Wednesday 27 April 2016

श्रीराम आदि चारों भाइयों का विवाह


राजा दशरथ ने जिस दिन अपने पुत्रों के विवाह के निमित्त उत्तम गोदान किया, उसी दिन भरत के सगे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् वहां आ पहुंचे। उन्होंने महाराज का दर्शन कर के कुशल-मंगल पूछा।
‘रघुनन्दन! केकयदेश के महाराज ने बड़े स्नेह के साथ आपका कुशल-समाचार पूछा है और आप भी हमारे यहां के जिन-जिन लोगों की कुशलवार्ता जानना चाहते होंगे, वे सब इस समय स्वस्थ और सानन्द हैं। राजेन्द्र! केकयनरेश मेरे भान्जे भरत को देखना चाहते हैं। अतःइन्हें लेने के लिये ही मैं अयोध्या आया था।’
‘परंतु पृथ्वीनाथ!’ अयोध्या में यह सुनकर कि आपके सभी पुत्र विवाह के लिये आपके साथ मिथिला पधारे हैं, मैं तुरंत यहां चला आया, क्योंकि मेरे मन में अपनी बहिन के बेटे को देखने की बड़ी लालसा थी।’
महाराज दशरथ ने अपने प्रिय अतिथि को उपस्थित देख बड़े सत्कार के साथ उनकी आवभगत की, क्योंकि वे सम्मान पाने के ही योग्य थे।
तदनन्तर अपने महामनस्वी पुत्रों के साथ वह रात व्यतीत करके वे तत्त्वज्ञ नरेश प्रातःकाल उठे और नित्यकर्म करके ऋषियों को आगे किये जनक की यज्ञशाला में जा पहुंचे।
तत्पश्चात् विवाह के योग्य विजय नामक मुहूर्त आने पर दूल्हे के अनुरुप समस्त वेश-भूषा से अलंकृत हुए भाइयों के साथ श्रीरामचन्द्र जी भी वहां आये। वे विवाहकालोचित मंगलाचार पूर्ण कर चुके थे तथा वसिष्ठ मुनि एवं अन्यान्य महर्षियों को आगे कर के मण्डप में पधारे थे। उस समय भगवान् वसिष्ठ ने विदेहराज जनक के पास जाकर इस प्रकार कहा—
‘राजन्! नरेशों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ अपने पुत्रों का वैवाहिक सूत्र-बन्धनरुप मंगलाचार सम्पन्न कर के उन सबके साथ पधारे हैं और भीतर आने के लिये दाता के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
‘क्योंकि दाता और प्रतिग्रहीता का संयोग होने पर ही समस्त दान-धर्मों का सम्पादन सम्भव होता है, अतः आप विवाह-कालोपयोगी शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके उन्हें बुलाइये और कन्यादान रुप स्वधर्म का पालन कीजिये।’
महात्मा वसिष्ठ के ऐसा कहने पर परम उदार, परम धर्मज्ञ और महातेजस्वी राजा जनक ने इस प्रकार उत्तर दिया।
‘मुनिश्रेष्ठ! महाराज के लिये मेरे यहां कौन-सा पहरेदार खड़ा। वे किस के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं। अपने घर में आने के लिये कैसा सोच-विचार है? कन्याओं का वैवाहिक सूत्र-बन्धन रुप मंगलकृत्य सम्पन्न हो चुका है। अब वे यज्ञवेदी के पास आकर बैठी हैं और अग्नि की प्रज्वलित शिखाओं के समान प्रकाशित हो रही है।’
‘इस समय तो मैं आपकी ही प्रतीक्षा में वेदी पर बैठा हूं। आप निर्विघ्नतापूर्वक सब कार्य पूर्ण कीजिये। विलम्ब किसलिये करते हैं?’
वसिष्ठ जी के मुख से राजा जनक की कही हुई बात सुनकर महाराज दशरथ उस समय अपने पुत्रों और सम्पूर्ण महर्षियों को महल के भीतर ले आये।
तदनन्तर विदेहराज ने वसिष्ठ जी से इस प्रकार कहा-‘धर्मात्मा महर्षे! प्रभो! आप ऋषियों को साथ लेकर लोकाभिराम श्रीराम के विवाह की सम्पूर्ण क्रिया कराइये।’
तब जनक जी से ‘बहुत अच्छा’ कहकर महातपस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनिने विश्वामित्र और धर्मात्मा शतानन्द जी को आगे कर के विवाह-मण्डप के मध्य भाग में विधिपूर्वक वेदी बनायी और गन्ध तथा फूलों के द्वारा उसे चारों ओर से सुन्दर रुप में सजाया। साथ ही बहुत-सी सुवर्ण-पालिकाएं, युवके अंकुरों से युक्त धूपपात्र,शंखपात्र,स्त्रुवा, स्त्रुक्, अघ्र्य आदि पूजनपात्र, लावा से भरे हुए पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्रियों को भी यथास्थान रख दिया। तत्पश्चात् महातेजस्वी मुनिवर वसिष्ठ जी ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चारों ओर बिछाकर मन्त्रोच्चारण करते हुए विधि पूर्वक अग्नि स्थापन किया और विधिको प्रधानता देते हुए मन्त्रपाठपूर्वक प्रज्वलित अग्नि में हवन किया।
तदनन्तर राजा जनक ने सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीता को ले आकर अग्नि के समक्ष श्रीरामचन्द्र जी के सामने बिठा दिया और माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले उन श्रीराम से कहा-‘रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रुप में उपस्थित है, इसे स्वीकार करो और इसका हाथ अपने हाथ में लो। यह परम पतिव्रता , महान् सौभीग्यवती और छाया की भांति सदा तुम्हारे पीछे चलने वाली होगी।’
यह कहकर राजा ने श्रीराम के हाथ में मन्त्र से पवित्र हुआ संकल्प छोड़ दिया। उस समय देवताओं और ऋषियों के मुख से जनक के लिए साधुवाद सुनायी देने लगा।
देवताओं के नगाड़े बजने लगे और आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई। इस प्रकार मन्त्र और संकल्प के जल के साथ अपनी पुत्री सीता का दान कर के हर्षमग्न हुए राजा जनक ने लक्ष्मण से कहा-‘लक्ष्मण! तुम्हारा कल्याण हो। आओ, मैं ऊर्मिला को तुम्हारी सेवा में दे रहा हूं। इसे स्वीकार करो। इसका हाथ अपने हाथ में लो। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये।’
‘रघुनन्दन! माण्डवी का हाथ अपने हाथ में लो।’
फिर धर्मात्मा मिथिलेश ने शत्रुघ्न को सम्बोधित कर के कहा—‘महाबाहो! तुम अपने हाथ से श्रुतकीर्ति का पाणिग्रहण करो। तुम चारों भाई शान्तस्वभाव हो। तुम सबने उत्तम व्रत का भलीभांति आचरण किया है। ककुत्स्थकुल के भूषणरुप तुम चारों भाई पत्नी से संयुक्त हो जाओ। इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये।’
राजा जनक का यह वचन सुनकर उन चारों राजकुमारों ने चारों राजकुमारियों के हाथ अपने हाथ में लिये। फिर वसिष्ठजी की सम्मति से उन रघुकुलरत्न महामनस्वी राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नी के साथ अग्नि , वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि-मुनियों की परिक्रमा की और वेदोक्त विधि के अनुसार वैवाहिक कार्य पूर्ण किया।
उस समय आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई, जो सुहावनी लगती थी। दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि, दिव्य गीतों के मनोहर शब्द और दिव्य वाद्यों के मधुर घोष के साथ झुंड-की-झुंड अप्सराएं नृत्य करने लगीं और गन्धर्व मधुर गीत गाने लगे। उन रघुवंश शिरोमणि राजकुमारों के विवाह में वह अद्भुत दृश्य दिखायी दिया।
शहनाई आदि बाजोें के मधुर घोष से गूंजते हुए उस वर्तमान विवाहोत्सव में उन महातेजस्वी राजकुमारों ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा कर के पत्नियों को स्वीकार करते हुए विवाहकर्म सम्पन्न किया।
तदनन्तर रघुकुल को आनन्द प्रदान करने वाले वे चारों भाई अपनी पत्नियों के साथ जनवासे में चले गये। राजा दशरथ भी ऋषियों और बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्रों और पुत्र-वधुओं को देखते हुए पीछे-पीछे गये।

गुरुभक्ति के लिए एकलव्य का त्याग


निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य एक दिन हस्तिनापुर में आया और उसने उस समय के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य, कौरव-पाण्डवों के शस्त्र-गुरु द्रोणाचार्य जी के चरणों में दूर से साष्टांग प्रणाम किया। अपनी वेश-भूषा से ही वह अपने वर्ण की पहचान दे रहा था। आचार्य द्रोण ने जब उससे अपने पास आने का कारण पूछा, तब उसने बताया—‘मैं श्रीचरणों के समीप रहकर धनुर्विद्या कि शिक्षा लेने आया हूं।’
आचार्य संकोच में पड़ गये। उस समय कौरव तथा पाण्डव बालक थे और आचार्य उन्हें शिक्षा दे रहे थे। एक निषाद-बालक को अपने साथ शिक्षा देना राजकुमारों को स्वीकार नहीं होता और यह उनकी मर्यादा के अनुरुप भी नहीं था। भीष्मपितामह को आचार्य ने राजकुमारों को शस्त्र-शिक्षा देने का वचन दे रखा था। अतएव उन्होंने कहा—‘बेटा एकलव्य! मुझे दुःख है कि मैं किसी द्विजेतर बालक को शस्त्र शिक्षा नहीं दे सकता।’
एकलव्य ने तो द्रोणाचार्य जी को मन-ही-मन गुरु मान लिया था। जिसे गुरु मान लिया, उसकी किसी भी बात को सुनकर रोष या दोषदृष्टि करने की तो बात मन में ही कैसे आती। निषाद के उस छोटे बालक के मन में निराशा भी नहीं हुई। उसने फिर आचार्य के सम्मुख भूमि में लेटकर प्रणाम किया और कहा—‘भगवन्! मैंने तो आपको गुरुदेव मान लिया है। मेरे किसी काम से आपको संकोच हो, यह मैं नहीं चाहता। मुझ पर आपकी कृपा रहनी चाहिये।’
बालक एकलव्य हस्तिनापुर से लौटकर घर नहीं गया। वह वन में चला गया और वहां उसने मिट्टि की द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाकर स्थापित कर दी। उस मूर्ति को प्रणाम करके उसके सामने वह बाण-विद्या का अभ्यास करने लगा। ज्ञान के एकमात्र दाता तो भगवान् ही है। जहां अविचल श्रद्धा औक गूढ़ निश्चय होता है, वहां वे सब के हृदय में रहने वाले श्री हरि गुरु रुप में या बिना बाहरी गुरु के भी ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। महीने-पर-महीने बीतते गये, एकलव्य का अभ्यास अखण्ड चलता गया और वह महान् धनुर्धर हो गया।
एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्य पाण्डव और कौरवों को बाण-विद्या का अभ्यास कराने के लिये आखेट करने वन में लिवा ले गये। संयोग वश उनके साथ का एक कुत्ता भटकता हुआ एकलव्य के स्थान के पास पहुंच गया और काले रंग के तथा विचित्र वेशधारी एकलव्य को देखकर भोकने लगा। एकलव्य के केश बढ़ गये थे और उसके पास वस्त्र के स्थान पर बाघ का चमड़ा ही था। वह उस समय अपना अभ्यास कर रहा था। कुत्ते के भोकने से बाधा पड़ते देख उसने सात बाण चलाकर कुत्ते का मूख बन्द कर दिया। कुत्ता भागता हुआ अपने स्वामी के पास पहंचा। सबने बड़े आश्चर्य से देखा कि बाणों से कुत्ते को कहीं भी चोट नहीं लगी, किंतु वे आड़े-तिरछे उसके मुख में इस प्रकार फंसे है कि कुत्ता बोल नहीं सकता। बिना चोट पहुंचाये इस प्रकार कुत्ते के मुख में बाण भर देना बाण चलाने का बहुत बड़ा कौशल है। पाण्डवों में से अर्जुन इस हस्तकौशल को देखकर बहुत चकित हुए। उन्होंने द्रोणाचार्य जी से कहा—‘गुरुदेव! आपने तो कहा था कि आप मुझे पृथ्वी पर सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे, किंतु इतना हस्तकौशल तो मुझमें भी नहीं है।’
‘चलो! हमलोग उसे ढूंढें।’ द्रोणाचार्य जी ने सबको साथ लेकर उस बाण चलाने वाले को वन में ढूंढना प्रारम्भ किया और वे एकलव्य के आश्रम पर पहुंच गये। एकलव्य आचार्य के चरणों में आकर गिर पड़ा। द्रोणाचार्य ने पूछा-‘सौम्य! तुमने बाण-विद्या का इतना उत्तम अभ्यास किस से प्राप्त किया?’
नम्रतापूर्वक एकलव्य ने हाथ जोड़कर कहा—‘भगवन्! मैं तो आपके श्रीचरणों का ही दास हूं।’ उसने आचार्य की उस मिट्टी की मूर्ति कि ओर संकेत किया। द्रोणाचार्य ने कुछ सोचकर कहा—‘भद्र! मुझे गुरुदक्षिणा नहीं दोगे?’
‘आज्ञा करें भगवन्!’ एकलव्य ने बहुत अधिक आनन्द का अनुभव करते हुए कहा।
द्रोणाचार्य ने कहा—‘मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिये।’
दाहिने हाथ का अंगूठा! दाहिने हाथ का अंगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? इतने दिनों की अभिलाषा, इतना बड़ा परिश्रम, इतना अभ्यास—सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुर भक्त बालक ने बायें हाथ में अस्त्र लिया और तुरंत अपने दीहिने हाथ का अंगूठा काटकर अपने हाथ में उठाकर गुरुदेव के सामने कर दिया।
भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहा-‘बेटा! संसार में धनुर्विद्या के अनेकों महान् ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारे इस महान् त्याग का सुयश सदा अमर रहेगा।’

