Sunday 27 September 2015

उमा महेश्वर की होली

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला,चमकती हुई आँखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भुत दृश्य की झाँकी :-
आजु सदासिव खेलत होरी
जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
तीनि आँखि सुंदर चमकेला, सरप गले लिपटोरी
उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी
हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी
लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी
भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।
शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। ऐसा लग रहा है मानो कैलाश पर्वत के ऊपर वटवृक्ष की छाया है। दिशाओं की पीले पर्दे खिंचे हुए हैं जिसकी छवि इंद्रासन जैसी दिखाई देती है। आक,धतूरा, संखिया आदि खूब पिया जा रहा है और सबने एक दूसरे को रंग लगाने की बजाय स्वयं को ही रंग लगा कर अद्भुत रूप बना लिया है, जिसे देखकर स्वयं पार्वती जी भी हँस रही हैं :-
सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी
गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चहुँ ओरी
पीत बितान तने चहुँ दिसि के, अनुपम साज सजोरी
छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी
नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी
हँसे गिरिजा मुँह मोरी।
Om Namah Shivay.
In Vedam ,Lord Siva is praised by 300 names(Namakam) and 130 boons are asked from HIM(Chamakam)--(Rudraadhyaayee)--He is ALONE is praised in VEDAM as Maha Deva,(Supreme GOD),Visveswara(Visva+Eeswara=God of Universe)--Even the word Eeswara=GOD denotes only Lord Siva. About Lord Vishnu and Devi Shakthi and Devi Lakshmi only Sookthams(praising their qualities) are there-Extensive-Namakam(Salutations in Vedic Format) are given only to lord Siva.
Om Namah Shivay.
शिव निन्दा करने वाले वैष्णव और विष्णु की बुराई करने वाले शैव इस कहानी को पढकर अपनी राय बदले और इस कहानी का आनन्द ले । ये कहानी 'कल्याण' नामक पत्रिका से ली गई हैं ।
एक समय की बात है की महर्षि गौतम भगवान शंकर को खाने पर आमंत्रित किया । उनके इस आग्रह को शिव जी ने स्वीकार कर लिया उनके साथ चलने के लिए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी तैयार हो गए ।महर्षि के आश्रम मे पहुच कर तीनो वहाँ बैठ गए ।भोले बाबा और श्री हरी विष्णु एक शय्या पर लेटकर बहुत देर तक प्रेमालाप करते रहे ।इसके बाद उन दोनो ने आश्रम के पास ही एक तालाब मे नहाने चले गए वहा पर भी वे बहुत देर तक जलक्रीडा करते रहे ।भगवान शिव जी ने पानी मे खडे श्री हरी पर जल की कोमल बुन्दो से प्रहार किया इस प्रहार को विष्णु जी सहन ना कर सके और अपनी आँखें मुँद ली। इस पर भी भगवान शिव जी को संतोष नही मिला और वे झट से कुदकर वे विष्णु जी के कंधे पर चढ गए और भगवान विष्णु को कभी पानी मे दबा देते तो कभी पानी के उपर ले आते इस प्रकार बार-बार तंग करने पर विष्णु जी ने भी अब शिव जी को पानी मे दे मारा । दोनो के इस प्रकार के खेल को देखकर देवता गण हर्षित हो रहे थे और दोनो की लीला को देखकर मन ही मन उन्हे प्रणाम कर रहे थे।
