जैन परंपरा के अनुसार उनके प्रथम तीर्थंकर (प्रवर्तक अथवा शास्त्रकार) ऋषभदेव थे, जिनका उल्लेख भागवत पुराण में (एकादश स्कंध के चतुर्थ अध्याय में) विष्णु के एक अवतार के रूप में आता है। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार के साधनों का उपदेश दिया।
महाभारत युद्घ के समय जैन मत के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे। नाथ संप्रदाय के लोग नेमिनाथ को अपना आदि आचार्य मानते हैं। और अंत में चौबीसवें तीर्थंकर महावीर गौतम बुद्घ के समकालीन कहे जाते हैं।
शांति के बहुत बड़े कालखंड में भी महाभारत युद्घ की त्रासदी भूली नहीं होगी। वह वेदव्यास की वाणी में गूंजती रही और सैनिक वृत्ति थी ही। भारत में चारों ओर फैले छोटे गणराज्य (republics) थे, जिनमें खेल-कूद, सैनिक शिक्षण, शौर्य का प्रदर्शन वस्तुत: अनिवार्य था।
यही सब और शास्त्रों का ज्ञान प्रमुख (राजा) के चयन का आधार था। तब इसे संयोग कैसे कहें कि जैन मत के सभी चौबीस तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय परिवार अर्थात् सैनिक परंपरा में हुआ; किंतु 'अहिंसा' जैनियों का मूल मंत्र बना।
यह कैसे हुआ कि सिद्घार्थ गौतम (जो बुद्घ बने) का जन्म भी सैन्य वृत्ति करने वाले क्षत्रिय कुल में हुआ और उन्होंने भी 'अहिंसा' अपनाई। यह किसी युद्घ की विभीषिका की प्रतिक्रिया न थी। यह तो थी नचिकेता सरीखी जिज्ञासा, जिसने वेद वाक्य को भी चुनौती दी और था समाज तथा जीवन -मृत्यु के रहस्य उद्भासित करने की तीव्र आकांक्षाजनित का फल। इससे भारत में सभ्यता एवं संस्कृति के उत्कर्ष की कल्पना की जा सकती है, जैसा संसार में अन्य कहीं, कभी नहीं हुआ।
प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष द्वारा शिव को शाप देने पर पुरोहित हँसे थे, तब नंदी का पुरोहितों को बदले में दिया गया शाप सच हो आया। पुरोहितों में सांसारिक वस्तुओं के भोग की प्रवृत्ति जगी।
वे कर्मकांडी रह गए; जीव हत्या करते और यज्ञ में बलि चढ़ाते। सिद्घान्त से जन्म-मरण और पुनर्जन्म का चक्र प्राणियों को मानव के साथ जोड़ता है। (जातक कथाएं बुद्घ की पशु-पक्षी के रूप में पूर्वजन्म की गाथाएं हैं।) इसलिए जनमानस में पशुबलि पर आपत्ति स्वाभाविक थी।
महावीर ने कहा, 'जीव, वनस्पति और जड़ वस्तुओं के प्रति भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। वेद के नाम पर दी जाने वाली बलि निरर्थक है।' स्पष्ट ही यह अहिंसा बलवान की थी। उनकी, जिन्होंने इच्छाशक्ति से इंद्रियों पर विजयी हो संयम सीखा तथा भोग्य वस्तुओं को त्याग निवृत्ति मार्गी बने।
वर्द्घमान (जो महावीर कहलाए) का जन्म वैशाली (आधुनिक बसढ़, बिहार) के पास कौंडिन्यपुर (क्षत्रियकुंडपुर ग्राम) के प्रमुख के घर, वैशाली के लिच्छवि गणराज्य के राजा की पुत्री त्रिशला देवी की कोख से हुआ था।
क्षत्रियों के योग्य शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनके चिंतनशील मन को जगत् असार लगने लगा। विवाह एवं पुत्री के जन्म के बाद अट्ठाईस या तीस वर्ष की अवस्था में घर-द्वार छोड़ संन्यासी बने। तब बारह वर्ष तक घोर तपस्या एवं साधना की। अनेक वर्ष वस्त्र त्यागकर नग्न बिताए।