महात्माओं का प्रभाव


महात्मा पुरुषों की कोई सीमा नहीं होती, जो साधारण महात्मा होते हैं, उनके गुण, प्रभाव, रहस्य कोई नहीं बता सकता और जो भगवान् के भेजे हुए महापुरुष होते हैं उनकी तो बात ही क्या है, वे तो भगवान् के समान होते हैं। यह कह दें तो भी कोई आपत्ति नहीं। भगवान् के दर्शन, भाषण से जो लाभ मिलता है उनके दर्शन भाषण से हमें वही लाभ मिलता है, किन्तु एसे भक्त जो भगवान् के अन्तरंग होते हैं या तो भगवान् के साथ आते हैं या कभी अकेले भी आते हैं। ध्रुव जी के लिये भगवान् अकेले ही आय, कृष्णावतार में भगवान् गोपियों और गोपों को साथ लाये। संसार में भी साधन करके बहुत उच्चकोटि के महात्मा बन जाते हैं।
भगवान् के नाम की, भगवान् की और उनके भक्तों की जितनी महिमा गायी जाय उतनी ही कम है।
भगवान् के भक्तों की भगवान् के समान उपमा दी।
उदराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्त्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।
वे सभी उदार हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरुप ही है। क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति स्वरुप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।
भगवान् के भक्त हमें कई मिलते हैं, किन्तु भगवान् के मिलने पर जो आनन्द हो ऐसा आनन्द नहीं होता। इसका कारण यह है कि प्रभु ने अपना अधिकार देकर भेजा हो ऐसा पुरुष देखने में तो कोई नहीं आता। कोई हो हमें जानकारी न हो तो वह होकर भी अप्राप्त ही है।
जिसके दर्शन, स्पर्श, भाषण से कल्याण हो जाय, जिसको भगवान् ने संसार के कल्याण के लिये भेजा हो, ऐसे पुरुष संसार में नहीं दिखते। ऐसे पुरुष तो मिल सकते हैं जिन्हें परमात्मा की प्राप्ति हो गयी हो। वे दूसरों के साधन बता देते हैं। भगवान् भी सदा ऐसा अधिकार देते भी नहीं हैं।
भगवान् शंकर को अधिकार है, नारद जी को है, हनुमान् जी को है, किन्तु उनका पता नहीं है। ऐसे-ऐसे भक्त भगवान् के भक्त होते हैं जैसे भगवान् के दर्शन करने से शान्ति, आनन्द मिलता है, वही बात उनके दर्शन करने से होती है। जो भगवान् के भेजे हुए होते हैं। जिन्हें देखने से भगवान् की स्मृति को समझना चाहिये कि ये भगवान् के भक्त हैं। ऐसे पुरुष भगवान् की प्राप्ति का मार्ग बता सकते हैं, किन्तु भगवान् से शक्तिशाली नहीं होते। ऐसा तो कोई एक पुरुष ही होता है जो भगवान् भी नहीं कर सकें, ऐसा काम वह कर सकता है। ऐसा पुरुष मिले कैसे? भगवान् से प्रार्थना करने से। प्रार्थना करने से तो भगवान् स्वयं ही मिल जाते हैं। भगवान् के भक्त का मिलना उसके अन्तर्गत नहीं है, किन्तु उनके भक्त से मिलना हो गया तो भगवान् का मिलना उसके अन्तर्गत ही है। इसलिये हमें ऐसे भक्तों से मिलने के लिये भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। भगवान् कानून में बंधे रहने के कारण सारे संसार का उद्धार नहीं करते, किन्तु ऐसे भक्त संसार का कल्याण कर सकते हैं। उन्हें मौका मिल गया तो संसार का उद्धार करने के लिये कमर कस लेते हैं। ऐसे भक्त नरक में जाते हैं तो नरक की जीवों का भी कल्याण करते हैं। एक कायस्थ की कहानी आती है। उसे किसी कारणवश यमपुरी का अधिकार मिल गया तो जो आता उसको वह वैकुण्ठ भेजता गया। ऐेसे भक्तों से मिलकर वैकुण्ठ का दरवाजा खुलवाना चाहिये। घोर कलिकाल है इसमें छूट तो बहुत है, किन्तु और छूट करवानी चाहिये। इतनी छूट से काम नहीं चलता। भगवान् तो नीति में बंधे रहते हैं—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूं, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
ऐसा उद्देश्य रखना चाहिये जिस किस प्रकार से संसार का उद्धार हो। भले ही अपने लिये नरक हो, किन्तु संसार का उद्धार होना चाहिये।
सबका उद्धार कर सकने वाले का स्थान खाली है। वह स्थान उसके लिये खाली है जिसका यह भाव हो कि सारे संसार का उद्धार होना चाहिये

पितृभक्त बालक पिप्पलाद


वृत्रासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। इन्द्र देवताओं के साथ स्वर्ग छोड़कर भाग गये थे। देवताओं के कोई भी अस्त्र-शस्त्र वृत्रासुर को मार नहीं सकते थे। अन्त में इन्द्र ने तपस्या तथा प्रार्थना करके भगवान् को प्रसन्न किया। भगवान् ने बताया कि महर्षि दधीचि की हड्डियों से विश्वकर्मा वज्र बनावे तो उससे वृत्रासुर मर सकता है। महर्षि दधीचि बड़े भारी तपस्वी थे। उनकी तपस्या के प्रभाव से उनकी आज्ञा सभी जीव-जन्तु तथा वृक्ष तक मानते थे। उन तेजस्वी ऋषिको देवता मार तो सकते नहीं थे, उन्होंने जाकर उनकी हड्डियां मांगीं।
महर्षि दधीचि ने कहा—‘ यह शरीर तो एक दिन नष्ट ही होगा। मरना तो सबको पड़ेगा ही, किसी का उपकार करके मृत्यु हो, शरीर किसी की भलाई में लग जाय; इससे अच्छी भला और क्या बात होगी। मैं योग से अपना शरीर छोड़ देता हूं। आप लोग हड्डियां ले लें।’
महर्षि दधीचि ने योग से शरीर छोड़ दिया। वे मरकर मुक्त हो गये। उनके शरीर की हड्डियों से विश्वकर्मा को स्वर्ग मिल गया।
महर्षि दधीचि की स्त्री का नाम प्रातिथेयी था। इनके एक पुत्र भी थे। महर्षि दधीचि के पुत्र भी बड़े तपस्वी थे। वे पीपल के फल (गोदा) खाकर रहते थे, इससे उनका नाम पिप्पलाद पड़ गया था। पिप्पलाद ने जब सुना कि देवताओं को हड्डियां देने के कारण उनके पिता मरे तो पिप्पलाद को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने देवताओं से बदला लेने का विचार किया।
पिप्पलाद देवताओं से बदला लेने के लिये भगवान् शंकर जी की उपासना और तपस्या करने लगे। उन्होंने बहुत दिनों तक तपस्या की और तब शंकरजी उनपर प्रसन्न होकर प्रकट हुए। शंकर जी ने उनसे वरदान मांगने को कहा। पिप्पलाद ने कहा —‘आप मुझे ऐसी शक्ति दीजिये कि मैं अपने पिता के मारनेवालों को नष्ट कर दूं।’
शंकरजी ने एक बड़ी भयानक राक्षसी उत्पन्न करके पिप्पलाद को दे दी। राक्षसी ने पिप्पलाद से पूछा—‘ आप आज्ञा दें, मैं क्या करुं?’
पिप्पलाद ने कहा—‘तुम सब देवताओं को खा लो।’ वह राक्षसी अपना बड़ा भारी मुख फाड़कर पिप्पलाद को ही खाने दौड़ी। डरकर पिप्पलाद ने पूछा—‘तू मुझे क्यों खाने आती है?’
राक्षसी बोली —‘सब जीवों के अंगो में उन अंगों के देवता रहते हैं। जैसे नेत्रों में सूर्य, हाथो में इन्द्र, जीभ में वरुण। इसी प्रकार दूसरे देवता भी दूसरे अंगों में रहते हैं। स्वर्ग देवता तो दूर हैं, पहले जो लोग पास हैं, उन्हें तो खा लूं। मेरे सबसे पास तो तुम्हीं हो।’
पिप्पलाद बहुत डरे और भगवान् शंकरजी की शरण में गये। शंकरजी ने पिप्पलाद से कहा—‘बेटा! क्रोध बहुत बुरा होता है। क्रोध के वश में न होने से बहुत पाप होते हैं। देखो, मैं यदि इस राक्षसी को तुम्हें खाने से रोक भी दूं, तो यह दूसरे सब जीवों को खा जायगी। तुम्हें ही सारे संसार को मारने का पाप लगेगा। मान लो कि यह स्वर्ग के देवताओं को ही मार डाले तब भी सारे संसार का नाश हो जायगा। आँखों के देवता सूर्य हैं, सूर्य न रहेंगे तो सब लोग अन्धे हो जायंगे। हाथ के देवता इन्द्र हैं, इन्द्र न रहेंगे तो कोई हाथ हिला ही नहीं सकेगा। इसी प्रकार जिस अंग के जो देवता हैं, उस देवता की शक्ति से ही जीवों के अंग काम करते हैं। देवता न रहेंगे तो तुम्हारा भी कोई अंग काम नहीं करेगा। इसलिये तुम देवताओं पर क्रोध मत करो। देवताओं ने तुम्हारे पिता से उनकी हड्डियां भिक्षा में मांगी थी। तुम्हारे पिता इतने बड़े दानी और उपकारी थे कि उन्होंने अपनी हड्डियां भी दे दीं। तुम इतने बड़े महात्मा के पुत्र हो। अपने पिता के सामने भिखारी बनने वालों पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।’
भगवान् शंकर का उपदेश सुनकर पिप्पलाद का क्रोध दूर हो गया। उन्होंने कहा—‘भगवान्! आपकी आज्ञा मानकर मैं देवताओं को क्षमा करता हूं।’ राक्षसी भी चली गयी।
पिप्पलाद की क्षमा से शंकर जी ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि वे जहां तपस्या करते थे; वह स्थान पिप्पलतीर्थ हो जायगा और उस तीर्थ में स्नान करने वाले सब पापों से छूटकर भगवान् के धाम जायंगे।
पिप्पलाद की इच्छा अपने पिता महर्षि दधीचि का दर्शन करने की थी। देवताओं की प्रार्थना से ऋषियों के लोक से महर्षि दधीचि और पिप्पलाद की माता प्रातिथेयीजी विमान में बैठकर वहां आये और उन्होंने पिप्पलाद को आशीर्वाद दिया।
बालक पिप्पलाद आगे बड़े भारी विद्वान् और ब्रह्मर्षि हुए। इनका वर्णन प्रश्नोपनिषद् और शिवपुराण में भी आता है।