उसी समय नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे ये लीला देखकर वे सुंदर वीणा बजाने लगे और गाना भी गाने लगे उनके साथ शिव जी भी भीगे शरीर मे ही सुर से सुर मिलाने लगे फिर तो विष्णु जी भी पानी से बाहर आकर म्रदंग बजाने लगे ।जब ब्रह्मा जी ने स्वर सुना तो फिर वे भी मस्ती के इस क्रम मे शामिल हो गए।बची-खुची जो भी कसर थी वो श्री हनुमान जी ने पुरी कर दी जब वे राग आलापने लगे तो सभी चुप हो कर शान्ति से उनका संगीत सुनने लगे ।सभी देव,नाग,किन्नर,गन्धर्व आदि उस अलौकिक लीला को देख रहे थे और अपनी आँखें धन्य कर रहे थे।
उधर महर्षि गौतम ये सोचकर परेशान थे कि स्नान को गए मेरे पुज्य अतिथि गण अब तक क्यो नही आए उन्हे चिन्ता हो रही थी और इधर तो भगवान को धमाचोकड़ी मचाने से फुर्सत कहा। सब एक दुसरे के गाने बजाने मे इतने मगन थे कि उन्हे ये भी याद न रहा कि वे महर्षि गौतम के अतिथि बन यहाँ आए हैं ।फिर महर्षि गौतम ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हे भोजन के लिए मनाया आश्रम लेकर आए और भोजन परोसा ।तीनो ने भोजन करना शुरु किया ।इसके बाद हनुमान जी ने फिर संगीत गाना शुरु कर दिया।सुर मे मस्त शिव जी ने अपने एक पैर को हनुमान जी के हाथों पर और दुसरे पैर को हनुमान जी सीने,पेट,नाक,आँख आदि अंगो का स्पर्श कर वही लेट गये।यह देखकर भगवान विष्णु ने हनुमान से कहा - "हनुमान तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो शिव जी के चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर रहे है ।जिस चरणो की छाव पाने के लिए सभी देव-दानव आदि लालायीत रहते है उन चरनो की छाव सहज ही तुम्हे प्राप्त हो गये है । अनेक साधु-संत और कई साधक जन्मो तक तपस्या और साधना करते है फिर भी उन्हे ये शौभाग्य प्राप्त नही होता।मैंने भी सहस्त्र कमलो से इनकी अर्चना की थी पर ये सुख मुझे भी न मिला। आज मुझे तुमसे इर्श्या का अनुभव हो रहा हैं ।सभी लोको मे यह बात सब जानते है कि नारायण भगवान शंकर के परम प्रितीभाजन है पर यह देखकर मुझे संदेह-सा हो रहा है।" यह सुन कर भगवान शिव शंकर बोल उठे - "हे नारायण ये क्या कह रहे है आप तो मुझे प्राणो से भी प्यारे है। औरो की क्या बात है देवी पार्वती भी आपसे अधिक प्रिय नही है मेरे लिए आप तो जानते ही है।"
भगवती पार्वती जी उधर कैलाश मे ये सोचकर परेशान हो रही थीं कि आज कैलाशपति शिव जी कहा चले गये कही मुझे से रुठकर तो नही चले गये।यह सोचकर देवी पार्वती शिव जी को ढुढते- ढुढते आश्रम पहुचे और पता चला कि मेरे स्वामी शिव जी, विष्णु जीऔर ब्रह्मा जी महर्षि गौतम के यहा मेहमानी मे गये हैं ।वे भी महर्षि गौतम का परोसा खाना खाया । इसके बाद विनोदवश देवी पार्वती शिव जी के वेश-भुशा को लेकर हंसी उड़ाई और बहुत सी ऐसी बाते कही जो अक्सर पति पत्नि प्रेम से एक दुसरे को कुछ भला बुरा कहते रहते हैं।ये बात सुनकर भगवान विष्णु जी से रहा नही गया और वे बोल उठे - "देवी! ये आप क्या कह रहे है।मुझसे आपकी बात सही नही जा रही। जहाँ शिव निन्दा होती है वहाँ मैं प्राण धारण कर नही रह सकता।" इतना कहकर श्री हरी ने अपने नाखुनो से अपने ही सिर को फाड़ने लगे ।यह देखकर सभी ने उन्हे रोकने की कोशिश की पर वे नही मान रहे थे फिर शिव जी के अनुरोध पर वे रुके।
इनके इस प्रेम को देखकर हमे ये समझना चाहिए कि ये दोनो किसी भी प्रकार से अलग नही है फिर हम किस कारण विवाद करते है किसी को श्रेष्ठ और किसी को निम्न कहते है ।क्या ऐसा सोचना हमारी मुर्खता नही।
Om Namah Shivay.
