Wednesday, 28 October 2015

सुख - दुख क्या है

जीवन में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिए प्रयत्न करता है परंतु सुख से पूर्व दुख क्यों आता है ? वास्तविकता में दुख तो है ही नहीं । जो मन के अनुकूल होता है वह सुख है और जो मन के प्रतिकूल होता है वह दुख लगता है । अत: सुख और दुख मन:स्थिति है ।
ये संसार परमात्मा का है । संसार में हम सब परमात्मा के अंश है । अत: भगवान हमारे हैं । अपने भगवान के संसार में सब कुछ प्रभु का है, 'मेरा' कुछ भी नहीं है । किसी भी व्यक्ति या वस्तु से 'मेरा' संबंध कटते ही दुख कटता है और सुख आ जाता है ।
शिक्षा - हमारे भगवान का संसार दुख रूप तो हो ही नहीं सकता । भगवान कभी दर्द तो हे ही नहीं सकते । वे तो सच्चिदानंद हैं, आनंदमय हैं, सबको आनंद ही आनंद देते है और चेतन ही आनंद उठाता है । अत: अपने को चेतन बनाना है । अपने तार भगवान से जोड़ने से ही भगवान से संबंध जुड़ जाता है और आनंद का लाभ उठाया जा सकता है । सत्संग के अभाव में अथवा बुद्धि की अपरिपक्वता में व्यक्ति जिद्दी हो जाता है और कहने लगता है कि "मैं जो कहता हूं वही सत्य है, अपितु होना यह चाहिए कि जो सत्य है वही मैं कहता हूं।"हम सत्य की संतान हैं। अत: सत्य का पालन करें ।

Sunday, 25 October 2015

(सत्संग की महिमा

मनुष्य के जीवन मे अशांति ,परेशानियां तब शुरु हो जाती है जब मनुष्य के जीवन मे सत्संग नही होता-- मनुष्य जीवन को जीता चला जा रहा है लेकिन मनुष्य ईस बारे मे नही सोचता की जीवन को कैसे जीना चाहिये--
मनुष्य ने धन कमा लिया,मकान बना लिया,शादी घर परिवार बच्चे सब हो गये,,गाडी खरीद ली-- ये सब कर लेने के बाद भी मनुष्य का जीवन सफल नही हो पायेगा क्योकि जिसके लिए ये जीवन मिला उसको तो मनुष्य ने समय दिया ही नही ओर संसार की वस्तुएं जुटाने मे समय नष्ट कर दिया---
जीवन मिला था प्रभु का होने ओर प्रभु को पाने के लिए लेकिन मनुष्य माया का दास बनकर माया की प्राप्ति के लिए ईधर उधर भटकने लगता है---ओर ईस तरह मनुष्य का ये कीमती जीवन नष्ट हो जाता है--
जिस अनमोल रतन मानव जीवन को पाने के लिए देवता लोग भी तरसते रहते है उस जीवन को मनुष्य व्यर्थ मे गवां देता है--
देवता लोगो के पास भोगो की कमी नही है लेकिन फिर भी देवता लोग मनुष्य जीवन जीना चाहते है क्योकि मनुष्य देह पाकर ही भक्ति का पुर्ण आनंद ओर भगवान की सेवा ओर हरि कृपा से सत्संग का सानिध्य मिलता है--
संतो के संग से मिलने वाला आनंद तो बैकुण्ठ मे भी दुर्लभ है-- कबीर जी कहते है की-- राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोय ,,, जो सुख साधू संग में , सो बैकुंठ न होय !!--------
रामचरितमानस मे भी लिखा है की--
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरि तुला एक अंग। तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये ते भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से मिलता है।'
सत्संग की बहुत महिमा है,, सत्संग तो वो दर्पण है जो मनुष्य के चरित्र को दिखाता है ओर साथ साथ चरित्र को सुधारता भी है--
सत्संग से मनुष्य को जीवन जीने का तरीका पता चलता है--
सत्संग से ही मनुष्य को अपने वास्तविक कर्यव्य का पता चलता है--
मानस मे लिखा है की---
सतसंगत मुद मंगल मुला,सोई फल सिधि सब साधन फूला---
अर्थातद सत्संग सब मङ्गलो का मूल है,,जैसे फुल से फल ओर फल से बीज ओर बीज से वृक्ष होता है उसी प्रकार सत्संग से विवेक जागृत होता है ओर विवेक जागृत होने के बाद भगवान से प्रेम होता है ओर प्रेम से प्रभु प्राप्ति होती है--
जिन्ह प्रेम किया तिन्ही प्रभु पाया--- सत्संग से मनुष्य के करोडो करोडो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है,--
सत्संग से मनुष्य का मन बुद्धि शुद्ध होती है--
सत्संग से ही भक्ति मजबुत होती है--
भक्ति सुतंत्र सकल सुखखानि,,बिनु सत्संग न पावहि प्राणी--- भगवान की जब कृपा होती है तब मनुष्य को सत्संग ओर संतो का संग प्राप्त होता है--
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन--
बिनु हरि कृपा न होई सो गावहि वेद पुरान--
--- एक क्षण का सत्संग भी दुर्लभ होता है ओर एक क्षण के सत्संग से मनुष्य के विकार नष्ट हो जाते है,,,---
एक घडी आधी घडी आधी मे पुनि आध--
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध---
सत्संग मे बतायी जाने वाली बातो को जीवन मे धारण करने पर भी आनंद की प्राप्ति ओर प्रभु से प्रीति होती है --- आज मनुष्य की मन ओर बुद्धि विकारो मे फंसती जा रही है,--
मनुष्य हरपल चिंतित रहने लगता है,,ओर हमेशा परेशान रहता है--
ईन सबका कारण अज्ञानता है,--
भगवान ने ये अनमोल रत्न मानव जीवन अशांत रहने के लिए नही दिया--
जब कोई मशीन हम घर पर लेकर आते है तो उसके साथ एक बुकलेट मिलती है जिसमे मशीन को कैसे चलाना है ईस बारे मे लिखा होता है उसी प्रकार भगवान ने ये मानव जीवन दिया ओर ईस मानव जीवन को सफल कैसे करना है ये हमे सत्संग ओर शास्त्रो से पता चलता है ईसलिए जीवन से सत्संग को अलग नही करना चाहिये क्योकि जब सत्संग जीवन मे नही रहेगा तो संसार के प्रति आकर्षण बढेगा ओर संसार के प्रति मोह मनुष्य के जीवन को विनाश की तरफ ले जाता है--
सत्संग की अग्नि मे मनुष्य के सारे विकार नष्ट हो जाते है---
आनंद कहीं बाहर नही है,,वो भीतर ही है लेकिन मनुष्य ने मन के चारो तरफ संसार के मोह की चादर लपेट रखी है ईसलिए वो आनंद ढक जाता है ओर महसुस नही होता--
ओर जब सत्संग से वो मोह रुपि चादर हट जाती है तो आनंद मिलने लगता है ---
जैसे मूर्तिकार पत्थर को तराशता है ओर पत्थर से गंदगी हटाकर उसे मुर्ति का रुप देता है उसी प्रकार जीवन मे जो अशांति,,परेशानी,, विकार आदि रहते है उनको सत्संग हटा देता है ओर मनुष्य का एक निर्मल चरित्र बना देता है------
---- जाने बिनु न होई परतीति , बिनु परतीति होई नहीं प्रीती----
भगवान के प्रति पुर्ण समर्पण तब तक नही होगा जब तक विवेक नही होगा--
ओर बिनु सत्संग विवेक न होई---
मनुष्य का कर्तव्य क्या ओर अकर्तव्य क्या ये सब सत्संग से पता चलता है--- भागवत के ग्यारहवें स्कंध मे भगवान उद्धव से कहते है की संसार के प्रति सभी आसक्तियां सत्संग नष्ट कर देता है,,, भगवान कहते है की हे उद्धव,,मै यज्ञ,,वेद,,तीर्थ,तपस्या ,त्याग से वश मे नही होता लेकिन सत्संग से मै जल्दी ही भक्तो के वश मे हो जाता हूं----
ईसलिए सत्संग की बहूत महिमा है---
जीवन मे सत्संग को हमेशा बनाए रखना चाहिये ओर जब भी ओर जहां भी सत्संग सुनने या जाने का मौका मिले तो दूनियावालो की परवाह किये बिना ही पहूंच जाना चाहिये क्योकि सत्संग बहुत दुर्लभ है ओर जिसे सत्संग मिलता है उसपर विशेष कृपा होती है भगवान की---

Tuesday, 20 October 2015

प्रेरक कथा -

जो होता है अच्छा होता है l
समुद्र के किनारे एक गांव था। जहां अमूमन मछुआरे रहते थे। वह अपनी नावें लेकर दूर-दूर तक गहरे समुद्र की ओर निकल पड़ते। एक दिन ऐसी ही स्थिति में तूफान आ गया। मछुआरों की नावें रास्ता भटक गईं। ऐसे में मछुआरों के परिजन समुद्र किनारे आकर उनके सकुशल की उम्मीद करने लगे। वे सभी दुःखी थे। तभी एक और दुःखद घटना घट गई।
एक मछुआरे की झोपड़ी में आग लग गई। महिलाओं ने आग बुझाने की कोशिश की लेकिन वो नाकाम रहीं। सुबह हुई सभी मछुआरे वापस आ गए। लेकिन जिस घर में आग लगी थी। उस मछुआरे की पत्नी ने अपने पति से कहा, हम बर्बाद हो चुके हैं क्योंकि कल रात हमारे घर में आग लग गई थी। अब कुछ भी नहीं बचा है।
यह सुनकर उसके पति के खुशी का ठिकाना न रहा वह बोला ईश्वर का धन्यवाद हो, 'रात में जलती हुई झोपड़ी देखकर ही तो हम अपनी नावें किनारे पर लगा पाए। अगर ऐसा नहीं होता तो हम समु्द्र में खो जाते।' संक्षेप में जो होता है अच्छा होता है, बस आपका नजरिया उस अच्छे को सही दिशा में पहचान ले।