भाव ऊंचा रहे हमारा


हम को अपना सुधार करना चाहिये। हमारे द्वारा अब ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिये, जो हमें खतरे में डालने वाला हो। भाव ऊंचा बनायें। भाव अपना है, अपने अधिकार की बात है। फिर कमी क्यों रहने दें। अनिच्छा- परेच्छा से जो कुछ आकर प्राप्त होता है वह हमारा प्रारब्ध है। कोई भी काम करें उस में ऊंचे-से-ऊंचा भाव रखें। संसार में जो कुछ है भाव ही है। भाव श्रेष्ठ बनायें।
एक भाई यज्ञ -तपादि करता है, उसका भाव यह है कि हमारा शत्रु मारा जाय, बीमार पड़ जाय तो यह तामसी है अधोगच्छन्ति तामसा: । देखने में उसके कर्म अच्छे हैं किन्तु उसका फल नरक है, क्योंकि उसका उद्देश्य खराब है, भाव खराब है।
दूसरा एक भाई वही यज्ञ-तपादि भगवान् में प्रेम होमे के लिये करता है या फलकी इच्छा नहीं रखता, निष्काम भाव से करता है, वह क्रिया कल्याण करने वाली है, इसलिये उत्तम भाव से ही कर्म करना चाहिये। हम किसी की सेवा करते हैं तो उस समय यह भाव रखना चाहिये कि हम कुछ नहीं करते, अपितु यही हमारा बहुत बड़ा काम करते हैं कि हमसे सेवा करा रहे हैं, उनकी और भगवान् की दया है कि हमको सेवा का मौका दिया है। यह भाव कल्याण करने वाला है, ऊंचे दर्जे का भाव है। यदि यह भाव करे कि हम सेवा करते हैं तो लाभ तो है किन्तु इतना नहीं, वाहवाही मिल जायेगी। नाम- बड़ाई होगी या स्वर्ग मिलेगा, किन्तु उससे लाभ क्या है? मनुष्य- जीवन विषय- भोग के लिये नहीं है। उद्देश्य यह न हो कि मैं जो दान, तप,यज्ञ, उपकार करुंगा उससे स्वर्ग मिले या कीर्ति हो। स्वर्ग और कीर्ति कोई चीज नहीं है, असली वस्तु तो ऊंचे भाव से मिलती है। स्वर्ग मिला तो क्या लाभ हुआ? वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन रुप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।
हमलोग न जाने कितनी बार स्वर्ग और नरक भोग चुके हैं, फिर यह मनुष्य जीवन पाकर फिर उसी के लिये चेष्टा करना मूर्खता है। यह मौका हाथ से न जाने दें। यह आखिरी मौका है, अन्यथा ऐसे ही जन्मते-मरते रहना है।
पूर्व में कितनी बार जन्मे-मरे और भविष्य में कितनी बार जन्मेंगे और मरेंगे, इसको कोई महीं बता सकता।
यह मनुष्य शरीर संसार में घूमने के लिये नहीं मिला है। संसार चक्र को रोकने के लिये मिला है। संसार के भोगों के लिये या स्वर्ग भोगने के लिये नहीं मिला है, यह तो परम कल्याण करने के लिये मिला है।
हम जिनकी सेवा करते हैं, उपकार करते हैं, वास्तव में वही हमारा उपकार करते हैं, वही हमारा कल्याण करते हैं। यदि हमारे द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो समझें बड़ा भारी पाप हो गया, जिसका अनिष्ट हो गया है उससे क्षमा प्रार्थना करनी चाहिये। वह यदि क्षमा कर दें तो फिर यमराज की सामथ्र्य नहीं है कि दण्ड दे सकें।
यह भाव रखे कि सब भगवान् के ही जन हैं। जितने जीव हैं भगवान् के ही तो हैं। तुलसीदास जी ने कहा है—
समदरसी मोहि कह सब कोउ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोउ।।
अनन्यगतिवाला भक्त भगवान् को अधिक प्रिय है। अनन्य गति का लक्षण भगवान् राम इस प्रकार बताते हैं—
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत। मैं सेवक सचराचर रुप स्वामि भगवंत।।
वह मेरा अनन्य सेवक है जिसकी मति इस भाव से कभी नहीं टलती कि यह संसार भगवान् का स्वरुप है और मैं सबका सेवक हूं। यह बहुत ऊंचा भाव है। गीता में भगवान् कहते हैं—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है— इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
हमलोगों को सबको वासुदेव समझकर, नारायण समझकर सेवा करनी चाहिये। यदि कुछ अपराध बन जाय तो सेवा—प्रार्थना करनी चाहिये और बदले में सेवा अधिक करनी चाहिये, यदि हमारा अनिष्ट हो तो यह भाव रखे कि यह हमारे प्रारब्ध का फल है। हमने जो अपराध किया है उसका फल भगवान् इसको निमित्त बनाकर भुगत रहे हैं। प्रभु से उसके लिये यह प्रार्थना करनी चाहिये कि प्रभो आप तो स्वयं यह काम कर सकते हैं तो फिर इस बेचारे को क्यों निमित्त बना हरे हैं। अपने से जो किसी की सेवा हो रही है, उसमें सेवा करवाने वाले के द्वारा हमारा उपकार हो रहा है। किसी के द्वारा हमारा अनिष्ट होता है तो अपने ही पापों का फल समझे। भगवान् उसको निमित्त बनाकर फल भुगता रहे हैं, उसके प्रति द्वेष भाव न रखे। उसका इसमें कोई दोष नहीं है। जो कुछ है भाव ही है। इसी को ऊंचा बनायें। यह संसार दीख रहा है, यह हमारे मनका भाव है। भीतरका भाव ही बाहर दीखता है, मनको भावमय बनाये। मनको कुछ काम चाहिये, यही काम दें। यहां आयें हैं तो गंगा में स्नान करें। गंगा की महान् कृपा है तभी तो हमको पवित्र करने आयी है। गंगा भगवान् शंकर की जटा का जल है और भगवान् विष्णु के चरणों का जल है, यह कल्याण करने के लिये ही संसार में आयीहै। स्नान करते समय इस प्रकार का ऊंचा भाव रखें। इसी प्रकार भगवान् को अघ्र्य देते समय यह भाव रखें कि भगवान् सूर्य संसार का कल्याण कर रहे हैं। प्रकाश द्वारा जो कल्याण होता है वह तो होता ही है। यह प्रत्यक्ष देवता हैं। इनकी रश्मियों के द्वारा मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है। यह उत्तम मार्ग से परमात्मा के परमधाम पहुंचाते हैं। इनकी उपासना भावमय होकर करे तो क्या वह इतना भी नहीं करेंगे कि इसने जन्मभर मेरी आराधना की है अतः उसे अच्छे मार्ग से भगवान् के धाम में पहुंचा दें। इसलिये इनकी आराधना करते समय बहुत ही ऊंचा भाव रखना चाहिये।
यही बात नामजप में है। नामजप का बड़ा भारी प्रभाव है। नामजप से सारे पापों का नाश होकर कल्याण हो जाता है। नामजप के समान और मूल्यवान् हो जाता है। नामजप के साथ-साथ भगवान् के स्वरुप का ध्यान करने से अधिक लाभ हो सकता है। नामजप में भाव ऊंचा बनायें, बड़ा लाभ हो सकता है।
भगवान् की हर एक क्रिया में प्रसन्न रहे, मुग्ध हो-होकर भगवान् की दया समझे, फिर कल्याण की प्राप्ति मेंे देर नहीं हैं।

Tuesday 26 April 2016

जानें संन्यास और गृहस्थ क्या है श्रेष्ठ ?


एक राजा था । उसके राज्य में जब कभी कोई संन्यासी आते, तो उनसे वह सदैव एक प्रश्न पूछा करता था - ‘संसार का त्याग कर जो संन्यास ग्रहण करता है, वह श्रेष्ठ है, या संसार में रहकर जो गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को करता जाता है, वह श्रेष्ठ है ?’ अनेक विद्वान लोगों ने उसके इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न किया । कुछ लोगों ने कहा कि संन्यासी श्रेष्ठ है । यह सुनकर राजा ने इसे सिद्ध करने को कहा । जब वे सिद्ध न कर सके तो राजा ने उन्हें विवाह करके गृहस्थ हो जाने की आज्ञा दी । कुछ और लोग आये और उन्होंने कहा ‘स्वधर्मपरायण गृहस्थ ही श्रेष्ठ है ।’ राजा ने उनसे भी उनकी बात के लिए प्रमाण मांगा । पर जब वे प्रमाण न दे सके, तो राजा ने उन्हें भी गृहस्थ हो जाने की आज्ञा दी ।
अंत में एक तरुण संन्यासी आये । राजा ने उनसे भी उसी प्रकार प्रश्न किया । संन्यासी ने कहा, ‘हे राजन्, अपने - अपने स्थान में दोनों ही श्रेष्ठ हैं, कोई भी कम नहीं है ।’ राजा ने उसका प्रमाण मांगा । संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘हां, मैं इसे सिद्ध कर दूंगा, परंतु तुम्हें मेरे साथ आना होगा और कुछ दिन मेरे ही समान जीवन व्यतीत करना होगा । तभी मैं तुम्हें अपनी बात का प्रमाण दे सकूंगा ।’ राजा ने संन्यासी की बात स्वीकार कर ली और उनसे पीछे पीछे हो लिया । वह उन संन्यासी के साथ अपने राज्य की सीमा को पार कर अनेक देशों में से होता हुआ एक बड़े राज्य में आ पहुंचा । उस राज्य की राजधानी में एक बड़ा उत्सव मनाया जा रहा था । राजा और संन्यासी ने संगीत और नगाड़ों के शब्द सुने । लोग सड़कों पर सुसज्जित होकर कतारों में खड़े थे । उसी समय कोई एक विशेष घोषणा की जा रही थी । उपरोक्त राजा तथा संन्यासी भी यह सब देखने के लिए वहां खड़े हो गये । घोषणा करनेवाले ने चिल्लाकर कहा, ‘इस देश की राजकुमारी का स्वयंवर होनेवाला है ।’
राजकुमारियों का अपने लिए इस प्रकार पति चुनना भारत वर्ष में एक पुराना रिवाज था । अपने भावी पति के संबंध में प्रत्येक राजकुमारी के अलग अलग विचार होते थे । कोई अत्यंत रूपवान पति चाहती थी, कोई अत्यंत विद्वान, कोई अत्यंत धनवान, आदि आदि । अड़ोस पड़ोस के राज्यों के राजकुमार सुंदर से सुंदर ढंग से अपने को सजाकर राजकुमारी के सम्मुख उपस्थित होते थे । कभी कभी उन राजकुमारों के भी भाट होते थे, जो उनके गुणों का गान करते तथा यह दर्शाते थे कि उन्हीं का वरण किया जाएं । राजकुमारी को एक सजे हुए सिंहासन पर बिठाकर आलीशान ढंग से सभा के चारों ओर ले जाया जाता था । वह उन सब के सामने जाती तथा उनका गुणगान सुनती । यदि उसे कोई राजकुमार नापसंद होता, तो वह अपने वाहकों से कहती, ‘आगे बढ़ो’ और उसके पश्चात् उस नापसंद राजकुमार का कोई ख्याल तक न किया जाता था । यदि राजकुमारी किसी राजकुमार से प्रसन्न हो जाती, तो वह उसके गले में वरमाला डाल देती और वह राजकुमार उसका पति हो जाता था ।
जिस देश में यह राजा और संन्यासी आएं हुए थे, उस देश में इसी प्रकार का एक स्वयंवर हो रहा था । यह राजकुमारी संसार में अद्वितीय सुंदरी थी और उसका भावी पति ही उसके पिता के बाद उसके राज्य का उत्तराधिकारी होनेवाला था । इस राजकुमारी का विचार एक अत्यंत सुंदर पुरुष से विवाह करने का था, परंतु उसे योग्य व्यक्ति मिलता ही न था । कई बार उसके लिए स्वयंवर रचे गये, पर राजकुमारी को अपने मन का पति न मिला । इस बार का स्वयंवर बड़ा सुंदर था, अन्य सभी अवसरों की अपेक्षा इस बार अधिक लोग आये थे ।