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गोरखनाथ जी ने कहा है कि --
एकाएकी सिध नांउं, दोइ रमति ते साधवा !
चारि पंच कुटंब नांउं, दस बीस ते लसकरा !!
सिद्ध हमेशा अकेला है ! चाहे फ़िर कहीं भी रहे ! वह भीड मे,
सारे तमाशे मे रह कर भी अकेला ही है ! यानि सिद्ध वही जो अपने निज
मे पहुंच गया ! हो गया फ़िर वही तत्व का जानने वाला ! अपने आप मे रम गया !
हो गया नितान्त अकेला ! दुनिया दारी करता हुवा भी दुनियां मे नही है !
हो गया जीते जी भीड से बाहर ! ये हो गया अद्वैत !
इसके बाद हैं वो लोग जो अकेले पन से राजी नही हैं ! उनको एक और
चाहिये ! इनको गोरख नाथ जी ने साधू कहा है ! इनका एक से काम नही
चलता ! जैसे पति या पत्नी ! मित्र, गुरु या शिष्य, ! भक्त भी राजी नही
अकेला , उसको भी भगवान चाहिये ! इनको बस सिर्फ़ एक और चाहिये ! यानी
द्वैत ! इस स्तर पर दो मौजूद रहेंगे ! और इनको इसी लिये साधू कहा कि
चलो सिर्फ़ दो से राजी हैं ! कोई ज्यादा डिमान्ड नही है !
काफ़ी नजदीक है एक के ! सो ये भी साधू ही है !
और जो चार पांच से कम मे राजी नही है ! वो ग्रहस्थ है पक्का !
वो दो से राजी नही उसको अनेक चाहिये ! बीबी बच्चे, नौकर चाकर सब कुछ !
पहले अकेले थे, फ़िर शादी करली, इससे भी जी नही भरा ! बच्चे पैदा हो
गये ! नही भरा जी, और अब कुछ तो करना पडेगा ! इतने से राजी नही है !
तो किसी लायन्स क्लब या और कोई सन्स्था को जिन्दाबाद करेगा ... और ज्यादा
ही उपद्रवी हुवा तो फ़िर उसके लिये तो कोई भी राजनैतिक पार्टी इन्तजार
ही कर रही होगी ! इतने बडे उपद्रवी आदमी को तो किसी पार्टी मे ही
होना चाहिये ! यानी ये बिना उपद्रव करे मानेगा नही !
और जो लोग दस बीस की भीड से राजी नही , जिनको पूरा फ़ौज
फ़ांटा चाहिये ! और जो किसी कीमत पर सन्तुश्ट नही है वो होता है
असली सन्सारी !
सिद्ध गोरखनाथजी ने ये चार तरह के मनुष्य बताए हैं ! अब हम इस कहानी
पर मनन करते हुये दो चार मिनट का मौन यानि अन्तरतम का मौन भी
रख सके तो गुरु गोरख की सीख सफ़ल ही कही जायेगी ! आज तो उनका
नाम भी लेना फ़ैशन के विरुद्ध है ! यानि हम उमर खैयाम को भी वाया
फ़िटजेराल्ड पढना पसन्द करते हैं ! और वही होगा जो उमर खैयाम के
साथ हुआ ! मित्रो आपके पास ज्यादा नही तो एक मिनट का समय तो होगा ही !
मेरे कहने से आप एक मिनट ही कोशीश करके मौन रखने की कोशीश करें !
क्या पता कब परमात्मा , कौन सी घडी मे आपके उपर बरस पडे !