Saturday, 10 October 2015

नौ ग्रहों में शनिदेव विशेष

महाराष्ट्र में एक छोटा सा गांव है शिंगणापुर, जहां आज भी किसी भी घर में दरवाजे नहीं है । घरों में दरवाजे न होने के बावजूद यहां चोरी की घटनाएं नहीं होती हैं, क्योंकि यहां ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति यहां चोरी करेगा उसे स्वयं शनि देव जी सजा देंगे । इस स्थान पर शनि की विशेष कृपा है । शास्त्रों के अनुसार शिंगणापुर में ही शनिदेव का जन्म हुआ था । शिंगणापुर में शनि देव की एक विशाल प्रतिमा है । इस मूर्ति का रंग काला है । इसकी लंबाई लगभग 5 फीट 9 इंच है और चौड़ाई करीब 1 फीट 6 इंच । शनि के जन्म के संबंध में शास्त्रों में बताया गया है कि शनिदेव सूर्यदेव के पुत्र हैं । सूर्य की पत्नी छाया ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की । तपस्या की कठोरता और धूप-गर्मी के कारण छाया के गर्भ में पल रहे शिशु का रंग काला पड़ गया । तपस्या के प्रभाव से ही छाया के गर्भ से शनिदेव का जन्म शिंगणापुर में हुआ । इस दिन ज्येष्ठ मास की अमावस्या थी । शनिदेव के जन्म के बाद जब सूर्य अपनी छाया और पुत्र से मिलने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पुत्र का रंग काला है । काले शिशु को देखकर सूर्य ने पत्नी छाया से संदेह प्रकट किया कि इतना काला शिशु उनका नहीं हो सकता है । सूर्य की कठोरता देखकर शनि के मन में माता के लिए श्रद्धा बढ़ गई और पिता सूर्य के लिए क्रोध बढऩे लगा, तभी से शनि सूर्य के प्रति शत्रुभाव रखते हैं । शनि ने सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और पराक्रमी बनने की इच्छा से शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की । शनि की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें वरदान मांगने के लिए कहा । तब शनि ने शिवजी से कहा कि उनके पिता सूर्य से उन्हें तथा उनकी माता को हमेशा अपमानित होना पड़ा है । अत: आप मुझे सूर्यदेव से भी अधिक शक्तियां और ऊंचा पद प्रदान करें । शिवजी ने शनि की विनती मानकर उन्हें न्यायाधीश का पद प्रदान किया और सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और शक्तिशाली होने का वरदान दिया । तभी से शनि का स्थान सभी नौ ग्रहों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया ।

मृत्यु से भय कैसा

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ । अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था । तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की ।

राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया । संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी । जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे । वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा ।

रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया । वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था । अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी ।

उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की ।

बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता । मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा ।

राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा । उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है ।

बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया ।

राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा ।
वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा । इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा । राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर विवाद खड़ा हो गया ।

कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा,
"परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ?"

परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।"

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा,
"हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूत्र की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?

राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।

वास्तव में यही सत्य है । जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ
(इस कोख) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया
(और पैदा होते ही रोने लगता है) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जा ती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।

यह मेरी भी कथा है और आपकी भी।

Friday, 9 October 2015

प्रार्थना और भगवान

यह एक सत्य कहानी है । डा. मार्क एक प्रसिद्ध कैंसर स्पेलिस्ट हैं, एक बार किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए किसी दूर के शहर जा रहे थे । वहां उनको उनकी नई मैडिकल रिसर्च के महान कार्य के लिए पुरुस्कृत किया जाना था । वे बड़े उत्साहित थे व जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना चाहते थे । उन्होंने इस शोध के लिए बहुत मेहनत की थी । बड़ा उतावलापन था, उनका उस पुरुस्कार को पाने के लिए । उड़ने के लगभग दो घण्टे बाद उनके जहाज़ में तकनीकी खराबी आ गई, जिसके कारण उनके हवाई जहाज को आपातकालीन लैंडिंग करनी पड़ी । डा. मार्क को लगा कि वे अपने सम्मेलन में सही समय पर नहीं पहुंच पाएंगे, इसलिए उन्होंने स्थानीय कर्मचारियों से रास्ता पता किया और एक टैक्सी कर ली, सम्मेलन वाले शहर जाने के लिए । उनको पता था की अगली प्लाईट 10 घण्टे बाद है । टैक्सी तो मिली लेकिन ड्राइवर के बिना इसलिए उन्होंने खुद ही टैक्सी चलाने का निर्णय लिया । जैसे ही उन्होंने यात्रा शुरु की कुछ देर बाद बहुत तेज, आंधी-तूफान शुरु हो गया । रास्ता लगभग दिखना बंद सा हो गया । इस आपा-धापी में वे गलत रास्ते की ओर मुड़ गए । लगभग दो घंटे भटकने के बाद उनको समझ आ गया कि वे रास्ता भटक गए हैं । थक तो वे गए ही थे, भूख भी उन्हें बहुत ज़ोर से लग गई थी । उस सुनसान सड़क पर भोजन की तलाश में वे गाड़ी इधर-उधर चलाने लगे । कुछ दूरी पर उनको एक झोंपड़ी दिखी । झोंपड़ी के बिल्कुल नजदीक उन्होंने अपनी गाड़ी रोकी । परेशान से होकर गाड़ी से उतरे और उस छोटे से घर का दरवाज़ा खटखटाया । एक स्त्री ने दरवाज़ा खोला । डा. मार्क ने उन्हें अपनी स्थिति बताई और एक फोन करने की इजाजत मांगी । उस स्त्री ने बताया कि उसके यहां फोन नहीं है । फिर भी उसने उनसे कहा कि आप अंदर आइए और चाय पीजिए । मौसम थोड़ा ठीक हो जाने पर, आगे चले जाना । भूखे, भीगे और थके हुए डाक्टर ने तुरंत हामी भर दी । उस औरत ने उन्हें बिठाया, बड़े सम्मान के साथ चाय दी व कुछ खाने को दिया । साथ ही उसने कहा, "आइए, खाने से पहले भगवान से प्रार्थना करें और उनका धन्यवाद कर दें ।" डाक्टर उस स्त्री की बात सुन कर मुस्कुरा दिेए और बोले, "मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता । मैं मेहनत पर विश्वास करता हूं । आप अपनी प्रार्थना कर लें ।" उस स्त्री ने कहा आप मुझसे ज्यादा काबिल और समझदार है पर मेरा मानना है मेहनत का श्रेय भी उसका ही दया है । डॉ को उस स्त्री की बात बचकानी लगी और वह स्त्री प्रार्थना में जुट गयी । टेबल से चाय की चुस्कियां लेते हुए डाक्टर उस स्त्री को देखने लगे जो अपने छोटे से बच्चे के साथ प्रार्थना कर रही थी । उसने कई प्रकार की प्रार्थनाएं की । डाक्टर मार्क को लगा कि हो न हो, इस स्त्री को कुछ समस्या है । जैसे ही वह औरत अपने पूजा के स्थान से उठी, तो डाक्टर ने पूछा, "आपको भगवान से क्या चाहिये ? क्या आपको लगता है कि भगवान आपकी प्रार्थनाएं सुनेंगे ?" उस औरत ने धीमे से उदासी भरी मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा, "ये मेरा लड़का है और इसको एक रोग है जिसका इलाज डाक्टर मार्क नामक व्यक्ति के पास है परंतु मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं उन तक, उनके शहर जा सकूं क्योंकि वे दूर किसी शहर में रहते हैं । यह सच है कि भगवान ने अभी तक मेरी किसी प्रार्थना का जवाब नहीं दिया किंतु मुझे भरोसा है कि भगवान एक न एक दिन कोई रास्ता बना ही देंगे । वे मेरा भरोसा टूटने नहीं देंगे । वे अवश्य ही मेरे बच्चे का इलाज डा. मार्क से करवा कर इसे स्वस्थ कर देंगे ।" डाक्टर मार्क तो सन्न रह गए । वे कुछ पल बोल ही नहीं पाए । आंखों में आंसू लिए धीरे से बोले, "GOD IS GREAT।" (उन्हें सारा घटनाक्रम याद आने लगा। कैसे उन्हें सम्मेलन में जाना था । कैसे उनके जहाज को इस अंजान शहर में आपातकालीन लैंडिंग करनी पड़ी । कैसे टैक्सी के लिए ड्राइवर नहीं मिला और वे तूफान की वजह से रास्ता भटक गए और यहां आ गए) वे समझ गए कि यह सब इसलिए नहीं हुआ कि भगवान को केवल इस औरत की प्रार्थना का उत्तर देना था बल्कि भगवान उन्हें भी एक मौका देना चाहते थे कि वे भौतिक जीवन में धन कमाने, प्रतिष्ठा कमाने, इत्यादि से ऊपर उठें और असहाय लोगों की सहायता करें । वे समझ गए की भगवान चाहते हैं कि मैं उन लोगों की सेवा करूँ जो किसी भी प्रकार के अभाव में हैं।

Thursday, 8 October 2015

पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी

पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी, वे नित्य ही अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती और उनपर चर्चा करती ! एक दिन उन्होंने शिव से कहा -
पार्वती:- प्रेम क्या है बताइए महादेव, कृप्या बताइए की प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य ! आप तो हमारे गुरु की भी भूमिका निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आपका ही दायित्व है ! बताइए महादेव !
शिव:- प्रेम क्या है ! यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं पार्वती ! तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुयी ! तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर निहित है !
पार्वती:- क्या इन विभिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?
शिव:- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग जब तुम दूर चली गयी, मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सब निरर्थक और निराधार हो गया ! मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी ! अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती ! येही तो प्रेम है पार्वती !तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्ठी का अपूर्ण हो जाना येही प्रेम है ! तुम्हारे और मेरे पुनह मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है ! तुम्हारा पार्वती के रूप में पुनह जनम लेकर मेरे एकांकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बहार नकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है !
जब जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है !
तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विशवास दिलाती रहती हो की सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है !
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है ! तुम्हे सुखी देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती !
जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे शसस्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी !
जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ, और तुम्हारी जिह्वया बहार निकली, वही प्रेम था पार्वती !
जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जोकि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो, और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जोकि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ की मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ ! जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ ! इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ की मैं कौन हूँ ! तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ ! यही तो प्रेम है !
जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती !
प्रेम के प्रति तुम्हारी उत्सुकता और जिज्ञासा अब शांत हुई की नहीं?

शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र

शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है.
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प्रज्ञानं
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद (शुकरहस्योपनिषद) में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं।
वे चार महावाक्य-
1 ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म
2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि
3 ॐ तत्त्वमसि और
4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं।
(1) ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म(ज्ञान , आनंद आदि नाम भगवान शिव का पर्यायवाची नाम है ज्ञान शब्द से यह अर्थ न लगाना की ये शद्ब्ज्ञान का सूचक है)
इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है।
(2) ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि
इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।
(3) ॐ तत्त्वमसि
इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
(4) ॐ अयमात्मा ब्रह्म
इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।'
भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये।

दुस्कर्म करे तो सूद सहित भोगना पड़ता है

इँसान जैसा करता है कुदरत या भगवान उसे वैसा ही उसे लौटा देता है l
एक बार द्रोपदी सुबह तड़के स्नान करने यमुना घाट पर गयी भोर का समय था
तभी उसका ध्यान सहज ही एक साधु की ओर गया जिसके शरीर पर मात्र एक लँगोटी थी l
साधु स्नान के पश्चात अपनी दुसरी लँगोटी लेने गया तो वो लँगोटी अचानक हवा के झोके से उड़ पानी मे चली गयी ओर बह गयी l
सँयोगवस साधु ने जो लँगोटी पहनी वो भी फटी हुई थी l
साधु सोच मे पड़ गया कि अब वह अपनी लाज कैसे बचाए थोड़ी देर मे सुर्योदय हो जाएगा और घाट पर भीड़ बढ जाएगी l
साधु तेजी से पानी के बाहर आया और झाड़ी मे छिप गया l
द्रोपदी यह सारा दृश्य देख अपनी साड़ी जो पहन रखी थी
उसमे आधी फाड़ कर उस साधु के पास गयी ओर उसे आधी साड़ी देते हुए बोली-तात मै आपकी परेशानी समझ गयी l
इस वस्त्र से अपनी लाज ढँक लीजिए l
साधु ने सकुचाते हुए साड़ी का टुकड़ा ले लिया और आशीष दिया l
जिस तरह आज तुमने मेरी लाज बचायी
उसी तरह एक दिन भगवान तुम्हारी लाज बचाएगे l
और जब भरी सभा मे चीरहरण के समय द्रोपदी की करुण पुकार नारद ने भगवान तक पहुचायी तो भगवान ने कहा-कर्मो के बदले मेरी कृपा बरसती है
क्या कोई पुण्य है द्रोपदी के खाते मे l
जाँचा परखा गया तो उस दिन साधु को दिया वस्त्र दान हिसाब मे मिला जिसका ब्याज भी कई गुणा बढ गया था l
जिसको चुकता करने भगवान पहुच गये द्रोपदी की मद्दद करने l
दुस्सासन चीर खीचता गया और हजारो गज कपड़ा बढता गया l
इँसान यदि सुकर्म करे तो उसका फल सूद सहित मिलता है
ओर दुस्कर्म करे तो सूद सहित भोगना पड़ता है l
जय श्री कृष्णा l

Saturday, 3 October 2015

महात्मा जी की बिल्ली"

एक बार एक महात्माजी अपने कुछ शिष्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर रहते थें, एक दिन कहीं से एक बिल्ली का बच्चा रास्ता भटककर आश्रम में आ गया । महात्माजी ने उस भूखे प्यासे बिल्ली के बच्चे को दूध-रोटी
खिलाया । वह बच्चा वहीं आश्रम में रहकर पलने लगा। लेकिन उसके आने के बाद महात्माजी को एक समस्या उत्पन्न हो गयी कि जब वे सायं ध्यान में बैठते तो वह बच्चा कभी उनकी गोद में चढ़ जाता, कभी कन्धे या सिर पर बैठ जाता । तो महात्माजी ने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा देखो मैं जब सायं ध्यान पर बैठू, उससे पूर्व तुम इस बच्चे को दूर एक पेड़ से बॉध आया करो। अब तो यह नियम हो गया, महात्माजी के ध्यान पर बैठने से पूर्व वह बिल्ली का बच्चा पेड़ से बॉधा जाने लगा । एक दिन महात्माजी की मृत्यु हो गयी तो उनका एक प्रिय काबिल शिष्य उनकी गद्दी पर बैठा । वह भी जब ध्यान पर बैठता तो उससे पूर्व बिल्ली का बच्चा पेड़ पर बॉधा जाता । फिर एक दिन तो अनर्थ हो गया, बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी कि बिल्ली ही खत्म हो गयी। सारे शिष्यों की मीटिंग हुयी, सबने विचार विमर्श किया कि बड़े महात्माजी जब तक बिल्ली पेड़ से न बॉधी जाये, तब तक ध्यान पर नहीं बैठते थे। अत: पास के गॉवों से कहीं से भी एक बिल्ली लायी जाये। आखिरकार काफी ढॅूढने के बाद एक बिल्ली मिली, जिसे पेड़ पर बॉधने के बाद महात्माजी ध्यान पर बैठे।
विश्वास मानें, उसके बाद जाने कितनी बिल्लियॉ मर चुकी और न जाने कितने महात्माजी मर चुके। लेकिन आज भी जब तक पेड़ पर बिल्ली न बॉधी जाये, तब तक महात्माजी ध्यान पर नहीं बैठते हैं। कभी उनसे पूछो तो कहते हैं यह तो परम्परा है। हमारे पुराने सारे गुरुजी करते रहे, वे सब गलत तो नहीं हो सकते । कुछ भी हो जाये हम अपनी परम्परा नहीं छोड़ सकते।
यह तो हुयी उन महात्माजी और उनके शिष्यों की बात । पर कहीं न कहीं हम सबने भी एक नहीं; अनेकों ऐसी बिल्लियॉ पाल रखी हैं । कभी गौर किया है इन बिल्लियों पर ?सैकड़ों वर्षो से हम सब ऐसे ही और कुछ अनजाने तथा कुछ चन्द स्वार्थी तत्वों द्वारा निर्मित परम्पराओं के जाल में जकड़े हुए हैं।
ज़रुरत इस बात की है कि हम ऐसी परम्पराओं और अॅधविश्वासों को अब और ना पनपने दें , और अगली बार ऐसी किसी चीज पर यकीन करने से पहले सोच लें की कहीं हम जाने – अनजाने कोई अन्धविश्वास रुपी बिल्ली तो नहीं पाल रहे ?

कोशिश

बहुत समय पहले की बात है , किसी गाँव में एक किसान रहता था . उसके पास बहुत सारे जानवर थे , उन्ही में से
एक गधा भी था . एक दिन वह चरते चरते खेत में बने एक पुराने सूखे हुए कुएं के पास जा पहुचा और अचानक ही उसमे फिसल कर गिर गया . गिरते ही उसने जोर -जोर से चिल्लाना शुरू किया -” ढेंचू-ढेंचू ….ढेंचू-ढेंचू ….”
उसकी आवाज़ सुन कर खेत में काम कर रहे लोग कुएं के पास पहुचे, किसान को भी बुलाया गया .
किसान ने स्थिति का जायजा लिया , उसे गधे पर दया तो आई लेकिन उसने मन में सोचा कि इस बूढ़े गधे को बचाने से कोई लाभ नहीं है और इसमें मेहनत भी बहुत लगेगी और साथ ही कुएं की भी कोई ज़रुरत नहीं है , फिर उसने बाकी लोगों से कहा , “मुझे नहीं लगता कि हम किसी भी तरह इस गधे को बचा सकते हैं अतः आप सभी अपने-अपने काम पर लग जाइए, यहाँ समय गंवाने से कोई लाभ नहीं.”
और ऐसा कह कर वह आगे बढ़ने को ही था की एक मजदूर बोला, ” मालिक , इस गधे ने सालों तक आपकी सेवा की है , इसे इस तरह तड़प-तड़प के मरने देने से अच्छा होगा की हम उसे इसी कुएं में दफना दें .”
किसान ने भी सहमती जताते हुए उसकी हाँ में हाँ मिला दी.
” चलो हम सब मिल कर इस कुएं में मिटटी डालना शुरू करते हैं और गधे को यहीं दफना देते हैं”, किसान बोला.
गधा ये सब सुन रहा था और अब वह और भी डर गया , उसे लगा कि कहाँ उसके मालिक को उसे बचाना चाहिए तो उलटे वो लोग उसे दफनाने की योजना बना रहे हैं . यह सब सुन कर वह भयभीत हो गया , पर उसने हिम्मत नहीं हारी और भगवान् को याद कर वहां से निकलने के बारे में सोचने लगा ….
अभी वह अपने विचारों में खोया ही था कि अचानक उसके ऊपर मिटटी की बारिश होने लगी, गधे ने मन ही मन सोचा कि भले कुछ हो जाए वह अपना प्रयास नहीं छोड़ेगा और
आसानी से हार नहीं मानेगा। और फिर वह पूरी ताकत से उछाल मारने लगा .
किसान ने भी औरों की तरह मिटटी से भरी एक बोरी कुएं में झोंक दी और उसमे झाँकने लगा , उसने देखा की जैसे ही मिटटी गधे के ऊपर पड़ती वो उसे अपने शरीर से झटकता और उछल कर उसके ऊपर चढ़ जाता .जब भी उसपे मिटटी डाली जाती वह यही करता ….झटकता और ऊपर चढ़ जाता …. झटकता और ऊपर चढ़ जाता ….
किसान भी समझ चुका था कि अगर वह यूँ ही मिटटी डलवाता रहा तो गधे की जान बच सकती है .
फिर क्या था वह मिटटी डलवाता गया और देखते-देखते गधा कुएं के मुहाने तक पहुँच गया, और अंत में कूद कर बाहर आ गया.
मित्रों, हमारी ज़िन्दगी भी इसी तरह होती है , हम चाहे जितनी भी सावधानी बरतें कभी न कभी मुसीबत रुपी गड्ढे में गिर ही जाते हैं .पर गिरना प्रमुख नहीं है, प्रमुख है संभलना . बहुत से लोग बिना प्रयास किये ही हार मान लेते हैं , पर जो प्रयास करते हैं भगवान् भी किसी न किसी रूप में उनके लिए मदद भेज देता है। यदि गधा लगातार बचने का प्रयास नहीं करता तो किसान के दिमाग में भी यह बात नहीं आती कि उसे बचाया जा सकता है … इसलिए जब अगली बार आप किसी मुसीबत में पड़ें तो कोशिश करिए कि आप भी उसे झटक कर आगे बढ़ जाएं।.