इतने में वहां तरुण संन्यासी आ पहुंचा । वह इतना सुंदर था कि मानो सूर्यदेव ही आकाश छोड़कर स्वयं पृथ्वी पर उतर आयें हों । वह आकर सभा के एक ओर खड़ा हो गया और जो कुछ हो रहा था, उसे देखने लगा । राजकुमारी का सिंहासन उसके समीप आया और ज्यों ही उसने उस सुंदर संन्यासी को देखा, त्यों ही वह रुक गयी और उसके गले में वरमाला डाल दी । तरुण संन्यासी ने माला को रोक लिया और यह कहते हुए, ‘छि: छि: यह क्या है ?’ उसे फेंक दिया । उसने कहा, ‘मैं संन्यासी हूं, मुझे विवाह से क्या प्रयोजन ?’
इधर राजकुमारी इस युवा पर इतनी मोहित हो गयी कि उसने कह दिया, मैं इसी मनुष्य से विवाह करूंगी, नहीं तो प्राण त्याग दूंगी । और राजकुमारी संन्यासी के पीछे पीछे उसे लौटा लाने के लिए चल पड़ी । इसी अवसर पर अपने पहले संन्यासी ने, जो राजा को यहां लाएं थे, राजा से कहा, ‘राजन् चलिए, इन दोनों के पीछे पीछे हम लोग भी चलें ।’ अंत में एक जंगल में घुस गया । उसके पीछे राजकुमारी थी, और उन दोनों के पीछे ये दोनों ।
तरुण संन्यासी उस वन से भलीभांति परिचित था तथा वहां के सारे जटिल रास्तों का उसे ज्ञान था । वह एकदम एक रास्ते में घुस गया और अदृश्य हो गया । उसे काफी देर ढूंढने के बाद अंत में वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गयी और रोने लगी, क्योंकि उसे बाहर निकलने का मार्ग नहीं मालूम था । इतने में यह राजा और संन्यासी उसके पास आये और उससे कहा, ‘बेटी, रोओ मत, हम तुम्हें इस जंगल के बाहर निकाल ले चलेंगे, परंतु अभी बहुत अंधेरा हो गया है, जिससे रास्ता ढूंढ़ना सहज नहीं । यहीं एक बड़ा पेड़ है, आओ, इसी के नीचे हम सब विश्राम करें और सबेरा होते ही हम तुम्हें मार्ग बता देंगे ।’
अब, उस पेड़ की एक डाली पर एक छोटी चिड़िया, उसकी स्त्री तथा उसके तीन बच्चे रहते थे । उस चिड़िया ने पेड़ के नीचे इन तीन लोगों को देखा और अपनी स्त्री से कहा, ‘देखो, हमारे यहां ये लोग अतिथि हैं, जाड़े का मौसम है, हम लोग क्या करें ? हमारे पास आग तो है नहीं ।’ यह कहकर वह उड़ गया और एक जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा अपनी चोंच में दबा लाया और उसे अतिथियों के सामने गिरा दिया । उन्होंने उसमें लकड़ी लगा - लगाकर आग तैयार कर ली, परंतु चिड़िया को फिर भी संतोष न हुआ । उसने अपनी स्त्री से फिर कहा, ‘बताओ, अब हमें क्या करना चाहिए ? ये लोग भूखे हैं, और इन्हें खिलाने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं है । हम लोग गृहस्थ है और हमारा धर्म है कि जो कोई हमारे घर आये, उसे हम भोजन करायें । जो कुछ मेरी शक्ति में है, मुझे अवश्य करना चाहिए, मैं उन्हें अपना यह शरीर ही दे दूंगा ।’ ऐसा कहकर वह आग में कूद पड़ा और भुन गया । अतिथियों ने उसे आग में गिरते देखा, उसे बचाने का यत्न भी किया, परंतु बचा न सके । उस चिड़िया की स्त्री ने अपने पति का सुकृत देखा और अपने मन में कहा, ‘ये तो तीन लोग हैं, उनके भोजन के लिए केवल एक ही चिड़िया पर्याप्त नहीं । पत्नी के रूप में मेरा यह कर्तव्य है कि अपने पति के परिश्रमों को मैं व्यर्थ न जाने दूं । वे मेरा भी शरीर ले लें ।’ और ऐसा कहकर वह भी आग में गिर गयी और भुन गयी ।
तब संन्यासी ने राजा से कहा, ‘देखो राजन्, तुम्हें अब ज्ञात हो गया है कि अपने अपने स्थान में सब बड़े हैं । यदि तुम संसार में रहना चाहते हो, तो इन चिड़ियों के समान रहो, दूसरों के लिए अपना जीवन दे देने को सदैव तत्पर रहो । और यदि तुम संसार छोड़ना चाहते हो, तो उस युवा संन्यासी के समान हो, जिसके लिए वह परम सुंदरी स्त्री और एक राज्य भी तृणवत था । यदि गृहस्थ होना चाहते हो तो दूसरों के हित के लिए अपना जीवन अर्पित कर देने के लिए तैयार रहो । और यदि तुम्हें संन्यास जीवन की इच्छा है तो सौंदर्य, धन तथा अधिकार की ओर आंख तक न उठाओ । अपने - अपने स्थान में सब श्रेष्ठ हैं, परंतु एक का कर्तव्य दूसरे का कर्तव्य नहीं हो सकता ।’

Saturday 9 April 2016

प्रभु श्रीराम का प्रलयंकारी धनुष "कोदंड":-


भगवान राम के धनुष का नाम कोदंड था इसीलिए प्रभु श्रीराम को कोदंड कहा जाता था। 'कोदंड' का अर्थ होता है बांस से निर्मित। कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था। कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे 'कोदंड रामालयम मंदिर' कहा जाता है। भगवान श्रीराम दंडकारण्य में 10 वर्ष तक भील और आदिवासियों के बीच रहे थे।
एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे। भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है। हालांकि उन्होंने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत ‍मुश्किल वक्त में ही किया।
देखि राम रिपु दल चलि आवा। बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा।।
अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया।
कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
भावार्थ:-कठिन धनुष चढ़ाकर सिर पर जटा का जू़ड़ा बाँधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकतमणि (पन्ने) के पर्वत पर करोड़ों बिजलियों से दो साँप लड़ रहे हों। कमर में तरकस कसकर, विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधारकर प्रभु श्री रामचंद्रजी राक्षसों की ओर देख रहे हैं। मानों मतवाले हाथियों के समूह को (आता) देखकर सिंह (उनकी ओर) ताक रहा हो।
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥
प्रभु श्री रामजी ने पहले धनुष का बड़ा कठोर, घोर और भयानक टंकार किया, जिसे सुनकर राक्षस बहरे और व्याकुल हो गए। उस समय उन्हें कुछ भी होश न रहा।
प्राचीन समय में सैन्य विज्ञान का नाम ही धनुर्वेद था, जिससे सिद्ध होता है कि उन दिनों युद्ध में धनुष बाण का कितना महत्व था।
नीतिप्रकाशिका में मुक्तवर्ग के अंतर्गत 12 प्रकार के शस्त्रों का वर्णन है, जिनमें धनुष का स्थान प्रमुख है।

चक्रिक भील

चक्रिक भील

अर्थात् ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और जो अन्य अन्त्यज लोग हैं, वे भी हरिभक्तिद्वारा भगवान की शरण होने से कृतार्थ हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है । यदि ब्राह्मण भी भगवान के विमुख हो तो उसे चाण्डाल से अधिक समझना चाहिए और यदि चाण्डाल भी भगवान का भक्त हो तो उसे भी ब्राह्मण से अधिक समझना चाहिये ।’

द्वापरयु में चक्रिक नामक एक भील वन में रहता था । भील होने पर भी उसके आचरण बहुत ही उत्तम थे । वह मीठा बोलने वाला, क्रोध जीतनेवाला, अहिंसापरायण, दयालु, दंभहीन और माता - पिता की सेवा करनेवाला था । यद्यपि उसने कभी शास्त्रों का श्रवण नहीं किया था तथापि उसके हृदय में भगवान की भक्ति का आविर्भाव हो गया था । सदा हरि, केशव, वासुदेव और जनार्दन आदि नामों का स्मरम किया करता था । वन में एक भगवान हरि की मूर्ति थी । वह भील वन में जब कोई सुंदर फल देखता तो पहले उसे मुंह में लेकर चखता, फल मीठा न होता तो उसे स्वयं खा लेता और यदि बहुत मधुर और स्वादिष्ट होता तो उसे मुंह से निकालकर भक्तिपूर्वक भगवान के अर्पण करता । वह प्रतिदिन इस तरह पहले चखकर स्वादिष्ट फल का भगवान के श्रद्धा से भोग लगाया करता । उसको यह पता नहीं था कि जूठा फल भगवान के भोग नहीं लगाना चाहिए । अपनी जाति के संस्कार के अनुसार ही वह सरलता से ऐसा आचरण किया करता ।

एक दिन वन में घूमते हुए भील कुमार चक्रिक ने एक पियाल वृक्ष का एक पका हुआ फल देखा । उसने फल तोड़कर स्वाद जानने के लिए उसको जीभपर रखा, फल बहुत ही स्वादिष्ट था, परंतु जीभ पर रखते ही वह गले में उतर गया । चक्रिक को बड़ा विषाद हुआ, भगवान के भोग लगाने लायक अत्यंत स्वादिष्ट फल खाने का वह अपना अधिकार नहीं समझता था । ‘सबसे अच्छी चीज ही भगवान को अर्पण करनी चाहिए’ उसकी सरल बुद्धि में यहीं सत्य समाया हुआ था । उसने दाहिने हाथ से अपना गला दबा लिया कि जिससे फल पेट में चला जाएं । वह चिंता करने लगा कि ‘अहो ! आज मैं भगवान को मीठा फल न खिला सका, मेरे समान पापी और कौन होगा ? ’ मुंह में अंगुली डालकर उसने वमन किया तब भी गले में अटका हुआ फल नहीं निकला । चक्रिक श्रीहरि का एकांत सरल भक्त था, उसने भगवान की मूर्ति के समीप आकर कुल्हाड़ी से अपना गला एक तरफ से काटकर फल निकाला और भगवान के अर्पण किया । गले से खून बह रहा था । पीड़ा के मारे व्याकुल हो चक्रिक बेहोश होकर गिर पड़ा । कृपामय भगवान उस सरल हृदय शुद्धांत:करण प्रेमी भक्त की महती भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये और चतुर्भुजरूप से साक्षात् प्रकट होकर कहने लगे -

इस चक्रिक के समान मेरा भक्त कोई नहीं, क्योंकि इसने अपना कण्ठ काटकर मुझे फल प्रदान किया है -

‘यद् द्त्त्वानृण्यमाप्नोति तथा वस्तु किमस्ति मे ।’

‘मेरे पास ऐसी क्या वस्तु है जिसे देकर मैं इससे उऋण हो सकूं ? इस भील पुत्र को धन्य है ! मैं ब्रहत्व, शिवत्व या विष्णुत्व देकर भी इससे उऋण नहीं हो सकता ।’

इतना कहकर भगवान ने उसके मस्तक पर हाथ रखा । कोमल करकमल का स्पर्श होते ही उसकी सारी व्यथा दूर हो गयी और वह क्षण उठ बैठा । भगवान उसे उठाकर अपने पीतांबर से जैसे पिता अपने प्यारे पुत्र के अंग की धूल झाड़ता है, उसके अंग की धूल झाड़ने लगे । चक्रिक ने भगवान को साक्षात् अपने सम्मुख देखकर हर्ष से मधुर वाक्यों से उनकी स्तुति की -

‘हे गोविंद, हे केशव, हे हरि, हे जगदीश, हे विष्णु ! यद्यपि मैं आपकी प्रार्थना करने योग्य वचन नहीं जानता तथापि मेरी रसना आपकी स्तुति करना चाहती है । हे स्वामी ! कृपाकर मेरे इस महान दोष का नाश कीजिए । हे चराचरपति, चक्रधारी ! जिस पूजा से प्रसन्न होकर आपने मुझपर कृपा की है, आपकी उस पूजा को छोड़कर संसार में जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं ।’

भगवान उसकी स्तुति से बड़े संतुष्ट हुए और उसे वर मांगने को कहा । सरल भक्त बोला -

हे परब्रह्म ! हे परमधाम !! हे कृपामय परमात्मन !! जब मैंने साक्षात् आपके दर्शन प्राप्त कर लिये हैं तो मुझे और वर की क्या आवश्यकता है ? परंतु हे लक्ष्मीनारायण ! आप वर देना ही चाहते हैं तो कृपाकर यहीं वर दीजिए कि मेरा चित्त आप में ही अचलरूप से लगा रहे ।

भक्तों को इस वर के सिवा और कौन सा वर चाहिए ? भगवान परम प्रसन्न हो अपनी चारों विशाल भुजाओं से चक्रिक का आलिंगन करके, भक्ति का वर दे, वहां से अंतर्धान हो गये । तदंतर चक्रिक द्वार का चला गया और वहां भगवत्कृपा से ज्ञान लाभकर अंत में देवदुर्लभ मोक्ष पद को प्राप्त हो गया । जो कोई भी भगवान की सरल, शुद्ध भक्ति करता है वहीं उन्हें पाता है -
जो मनुष्य दृढ़ भक्ति के द्वारा इंद्रादि देवपूजित वासुदेव भगवान के चरणकमल युगल की पूजा करता है, वहीं मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।

सौरधर्म का वर्णन



राजा शतानीक ने पूछा - मुने ! भगवान सूर्य का माहात्म्य कीर्तिवर्धक और सभी पापों का नाशक है । मैंने भगवान सूर्यनारायण के समान लोक में किसी अन्य देवता को नहीं देखा । जो बरण - पोषम और संहार भी करनेवाले हैं वे भगवान सूर्य किस प्रकार प्रसन्न होते हैं, उस धर्म को आप अच्छी तरह जानते हैं । मैंने वैष्मव, शैव, पौराणिक आदि धर्मों का श्रवण किया है । अब मैं सौरधर्म को जानना चाहता हूं । इसे आप मुझे बताएं ।

सुमंतु मुनि बोले - राजन् ! अब आप सौरधर्म के विषय में सुनें । यह सौरधर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ और उत्तम है । किसी समय स्वयं भगवान सूर्य ने अपने सारथि अरुण से इसे कहा था । सौरधर्म अंधकार रूपी दोष को दूरकर प्राणियों को प्रकाशित करता है और यह संसार के लिये महान कल्याणकारी है । जो व्यक्ति शांतिचित्त होकर सूर्य की भक्तिपूर्वक पूजा करता है, वह सुख और धन धान्य से परिपूर्ण हो जाता है । प्रात: मध्याह्न और सायं त्रिकाल अथवा एक ही समय सूर्य की उपासना अवश्य करनी चाहिए । जो व्यक्ति सूर्यनारायण का भक्तिपूर्वक अर्चन, पूजन और स्मरण करता है, वह सात जन्मों में किये गये सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है । जो भगवान सूर्य की सदा स्तुति, प्रार्थना और आराधना करते हैं, वे प्राकृत मनुष्य न होकर देवस्वरूप ही हैं । षोडशांग पूजन विधि को स्वयं सूर्यनारायण ने कहा है, वह इस प्रकार है -

