विक्रमी संवत् से ४५२ वर्ष पूर्व (यह आचार्य उदयवीर शास्त्री का मय-निर्धारण है) केरल के एक गांव में प्रसिद्घ वेदांती शंकर (जो बाद में आदि शंकराचार्य कहलाए) का जन्म हुआ। वह अद्वैत दर्शन के आचार्य हुए; आज के हिंदू विचारों में जिनका सबसे अधिक प्रभाव दिखता है। कम आयु में ही वह संन्यासी हुए।
जिसे इतिहास उनकी 'दिग्विजय' कहता है, वह काशी से प्रारंभ की। वहां मीमांसा-दार्शनिक मंडन मिश्र के साथ प्रसिद्घ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी भाती निर्णायिका थी। उसके बाद उन्होंने सादे देश को मथ डाला।
भारत के चार कोनों में, दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में पुरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में शंकराचार्य ने मठ स्थापित किए। ये विहारों की परंपरा के अनुसार संचालित होते थे। इनका कार्यक्षेत्र तथा नियम भी 'मठाम्नाय' और 'महानुशासनम्' द्वारा निर्धारित किए।
समूचे देश में 'दशनाम' संन्यासियों के अखाड़े प्रारंभ किए। इन्हें देश की नागरिक सेना कह सकते हैं। इन दशनाम संन्यासियों में पुरी, सागर, गिरि, पर्वत, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, भारती, सरस्वती जैसे नाम थे।
स्पष्ट ही यह भिन्न-भिन्न स्थलों की रक्षा के लिए बनाई संन्यासियों की सेना थी जो देश भर में घूमकर धर्म (नियम तथा नैतिकता) की और समय आने पर अस्त्र-शस्त्र की तथा आक्रमण से बचाव की शिक्षा देती थी।
वह निश्चित समय पर अपने केंद्र (आश्रम और अखाड़े) में उत्सव तथा अगली शिक्षा के आदान-प्रदान के लिए आती। अधिकांशत: बौद्घ विहार की पद्घति पर इनका संघटन हुआ। इस प्रकार इन चार मठों और इन अखाड़ों, दोनों ने मिलकर उन कमियों को पूरा किया जो भारत से बौद्घ मत के लोप होने के कारण थे।
सुबोध और प्रांजल भाषा के धनी शंकर लगभग ३०० भाष्यों एवं पुस्तकों के रचयिता कहे जाते हैं। कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं कि अपने ३२ वर्ष के जीवन में उनके बौद्घिक दिग्विजय के कारण पुन: उस अस्थिर राजनीतिक वातावरण में वेदांत पर आस्था जगी, उससे रहा-सहा बौद्घ मत भारत से समाप्त हुआ।
वहीं दूसरी ओर इतिहासज्ञ उनके दादागुरू गौड़पाद एवं स्वयं शंकर को प्रच्छन्न बौद्घ कहते हैं। उन शंकर को भी देश ने अवतारी पुरूष कहा।
वास्तव में यह उदाहरण है कि भारतीय संस्कृति की भिन्न धाराएं कैसे एक-दूसरे से ग्रथित हैं। इन्हें अलग करके देखना संभव नहीं है। परंतु यह सदा होता आया है कि छोटा सा अंतर, जो वास्तव में हिंदु जीवन में वैचारिक स्वतंत्रता की निशानी है, उसको लेकर इस संस्कृति से अनभिज्ञ व्यक्ति तिल का ताड़ बनाकर लोगों को बहकाते आए हैं।
विचारों की स्वतंत्रता पथभ्रष्टता का लक्षण न होकर उत्कृष्ट बुद्घि तथा परिपक्वता का लक्षण है और मानव सभ्यता के उस स्तर को प्रदर्शित करता है जिसकी बहुतेरे अन्य समाज कल्पना भी नहीं कर सकते।
इसी से अनेक बार भ्रमित होकर हास्यास्पद बातें हिंदु समाज के लिए कही जाती हैं। आज इस समाज की मूलभूत सभ्यता की छलांगों में संसार को आश्चर्यचकित करने वाले एकता के सूत्र को न समझने के कारण उसको छिन्न-भिन्न दिखाने के प्रयासों को प्रगतिशीलता माना जाता है।
भविष्य का अवतार - 'कल्कि'
भविष्य के गर्भ में है 'कल्कि' अवतार। यदि मानव सभ्यता के भविष्य पर विश्वास लाते हैं तो इस पर छाई काली घटाएं छंटनी ही हैं। बुद्घ का 'संघ' पर बड़ा विश्वास था। भागवत पुराण में संकेत दक्षिण मे जनमे अवतार का है। पर वह कोई संघटन भी हो सकता है। बिना समाज में दैवी शक्ति उत्पन्न किए और बिना विकृतियों को हटाए मानव का उद्दिष्ट पूरा नहीं होगा।
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