महाभारत की 11 अनोखी कहानियां

आपको धार्मिक ग्रंथ महाभारत से जुड़ी अलग-अलग कई कहानियों के बारे में मालूम होगा, लेकिन इनमें कई ऐसी भी कहानियां हैं जिनके बारे में अाप शायद ही जानते हों. जानिए धार्मिक ग्रंथ महाभारत से संबंधित ऐसी ही 11 कहानियों के बारे में:

1. जब कौरवों की सेना पांडवों से युद्ध हार रही थी तब दुर्योधन भीष्म पितामह के पास गया और उन्हें कहने लगा कि आप अपनी पूरी शक्ति से यह युद्ध नहीं लड़ रहे हैं. भीष्म पितामह को काफी गुस्सा आया और उन्होंने तुरंत पांच सोने के तीर लिए और कुछ मंत्र पढ़े. मंत्र पढ़ने के बाद उन्होंने दुर्योधन से कहा कि कल इन पांच तीरों से वे पांडवों को मार देंगे. मगर दुर्योधन को भीष्म पितामह के ऊपर विश्वास नहीं हुआ और उसने तीर ले लिए और कहा कि वह कल सुबह इन तीरों को वापस करेगा. इन तीरों के पीछे की कहानी भी बहुत मजेदार है. भगवान कृष्ण को जब तीरों के बारे में पता चला तो उन्होंने अर्जुन को बुलाया और कहा कि तुम दुर्योधन के पास जाओ और पांचो तीर मांग लो. दुर्योधन की जान तुमने एक बार गंधर्व से बचायी थी. इसके बदले उसने कहा था कि कोई एक चीज जान बचाने के लिए मांग लो. समय आ गया है कि अभी तुम उन पांच सोने के तीर मांग लो. अर्जुन दुर्योधन के पास गया और उसने तीर मांगे. क्षत्रिय होने के नाते दुर्योधन ने अपने वचन को पूरा किया और तीर अर्जुन को दे दिए.

2. द्रोणाचार्य को भारत का पहले टेस्ट ट्यूब बेबी माना जा सकता है. यह कहानी भी काफी रोचक है. द्रोणाचार्य के पिता महर्षि भारद्वाज थे और उनकी माता एक अप्सरा थीं. दरअसल, एक शाम भारद्वाज शाम में गंगा नहाने गए तभी उन्हें वहां एक अप्सरा नहाती हुई दिखाई दी. उसकी सुंदरता को देख ऋषि मंत्र मुग्ध हो गए और उनके शरीर से शुक्राणु निकला जिसे ऋषि ने एक मिट्टी के बर्तन में जमा करके अंधेरे में रख दिया. इसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ.

3. जब पांडवों के पिता पांडु मरने के करीब थे तो उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि बुद्धिमान बनने और ज्ञान हासिल करने के लिए वे उनका मस्तिष्क खा जाएं. केवल सहदेव ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके मस्तिष्क को खा लिया. पहली बार खाने पर उसे दुनिया में हो चुकी चीजों के बारे में जानकारी मिली. दूसरी बार खाने पर उसने वर्तमान में घट रही चीजों के बारे में जाना और तीसरी बार खाने पर उसे भविष्य में क्या होनेवाला है, इसकी जानकारी मिली.

4. अभिमन्यु की पत्नी वत्सला बलराम की बेटी थी. बलराम चाहते थे कि वत्सला की शादी दुर्योधन के बेटे लक्ष्मण से हो. वत्सला और अभिमन्यु एक-दूसरे से प्यार करते थे. अभिमन्यु ने वत्सला को पाने के लिए घटोत्कच की मदद ली. घटोत्कच ने लक्ष्मण को इतना डराया कि उसने कसम खा ली कि वह पूरी जिंदगी शादी नहीं करेगा.

5. अर्जुन के बेटे इरावन ने अपने पिता की जीत के लिए खुद की बलि दी थी. बलि देने से पहले उसकी अंतमि इच्छा थी कि वह मरने से पहले शादी कर ले. मगर इस शादी के लिए कोई भी लड़की तैयार नहीं थी क्योंकि शादी के तुरंत बाद उसके पति को मरना था. इस स्थिति में भगवान कृष्ण ने मोहिनी का रूप लिया और इरावन से न केवल शादी की बल्कि एक पत्नी की तरह उसे विदा करते हुए रोए भी.

6. सहदेव, जो अपने पिता का मस्तिष्क खाकर बुद्धिमान बना था. उसमें भविष्य देखने की क्षमता थी इसलिए दुर्योधन उसके पास गया और युद्ध शुरू करने से पहले उससे सही मुहूर्त के बारे में पूछा. सहदेव यह जानता था कि दुर्योधन उसका सबसे बड़ा शत्रु है फिर भी उसने युद्ध शुरू करने का सही समय बताया.

7. धृतराष्ट्र का एक बेटा युयत्सु नाम का भी था. युयत्सु एक वैश्य महिला का बेटा था. दरअसल, धृतराष्ट्र के संबंध एक दासी के साथ थे जिससे युयत्सु पैदा हुआ था.

8. महाभारत के युद्ध में उडुपी के राजा ने निरपेक्ष रहने का फैसला किया था. उडुपी का राजा न तो पांडव की तरफ से थे और न ही कौरव की तरफ से. उडुपी के राजा ने कृष्ण से कहा था कि कौरवों और पांडवों की इतनी बड़ी सेना को भोजन की जरूरत होगी और हम दोनों तरफ की सेनाओं को भोजन बनाकर खिलाएंगें. 18 दिन तक चलने वाले इस युद्ध में कभी भी खाना कम नहीं पड़ा. सेना ने जब राजा से इस बारे में पूछा तो उन्होंने इसका श्रेय कृष्ण को दिया. राजा ने कहा कि जब कृष्ण भोजन करते हैं तो उनके आहार से उन्हें पता चल जाता है कि कल कितने लोग मरने वाले हैं और खाना इसी हिसाब से बनाया जाता है.

9. जब दुर्योधन कुरूक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस से ले रहा था, उस समय उसने अपनी तीन उंगलियां उठा रखी थी. भगवान कृष्ण उसके पास गए और समझ गए कि दुर्योधन कहना चाहता है कि अगर वह तीन गलतियां युद्ध में ना करता तो युद्ध जीत लेता. मगर कृष्ण ने दुर्योधन को कहा कि अगर तुम कुछ भी कर लेते तब भी हार जाते. ऐसा सुनने के बाद दुर्योधन ने अपनी उंगली नीचे कर ली.

10. कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती के किस्से तो काफी मशहूर हैं. कर्ण और दुर्योधन की पत्नी दोनों एक बार शतरंज खेल रहे थे. इस खेल में कर्ण जीत रहा था तभी भानुमति ने दुर्योधन को आते देखा और खड़े होने की कोशिश की. दुर्योधन के आने के बारे में कर्ण को पता नहीं था. इसलिए जैसे ही भानुमति ने उठने की कोशिश की कर्ण ने उसे पकड़ना चाहा. भानुमति के बदले उसके मोतियों की माला उसके हाथ में आ गई और वह टूट गई. दुर्योधन तब तक कमरे में आ चुका था. दुर्योधन को देख कर भानुमति और कर्ण दोनों डर गए कि दुर्योधन को कहीं कुछ गलत शक ना हो जाए. मगर दुर्योधन को कर्ण पर काफी विश्वास था. उसने सिर्फ इतना कहा कि मोतियों को उठा लें.

11. कर्ण दान करने के लिए काफी प्रसिद्ध था. कर्ण जब युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस ले रहा था तो भगवान कृष्ण ने उसकी दानशीलता की परीक्षा लेनी चाही. वे गरीब ब्राह्मण बनकर कर्ण के पास गए और कहा कि तुम्हारे बारे में काफी सुना है और तुमसे मुझे अभी कुछ उपहार चाहिए. कर्ण ने उत्तर में कहा कि आप जो भी चाहें मांग लें. ब्राह्मण ने सोना मांगा. कर्ण ने कहा कि सोना तो उसके दांत में है और आप इसे ले सकते हैं. ब्राह्मण ने जवाब दिया कि मैं इतना कायर नहीं हूं कि तुम्हारे दांत तोड़ूं. कर्ण ने तब एक पत्थर उठाया और अपने दांत तोड़ लिए. ब्राह्मण ने इसे भी लेने से इंकार करते हुए कहा कि खून से सना हुआ यह सोना वह नहीं ले सकता. कर्ण ने इसके बाद एक बाण उठाया और आसमान की तरफ चलाया. इसके बाद बारिश होने लगी और दांत धुल गया.

