ञानिक एक विस्फोट (big bang) में सौरमंडल की उत्पत्ति मानते हैं, जब पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए।
आजकल बिग बैंग सौरमंडल की उत्पत्ति मानी जाती है। उसी समय पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए। उस समय वनस्पतिविहीन पृथ्वी में तूफान नासलीला करते होंगे। पृथ्वी के घूर्णन (revolution) में अपकेंद्री बल (centrifugal force) के कारण तप्त वाष्प के रूप में भाप आदि ऊपर आ गए या ठंडे हो रहे धरातल से उष्णोत्स (geyser) के रूप में फूट निकले।
जल क्रिया से परतदार तलछटी शैल ( sedimentary rocks) का कालांतर में निर्माण हुआ। ज्वालामुखी ने अग्नि तथा लावा बरसाया। भूकंप और अन्य भीम दबाव ने बड़े-बड़े भूखंडों को खिलौने की तरह तोड़ डाला, इनसे पहाड़ों का निर्माण हुआ।
ये तलछटी शैल पुन: अग्नि में पिघलकर बालुकाश्म (sandstone) या आग्नेय शैल (igneous rocks ) बने। इस तरह अनेक प्रकार की पर्वतमालाओं का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया वाराह अवतार के रूप में वर्णित है।
पृथ्वी पर फैली आज की पर्वत-श्रृंखला को देखें, अथवा उसके किसी प्राकृतिक मानचित्र को लें। इसमें हरे रंग से निचले मैदान तथा भूरे,स्लेटी, बैंगनी और सफेद रंग से क्रमश: ऊँचे होते पर्वत अंकित हैं। यह पर्वत-श्रेणी मानो यूरोप के उत्तर नार्वे ( स्कैंडिनेविया : स्कंद देश) में फन काढ़े खड़ी है।
फिर फिनलैंड से होकर पोलैंड, दक्षिण जर्मनी होते हुए स्विस आल्पस ( Swiss Alps) पर्वत पर पूर्व की ओर घूम जाती है। यहाँ से यूगोस्लाविया, अनातोलिया (एशियाई तुर्की), ईरान (आर्यान) होकर हिंदुकुश पर्वत, फिर गिरिराज हिमालय, आगे अल्टाई और थियनशान के रूप में एशिया के सुदूर उत्तर-पूर्व कोने से अलास्का में जा पहुँचती है।
वहाँ से यह पर्वत-श्रेणी राकीज पर्वतमाला बनकर उत्तरी अमेरिका और एंडीज पर्वत-श्रृंखला बनकर दक्षिणी अमेरिका पार करती है। अंत में इस सर्पिल श्रेणी की टेढ़ी पूँछ नई दुनिया के दक्षिणी छोर पर समाप्त होती है।
पुरानी दुनिया के उत्तर नार्वे से नई दुनिया के दक्षिणी छोर तक इस संपूर्ण नगराज को लें। इसने सर्प की भाँति इस सारी दुनिया को आवेष्टित कर रखा है। हिमयुग के बाद पिघलती बर्फ के जल से प्लावित संसार में उभरा हुआ कुछ शेष रहा तो यह नगराज। मानो इसके द्वारा धरती की धारणा हुई। यही पुरानी भारतीय कल्पनाओं का शेषनाग है।
यह हमारी पृथ्वी ४०,००० किलोमीटर परिधि का गोला है। इसका ज्ञान ऊपरी पपड़ी तक सीमित है। इसे चारों ओर से अवगुंठित करता वायुमंडल ऊपर क्षीण होता जाता है और चिडियाँ कठिनाई से छह किलोमीटर ऊँचाई तक उड़ सकती हैं तथा वायुयान दस किलोमीटर तक।
उष्णकटिबंध में भी सात किलोमीटर के ऊपर हिम से ढके पर्वतों पर कोई जीवन नहीं है। सागर में मछलियाँ या वनस्पति लगभग पाँच-किलोमीटर गहराई तक ही मिलती हैं। इसी धरातल में जीवन का विकास हुआ।
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