प्रात: स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए । जप, हवन, पूजन, अर्चनादि कर सूर्य को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मण, गाय, पीपल आदि की पूजा करनी चाहिए । भक्तिपूर्वक इतिहास पुराण का श्रवण और ब्राह्मणों को वेदाभ्यास करना चाहिए । सबसे प्रेम करना चाहिए । स्वयं पूजन कर लोगों को पुराणादि ग्रंथों की व्याख्या सुनानी चाहिए । मेरा नित्य प्रति स्मरण करना चाहिए । इस प्रकार के उपचारों से जो अर्चन पूजन विधि बतायी गयी है, वह सभी प्रकार के लोगों के लिए उत्तम है । जो कोई इस प्रकार से भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करता है, वहीं मुनि, श्रीमान्, पण्डित और अच्छे कुल में उत्पन्न है । जो कोई पत्र, पुष्प, फल, जल आदि जो भी उपलब्ध हो उससे मेरी पूजा करता है उसके लिये न मैं अदृश्य हूं और न वह मेरे लिये अदृश्य है ।

मुझे जो व्यक्ति जिस भावना से देखता है, मैं भी उसे उसी रूप में दिखायी पड़ता हूं । जहां मैं स्थित हूं, वहीं मेरा भक्त भी स्थित होता है । जो मुझ सर्वव्यापी को सर्वत्र और संपूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है, उसके लिये मैं उसके हृदय में स्थित हूं और वह मेरे हृदय में स्थित है । सूर्य की पूजा करने वाला व्यक्ति बड़े - बड़े राजाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है । जो व्यक्ति मन से मेरा निरंतर ध्यान करता रहता है, उसकी चिंता मुझे बराबर बनी रहती है कि कहीं उसे कोई दु:ख न होने पायें । मेरा भक्त मुझको अत्यंत प्रिय है । मुझमें अनन्य निष्ठा ही सब धर्मों का सार है ।

आदिगुरु श्रीकृष्ण



वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानंद कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।

यह संसार एक बहुत बड़ी पाठशाला है । इसमें अगणित जीव शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते हैं, और यथाधिकार निर्दिष्ट काल तक शिक्षा - लाभ कर चले जाते हैं, और फिर कुछ विश्राम के पश्चात् पुन: नये वेशभूषा के साथ इसमें आकर प्रवेश करते हैं । कहने का आशय यह है कि जीवन का एक जन्म उसके लिये इस पाठशाला का एक अध्ययन दिवस है । जब तक कोई यहां की पूरी पढ़ाई समाप्त न कर ले तब तक उससे मुक्ति दूर ही रहती है - उसे बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ना ही पड़ता है ।

यह पाठशाला अनादिकाल से चली आ रही है । अत्यंत आदर्श पाठशाला है, अति विचित्र है और अति प्राचीन होने पर भी नित्य नवीन है । शिक्षा का ढंग भी ऐसा अद्भुत है कि विद्यार्थियों को यह पता भी कठिनता से लग पाता है कि उन्हें शिक्षा मिल रही है । स्वल्पबोध छात्रों को तो स्नेहमयी प्रकृतिजननी अपनी गोद में लेकर शिक्षा देती हैं, और प्रौढ़ विद्यार्थियों को स्वयं परमपिता जगद्गुरु की वाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है ।

यह वाणी जिस मूर्ति के द्वारा सुनी जाती है उसे गुरु कहते हैं, क्योंकि वह शिष्य के अज्ञान को नाश करती है । ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का निरोध को कहते हैं अर्थात् जो अंधकार का नास करता है वह गुरु कहलाता है । पर वस्तुत: एक मनुष्य दूसरे का गुरु नहीं हो सकता । सबका गुरु तो वहीं एक परमात्मा है, वहीं किसी शरीर के द्वारा दूसरे को उपदेश देता है । उसी निमित्त कारण को हम लोग गुरु मानकर उसका आदर करते हैं, और वस्तुत: वही हमारे लिये परमेश्वर की मूर्ति है ।

पाठशाला के समस्त पाठ्य ग्रंथ वेदशास्त्रादि में इन्हीं दो (प्रवृत्ति और निवृत्ति) धर्मों का निरूपण है । प्रवृत्ति लक्षण धर्म समग्र इष्ट भोगों का देनेवाला है और निवृत्ति लक्षण धर्म मोक्षदाता है । केवल प्रवृत्ति लक्षण ही दोनों फलों को दे सकता है यदि पूर्ण निष्कामभाव से कर्म किया जाएं, क्योंकि निष्कामभाव के साथ कर्म करने से चित्त शुद्धि होती है और चित्त शुद्धि से निवृत्ति लक्षण धर्म की भी योग्यता आ जाती है जिससे मुक्ति होती है । इस प्रकार यह प्रवृत्ति धर्म भी निष्कामभावपूर्वक करने से परंपरा से मोक्ष का कारण है । ऐसी बात न होती, यदि यह भी मोक्ष तक पहुंचानेवाला न होता तो इसे पाठ्य ग्रंथ में स्थान ही क्यों मिलता ? क्योंकि जीव का परम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्त करना है ।

आदिगुरु नारायण भगवान ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से सदा संपन्न हैं, सर्व भूतों के ईश्वर हैं, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव हैं । उनका जन्म तो होता नहीं, वे नित्य अव्यय हैं, अत: अपनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया मीलप्रकृति को वश में करके उसी माया द्वारा जन्म लिये हुए की भांति प्रतीत हुए और शरीर की तरह अनुग्रह करते हुए दिखायी दिये ।इस प्रकार वेद और ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिये आदिकर्ता नारायण ने देव की और वसुदेव के घर में अवतार घारण किया । उस समय पाठशाला का एक अति गुणी छात्र अर्जुन जो सखारूप से सरकार की उपासना करता था, क्षात्रर्मानुसार युद्ध में स्वयं प्रवृत्त होकर भी शोकऔर मोह से अभिभूत हो अपने धर्म से हटने लगा । इस पर जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने उस योग्य पात्र को प्रवृत्ति निवृत्ति लक्षण धर्मों के सार गीताज्ञान का उपदेश दिया, जिसे पीछे से बगवान वेदव्यास ने 700 श्लोकों में व्यक्त किया । यहीं संक्षेप में जगद्गुरु श्रीकृष्ण का दिव्य जन्म कर्म है ।

यह गीता जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से कही है, इसी से इसकी इतनी महिमा है । इस पाठशाला में आने वाले अधिसंख्यक विद्यार्थियों को उस जगद्गुरु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, इसके लिये खेद करने की आवश्यकता नहीं है । वह रूप तो कालविशेष और प्रयोजनविशेष के लिये ही प्रकट हुआ था । अत: कार्य पूरा होने पर अंतर्धान हो गया । पर यह नित्यरूप गीताज्ञान तो सदा के लिये इस पाठशाला में बना ही हुआ है, इसलिये जिसे यहां आकर जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस ज्ञानमय रूप का दर्शन नहीं हुआ उसका जन्म निष्फल हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है, और जिसने इस ज्ञान को हृदय में स्थान दिया उसके हृदय में जगद्गुरु श्रीकृष्ण विराजमान हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं 

Tuesday 5 April 2016

कर्तव्यपरायणता का अद्भुत आदर्श


प्राचीन काल में सर्वसमृद्धिपूर्ण वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का एक धर्मात्मा राजा था। एक दिन उसके दरबार में वीरवर नाम का एक गुणी व्यक्ति अपनी पत्नी, कन्या एवं पुत्र के साथ वृत्ति के लिए उपस्थित हुआ। राजा ने उसकी विनयपूर्ण बातों को सुनकर प्रतिदिन एक सहस्त्र स्वर्णमुद्रा का वेतन नियत कर सिंहद्वार के रक्षक के रूप में उसकी नियुक्ति कर ली। दूसरे दिन राजा ने अपने गुप्तचरों से जब पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वह अपना अधिकांश द्रव्य यज्ञ, तीर्थ, शिव, विष्णु के मंदिरों में आराधनादि-कार्यों तथा साधु, ब्राह्मण एवं अनाथों में वितरित कर अत्यल्प शेष से अपने परिजनों का पालन करता है। इससे राजा ने प्रसन्न होकर उसकी नियुक्ति को पूर्णरूप से स्थायी कर दिया।
एक दिन आधी रात में जब मूसलाधार वृष्टि, बादलों की गरज, विद्युत एवं झंझावात से रात्रि की विभीषिका सीमा स्पर्श कर रही थी, श्मशान से किसी नारी के करुण-क्रंदन की ध्वनि राजा के कानों में पड़ी। राजा ने सिंहद्वार पर उपस्थित वीरवर से इस रुदन-ध्वनि का पता लगाने के लिए कहा। जब वीरवर तलवार लेकर चला तब राजा भी उसके भय की आशंका तथा सहयोगार्थ एक तलवार लेकर गुप्तरूप से उसके पीछे लग गया। वीरवर ने श्मशान पहुंचकर एक स्त्री को वहां रोते देखा और उससे जब इसका कारण पूछा, तब उसने कहा कि ‘मुझे इस राज्य की लक्ष्मी अथवा राष्ट्रलक्ष्मी समझो। इसी मास के अंत में राजा रूपसेन की मृत्यु जो जाने पर में अनाथ होकर कहां जाऊंगी, इसीलिए रो रही हूं।’ वीरवर ने राजा की दीर्घायु के लिए जब उससे उपाय पूछा, तब उसने वीरवर के पुत्र की चण्डिका के सामने बलि देने से राजा के शतायु जोने की बात कही। फिर क्या था? वीरवर उलटे पांव घर लौटकर पत्नी, पुत्र आदि को जगाकर और उनकी सम्मति लेकर उनके साथ चण्डिका-मंदिर में पहुंचा। राजा भी गुप्तरूप से पीछे-पीछे सर्वत्र जाता रहा। वीरवर ने देवी की प्रार्थना कर राजा की आयु बढ़ाने के लिए अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी। इसे देखते ही उसकी बहन का दु:ख से हृदयविस्फोट हो गया। फिर उसकी माता भी चल बसी। वीरवर इन तीनों का दाहकर स्वयं भी राजा की आयु वृद्धि के लिए बलि चढ़ गया।
राजा छिपकर यह सब देख रहा था। उसने देवी की प्रार्थना की। अपने जीवन को व्यर्थ बताते हुए और अपना सिर काटने के लिए उसने ज्यों ही तलवार खींची त्यों ही देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और वर मांगने के लिए कहा। राजा ने देवी से परिजनों-सहित वीरवर को जिलाने की प्रार्थना की। फलत: देवी ने सबको जिला दिया और राजा चुपके से वहां से चलकर अपनी अट्टालिका में जाकर लेट गया। इधर वीरवर भी चकित होता हुआ तथा देवी की कृपा मानता हुआ अपने पुनर्जीवित परिवार को घर पर छोड़कर राजप्रासाद के सिंहद्वार पर खड़ा हो गया। जब राजा ने इसके वहां उपस्थिति के लक्षणों से परिचित होकर उसे बुलाकर अज्ञात नारी के रुदन का कारण पूछा, तब वीरवर ने कहा ‘राजन! वह कोई चुड़ैल थी और मुझे देखते ही अदृश्य हो गई, चिंता की कोई बात नहीं।’
इस पर राजा ने मन-ही-मन उसकी धीरता तथा स्वामिभक्ति की प्रशंसा की और प्रात:काल सारी बात को अपने सभासदों से बतलाकर वीरवर को पुत्रसहित कर्नाट एवं लाटदेश (महाराष्ट्र-गुजरात) - का अधिपति बना दिया। उन्होंने वीरवर को अपने तुल्य ही समृद्धिशाली बनाकर अपनी मैत्री की दृढ़ता का निश्चय किया।
यह कथा परोपकार, कर्तव्यपरायणता, दीन एवं अनाथ की सेवा, स्वामिभक्ति एवं परस्पर प्राणरक्षार्थ आत्मोत्सर्ग की भावना की तीव्र प्रेरणा प्रदान करती है

गरुड, सुदर्शनचक्र और श्रीकृष्ण की रानियों का गर्व-भंग



एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड को यक्षराज कुबेर के सरोवर से सौगंधिक कमल लाने का आदेश दिया। गरुड को यह अहंकार तो था ही कि मेरे समान बलवान तथा तीव्रगामी प्राणी इस त्रिलोकी में दूसरा नहीं है। वे अपने पंखों से हवा को चीरते तथा दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए गंधमादन पहुंचे और पुष्पचयन करने लगे। महावीर हनुमानजी का वहीं आवास था। इस गरुड के इस अनाचार को देखकर उनसे बोले - ‘तुम किसके लिए यह फूल के जा रहे हो और कुबेर की आज्ञा के बिना ही पुष्पों का क्यों विध्वंस कर रहे हो?’