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है- नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ है- पुरूष और व कार का अर्थ है - अमृत स्वरूपा शक्ति । इस प्रकार शिव का समन्वित अर्थ होता है- कल्याण प्रदाता या कल्याण स्वरूप ।
शिव के स्वरूप को उद्घाटित करते हुए शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान महेश्वर की प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं । वे सर्वज्ञ, परिपूर्ण और निःस्पृह हैं । सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतंत्रता, नित्य अलुप्त शक्तियों से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना, इन ऐश्वर्यों के धारक महेश्वर को वेदों में भी भव्य रूप में निरूपित किया गया है ।
वेदान्तों में शैव तत्त्व ज्ञान के बीज का दर्शन होता है । इस तत्त्व ज्ञान के अनुसार सृष्टि आनंद से परिपूर्ण है । आनंद से ही सृष्टि का आरंभ, उसी से स्थिति और उसी से समाहार भी है । शिव के ताण्डव नृत्य में उसी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की भी अभिव्यक्ति हुई है ।
उपनिषद में कहा गया है-
आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात् । आनन्दा द्वयेव खल्वि मा नि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनंद प्रयान्त्य मिस विशन्तीति ।
मानव जैसे-जैसे इस शिव तत्त्व की प्राप्ति करता है, उसका दुःख दूर होता जाता है और उसे स्थायी मंगल तथा आनन्द के दर्शन होने लगते हैं ।
शिव महापुराण में शिव के कल्याणकारी स्वरूप का प्रकट करने वाली अनेक अन्तर्कथाओं का वर्णन है । यथा- मूढ़ नाम मायावी राक्षस को भस्म कर बाल विधवा ब्राह्मण पत्नी के शील की रक्षा करना, राक्षस भीम के अत्याचारों से जनता को मुक्ति देना, श्री राम को लंका-विजय का आशीर्वाद देना तथा शंख चूड़, गजासुर, दुन्दुभि निहदि जैसे दुष्टों का दमन कर जगत का कल्याण करना आदि । सृष्टि के कल्याण में शिव की क्रियाशीलता को जानकर महापुराणकार ने गुणानुवाद करते हुए लिखा-
आद्यन्त मंगलम जात समान भाव-
मार्यं तमीशम जरा मरमात्य देवम् ।
पंचाननं प्रबल पंच विनोदशीलं
संभावये मनसि शंकर माम्बिकेशं ।।
अर्थात् जो आदि से अंत तक नित्य मंगलमय है, जिनकी समानता कहीं भी नहीं है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले परमात्मा है, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल ही खेल में अनायास जगत की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभाव रूप पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिका पति भगवान शंकर का मैं मन हीं मन चिन्तन करता हूँ ।
आज का मनुष्य चिर आनंद के वनिस्पत तात्कालिक आनंद की ओर अग्रसर है, जो कि शुद्ध बुद्धि निर्मित है, जिन्हें सामान्य अर्थ में वस्तुवादी, पदार्थवादी या बुद्धिवादी कहा जाता है । उनका सारा आधार विकृत बुद्धिवाद को लेकर है, जिसने चेतना व संवेदना के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं, इसीलिए जगत् के दुःख की समस्या हल नहीं हो पाती । प्रत्येक वर्ग भ्रमित होता है, जिससे मानवता नष्ट होती है । इसका समाधान शिव-तत्त्व में है । शिवम् संदेश देता है कि मानव अपनी सब भूलें ठीक कर ले । यह जो महाविषमता का विष फैला है, वह अपनी कर्म की उन्नति से सम हो जाये, सब युक्ति बने, सबके भ्रम कट जाये, शुभ मंगल ही उनका रहस्य हो । इस स्थिति का रेखांकन इन पंक्तियों में किया है-
समरस से जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना था ।
चेतना एक विलसती, आनन्द अखण्ड घना था ।।
भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जगत् के द्योतक त्रिगुणों को पुराणों में त्रिपुर का रूप दिया गया है, जिससे सृष्टि पीड़ित है । शिव इसी त्रिपुर का वध करके सृष्टि की रक्षा करते हैं । स्पष्ट है त्रिगुण, त्रिपुर या त्रैत की यह भेद बुद्धि ही संसार के दुःख का कारण है और इन तीनों का सामंजस्य या तीनों का समत्व ही आनंद का साधन है ।