Sunday, 27 September 2015

उमा महेश्वर की होली

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला,चमकती हुई आँखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भुत दृश्य की झाँकी :-
आजु सदासिव खेलत होरी
जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
तीनि आँखि सुंदर चमकेला, सरप गले लिपटोरी
उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी
हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी
लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी
भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।
शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। ऐसा लग रहा है मानो कैलाश पर्वत के ऊपर वटवृक्ष की छाया है। दिशाओं की पीले पर्दे खिंचे हुए हैं जिसकी छवि इंद्रासन जैसी दिखाई देती है। आक,धतूरा, संखिया आदि खूब पिया जा रहा है और सबने एक दूसरे को रंग लगाने की बजाय स्वयं को ही रंग लगा कर अद्भुत रूप बना लिया है, जिसे देखकर स्वयं पार्वती जी भी हँस रही हैं :-
सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी
गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चहुँ ओरी
पीत बितान तने चहुँ दिसि के, अनुपम साज सजोरी
छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी
नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी
हँसे गिरिजा मुँह मोरी।
Om Namah Shivay.
In Vedam ,Lord Siva is praised by 300 names(Namakam) and 130 boons are asked from HIM(Chamakam)--(Rudraadhyaayee)--He is ALONE is praised in VEDAM as Maha Deva,(Supreme GOD),Visveswara(Visva+Eeswara=God of Universe)--Even the word Eeswara=GOD denotes only Lord Siva. About Lord Vishnu and Devi Shakthi and Devi Lakshmi only Sookthams(praising their qualities) are there-Extensive-Namakam(Salutations in Vedic Format) are given only to lord Siva.
Om Namah Shivay.
शिव निन्दा करने वाले वैष्णव और विष्णु की बुराई करने वाले शैव इस कहानी को पढकर अपनी राय बदले और इस कहानी का आनन्द ले । ये कहानी 'कल्याण' नामक पत्रिका से ली गई हैं ।
एक समय की बात है की महर्षि गौतम भगवान शंकर को खाने पर आमंत्रित किया । उनके इस आग्रह को शिव जी ने स्वीकार कर लिया उनके साथ चलने के लिए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी तैयार हो गए ।महर्षि के आश्रम मे पहुच कर तीनो वहाँ बैठ गए ।भोले बाबा और श्री हरी विष्णु एक शय्या पर लेटकर बहुत देर तक प्रेमालाप करते रहे ।इसके बाद उन दोनो ने आश्रम के पास ही एक तालाब मे नहाने चले गए वहा पर भी वे बहुत देर तक जलक्रीडा करते रहे ।भगवान शिव जी ने पानी मे खडे श्री हरी पर जल की कोमल बुन्दो से प्रहार किया इस प्रहार को विष्णु जी सहन ना कर सके और अपनी आँखें मुँद ली। इस पर भी भगवान शिव जी को संतोष नही मिला और वे झट से कुदकर वे विष्णु जी के कंधे पर चढ गए और भगवान विष्णु को कभी पानी मे दबा देते तो कभी पानी के उपर ले आते इस प्रकार बार-बार तंग करने पर विष्णु जी ने भी अब शिव जी को पानी मे दे मारा । दोनो के इस प्रकार के खेल को देखकर देवता गण हर्षित हो रहे थे और दोनो की लीला को देखकर मन ही मन उन्हे प्रणाम कर रहे थे।
उसी समय नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे ये लीला देखकर वे सुंदर वीणा बजाने लगे और गाना भी गाने लगे उनके साथ शिव जी भी भीगे शरीर मे ही सुर से सुर मिलाने लगे फिर तो विष्णु जी भी पानी से बाहर आकर म्रदंग बजाने लगे ।जब ब्रह्मा जी ने स्वर सुना तो फिर वे भी मस्ती के इस क्रम मे शामिल हो गए।बची-खुची जो भी कसर थी वो श्री हनुमान जी ने पुरी कर दी जब वे राग आलापने लगे तो सभी चुप हो कर शान्ति से उनका संगीत सुनने लगे ।सभी देव,नाग,किन्नर,गन्धर्व आदि उस अलौकिक लीला को देख रहे थे और अपनी आँखें धन्य कर रहे थे।
उधर महर्षि गौतम ये सोचकर परेशान थे कि स्नान को गए मेरे पुज्य अतिथि गण अब तक क्यो नही आए उन्हे चिन्ता हो रही थी और इधर तो भगवान को धमाचोकड़ी मचाने से फुर्सत कहा। सब एक दुसरे के गाने बजाने मे इतने मगन थे कि उन्हे ये भी याद न रहा कि वे महर्षि गौतम के अतिथि बन यहाँ आए हैं ।फिर महर्षि गौतम ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हे भोजन के लिए मनाया आश्रम लेकर आए और भोजन परोसा ।तीनो ने भोजन करना शुरु किया ।इसके बाद हनुमान जी ने फिर संगीत गाना शुरु कर दिया।सुर मे मस्त शिव जी ने अपने एक पैर को हनुमान जी के हाथों पर और दुसरे पैर को हनुमान जी सीने,पेट,नाक,आँख आदि अंगो का स्पर्श कर वही लेट गये।यह देखकर भगवान विष्णु ने हनुमान से कहा - "हनुमान तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो शिव जी के चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर रहे है ।जिस चरणो की छाव पाने के लिए सभी देव-दानव आदि लालायीत रहते है उन चरनो की छाव सहज ही तुम्हे प्राप्त हो गये है । अनेक साधु-संत और कई साधक जन्मो तक तपस्या और साधना करते है फिर भी उन्हे ये शौभाग्य प्राप्त नही होता।मैंने भी सहस्त्र कमलो से इनकी अर्चना की थी पर ये सुख मुझे भी न मिला। आज मुझे तुमसे इर्श्या का अनुभव हो रहा हैं ।सभी लोको मे यह बात सब जानते है कि नारायण भगवान शंकर के परम प्रितीभाजन है पर यह देखकर मुझे संदेह-सा हो रहा है।" यह सुन कर भगवान शिव शंकर बोल उठे - "हे नारायण ये क्या कह रहे है आप तो मुझे प्राणो से भी प्यारे है। औरो की क्या बात है देवी पार्वती भी आपसे अधिक प्रिय नही है मेरे लिए आप तो जानते ही है।"
भगवती पार्वती जी उधर कैलाश मे ये सोचकर परेशान हो रही थीं कि आज कैलाशपति शिव जी कहा चले गये कही मुझे से रुठकर तो नही चले गये।यह सोचकर देवी पार्वती शिव जी को ढुढते- ढुढते आश्रम पहुचे और पता चला कि मेरे स्वामी शिव जी, विष्णु जीऔर ब्रह्मा जी महर्षि गौतम के यहा मेहमानी मे गये हैं ।वे भी महर्षि गौतम का परोसा खाना खाया । इसके बाद विनोदवश देवी पार्वती शिव जी के वेश-भुशा को लेकर हंसी उड़ाई और बहुत सी ऐसी बाते कही जो अक्सर पति पत्नि प्रेम से एक दुसरे को कुछ भला बुरा कहते रहते हैं।ये बात सुनकर भगवान विष्णु जी से रहा नही गया और वे बोल उठे - "देवी! ये आप क्या कह रहे है।मुझसे आपकी बात सही नही जा रही। जहाँ शिव निन्दा होती है वहाँ मैं प्राण धारण कर नही रह सकता।" इतना कहकर श्री हरी ने अपने नाखुनो से अपने ही सिर को फाड़ने लगे ।यह देखकर सभी ने उन्हे रोकने की कोशिश की पर वे नही मान रहे थे फिर शिव जी के अनुरोध पर वे रुके।
इनके इस प्रेम को देखकर हमे ये समझना चाहिए कि ये दोनो किसी भी प्रकार से अलग नही है फिर हम किस कारण विवाद करते है किसी को श्रेष्ठ और किसी को निम्न कहते है ।क्या ऐसा सोचना हमारी मुर्खता नही।
Om Namah Shivay.
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गोरखनाथ जी ने कहा है कि --
एकाएकी सिध नांउं, दोइ रमति ते साधवा !
चारि पंच कुटंब नांउं, दस बीस ते लसकरा !!
सिद्ध हमेशा अकेला है ! चाहे फ़िर कहीं भी रहे ! वह भीड मे,
सारे तमाशे मे रह कर भी अकेला ही है ! यानि सिद्ध वही जो अपने निज
मे पहुंच गया ! हो गया फ़िर वही तत्व का जानने वाला ! अपने आप मे रम गया !
हो गया नितान्त अकेला ! दुनिया दारी करता हुवा भी दुनियां मे नही है !
हो गया जीते जी भीड से बाहर ! ये हो गया अद्वैत !
इसके बाद हैं वो लोग जो अकेले पन से राजी नही हैं ! उनको एक और
चाहिये ! इनको गोरख नाथ जी ने साधू कहा है ! इनका एक से काम नही
चलता ! जैसे पति या पत्नी ! मित्र, गुरु या शिष्य, ! भक्त भी राजी नही
अकेला , उसको भी भगवान चाहिये ! इनको बस सिर्फ़ एक और चाहिये ! यानी
द्वैत ! इस स्तर पर दो मौजूद रहेंगे ! और इनको इसी लिये साधू कहा कि
चलो सिर्फ़ दो से राजी हैं ! कोई ज्यादा डिमान्ड नही है !
काफ़ी नजदीक है एक के ! सो ये भी साधू ही है !
और जो चार पांच से कम मे राजी नही है ! वो ग्रहस्थ है पक्का !
वो दो से राजी नही उसको अनेक चाहिये ! बीबी बच्चे, नौकर चाकर सब कुछ !
पहले अकेले थे, फ़िर शादी करली, इससे भी जी नही भरा ! बच्चे पैदा हो
गये ! नही भरा जी, और अब कुछ तो करना पडेगा ! इतने से राजी नही है !
तो किसी लायन्स क्लब या और कोई सन्स्था को जिन्दाबाद करेगा ... और ज्यादा
ही उपद्रवी हुवा तो फ़िर उसके लिये तो कोई भी राजनैतिक पार्टी इन्तजार
ही कर रही होगी ! इतने बडे उपद्रवी आदमी को तो किसी पार्टी मे ही
होना चाहिये ! यानी ये बिना उपद्रव करे मानेगा नही !
और जो लोग दस बीस की भीड से राजी नही , जिनको पूरा फ़ौज
फ़ांटा चाहिये ! और जो किसी कीमत पर सन्तुश्ट नही है वो होता है
असली सन्सारी !
सिद्ध गोरखनाथजी ने ये चार तरह के मनुष्य बताए हैं ! अब हम इस कहानी
पर मनन करते हुये दो चार मिनट का मौन यानि अन्तरतम का मौन भी
रख सके तो गुरु गोरख की सीख सफ़ल ही कही जायेगी ! आज तो उनका
नाम भी लेना फ़ैशन के विरुद्ध है ! यानि हम उमर खैयाम को भी वाया
फ़िटजेराल्ड पढना पसन्द करते हैं ! और वही होगा जो उमर खैयाम के
साथ हुआ ! मित्रो आपके पास ज्यादा नही तो एक मिनट का समय तो होगा ही !
मेरे कहने से आप एक मिनट ही कोशीश करके मौन रखने की कोशीश करें !
क्या पता कब परमात्मा , कौन सी घडी मे आपके उपर बरस पडे !