गरुड ने उत्तर दिया - ‘हम भगवान श्रीकृष्ण के लिए इन पुष्पों को ले जा रहे हैं। भगवान के लिए हमें किसी की अनुमति आवश्यक नहीं दीखती।’ गरुड की इस बात से हनुमानजी कुछ क्रुद्ध हो गए और उन्हें पकड़कर अपनी कांख में दबाकर आकाशमार्ग से द्वारका की ओर उड़ चले। उनकी भीषण ध्वनि से सारे द्वारकावासी संत्रस्त हो गए। सुदर्शन चक्र हनुमानजी की गति को रोकने के लिए उनके सामने जा पहुंचा। हनुमानजी ने झट उसे दूसरी कांख में दाब लिया। भगवान श्रीकृष्ण ने तो यह सब लीला रची ही थी। उन्होंने अपने पार्श्व में स्थित रानियों से कहा - ‘देखो, हनुमान क्रुद्ध होकर आ रहे हैं। यदि यहां उन्हें उस समय सीता-राम के दर्शन न हुए तो वे द्वारका को समुद्र में डुबो देंगे। अतएव तुममें से तुरंत कोई सीता का रूप बना लो, मैं तो देखो यह राम बना।’ इतना कहकर वे श्रीराम के स्वरूप में परिणत होकर बैठ गए। अब जानकीजी का रूप बनाने को हुआ, तब कोई भी न बना सकीं। अंत में भगवान ने श्रीराधाजी का स्मरण किया। वे आईं और झट श्रीजानकीजी का स्वरूप बन गईं।

इसी बीच हनुमानजी वहां उपस्थित हुए। वहां वे अपने इष्टदेव श्रीसीतारामजी को देखकर उनके चरणों में गिर गए। इस समय भी वे गरुड और सुदर्शन चक्र को बड़ी सावधानी से अपने दोनों बगलों में दबाए हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण ने (राम-वेश में) उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा - ‘वत्स! तुम्हारी कांखों में यह क्या दिखलाई पड़ रहा है?’ हनुमानजी ने उत्तर दिया - ‘कुछ नहीं सरकार! यह तो एक दुबला सा क्षुदे पक्षी निर्जन स्थान में मेरे श्रीरामभजन में बाधा डाल रहा था, इसी कारण मैंने इसे पकड़ लिया। दूसरा यह चक्र-सा एक खिलौना है, यह मेरे साथ टकरा रहा था, अतएव इसे भी दाब लिया है। आपको यदि पुष्पों की ही आवश्यकता थी तो मुझे क्यों नहीं स्मरण किया गया? यह बेचारा पखेरू महाबलौ शिवभक्त यक्षों के सरोवर से बलपूर्वक पुष्प लाने में कैसे समर्थ हो सकता है?’

भगवान ने कहा - ‘अस्तु! इन बेचारों को छोड़ दो। मैं तुम्हारे ऊपर अत्यंत प्रसन्न हूं, अब तुम जाओ, अपने स्थान पर स्वच्छंदतापूर्वक भजन करो।’

भगवान की आज्ञा पाते ही हनुमानजी ने सुदर्शन चक्र और गरुड को छोड़ दिया तथा उन्हें पुन: प्रणाम करके ‘जय श्रीराम’ कहते हुए गंधमादन की ओर चल दिए। गरुड को गति का, सुदर्शन को शक्ति का और पट्टमहिषियों को सौंदर्य का जो बड़ा गर्व था, वह एकदम चूर्ण हो गया।

जानिए क्या है मानस-पूजा और कैसे करें भगवान शिव की मानसपूजा


शास्त्रों में पूजा को हजारगुना अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए एक उपाय बतलाया गया है। वह उपाय है मानस-पूजा, जिसे पूजा से पहले करके फिर बाह्य वस्तुओं से पूजा करें अथवा सुविधानुसार बाद में भी की जा सकती है।
मन: कल्पित यदि एक फूल भी चढ़ा दिया जाय, तो करोड़ों बाहरी फूल चढ़ाने के बराबर होता है। इसी प्रकार मानस-चंदन, धूप, दीप नैवेद्य भी भगवान को करोड़गुना अधिक संतोष दे सकेंगे। अत: मानस-पूजा बहुत अपेक्षित है। वस्तुत: भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं। संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे परमेश्वर की पूजा की जा सके, इसलिए पुराणों में मानस-पूजा का विशेष महत्त्व माना गया है। मानस-पूजा में भक्त अपने इष्ट साम्बसदाशिव को सुधासिंधु से आप्लावित कैलास-शिखर पर कल्पवृक्षों से आवृत कदंब-वृक्षों से युक्त मुक्तामणिमण्डित भवन में चिन्तामणि निर्मित सिंहासन पर विराजमान कराता है। स्वर्गलोक की मंदाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है। वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं। पृथ्वीरूपी गंध का अनुलेपन करता है। अपने आराध्य के लिए कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्णकमल पुष्पों का चयन करता है. भावना से वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपी नैवेद्य भगवान को अर्पण करने की विधि है। इसके साथ ही त्रिलोक की संपूर्ण वस्तु, सभी उपचार सच्चिदानंदघन परमात्मप्रभु के चरणों में भावना से भक्त अर्पण करता है। यह है मानस-पूजा का स्वरूप। इसकी एक संक्षिप्त विधि पुराणों में वर्णित है। जो नीचे लिखी जा रही है -
१-ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि।
(प्रभो! मैं पृथ्वीरूप गंध (चंदन) आपको अर्पित करता हूं।)
२-ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि।
(प्रभो! मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूं।)
३-ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि।
(प्रभो! मैं वायुदेव के रूप में धूप आपको प्रदान करता हूं।)
४-ॐ रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि।
(प्रभो! अग्निदेव के रूप में दीपक आपको प्रदान करता हूं।)
५- ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि।
(प्रभो! मैं सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूं।) इन मंत्रों से भावनापूर्वक मानस-पूजा की जा सकती है।
मानस-पूजा से चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है, इससे बाह्य पूजा में भी रस मिलने लगता है। यद्यपि इसका प्रचार कम है, तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिए। यहां पाठकों के लाभार्थ भगवान शंकराचार्यविरचित ‘मानस-पूजास्तोत्र’ मूल तथा हिंदी अनुवाद के साथ दिया जा रहा है -
शिवमानसपूजा
रत्नै: कल्पितमासनं हिमजलै: स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्।
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्।।१।।
हे दयानिधे! हे पशुपते! हेदेव! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिकागंधसमन्वित चंदन, जुही, चंपा और बिल्वपत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक (पूजोपहार) ग्रहण कीजिए।
सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।।२।।
मैंने नवीन रत्नखण्डों से रचित सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधि सहित पांच प्रकार का व्यंजन, कदलीफल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और तांबूल - ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किए हैं, प्रभो! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिए।
छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं
वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा।
साष्टाङ्गं प्रणति: स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो।।३।।
छत्र, दो चंवर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभी के वाद्य, गान, और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नानाविध स्तुति-ये सब मैं संकल्प से ही आपको समर्पण करता हूं, प्रभो! मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिए।
आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति:।
सञ्चार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।।४।।
हे शंभो! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मंदिर है, संपूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा संपूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं, इस प्रकार मैं जो-जो कर्म करता हूं, वह सब आपकी आराधना ही है।
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो।।५।।
प्रभो! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र, अथवा मन से जो भी अपराध किए हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिए। हे करुणासागर श्रीमहादेव शंकर-आपकी जय हो।

भगवान विष्णु का स्वप्नभ


एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे। स्वप्न में वे क्या देखते हैं कि करोड़ों चंद्रमाओं की कांतिवाले, त्रिशूल-डमरूधारी, स्वर्णाभरण-भूषित, सुरेंद्र वंदित, अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत्त होकर उनके सामने नृत्य कर रहे हैं। उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गद्गद हो सहसा शय्या पर उठकर बैठा गए और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे। उन्हें इस प्रकार बैठे देखकर श्रीलक्ष्मीजी उनसे पूछने लगीं कि ‘भगवन्! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?’ भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे। अंत में कुछ स्वस्थ होने पर वे गद्गद-कंठ से इस प्रकार बोले - ‘हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्रीमहेश्वर का दर्शन किया है, उनकी छबि ऐसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी। मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है। अहोभाग्य्! चलो, कैलास में चलकर हम लोग महादेव के दर्शन करें।’
यह कहकर दोनों कैलास की ओर चल दिये। मुश्किल से आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगरान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गयी।पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। मानो प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनंदाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रश्नोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकरजी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानो विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे। दोनों के स्वप्न का वृत्तांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दूसरे से अपने यहां लिवा जाने का आग्रह करने। नारायण कहते वैकुंठ चलो और शंभु कहते कैलास की ओर प्रस्थान कीजिए। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय। इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारदजी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे उस अलौकिक मिलन को देखार; वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गए और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों को लक्ष्य करके बोलीं - ‘हे नाथ! हे नारायण! आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलास है, केवल नाम में ही भेद है। यही नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में द्प हैं। और तो और मुझे तो अब यह स्पष्ट दीखने लगा है कि आपकी भार्याएं भी एक ही हैं, दो नहीं। जो मैं हूं वही श्रीलक्ष्मी हैं और जो श्रीलक्ष्मी हैं वही मैं हूं। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गई है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दूसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह स्वभाविक ही दूसरे की भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है, वह दूसरे की भी पूजा नहीं करता। मैं तो यह समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हीं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे चक्कर में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिए। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिवरूप से वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णुरूप से कैलास गमन कर रहे हैं।’
इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए दोनों प्रणामालिंगन के अनंतर हर्षित हो अपने-अपने लोक को चले गए।
लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी उनसे पूछने लगीं कि - ‘प्रभो! सबसे अधिक प्रिय आपको कौन हैं?’ इस पर भगवान बोले - ‘प्रिये! मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्रीशंकरजी से भेंट जो गयी। ज्यों ही हम लोगों की चार आंखें हुईं कि हम लोग पूर्वजन्मार्जित विज्ञा की भांति एक्-दूसरे के प्रति आकृष्ट हो गए। ‘वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की अर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।’

हिन्दू धर्म : कौन थे 12 आदित्य, जानिए…



देवताओं का कुल ::

12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। 12 आदित्यों में से 1 विष्णु हैं और 11 रुद्रों में से 1 शिव हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग-अलग कार्य सौंप रखे हैं। इन सभी देवताओं की कथाओं पर शोध करने की जरूरत है।

जिस तरह देवता 33 हैं उसी तरह दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, नागों आदि की गणना भी की गई है। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, जो हिन्दू धर्म के संस्थापक 4 ऋषियों में से एक अंगिरा के पुत्र हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। शुक्राचार्य दैत्यों (असुरों) के गुरु हैं। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। देवयानी ने ययाति से विवाह किया था।

ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है। वैदिक या आर्य लोग दोनों की ही स्तुति करते थे। इसका यह मतलब नहीं कि आदित्य ही सूर्य है या सूर्य ही आदित्य है। हालांकि आदित्यों को सौर-देवताओं में शामिल किया गया है और उन्हें सौर मंडल का कार्य सौंपा गया है।

12 आदित्य देव के अलग अलग नाम : ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न 12 पुत्र हैं। ये 12 हैं : अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु। इन्हीं पर वर्ष के 12 मास नियु‍क्त हैं।

पुराणों में इनके नाम इस तरह मिलते हैं : धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा एवं विष्णु। कई जगह इनके नाम हैं : इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र।

12 आदित्य:- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)।

पहले आदित्य का परिचय.

1. इन्द्र :यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है।

वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। छल-कपट के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा ज्यादा नहीं रही। इसी इन्द्र के नाम पर आगे चलकर जिसने भी स्वर्ग पर शासन किया, उसे इन्द्र ही कहा जाने लगा।

तिब्बत में या तिब्बत के पास इंद्रलोक था। कैलाश पर्वत के कई योजन उपर स्वर्ग लोक है।इन्द्र किसी भी साधु और धरती के राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देते थे। इसलिए वे कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देते हैं तो कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेते हैं।

ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं।

दूसरे आदित्य..

2. धाता :धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्रीविग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।

तीसरे आदित्य..

3. पर्जन्य :पर्जन्य तीसरे आदित्य हैं। ये मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं।

4. त्वष्टा :आदित्यों में चौथा नाम श्रीत्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में है। पेड़-पौधों में यही व्याप्त हैं। औषधियों में निवास करने वाले हैं। इनके तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे।

एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया।

ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।

5. पूषा : पांचवें आदित्य पूषा हैं जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में ये विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं ऊर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है।

6. अर्यमन :अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है।आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। ये वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।

7. भग :सातवें आदित्य हैं भग। प्राणियों की देह में अंग रूप में विद्यमान हैं। ये भग देव शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं।

8. विवस्वान :आठवें आदित्य विवस्वान हैं। ये अग्निदेव हैं। इनमें जो तेज व ऊष्मा व्याप्त है वह सूर्य से है। कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अग्नि द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं।

9. विष्णु :नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन।

12 आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु।

10. अंशुमान :दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वही अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है।

11. वरुण :ग्यारहवें आदित्य जल तत्व का प्रतीक हैं वरुण देव। ये मनुष्य में विराजमान हैं जल बनकर। जीवन बनकर समस्त प्रकृति के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं।

वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में ‘अहुरा मज़्दा’ कहलाए।

12. मित्र : बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, साधुओं का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। ये 12 आदित्य सृष्टि के विकास क्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हनुमान की मदद से कृष्ण ने तोड़ा इनका अभिमान…


भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में। श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इसमें से सत्यभामा को अपनी सुंदरता और महारानी होने का घमंड हो चला था तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र खुद को सबसे शक्तिशाली समझता था और विष्णु वाहन गरूड़ को भी अपने सबसे तेज उड़ान भरने का घमंड था।

एक दिन श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और उनके निकट ही गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी उनकी सेवा में विराजमान थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा- हे प्रभु, आपने त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?