समग्रतः भगवान शिव मात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं । वेदों ने इस परम तत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्व-प्रपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है । श्रुतियों ने सदाशिव को स्वयम्भू, शांत, प्रपंचातीत, परात्पर, परम तत्त्व कहकर स्तुति की है । समुद्र मंथन से निकल कालकूट का पान कर जगत् का कल्याण करने वाले शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं । इस कल्याणकारी रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकारी साधकों एवं सर्व साधारण आस्तिक जनों, सभी के लिए परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्व सिद्धिदायक और सर्व श्रेयस्कर है ।
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शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ॥७॥
I take the refuge in Śiva, Who is without birth, Who is eternal, Who is the reason behind all the reasons, Who is the Only One, Who shines everything that shine others, Who is turīya (pure impersonal state of soul), Who is beyond darkness (tamas), Who is without a beginning and an end, Who is beyond everyone, Who is pure, and Who is without duality.||7||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥८॥
I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is resplendent in all the wordly-manifestions! I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is the idol of complete bliss! I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is reachable by penance and Yoga! I bow to You, I bow to you, O Śiva, Who is reachable by Veda and knowledge.||8||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥९॥
O Lord, Who holds a trident in hands, Who is the resplendent Lord of the world, Who is Mahādeva, Who is Śambhu, Who is the great Lord, Who has three eyes, Who is the resplendence of Śivā, Who is serene, Who slayed Smara (Kāma), and Who slayed Pura! There is nothing better or different from You which is countable or respectable.||9||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ॥१०॥
O Śambhu, Who is Maheśa, Who is full of compassion, Who holds a trident, Who is the Lord of Gaurī, Who is the Lord of sacrificed animals, Who destroys the shackles of animals, Who is the Lord of Kāśī! Only You are with compassion in this world. You are the great Lord, Who destroys, protects, and holds the world.||10||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन् ॥११॥
O Deva, Who is the universe, Who slays Smara! This world emanates from You. O Mṛḍa, Who is the Lord of the world! The world sits inside You. O Īśa, O Hara, Who pervades the entire universe as moving and unmoving forms! This world finally contracts into Your egg-shaped form (lińga) during deluge.||11||
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लोग समझते है की शिव और पार्वती दो तत्व है पर ऐसा नहीं है देखिए वेद क्या कहता है
savai nev reme tasmaad ekaki na ramte tat dvitiyamaichat
saivmevatmanam dvidha paatyeta sa pati patnischa bhavtam (brh up 1,4,3)
भगवान शिव अकेले थे महाप्रलय के बाद फिर भगवान शिव का मन नहीं लगा अकेले तो शिवजी ने इच्छा की मै दो बन एक तो रूप से स्वयं पुरुष रूप मे शिव बन गए और दूसरे रूप पार्वती..........