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है- नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ है- पुरूष और व कार का अर्थ है - अमृत स्वरूपा शक्ति । इस प्रकार शिव का समन्वित अर्थ होता है- कल्याण प्रदाता या कल्याण स्वरूप ।
शिव के स्वरूप को उद्घाटित करते हुए शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान महेश्वर की प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं । वे सर्वज्ञ, परिपूर्ण और निःस्पृह हैं । सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतंत्रता, नित्य अलुप्त शक्तियों से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना, इन ऐश्वर्यों के धारक महेश्वर को वेदों में भी भव्य रूप में निरूपित किया गया है ।
वेदान्तों में शैव तत्त्व ज्ञान के बीज का दर्शन होता है । इस तत्त्व ज्ञान के अनुसार सृष्टि आनंद से परिपूर्ण है । आनंद से ही सृष्टि का आरंभ, उसी से स्थिति और उसी से समाहार भी है । शिव के ताण्डव नृत्य में उसी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की भी अभिव्यक्ति हुई है ।
उपनिषद में कहा गया है-
आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात् । आनन्दा द्वयेव खल्वि मा नि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनंद प्रयान्त्य मिस विशन्तीति ।
मानव जैसे-जैसे इस शिव तत्त्व की प्राप्ति करता है, उसका दुःख दूर होता जाता है और उसे स्थायी मंगल तथा आनन्द के दर्शन होने लगते हैं ।
शिव महापुराण में शिव के कल्याणकारी स्वरूप का प्रकट करने वाली अनेक अन्तर्कथाओं का वर्णन है । यथा- मूढ़ नाम मायावी राक्षस को भस्म कर बाल विधवा ब्राह्मण पत्नी के शील की रक्षा करना, राक्षस भीम के अत्याचारों से जनता को मुक्ति देना, श्री राम को लंका-विजय का आशीर्वाद देना तथा शंख चूड़, गजासुर, दुन्दुभि निहदि जैसे दुष्टों का दमन कर जगत का कल्याण करना आदि । सृष्टि के कल्याण में शिव की क्रियाशीलता को जानकर महापुराणकार ने गुणानुवाद करते हुए लिखा-
आद्यन्त मंगलम जात समान भाव-
मार्यं तमीशम जरा मरमात्य देवम् ।
पंचाननं प्रबल पंच विनोदशीलं
संभावये मनसि शंकर माम्बिकेशं ।।
अर्थात् जो आदि से अंत तक नित्य मंगलमय है, जिनकी समानता कहीं भी नहीं है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले परमात्मा है, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल ही खेल में अनायास जगत की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभाव रूप पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिका पति भगवान शंकर का मैं मन हीं मन चिन्तन करता हूँ ।
आज का मनुष्य चिर आनंद के वनिस्पत तात्कालिक आनंद की ओर अग्रसर है, जो कि शुद्ध बुद्धि निर्मित है, जिन्हें सामान्य अर्थ में वस्तुवादी, पदार्थवादी या बुद्धिवादी कहा जाता है । उनका सारा आधार विकृत बुद्धिवाद को लेकर है, जिसने चेतना व संवेदना के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं, इसीलिए जगत् के दुःख की समस्या हल नहीं हो पाती । प्रत्येक वर्ग भ्रमित होता है, जिससे मानवता नष्ट होती है । इसका समाधान शिव-तत्त्व में है । शिवम् संदेश देता है कि मानव अपनी सब भूलें ठीक कर ले । यह जो महाविषमता का विष फैला है, वह अपनी कर्म की उन्नति से सम हो जाये, सब युक्ति बने, सबके भ्रम कट जाये, शुभ मंगल ही उनका रहस्य हो । इस स्थिति का रेखांकन इन पंक्तियों में किया है-
समरस से जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना था ।
चेतना एक विलसती, आनन्द अखण्ड घना था ।।
भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जगत् के द्योतक त्रिगुणों को पुराणों में त्रिपुर का रूप दिया गया है, जिससे सृष्टि पीड़ित है । शिव इसी त्रिपुर का वध करके सृष्टि की रक्षा करते हैं । स्पष्ट है त्रिगुण, त्रिपुर या त्रैत की यह भेद बुद्धि ही संसार के दुःख का कारण है और इन तीनों का सामंजस्य या तीनों का समत्व ही आनंद का साधन है ।
समग्रतः भगवान शिव मात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं । वेदों ने इस परम तत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्व-प्रपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है । श्रुतियों ने सदाशिव को स्वयम्भू, शांत, प्रपंचातीत, परात्पर, परम तत्त्व कहकर स्तुति की है । समुद्र मंथन से निकल कालकूट का पान कर जगत् का कल्याण करने वाले शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं । इस कल्याणकारी रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकारी साधकों एवं सर्व साधारण आस्तिक जनों, सभी के लिए परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्व सिद्धिदायक और सर्व श्रेयस्कर है ।
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शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ॥७॥
I take the refuge in Śiva, Who is without birth, Who is eternal, Who is the reason behind all the reasons, Who is the Only One, Who shines everything that shine others, Who is turīya (pure impersonal state of soul), Who is beyond darkness (tamas), Who is without a beginning and an end, Who is beyond everyone, Who is pure, and Who is without duality.||7||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥८॥
I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is resplendent in all the wordly-manifestions! I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is the idol of complete bliss! I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is reachable by penance and Yoga! I bow to You, I bow to you, O Śiva, Who is reachable by Veda and knowledge.||8||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥९॥
O Lord, Who holds a trident in hands, Who is the resplendent Lord of the world, Who is Mahādeva, Who is Śambhu, Who is the great Lord, Who has three eyes, Who is the resplendence of Śivā, Who is serene, Who slayed Smara (Kāma), and Who slayed Pura! There is nothing better or different from You which is countable or respectable.||9||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ॥१०॥
O Śambhu, Who is Maheśa, Who is full of compassion, Who holds a trident, Who is the Lord of Gaurī, Who is the Lord of sacrificed animals, Who destroys the shackles of animals, Who is the Lord of Kāśī! Only You are with compassion in this world. You are the great Lord, Who destroys, protects, and holds the world.||10||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन् ॥११॥
O Deva, Who is the universe, Who slays Smara! This world emanates from You. O Mṛḍa, Who is the Lord of the world! The world sits inside You. O Īśa, O Hara, Who pervades the entire universe as moving and unmoving forms! This world finally contracts into Your egg-shaped form (lińga) during deluge.||11||
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लोग समझते है की शिव और पार्वती दो तत्व है पर ऐसा नहीं है देखिए वेद क्या कहता है
savai nev reme tasmaad ekaki na ramte tat dvitiyamaichat
saivmevatmanam dvidha paatyeta sa pati patnischa bhavtam (brh up 1,4,3)
भगवान शिव अकेले थे महाप्रलय के बाद फिर भगवान शिव का मन नहीं लगा अकेले तो शिवजी ने इच्छा की मै दो बन एक तो रूप से स्वयं पुरुष रूप मे शिव बन गए और दूसरे रूप पार्वती..........
साधारण भाषा मे शिव जी है स्वयं पार्वती बन गए
या पार्वती ही शिव बन गई।
शिव और पार्वती दोनों एक तत्व है दोनों मे भेद नहीं माना है
जो शिव की भक्ति करता है वो पार्वती की भक्ति कर रहा हैऔर जो पार्वती की भक्ति कर रहा है वो शिव की ही भक्ति कर रहा है
पार्वती और शिव मे कैसा संबंध है वेदो ने कहा
1) दूध और और उसकी सफेदी।दूध और उसकी सफेदी मे कोई भेद नहीं है दोनों एक है इसी तरह शिव और पार्वती मे भेद नहीं है।
2)अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति, प्रकाशत्व शक्ति दोनों मे कोई भेद नहीं है,
3)शब्द और अर्थ ।
4)कस्तुरी और सुगंध
5)कपूर और उसकी खुसबू
आतमनम द्विधापात्येत (बृह उपनिषद)
स्वयं एक ब्रह्म ने अपने आपको दो रूपो मे विभक्त कर लिया
स्वयं शिव ही पार्वती बन गए,
इसी तरह शिव और पार्वती एक तत्व है, पार्वती ही शिव है , शिव ही पार्वती है
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देवा उचुः |(शिव पुराण शरभ अवतार)
यतो हरसि संसारं हर इत्युच्यते बुधैः | 26
अर्थात --