भगवान सत्यभामा की बातों का जवाब देते उससे पहले ही गरूड़ ने कहा- भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। तभी सुदर्शन से भी रहा नहीं गया और वह भी बोल उठा कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? द्वारकाधीश समझ गए कि तीनों में अभिमान आ गया है। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे और सोचने लगे कि इनका अहंकार कैसे नष्ट किया जाए, तभी उनको एक युक्ति सूझी…

भगवान की लीला…

भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरूड़ से कहा कि हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरूड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।

इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी, आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।

तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करने पाए। सुदर्शन चक्र ने कहा, जो आज्ञा भगवान और भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गया।

आगे क्या हुआ,

गरूड़ ने हनुमान के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए पधारे हैं। आपको बुला लाने की आज्ञा है। आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।

हनुमान ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, आप चलिए बंधु, मैं आता हूं। गरूड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे, मेरा कार्य तो पूरा हो गया। मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरूड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़ चले।

लेकिन यह क्या? महल में पहुंचकर गरूड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरूड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम के रूप में श्रीकृष्ण ने हनुमान से कहा कि पवनपुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?

हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के सामने रख दिया। हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे इस क्या कोई रोक सकता है? इस चक्र ने रोकने का तनिक प्रयास किया था इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे।

अंत में हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, हे प्रभु! मैं आपको तो पहचानता हूं आप ही श्रीकृष्ण के रूप में मेरे राम हैं, लेकिन आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।

अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरूड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंखों से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। भगवान ने अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त हनुमान द्वारा ही दूर किया। अद्भुत लीला है प्रभु की।

जब हनुमान ने किया भीम का अहंकार चूर-चूर….

श्रीकृष्ण यह जानते थे कि भीम को भी अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था अत: उन्होंने उचित समय का इंतजार किया और अपनी लीला से एक घटना की रचना की। एक बार वनवास काल में द्रौपदी को एक सहस्रदल कमल दिखाई दिया। उसने उसे ले लिया और भीम से उसी प्रकार का एक और कमल लाने को कहा। भीम कमल लेने चल पड़े। आगे जाने पर भीम को गंधमादन पर्वत की चोटी पर एक विशाल केले का वन मिला जिसमें वे घुस गए।

इसी वन में हनुमानजी रहते थे। उन्हें भीम के आने का पता लगा तो उन्होंने सोचा कि अब आगे स्वर्ग के मार्ग में जाना भीम के लिए हानिकारक होगा। वे भीम के रास्ते में लेट गए। भीमसेन ने वहां पहुंचकर हनुमान से मार्ग देने के लिए कहा तो वे बोले- ‘यहां से आगे यह पर्वत मनुष्यों के लिए अगम्य है अत: यहीं से लौट जाओ।’

भीम ने कहा- ‘मैं मरूं या बचूं, तुम्हें क्या? तुम जरा उठकर मुझे रास्ता दे दो।’ हनुमान बोले- ‘रोग से पीड़ित होने के कारण उठ नहीं सकता, तुम मुझे लांघकर चले जाओ।’ भीम बोले- ‘परमात्मा सभी प्राणियों की देह में है, किसी को लांघकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए।’ तब हनुमान बोले- ‘तो तुम मेरी पूंछ पकड़कर हटा दो और निकल जाओ।’

भीम ने हनुमान की पूंछ पकड़कर जोरों से खींची, किंतु वह नहीं हिली। भीम का मुंह लज्जा से झुक गया। उन्होंने क्षमा मांगी और परिचय पूछा। तब हनुमान ने अपना परिचय दिया और वरदान दिया कि महाभारत युद्ध के समय मैं तुम लोगों की सहायता करूंगा। वस्तुत: विनम्रता ही शक्ति को पूजनीय बनाती है इसलिए अपनी शक्ति पर अहंकार न कर उसका सत्कार्यों में उपयोग कर समाज में आदरणीय बनें।

कृष्ण ने अर्जुन का अहंकार कैसे तोड़ा…

आनंद रामायण में वर्णन है कि द्वापर युग में हनुमानजी भीम की परीक्षा लेते हैं। इसका बड़ा ही सुंदर प्रसंग है। महाभारत में प्रसंग है कि भीम उनकी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूछ नहीं हटा पाते हैं।

दूसरा प्रसंग अर्जुन से जुड़ा है। आनंद रामायण में वर्णन है कि अर्जुन के रथ पर हनुमान के विराजित होने के पीछे भी कारण है। एक बार किसी रामेश्वरम् तीर्थ में अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है। इस पहली मुलाकात में हनुमानजी से अर्जुन ने कहा- अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे?

हनुमानजी- हां, तभी अर्जुन ने कहा- आपके स्वामी श्रीराम तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे तो फिर उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतु बनवाने की क्या आवश्यकता थी? यदि मैं वहां उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का सेतु बना देता जिस पर चढ़कर आपका पूरा वानर दल समुद्र पार कर लेता।

इस पर हनुमानजी ने कहा- असंभव, बाणों का सेतु वहां पर कोई काम नहीं कर पाता। हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो बाणों का सेतु छिन्न-भिन्न हो जाता।

अर्जुन ने कहा- नहीं, देखो ये सामने सरोवर है, मैं उस पर बाणों का एक सेतु बनाता हूं। आप इस पर चढ़कर सरोवर को आसानी से पार कर लेंगे।

हनुमानजी ने कहा- असंभव। तब अर्जुन ने कहा- यदि आपके चलने से सेतु टूट जाएगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।

हनुमानजी ने कहा- मुझे स्वीकार है। मेरे दो चरण ही इसने झेल लिए तो मैं हार स्वीकार कर लूंगा।

तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से सेतु तैयार कर दिया। जब तक सेतु बनकर तैयार नहीं हुआ, तब तक तो हनुमान अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान ने विराट रूप धारण कर लिया।

हनुमान राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।

तभी श्रीहनुमानजी सेतु से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। अग्नि प्रज्‍वलित हुई और जैसे ही हनुमान अग्नि में कूदने चले वैसे भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और बोले ठहरो! तभी अर्जुन और हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया।

भगवान ने सारा प्रसंग जानने के बाद कहा- हे हनुमान, आपका तीसरा पग सेतु पर पड़ा, उस समय मैं कछुआ बनकर सेतु के नीचे लेटा हुआ था। आपकी शक्ति से आपके पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से रक्त निकल गया। यह सेतु टूट तो पहले ही पग में जाता यदि में कछुआ रूप में नहीं होता तो।

यह सुनकर हनुमान को काफी कष्‍ट हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी। मैं तो बड़ा अपराधी निकला आपकी पीठ पर मैंने पैर रख दिया। मेरा ये अपराध कैसे दूर होगा भगवन्? तब कृष्ण ने कहा, ये सब मेरी इच्छा से हुआ है। आप मन खिन्न मत करो और मेरी इच्‍छा है कि तुम अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो।

इसलिए द्वापर में श्री हनुमान महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के ऊपर ध्वजा लिए बैठे रहते हैं।

इन 12 राजाओं ने स्थापित किया था ‘राम का राज्य’

:-____ शेष भाग
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य : सम्राट चन्द्रगुप्त महान थे। उन्हें ‘चन्द्रगुप्त महान’ कहा जाता है। सिकंदर के काल में हुए चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के सेनापति सेल्युकस को दो बार बंधक बनाकर छोड़ दिया था। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस की पुत्री हेलन से विवाह किया था। चन्द्रगुप्त की एक भारतीय पत्नी दुर्धरा थी जिससे बिंदुसार का जन्म हुआ।
चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी थीं। बिंदुसार के समय में चाणक्य उनके प्रधानमंत्री थे। इतिहास में बिंदुसार को ‘पिता का पुत्र और पुत्र का पिता’ कहा जाता है, क्योंकि वे चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और अशोक महान के पिता थे।
चाणक्य और पौरस की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर बैठे और चन्द्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के विवरण और कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ से मिलता है। उसक राज्य में जनता हर तरह से सुखी थी।
चन्द्रगुप्त मुरा नाम की भील महिला के पुत्र थे। यह महिला धनानंद के राज्य में नर्तकी थी जिसे राजाज्ञा से राज्य छोड़कर जाने का आदेश दिया गया था और वह महिला जंगल में रहकर जैसे-तैसे अपने दिन गुजार रही थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र था।
सम्राट अशोक : अशोक महान प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश के राजा थे। अशोक के दादा का नाम चन्द्रगुप्त मौर्य था और पिता का नाम बिंदुसार था। बिंदुसार की मृत्यु 272 ईसा पूर्व हुई थी जिसके बाद अशोक राजगद्दी पर बैठे।
अशोक महान के समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक था। बस वह कलिंग के राजा को अपने अधीन नहीं कर पाया था। कलिंग युद्ध के बाद अशोक महान गौतम बुद्ध की शरण में चले गए थे।
महात्मा बुद्ध की स्मृति में उन्होंने एक स्तंभ खड़ा कर दिया, जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल लुम्बिनी में मायादेवी मंदिर के पास अशोक स्तंभ के रूप में देखा जा सकता है।
सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। अशोक के काल में बौद्ध धर्म की जड़ें मिस्र, सऊदी अरब, इराक, यूनान से लेकर श्रीलंका और बर्मा, थाईलैंड, चीन आदि क्षेत्र में गहरी जम गई थीं। उनके काल में इस संपूर्ण क्षेत्र में शांति और खुशहाली व्याप्त हो चली थी। कहीं भी किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं सिर्फ बुद्ध की गुंज थी।
सम्राट विक्रमादित्य : विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2285 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमादित्य सम्राट बनें तो भर्तुहरी एक महान सिद्ध संत।
विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। उल्लेखनीय है कि अशोक और विक्रादित्य के शासन से प्रेरित होकर ही सम्राट अकबर ने अपने पास भी नवरत्न रखे थे।
उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘शायर उर ओकुल’ में किया है।
विक्रमादित्य के पहले और बाद और ‍भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।
विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, ‍जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा।
इसके अलावा एक और विक्रमादित्य हुए। पल्‍लव राजा ने पुलकेसन को परास्‍त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्‍य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्‍यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्‍त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्‍य द्वितीय भी महान योद्धा था।
विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ हुए। माना जाता है कि उज्जैन के विक्रमादित्य के पूर्व भी एक और विक्रमादित्य हुए थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय : गुप्त काल को भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है। गुप्त वंश की स्थापना चन्द्रगुप्त प्रथम ने की थी। आरंभ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई।
समुद्रगुप्त का पुत्र ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय’ समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से संपन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। वह ‘शकारि’ भी कहलाया। मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। चीनी यात्री फाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल भारत के इतिहास का बड़ा महत्वपूर्ण समय माना जाता है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया था। दक्षिणी भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चन्द्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। शक-महाक्षत्रपों और गांधार-कम्बोज के शक-मुरुण्डों के परास्त हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में अरब सागर तक और हिन्दूकुश के पार वंक्षु नदी तक हो गया था।
गुप्त वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए- श्रीगुप्त, घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेन्द्रादित्य) और स्कंदगुप्त। चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत ने हर क्षेत्र में उन्नति की। उज्जैन के सम्राट गंधर्वसेन के पुत्र राजा विक्रमादित्य के नाम से चक्रवर्ती सम्राटों को ही विक्रमादित्य की उपाधि से सम्माननीय किया जाता था।
मौर्य वंश के बाद भारत में कुषाण, शक और शुंग वंश के शासकों का भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर राज रहा। इन वंशों में भी कई महान और प्रतापी राजा हुए। चन्द्रगुप्त मौर्य से विक्रमादित्य और फिर विक्रमादित्य से लेकर हर्षवर्धन तक कई प्रतापी राजा हुए।
हर्षवर्धन : इस्लाम धर्म के संस्‍थापक हजरत मुहम्मद के समकालीन राजा हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया। हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की। हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था। उनके काल में कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे।
हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। यहां 51 शक्तिपीठों में से 1 पीठ है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संदर्भ में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजा गया है।
हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था। उनके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा।
6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया।
कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था। उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया। अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना थी।
‘कादंबरी’ के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी ‘हर्षच चरित’ में विस्तार से लिखी है।
राजा भोज (राज भोज) : ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ मंदिर का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुनर्निर्माण कराया था। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदिशंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था।
कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा। राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए। राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था। कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले ‘भोजपाल’ कहा जाता था।
भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं। उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं।
राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में ‘सरस्वतीकण्ठभरण’ नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में ‘सरस्वती मंदिर’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम ‘भोजशाला’ लिखा था। पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी। मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है।
राजा भोज का परिचय : परमारवंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।
महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।
ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।
उन्होंने ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वांत संग्रह’, ‘राजकार्तड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धांत’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, ‘राज्मृडाड’ आदि ग्रंथों की रचना की।
‘भोज प्रबंधनम्’ नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाष्टक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।
आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।
मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा, राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।
इसके अलवा गौतमी पुत्र शतकर्णी, यशवर्धन, नागभट्ट और बप्पा रावल, मिहिर भोज, देवपाल, अमोघवर्ष , इंद्र द्वितीय, चोल राजा, राजेंद्र चोल, पृथ्वीराज चौहान, विक्रमादित्य vi, हरिहर राय और बुक्का राय, राणा सांगा, अकबर, श्रीकृष्णदेववर्मन, महाराणा प्रताप, गुरुगोविंद सिंह, शिवाजी महाराज, पेशवा बाजीराव और बालाजी बाजीराव, महाराजा रणजीत सिंह आदि के शासन में भी जनता खुशहाल और निर्भिक रही।

रामायण कोई काल्पनिक घटना नहीं, सच साबित करते हैं ये 21 तथ्य



रामायण और भगवान राम से हिन्दुओं की आस्था जुड़ी हुई है, लेकिन अकसर ये सवाल उठते रहे हैं कि क्या सच में भगवान राम का इस धरती पर जन्म हुआ था? क्या रावण और हनुमान थे? हम उनको तो किसी के सामने नहीं ला सकते लेकिन उनके अस्तित्व के प्रमाण को आपके सामने ला सकते हैं. भारत और श्रीलंका में कुछ ऐसी जगहें हैं जो इस बात का प्रमाण देती हैं कि रामायण में लिखी हर बात सच है.