साधारण भाषा मे शिव जी है स्वयं पार्वती बन गए
या पार्वती ही शिव बन गई।
शिव और पार्वती दोनों एक तत्व है दोनों मे भेद नहीं माना है
जो शिव की भक्ति करता है वो पार्वती की भक्ति कर रहा हैऔर जो पार्वती की भक्ति कर रहा है वो शिव की ही भक्ति कर रहा है
पार्वती और शिव मे कैसा संबंध है वेदो ने कहा
1) दूध और और उसकी सफेदी।दूध और उसकी सफेदी मे कोई भेद नहीं है दोनों एक है इसी तरह शिव और पार्वती मे भेद नहीं है।
2)अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति, प्रकाशत्व शक्ति दोनों मे कोई भेद नहीं है,
3)शब्द और अर्थ ।
4)कस्तुरी और सुगंध
5)कपूर और उसकी खुसबू
आतमनम द्विधापात्येत (बृह उपनिषद)
स्वयं एक ब्रह्म ने अपने आपको दो रूपो मे विभक्त कर लिया
स्वयं शिव ही पार्वती बन गए,
इसी तरह शिव और पार्वती एक तत्व है, पार्वती ही शिव है , शिव ही पार्वती है
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देवा उचुः |(शिव पुराण शरभ अवतार)
यतो हरसि संसारं हर इत्युच्यते बुधैः | 26
अर्थात --
भगवान शिव मनुष्य से उसका संसार(माँ बाप पुत्र स्त्री पति पैसा प्रॉपर्टि) इन मे जो आसक्ति है इसको हर लेते है , अपने भक्त को संसारी वस्तु और व्यक्ति का अभाव कर देते है , अपने भक्त का संसार छीन लेते है इसलिए महापुरुष भगवान शिव को हर कहते है और प्रेमानन्द , परमानंद प्रदान करते है
जीवन मे संसारी वस्तु या व्यकित की हानी हो रही हो तो समझ लीजिए भगवान छाप्पर फाड़कर कृपा कर रहे है...... भगवान शिव अपने भक्तो को जान बुजकर दुख देते है जिसे उनका भक्त सदा उनका समरण करता रहे है या भगवान की कृपा है।
भगवान शिव से संसार के जड़ वस्तु और व्यक्ति की कामना मत करो , अगर मांगने की इतनी बीमारी है तो भगवान शिव से
1)शिव का दर्शन
2)शिव का प्रेमानन्द(निष्काम प्रेम)
3)शिव की सेवा
ये 3 वस्तु मांगो
नोट: भुक्ति (संसार और स्वर्ग ) और मुक्ति भगवान से कभी मत मांगना स्वप्न मे भी भगवान निष्काम प्रेम मांगो।
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आनंद एवअदसतात आनंद उपरिष्टात आनंदाह पुरसतात आनंदाह पश्चात
आनंदा उत्तरतह आनंदाह आनंद एवेदगवाम सर्वं.,....
भगवान के जीतने स्वरूप है सब सत चिद आनंद
अपने अपने पूरव जन्म के संस्कार के द्वारा जीव भगवान के अभिन्न स्वरूप मे से किसी एक को अपना इष्टदेव बंता है
यह अंशवतर, ये कलवातार है, ये गुना अवतार है ये प्रभावतआर है ये परावस्था अवतार है आदि बाते है सब मंगड़थ है
यह तो भक्त रसिकता मे कहते है पर ये सिद्धान्त नहीं है
रसिकता की भाषा मे लिखा हुआ है
जैसे भगवत मे
कृष्णस्तु भगवान स्वयं स्वयं और अवतार तो अनशा अवतार श्री कृष्ण पुरनवतार है
ऐसे ही
रामायण मे लिख दिया : रामस्तु भगवान स्वयं
वेदव्यास ने फिर लिखा
:नरसिंघ रामकृशनेशु सापुण्यम परिपूरितम।
नरसिंघ अवतार रमावतार कृष्ण अवतार तीनों परिपूर्ण है
वही वेद व्यास ने लिखा भगवान के सारे अवतार परिपूर्ण है।
सर्वे पूर्णा शाश्वत त च।
उधारण :यह बात अलग है जब कोई प्रोफेसर एमएससी
पढ़ा रहा हो तब उसकी पूरी योग्यता प्रकट होती
हाइ स्कूल को पढ़ाएगा हाइ स्कूल के लेवेल पर आकार पढ़ाएगा
और वही प्रोफेसर जब अपने लड़के को क, खा, ग , पढ़ाएगा और नीचे आजाएगा।