भगवान शिव मनुष्य से उसका संसार(माँ बाप पुत्र स्त्री पति पैसा प्रॉपर्टि) इन मे जो आसक्ति है इसको हर लेते है , अपने भक्त को संसारी वस्तु और व्यक्ति का अभाव कर देते है , अपने भक्त का संसार छीन लेते है इसलिए महापुरुष भगवान शिव को हर कहते है और प्रेमानन्द , परमानंद प्रदान करते है
जीवन मे संसारी वस्तु या व्यकित की हानी हो रही हो तो समझ लीजिए भगवान छाप्पर फाड़कर कृपा कर रहे है...... भगवान शिव अपने भक्तो को जान बुजकर दुख देते है जिसे उनका भक्त सदा उनका समरण करता रहे है या भगवान की कृपा है।
भगवान शिव से संसार के जड़ वस्तु और व्यक्ति की कामना मत करो , अगर मांगने की इतनी बीमारी है तो भगवान शिव से
1)शिव का दर्शन
2)शिव का प्रेमानन्द(निष्काम प्रेम)
3)शिव की सेवा
ये 3 वस्तु मांगो
नोट: भुक्ति (संसार और स्वर्ग ) और मुक्ति भगवान से कभी मत मांगना स्वप्न मे भी भगवान निष्काम प्रेम मांगो।
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आनंद एवअदसतात आनंद उपरिष्टात आनंदाह पुरसतात आनंदाह पश्चात
आनंदा उत्तरतह आनंदाह आनंद एवेदगवाम सर्वं.,....
भगवान के जीतने स्वरूप है सब सत चिद आनंद
अपने अपने पूरव जन्म के संस्कार के द्वारा जीव भगवान के अभिन्न स्वरूप मे से किसी एक को अपना इष्टदेव बंता है
यह अंशवतर, ये कलवातार है, ये गुना अवतार है ये प्रभावतआर है ये परावस्था अवतार है आदि बाते है सब मंगड़थ है
यह तो भक्त रसिकता मे कहते है पर ये सिद्धान्त नहीं है
रसिकता की भाषा मे लिखा हुआ है
जैसे भगवत मे
कृष्णस्तु भगवान स्वयं स्वयं और अवतार तो अनशा अवतार श्री कृष्ण पुरनवतार है
ऐसे ही
रामायण मे लिख दिया : रामस्तु भगवान स्वयं
वेदव्यास ने फिर लिखा
:नरसिंघ रामकृशनेशु सापुण्यम परिपूरितम।
नरसिंघ अवतार रमावतार कृष्ण अवतार तीनों परिपूर्ण है
वही वेद व्यास ने लिखा भगवान के सारे अवतार परिपूर्ण है।
सर्वे पूर्णा शाश्वत त च।
उधारण :यह बात अलग है जब कोई प्रोफेसर एमएससी
पढ़ा रहा हो तब उसकी पूरी योग्यता प्रकट होती
हाइ स्कूल को पढ़ाएगा हाइ स्कूल के लेवेल पर आकार पढ़ाएगा
और वही प्रोफेसर जब अपने लड़के को क, खा, ग , पढ़ाएगा और नीचे आजाएगा।
जितनी शक्ति का प्रयोग करना है जितना रस प्रगत करना है जिस अवतार मे उतना प्रागट करेगा
उसी प्रागट शक्ति और रस को देखकर हम विद्वान लोग आइडिया लगते है
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते॥
भगवान शिव इतने पूर्ण है की पूर्ण मे से पूर्ण निकालो तो भी पूर्ण बचेगा।
अनंत मे से अनंत निकालोगे तो अनंत बचेगा।
भगवान के तमाम अवतार नित्या परिपूर्ण है यह सिद्धान्त है।
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आपलोग को आश्चर्य होगा यह पढ़कर
श्री कृष्ण मे ही कितना भेद है
1)द्वारका वाले श्री कृष्ण जहा पर पूर्ण ऐश्वर्या का साम्राज्य है , द्वारका वाले श्री कृष्ण के भक्त ऐश्वर्या कामनायुक्त भक्ति करते है
2)मथुरा वाले श्रीकृष्ण है यहा पर ऐश्वर्या कम है पर माधुर्य ज्यादा है , मथुरा वाले श्री कृष्ण के भक्त होते है जो माधुर्य प्रधान होते है, माधुर्य भक्ति करते है पर मथुरा मे ऐश्वर्या रस भी रेहता है,
3)वृन्दावन वाले श्री कृष्ण है, मे पुरन्तम माधुर्य होता , यहा पर ऐश्वर्या का लेश भी नहीं होता यो कह लीजिए वृंदवावन मे ऐश्वर्या होता है पर गुप्त रूप से ठाकुर जी की सेवा करते है
फिर वृन्दावन मे भी
4)कुंज वाले श्री कृष्ण है , कुंज वाले श्री कृष्ण की भक्ति गोपिया करती निष्काम समारथा रति का महापुरुष को कुंज रस मे प्रवेश है, यहा के महापुरुष को गोपी देह दिया जाता है योग माया द्वारा जो चिनमय होता है।
5)निकुंज वाले श्री कृष्ण , निकुंज वाले श्री कृष्ण के भक्ति राधा रानी का अष्टमहासखिया यहा श्यामा श्याम की सेवा करती है, निकुंज रस मे समारथा रति वाले महापुरुष का भी प्रवेश वर्जित है,मात्र राधा कृष्ण और अष्टमहासखी (ललिता विशाखा , सुदेवी आदि का प्रवेश है।
6)निभृत निकुंज वाले श्री कृष्ण , निभृत निकुंज रस मे एकमात्र राधा कृष्ण का अपना परम अंतरंग रस है, निभृत निकुंज रस मे अष्ट महा सखिया का भी प्रवेश वर्जित है।
नोट: श्री कृष्ण के जीतने प्रकार बताए मैंने यह सब एक है.... एक ही श्री कृष्ण के यह सब रूप है
शिव ,हनुमान , राम ,कृष्ण , राधा , पार्वती, सीता,ब्रह्म यह सब भगवान के स्वरूप सब नित्या है और सब एक ह
इनमे कोई छोटा बड़ा नहीं है ।
कही शिवजी श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे है,कही राम शिवजी की भक्ति कर रहे है,कही ब्रह्म श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे है, कही ब्रहमजी की भक्ति श्री कृष्ण कर रहे है यह सब एक है।भगवान के अवतार जब अपने स्वरूप की भक्ति या स्तुति करते है तो यह पूजा पढ़ती सीखते है माया के आधीन जीवो के कल्याण के लिए यह सब करते है
तुलसीदास : हरी हर एक रूप गुण शीला
दौ करत सेवक सेव्य लीला
दौ सिखावत पूजा पद्धति
हनुमत बन सेवा कीनी
रामेश्वर बन सेवा लीनी
शंदिल्या जी कहते लोकवात्तू लीला कैवलयम।
आपको पहले भी बताया गया है की राम,कृष्ण माता पार्वती और शिव के ही अवतार है।
और इसी तरह शिवजी के स्वरूप भी कई प्रकार है आपको पता है मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है।
Sarve Rudram Bhajantyeva Rudrah Kinchid Bhajennahi Svaatmana Bhaktavaatsalyaad Bhajatyeva kadachana" (Shiva Purana, Kotirudra Samhita 7:15)
"Everyone worships Rudra but Rudra doesn’t worship anyone. For the sake of devotees he meditates on himself”.
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Without grasping that which is visible, and seeking and trying to grasp the invisible,
results in tiredness (frustration), you see!
Seeing that which is visible and following the path shown by the Guru (teacher),
the invisible can be seen, Lord Guhesvara!
When Shiva wanted to protect his devotee 'Mandara' (another son of Hiranyakashyap), thousands of Sudarshana discuses of Vishnu and thousands of thunderbolts of Indra could not even make a scratch on his body due to the protection of Mahadeva! How dare anyone even think of defeating Mahadeva's devotee without his wish? When Vishnu couldn't even scratch Mahadeva's devotee, how can he be capable of rendering Mahadeva inert with his 'Humm' sound।
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MOORTI KI PARIBHASA kya hai shastro me?
sandhini, samvit , ladhini shakti jab teeno pradhan hoti toh nirgun brahm sagum roop ya moorti kehlati haiiii............ram krishn, shiv durga................. ke naamo se jaane jaate haii.. yeh sat se sandhini , chid se samvit shakti aur anand se ladhini bhao hote haii par teno brahm ke sat chid anand me sat aur chid visheshan hai brahm ke VISHESHYA ANAND(LADHINI ) SHAKTI HAII....
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परमेश्वर में प्रेम करने का हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो-
प्रेम के लिए ही प्रेम किया जाये, अन्य कोई हेतु न रहे | मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, और इस लोक तथा परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गंध भी साधक के मन में न रहे, त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी उसका मन कभी न ललचाये | स्वयं भगवान प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करने के लिए आग्रह करे तब भी न ले | इस बात के लिए यदि भगवान रूठ भी जायँ तो भी परवा न करे | अपने स्वार्थ की बात सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो | भगवान की ओर से विषयों का प्रलोभन मिलनेपर मन में पाश्चाताप होकर यह भाव उदय हो कि, ‘अवश्य ही मेरे प्रेम में कोई दोष है, मेरे मन सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थ की बातों को सुनकर यथार्थ में मुझे क्लेश होता तो भगवान इनके लिए मुझे कभी न ललचाते |’
विनय, अनुरोध और भय दिखलाने पर भी परमात्मा के प्रेम के सिवा किसी भी हालत में दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अचल रहे | वह यही समझता रहे कि भगवान की जबतक मुझे नाना प्रकार के विषयों का प्रलोभन देकर ललचा रहे है और मेरी परीक्षा ले रहे है, तब तक मुझमें अवश्य ही विषयासक्ति है | सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पद को छोड़कर दूसरी बात भी न सुन सकता | विषयों को देख, सुन और सहन कर रहा हूँ |इससे यह सिद्ध होता है कि मैं प्रेम का सच्चा अधिकारी नहीं हूँ तभी तो भगवान मुझे लोभ
दिखा रहे है | उत्तम तो यह था कि मैं विषयों की चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिए निस्संदेह मेरे हृदय में कही-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है | यह है विशुद्ध प्रेम के ऊंचे साधन का स्वरुप |