अज्ञानियों के हाथों तिरस्कार एवं कष्ट झेले; पर मन में विषाद, क्रोध आदि न आने दिया। किसी जीव और जड़ को उनके द्वार पीड़ा न पहुंचे, इसका सतत प्रयत्न किया। जीवन में उन सिद्घांतों को उतारा जो जैन मत का मूल चिंतन था। तब उन्हें कैवल्य - अर्थात् संशय तथा भ्रमरहित ज्ञान - प्राप्त हुआ। वह महावीर बने।
'जिन' का अर्थ विजेता है- अर्थात् जिनसे मोह, राग-द्वेष आदि आत्मा के शत्रुओं पर विजय प्राप्त की हो। ऐसे जो तीर्थंकर 'जिन' हुए उनके अनुयायी 'जैन' कहलाए।
वर्द्घमान का परिवार तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जो उनके लगभग २५० वर्ष पहले हुए, का अनुयायी था। उन्हीं के अनुगामी बने। अपने निर्ग्रन्थ (गांठरहित अर्थात् बंधनों से मुक्त) मत के प्रचार के लिए महावीर ने बिहार तथा उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर विहार (भिक्षुओं के मठ) स्थापित किए।
उन्होंने जैन समुदाय को संगठित किया। मत में दीक्षित करने के लिए सरल पद्घति अपनाई और उसमें सम्मिलित होने के आकांक्षी स्त्री-पुरूष-सभी को लिया, चाहे वे जिस वर्ण के हों। वर्ण-भेद को कर्मणा माना।
पार्श्वनाथ ने प्रत्येक जैन को चार व्रत अपनाने को कहा-अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना; पर निरी आवश्यकता से अधिक रखना भी चोरी मानी) और अपरिग्रह (शरीर के लिए जितना आवश्यकता हो उससे अधिक न लेना) । पर महावीर ने अंतिम व्रत अपरिग्रह को दो भागों में विभाजित कर दिया--ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह। उनका पंचाणुव्रत संप्रदाय कहलाया।
अहिंसा- अर्थात् जीव, वनस्पति और जड़ वस्तुओं, सभी के प्रति कर्म, वचन और मन से अहिंसा का भाव रखना। यह जैनियों का मूल मंत्र है। महावीर ने कहा, 'सजीव-अजीव किसी को पीड़ा पहुंचाने के अतिरिक्त काम-भोगों में आसक्ति भी हिंसा है, इसलिए सच्ची अहिंसा क्रोध, राग-द्वेष आदि विकारों पर विजय, इंद्रिय-दमन और समस्त कुवृत्तियों को त्यागने में है।'
द्वितीय, कर्म का सिद्घान्त,जिसे सर्वोपरि माना। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है, क्योंकि अच्छे-बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलता है। सत्कर्मों द्वारा मनुष्य अपने विकास के चरमोत्कर्ष को पहुंच सकता है और यही ईश्वर है। इस प्रकार सब भेदभावों को मिटा, मानव के लिए निर्ग्रंथ राग-द्वेषरहित होने को मोक्ष (सृष्टि के प्रपंच से मुक्ति) का मार्ग बताया।
जैन दर्शन का तीसरा आधार 'अनेकांतवाद' है। इसे अहिंसा का व्यापक रूप कह सकते हैं। यह वैचारिक सह-अस्तित्व की घोषणा है। एक ही बात किसी दृष्टिकोण से है, पर दूसरे दृष्टिकोण से नहीं है- इसे 'स्याद्वाद' कहते हैं। यह 'ही' ठीक है, इस आग्रह से विवाद खड़े होते हैं। यह 'भी' ठीक है, इससे विवाद समाप्त होते हैं। यह सच्चा, किसी को पीड़ा न पहुंचाने का मार्ग है।
स्पष्ट रीति से जैन मत में साम्य (समता) भाव प्रतिष्ठित हुआ। अपने चरित्र तथा व्यवहार द्वारा जीवन में जो असमानता है उसे दूर करना जैन मत का 'संवर' (मनोनिग्रह) है।