1. Cobra Hood cave, Sri Lanka
कहा जाता है कि रावण जब सीता का अपहरण कर के श्रीलंका पहुंचा तो सबसे पहले सीता जी को इसी जगह रखा था. इस गुफ़ा पर हुई नक्काशी इस बात का प्रमाण देती है.

2. Existence of Hanuman Garhi
यह वही जगह है जहां हनुमान जी ने भगवान राम का इंतज़ार किया था. रामायण में इस जगह के बारे में लिखा है, अयोध्या के पास इस जगह पर आज एक हनुमान मंदिर भी है.

3. भगवान हनुमान के पद चिन्ह
जब हनुमान जी ने सीता जी को खोजने के लिए समुद्र पार किया था तो उन्होंने भव्य रूप धारण किया था. इसीलिए जब वो श्रीलंका पहुंचे तो उनके पैर के निशान वहां बन गए थे, जो आज भी वहां मौजूद हैं.

4. राम सेतु
रामायण और भगवान राम के होने का ये सबसे बड़ा सबूत है. समुद्र के ऊपर श्रीलंका तक बने इस सेतु के बारे में रामायण में लिखा है और इसकी खोज भी की जा चुकी है. ये सेतु पत्थरों से बना है और ये पत्थर पानी पर तैरते हैं.

5. पुरातत्व विभाग ने भी माना
भगवान राम के होने की बात खुद पुरातत्व विभाग भी मानता है. पुरातत्व विभाग के अनुसार 1,750,000 साल पहले श्रीलंका में ही सबसे पहले इंसानों के घर होने की बात कही गई है और राम सेतु भी उसी काल का है.

6. पानी में तैरने वाले पत्थर
राम सेतु एक ऐसा पुल था जिसके पत्थर पानी पर तैरते थे. सुनामी के बाद रामेश्वरम में उन पत्थरों में से कुछ अलग हो कर जमीन पर आ गए थे. शोधकर्ताओं नें जब उसे दोबारा पानी में फेंका तो वो तैर रहे थे, जबकि वहां के किसी और आम पत्थर को पानी में डालने से वो डूब जाते थे.

7. द्रोणागिरी पर्वत
युद्ध के दौरान जब लक्ष्मण को मेघनाथ ने मूर्छित कर दिया था और उनकी जान जा रही थी, तब हनुमान जी संजीवनी लेने द्रोणागिरी पर्वत गए थे. उन्हें संजीवनी की पहचान नहीं थी तो उन्होंने पूरा पर्वत ले जाने का निर्णय लिया. युद्ध के बाद उन्होंने द्रोणागिरी को यथास्थान पहुंचा दिया. उस पर्वत पर आज भी वो निशान मौजूद हैं जहां से हनुमान जी ने उसे तोड़ा था.

8. श्रीलंका में हिमालय की जड़ी-बूटी
श्रीलंका के उस स्थान पर जहां लक्ष्मण को संजीवनी दी गई थी, वहां हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटियों के अंश मिले हैं. जबकि पूरे श्रीलंका में ऐसा नहीं होता और हिमालय की जड़ी-बूटियों का श्रीलंका में पाया जाना इस बात का बहुत बड़ा प्रमाण है.

9. अशोक वाटिका
हरण के पश्चात सीता माता को अशोक वाटिका में रखा गया था, क्योंकि सीता जी ने रावण के महल में रहने से मना कर दिया था. आज उस जगह को Hakgala Botanical Garden कहते हैं और जहां सीता जी को रखा गया था उस स्थान को 'सीता एल्या' कहा जाता है.

10. लेपाक्षी मंदिर
सीता हरण के बाद जब रावण उन्हें आकाश मार्ग से लंका ले जा रहा था तब उसे रोकने के लिए जटायू आए थे. रावण ने उनका वध कर दिया था. आकाश से जटायू इसी जगह गिरे थे. यहां आज एक मंदिर है जिसे लेपाक्षी मंदिर के नाम से जाना जाता है.

11. टस्क हाथी
रामायण के एक अध्याय, सुंदर कांड में श्रीलंका की रखवाली के लिए विशालकाय हाथी का विवरण है, जिन्हें हनुमान जी ने धराशाही किया था. पुरातत्व विभाग को श्रीलंका में ऐसे ही हाथियों के अवशेष मिले हैं जिनका आकार आम हाथियों से बहुत ज़्यादा है.

12. कोंडा कट्टू गाला
हनुमान जी के लंका जलाने के बाद रावण भयभीत हो गया था कि हनुमान जी दोबारा हमला न कर दें, इसलिए रावण ने सीता जी को अशोक वाटिका से हटा कर कोंडा कट्टू गाला में रखा था. यहां पुरातत्व विभाग को कई गुफ़ाएं मिली हैं जो रावण के महल तक जाती हैं.

13. रावण का महल
पुरातत्व विभाग को श्रीलंका में एक महल मिला है जिसे रामायण काल का ही बताया जाता है. यहां से कई गुप्त रास्ते निकलते हैं जो उस शहर के मुख्य केंद्रो तक जाते हैं. ध्यान से देखने पर ये पता चलता है कि ये रास्ते इंसानों द्वारा बनाए गए हैं.

14. कालानियां
रावण के मरने के बाद विभीषण को लंका का राजा बनाया गया था. विभीषण ने अपना महल कालानियां में बनाया था जो कैलानी नदी के किनारे था. पुरातत्व विभाग को इस नदी के किनारे उस महल के कुछ अवशेष भी मिले हैं.

15. लंका जलने के अवशेष
रामायण के अनुसार हनुमान जी ने पूरे लंका को आग लगा दी थी, जिसके प्रमाण उस जगह से मिलते हैं. जलने के बाद उस जगह की मिट्टी काली हो गई है जबकि उसके आस-पास की मिट्टी का रंग आज भी वही है.

16. दिवूरमपोला, श्रीलंका
रावण से सीता को बचाने के बाद भगवान राम ने उन्हें अपनी पवित्रता साबित करने को कहा था, जिसके लिए सीता जी ने अग्नि परीक्षा दी थी. आज भी उस जगह पर वो पेड़ मौजूद है जिसके नीचे सीता जी ने इस परीक्षा को दिया था. उस पेड़ के नीचे वहां के लोग आज भी अहम फ़ैसले लेते हैं.

17. रामलिंगम
रावण को मारने के बाद भगवान राम को पश्चाताप करना था क्योंकि उनके हाथ से एक ब्राहमण का कत्ल हुआ था. इसके लिए उन्होंने शिव की आराधना की थी. भगवान शिव ने उन्हें चार शिवलिंग बनाने के लिए कहा. एक शिवलिंग सीता जी ने बनाया जो रेत का था. दो शिवलिंग हनुमान जी कैलाश से लेकर आए थे और एक शिवलिंग भगवान राम ने अपने हाथ से बनाया था, जो आज भी उस मंदिर में हैं और इसलिए ही इस जगह को रामलिंगम कहते हैं.

18. जानकी मंदिर
नेपाल के जनकपुर शहर में जानकी मंदिर है. रामायण के अनुसार सीता माता के पिता का नाम जनक था और इस शहर का नाम उन्हीं के नाम पर जनकपुर रखा गया था. साथ ही सीता माता को जानकी के नाम से भी जाना जाता है और उसी नाम पर इस मंदिर का नाम पड़ा है जानकी मंदिर. यहां सीता माता के दर्शन के लिए हर रोज़ हज़ारो श्रद्धालु आते हैं.

19. पंचवटी
नासिक के पास आज भी पंचवटी तपोवन है, जहां अयोध्या से वनवास काटने के लिए निकले भगवान राम, सीता माता और लक्ष्मण रुके थे. यहीं लक्ष्मण ने सूपनखा की नाक काटी थी.

20. कोणेश्वरम मंदिर
रावण भगवान शिव की अराधना करता था और उसने भगवान शिव के लिए इस मंदिर की भी स्थापना करवाई. यह दुनिया का इकलौता मंदिर है जहां भगवान से ज़्यादा उनके भक्त रावण की आकृति बनी हुई है. इस मंदिर में बनी एक आकृति में रावण के दस सिरों को दिखाया गया है. कहा जाता है कि रावण के दस सिर थे और उसके दस सिर पर रखे दस मुकुट उसके दस जगहों के अधिपत्य को दर्शाता है.

21. गर्म पानी के कुएं
रावण ने कोणेश्वरम मंदिर के पास गर्म पानी के कुएं बनवाए थे, जो आज भी वहां मौजूद हैं.

Friday 1 April 2016

राधा रानी जी की अष्टम सखी -श्री सुदेवी जी

राधा रानी जी की अष्टम सखी -श्री सुदेवी जी
श्री राधाकुंड के उत्तर-पश्चिम कोणवर्ती दल पर हरित वर्ण की “बसंत सुखद”नामक कुंज है. जिसमे सदा श्री सुदेवी जी निवास करती है.
श्री कृष्ण में इनकी कलहान्तरितामयी प्रीति है. इनके अंग की छटा पद्म- किन्जल्क कन्तिमायी है. और यह जवापुष्प रंग के वस्त्र धारण करती है.
यह “जल-सेवा” करती है और वाम-प्रखरिका नायिका मानी गई है इनकी वयस् २४ वर्ष २ मास ४ दिन की है इनका घर “यावट” में है.
इनकी माता का नाम “करुणा”, पिता का नाम “रंगसार” है. इनका विवाह “वक्रेक्षण” (श्री रंगदेवी के पति)के छोटे भाई से हुआ (ये श्री रंगदेवी की यमजा बहिन है ).
श्री गौर लीला में
यह ‘श्रीवासुदेवघोष’ नाम से विख्यात हुई
श्री सुदेवी सखी-मंत्र
“ऐ सौ श्री सुदेव्यै स्वाहा”
श्री सुदेवी सखी –ध्यान
अम्भोजकेशर-समान-रूचिं सुशीलां
रक्ताम्बरां रुचिरहासविराजिवक्त्राम
श्रीनंदनंदन-पुरो जलसेवनाढया
सद्भूषणावलियुतां च भजे सुदेवीम
जिनकी अंगकान्ति पद्म केशर के समान छवियुक्त है जिनका सुशील स्वभाव है जो लाल रंग के वस्त्र धारण करती है और जिनके मुख पर सदा मुस्कान रहती है श्री नंद नंदन के आगे जो जल सेवा में रत रहती है.और जो सुन्दर भूषणों से विभूषिता रहती है ,उन श्री सुदेवी सखी का मै ध्यान करती हूँ.
श्री सुदेवी सखी-प्रणाम
जिनकी अंग-कांति सुतप्त शुद्ध सुवर्ण छवि के समान है प्रकृष्ट-रूप से सुशोभित प्रवाल समूह की कांतिमय वस्त्रों को धारण करती है समस्त भक्तो की अनुजिवन स्वरूपा उज्जवल भक्ति में जो चतुर है हे स्वामिनि राधिके ! आपकी उन सखी श्री सुदेवी को मै प्रणाम करती हूँ .
श्री सुदेवी सखी-यूथ
कावेरी चारु कबरी सुकेशी मंजुकेशिका
हार हीरा हार कंठी हारवल्ली मनोहरा ||
कावेरी, चारुकबरी, सुकेशी, मंजुकेशिका, हारहीरा, हारकंठी, हारवल्ली, और मनोहरा ये आठ प्रधान सखी श्री सुदेवी जी के यूथ में है.