राम जी और शंकर जी का युद्ध

बात उन दिनों कि है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था. श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के नेतृत्व में असंख्य वीरों की सेना सारे प्रदेश को विजित करती जा रही थी. यज्ञ का अश्व प्रदेश प्रदेश जा रहा था. इस क्रम में कई राजाओं के द्वारा यज्ञ का घोड़ा पकड़ा गया लेकिन अयोध्या की सेना के आगे उन्हें झुकना पड़ा. शत्रुघ्न के अलावा सेना में हनुमान, सुग्रीव और भरत पुत्र पुष्कल सहित कई महारथी उपस्थित थे जिन्हें जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था. कई जगह भ्रमण करने के बाद यज्ञ का घोडा देवपुर पहुंचा जहाँ राजा वीरमणि का राज्य था. राजा वीरमणि अति धर्मनिष्ठ तथा श्रीराम एवं महादेव के अनन्य भक्त थे. उनके दो पुत्र रुक्मांगद और शुभंगद वीरों में श्रेष्ठ थे. राजा वीरमणि के भाई वीरसिंह भी एक महारथी थे. राजा वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और महादेव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था. महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था.
जब अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया और अयोध्या के सैनिकों से कहा कि यज्ञ का घोडा उनके पास है इसलिए वे जाकर शत्रुघ्न से कहें कि विधिवत युद्ध कर वो अपना अश्व छुड़ा लें. जब रुक्मांगद ने ये सूचना अपने पिता को दी तो वो बड़े चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा की अनजाने में तुमने श्रीराम के यज्ञ का घोडा पकड़ लिया है. श्रीराम हमारे मित्र हैं और उनसे शत्रुता करने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए तुम यज्ञ का घोडा वापस लौटा आओ. इसपर रुक्मांगद ने कहा कि हे पिताश्री, मैंने तो उन्हें युद्ध की चुनौती भी दे दी है अतः अब उन्हें बिना युद्ध के अश्व लौटना हमारा और उनका दोनों का अपमान होगा. अब तो जो हो गया है उसे बदला नहीं जा सकता इसलिए आप मुझे युद्ध की आज्ञा दें. पुत्र की बात सुनकर वीरमणि ने उसे सेना सुसज्जित करने की आज्ञा दे दी. राजा वीरमणि अपने भाई वीरसिंह और अपने दोनों पुत्र रुक्मांगद और शुभांगद के साथ विशाल सेना ले कर युद्ध क्षेत्र में आ गए.
इधर जब शत्रुघ्न को सूचना मिली कि उनके यज्ञ का घोडा बंदी बना लिया गया है तो वो बहुत क्रोधित हुए एवं अपनी पूरी सेना के साथ युद्ध के लिए युद्ध क्षेत्र में आ गए. उन्होंने पूछा की उनकी सेना से कौन अश्व को छुड़ाएगा तो भरत पुत्र पुष्कल ने कहा कि तातश्री, आप चिंता न करें. आपके आशीर्वाद और श्रीराम के प्रताप से मैं आज ही इन सभी योद्धाओं को मार कर अश्व को मुक्त करता हूँ. वे दोनों इस प्रकार बात कर रहे थे कि पवनसुत हनुमान ने कहा कि राजा वीरमणि के राज्य पर आक्रमण करना स्वयं परमपिता ब्रम्हा के लिए भी कठिन है क्योंकि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है. अतः उचित यही होगा कि पहले हमें बातचीत द्वारा राजा वीरमणि को समझाना चाहिए और अगर हम न समझा पाए तो हमें श्रीराम को सूचित करना चाहिए. राजा वीरमणि श्रीराम का बहुत आदर करते हैं इसलिये वे उनकी बात नहीं टाल पाएंगे. हनुमान की बात सुन कर श्री शत्रुघ्न बोले की हमारे रहते अगर श्रीराम को युद्ध भूमि में आना पड़े, ये हमारे लिए अत्यंत लज्जा की बात है. अब जो भी हो हमें युद्ध तो करना ही पड़ेगा. ये कहकर वे सेना सहित युद्धभूमि में पहुच गए.
भयानक युद्ध छिड़ गया. भरत पुत्र पुष्कल सीधा जाकर राजा वीरमणि से भिड गया. दोनों अतुलनीय वीर थे. वे दोनों तरह तरह के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए युद्ध करने लगे. हनुमान राजा वीरमणि के भाई महापराक्रमी वीरसिंह से युद्ध करने लगे. रुक्मांगद और शुभांगद ने शत्रुघ्न पर धावा बोल दिया. पुष्कल और वीरमणि में बड़ा घमासान युद्ध हुआ. अंत में पुष्कल ने वीरमणि पर आठ नाराच बाणों से वार किया. इस वार को राजा वीरमणि सह नहीं पाए और मुर्छित होकर अपने रथ पर गिर पड़े. वीरसिंह ने हनुमान पर कई अस्त्रों का प्रयोग किया पर उन्हें कोई हानि न पहुंचा सके. हनुमान ने एक विकट पेड़ से वीरसिंह पर वार किया इससे वीरसिंह रक्तवमन करते हुए मूर्छित हो गए. उधर श्रीशत्रुघ्न और राजा वीरमणि के पुत्रों में असाधारण युद्ध चल रहा था. अंत में कोई चारा न देख कर शत्रुघ्न ने दोनों भाइयों को नागपाश में बाँध लिया. अपनी विजय देख कर शत्रुघ्न की सेना के सभी वीर सिंहनाद करने लगे. उधर राजा वीरमणि की मूर्छा दूर हुई तो उन्होंने देखा कि उनकी सेना हार के कगार पर है. ये देख कर उन्होंने भगवान रूद्र का स्मरण किया.
महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जान कर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित सारे गणों को युद्ध क्षेत्र में भेज दिया. महाकाल के सारे अनुचर उनकी जयजयकार करते हुए अयोध्या की सेना पर टूट पड़े. शत्रुघ्न, हनुमान और सारे लोगों को लगा कि जैसे प्रलय आ गया हो. जब उन्होंने भयानक मुख वाले रुद्रावतार वीरभद्र, नंदी, भृंगी सहित महादेव की सेना देखी तो सारे सैनिक भय से कांप उठे. शत्रुघ्न ने हनुमान से कहा कि जिस वीरभद्र ने बात ही बात में दक्ष प्रजापति का मस्तक काट डाला था और जो तेज और समता में स्वयं महाकाल के समान है उसे युद्ध में कैसे हराया जा सकता है. ये सुनकर पुष्कल ने कहा की हे तातश्री, आप दुखी मत हों. अब तो जो भी हो, हमें युद्ध तो करना हीं पड़ेगा. ये कहता हुए पुष्कल वीरभद्र से, हनुमान नंदी से और शत्रुघ्न भृंगी से जा भिड़े. पुष्कल ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग वीरभद्र पर कर दिया लेकिन वीरभद्र ने बात ही बात में उसे काट दिया. उन्होंने पुष्कल से कहा की हे बालक, अभी तुम्हारी आयु मृत्यु को प्राप्त होने की नहीं हुई है इसलिए युद्ध क्षेत्र से हट जाओ. उसी समय पुष्कल ने वीरभद्र पर शक्ति से प्रहार किया जो सीधे उनके मर्मस्थान पर जाकर लगा. इसके बाद वीरभद्र ने क्रोध से थर्राते हुए एक त्रिशूल से पुष्कल का मस्तक काट लिया और भयानक सिंहनाद किया. उधर भृंगी आदि गणों ने शत्रुघ्न पर भयानक आक्रमण कर दिया. अंत में भृंगी ने महादेव के दिए पाश में शत्रुघ्न को बाँध दिया. हनुमान अपनी पूरी शक्ति से नंदी से युद्ध कर रहे थे. उन दोनों ने ऐसा युद्ध किया जैसा पहले किसी ने नहीं किया था. दोनों श्रीराम के भक्त थे और महादेव के तेज से उत्पन्न हुए थे. काफी देर लड़ने के बाद कोई और उपाय न देख कर नंदी ने शिवास्त्र का प्रयोग कर हनुमान को पराभूत कर दिया. अयोध्या के सेना की हार देख कर राजा वीरमणि की सेना में जबरदस्त उत्साह आ गया और वे बाक़ी बचे सैनिकों पर टूट पड़े. ये देख कर हनुमान ने शत्रुघ्न से कहा कि मैंने आपसे पहले ही कहा था कि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी. अब इस संकट से बचाव का एक ही उपाय है कि हम सब श्रीराम को याद करें. ऐसा सुनते ही सारे सैनिक शत्रुघ्न, पुष्कल एवं हनुमान सहित श्रीराम को याद करने लगे.
अपने भक्तों की पुकार सुन कर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए. अपने प्रभु को आया देख सभी हर्षित हो गए एवं सबको ये विश्वास हो गया कि अब हमारी विजय निश्चित है. श्रीराम के आने पर जैसे पूरी सेना में प्राण का संचार हो गया. श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया. जब श्रीराम, लक्ष्मण और भरत ने देखा कि पुष्कल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ. भरत तो शोक में मूर्छित हो गए. श्रीराम ने क्रोध में आकर वीरभद्र से कहा कि तुमने जिस प्रकार पुष्कल का वध किया है उसी प्रकार अब अपने जीवन का भी अंत समझो. ऐसा कहते हुए श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिवगणों पर धावा बोल दिया. जल्द ही उन्हें ये पता चल गया कि शिवगणों पर साधारण अस्त्र बेकार है इसलिए उन्होंने महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रदान किये दिव्यास्त्रों से वीरभद्र और नंदी सहित सारी सेना को विदीर्ण कर दिया. श्रीराम के प्रताप से पार न पाते हुए सारे गणों ने एक स्वर में महादेव का आव्हान करना शुरू कर दिया. जब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए.
इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए परमपिता ब्रम्हा सहित सारे देवता आकाश में स्थित हो गए. जब महाकाल ने युद्ध क्षेत्र में प्रवेश किया तो उनके तेज से श्रीराम की सारी सेना मूर्छित हो गयी. जब श्रीराम ने देखा कि स्वयं महादेव रणक्षेत्र में आये हैं तो उन्होंने शस्त्र का त्याग कर भगवान रूद्र को दंडवत प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति की. उन्होंने महाकाल की स्तुति करते हुए कहा कि हे सारे बृह्मांड के स्वामी !आपके ही प्रताप से मैंने महापराक्रमी रावण का वध किया, आप स्वयं ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम में पधारे. हमारा जो भी बल है वो भी आपके आशीर्वाद के फलस्वरूप हीं है. ये जो अश्वमेघ यज्ञ मैंने किया है वो भी आपकी ही इच्छा से ही हो रहा है इसलिए हमपर कृपा करें और इस युद्ध का अंत करें. ये सुन कर भगवान रूद्र बोले की हे राम, आप स्वयं विष्णु के दुसरे रूप है मेरी आपसे युद्ध करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी चूँकि मैंने अपने भक्त वीरमणि को उसकी रक्षा का वरदान दिया है इसलिए मैं इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकता अतः संकोच छोड़ कर आप युद्ध करें. श्रीराम ने इसे महाकाल की आज्ञा मान कर युद्ध करना शुरू किया. दोनों में महान युद्ध छिड़ गया जिसे देखने देवता लोग आकाश में स्थित हो गए. श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महाकाल पर कर दिया पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके. अंत में उन्होंने पाशुपतास्त्र का संधान किया और भगवान शिव से बोले की हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिए हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आपपर हीं करता हूँ. ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया. वो अस्त्र सीधा महादेव के हृदयस्थल में समां गया और भगवान रूद्र इससे संतुष्ट हो गए. उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें. इसपर श्रीराम ने कहा कि हे भगवान ! यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में भ्राता भरत के पुत्र पुष्कल के साथ असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, उन्हें कृपया जीवन दान दीजिये. महादेव ने मुस्कुराते हुए तथास्तु कहा और पुष्कल समेत दोनों ओर के सारे योद्धाओं को जीवित कर दिया. इसके बाद उनकी आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का घोडा श्रीराम को लौटा दिया और अपना राज्य रुक्मांगद को सौंप कर वे भी शत्रुघ्न के साथ आगे चल दिए