भारतीय दर्शन का वह पक्ष लेकर जिसकी उस समय आवश्यकता थी, यह मत बढ़ा। यह दृष्टिकोण वही है जो उपनिषदों के 'ब्रम्हन' की कल्पना है, या उससे जनित होती है। ऎसा आचरण, व्यवहार एवं दार्शनिक विचार जो समता की वृत्ति उत्पन्न करे उसे ही जैन मत में 'ब्रम्हचर्य' कहा गया।
'श्रमण', जिसमें समानता मूर्तिमंत हुई हो, ही (वैदिक) 'ब्राम्हण' है। इसी से जैन मत का मोक्षमार्ग रत्न-त्रय पर आधारित है--सम्यक् दर्शन (सही श्रद्घा), सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र (सही आचार)। ये भागवत के भक्तिमार्ग, वेदांतिन के ज्ञानमार्ग और मीमांसाकों के कर्ममार्ग का स्थान ले लेते हैं।
भक्ति, ज्ञान तथा कर्म को अकेले महत्व न देते हुए जैन मत का आग्रह है इन तीनों का एक साथ व्यक्ति के अंदर उदय, जिससे सांसारिक प्रपंच से मुक्ति प्राप्त हो। इसकी तुलना दवा की आरोग्य करने की प्रक्रिया से दी जाती है; दवा पर विश्वास चाहिए तथा उसके उपयोग करने की विधि का ज्ञान और उसे लेने का कर्म भी चाहिए।
एक बार वैदिक षडदर्शन पर दृष्टि डालने से दिखता है कि प्राचीन भारतीय चिंतन से युगानुकूल मानव-मूल्यों के अनुरूप तत्व को जैन दर्शन ने किस प्रकार आगे बढ़ाया। यही इसकी व बौद्घ चिंतन की अलौकिकता है। महावीर ने गणतंत्र पद्घति, जो इस कालखंड में भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का सर्वत्र आधार थी, अपनाकर जैन चैत्य-विहारों (जैन मठों) का गठन किया। सर्वसाधारण जैन मतावलंबियों और जैन मुनियों के लिए अलग-अलग व्यवहार नियम निर्धारित किए तथा जैन मत को एक सुदृढ़ नींव पर खड़ा किया।
महावीर की देशना (उपदेश) से जैन मत बड़ा व्यापक बना। उसे समय-समय पर राजाश्रय भी प्राप्त हुआ। मगध के राजा बिंबिसार ने जैन मत स्वीकार किया। चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मगध में भयंकर अकाल पड़ा। उसके बाद पाटलिपुत्र में जैन आगमों (मान्य पाठ) की प्रथम बांचना हुई।
कहा जाता है कि चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ली और दक्षिण के जैन तीर्थ श्रवणबेलगोला (जहां अब संसार की सबसे बड़ी जैन मुनि बाहुबली की प्रतिमा स्थापित हुई में देह-त्याग किया। सम्राट् अशोक के पौत्र संप्रति ने भी जैन दीक्षा ली।
कलिंग (उत्कल) के राजा खारवेले ने जैन मत अपनाया। राज्य में ऋषभदेव की प्रतिमा तथा जैन साधुओं के लिए गुफा खुदवाई। मथुरा, गिरिनार (मुजरात), पैठन (महाराष्ट्र), आबू (राजस्थान) जैनियों के केंद्र बने, जहां अत्यंत सुंदर मंदिर और भवन निर्मित हुए।
जैनियों ने उस समय की अपभ्रंश भाषाओं में अर्द्घ-मागधी (प्राकृत का वह रूप, जो पटना से मथुरा तक प्रचलित था) एवं शौरसेनी ( मथुरा के आसपास की भाषा) में अपने उपदेश दिए। इनमें जैन साहित्य का सृजन हुआ।
इससे भारत की अपभ्रंश भाषाओं के साहित्यिक विकास में अभूतपूर्व योगदान मिला। जैनियों द्वारा भारत की स्थापत्य कला के विकास के उदाहरण आज सारे देश में फैले हैं। भारत की अधिकांश आधुनिक भाषाएं उस समय की देन हैं और आज जैन मत संबंधी बहुत सी जानकारी तमिल ग्रंथों में मिलती है।
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