जितनी शक्ति का प्रयोग करना है जितना रस प्रगत करना है जिस अवतार मे उतना प्रागट करेगा
उसी प्रागट शक्ति और रस को देखकर हम विद्वान लोग आइडिया लगते है
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते॥
भगवान शिव इतने पूर्ण है की पूर्ण मे से पूर्ण निकालो तो भी पूर्ण बचेगा।
अनंत मे से अनंत निकालोगे तो अनंत बचेगा।
भगवान के तमाम अवतार नित्या परिपूर्ण है यह सिद्धान्त है।
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आपलोग को आश्चर्य होगा यह पढ़कर
श्री कृष्ण मे ही कितना भेद है
1)द्वारका वाले श्री कृष्ण जहा पर पूर्ण ऐश्वर्या का साम्राज्य है , द्वारका वाले श्री कृष्ण के भक्त ऐश्वर्या कामनायुक्त भक्ति करते है
2)मथुरा वाले श्रीकृष्ण है यहा पर ऐश्वर्या कम है पर माधुर्य ज्यादा है , मथुरा वाले श्री कृष्ण के भक्त होते है जो माधुर्य प्रधान होते है, माधुर्य भक्ति करते है पर मथुरा मे ऐश्वर्या रस भी रेहता है,
3)वृन्दावन वाले श्री कृष्ण है, मे पुरन्तम माधुर्य होता , यहा पर ऐश्वर्या का लेश भी नहीं होता यो कह लीजिए वृंदवावन मे ऐश्वर्या होता है पर गुप्त रूप से ठाकुर जी की सेवा करते है
फिर वृन्दावन मे भी
4)कुंज वाले श्री कृष्ण है , कुंज वाले श्री कृष्ण की भक्ति गोपिया करती निष्काम समारथा रति का महापुरुष को कुंज रस मे प्रवेश है, यहा के महापुरुष को गोपी देह दिया जाता है योग माया द्वारा जो चिनमय होता है।
5)निकुंज वाले श्री कृष्ण , निकुंज वाले श्री कृष्ण के भक्ति राधा रानी का अष्टमहासखिया यहा श्यामा श्याम की सेवा करती है, निकुंज रस मे समारथा रति वाले महापुरुष का भी प्रवेश वर्जित है,मात्र राधा कृष्ण और अष्टमहासखी (ललिता विशाखा , सुदेवी आदि का प्रवेश है।
6)निभृत निकुंज वाले श्री कृष्ण , निभृत निकुंज रस मे एकमात्र राधा कृष्ण का अपना परम अंतरंग रस है, निभृत निकुंज रस मे अष्ट महा सखिया का भी प्रवेश वर्जित है।
नोट: श्री कृष्ण के जीतने प्रकार बताए मैंने यह सब एक है.... एक ही श्री कृष्ण के यह सब रूप है
शिव ,हनुमान , राम ,कृष्ण , राधा , पार्वती, सीता,ब्रह्म यह सब भगवान के स्वरूप सब नित्या है और सब एक ह
इनमे कोई छोटा बड़ा नहीं है ।
कही शिवजी श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे है,कही राम शिवजी की भक्ति कर रहे है,कही ब्रह्म श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे है, कही ब्रहमजी की भक्ति श्री कृष्ण कर रहे है यह सब एक है।भगवान के अवतार जब अपने स्वरूप की भक्ति या स्तुति करते है तो यह पूजा पढ़ती सीखते है माया के आधीन जीवो के कल्याण के लिए यह सब करते है
तुलसीदास : हरी हर एक रूप गुण शीला
दौ करत सेवक सेव्य लीला
दौ सिखावत पूजा पद्धति
हनुमत बन सेवा कीनी
रामेश्वर बन सेवा लीनी
शंदिल्या जी कहते लोकवात्तू लीला कैवलयम।
आपको पहले भी बताया गया है की राम,कृष्ण माता पार्वती और शिव के ही अवतार है।
और इसी तरह शिवजी के स्वरूप भी कई प्रकार है आपको पता है मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है।
Sarve Rudram Bhajantyeva Rudrah Kinchid Bhajennahi Svaatmana Bhaktavaatsalyaad Bhajatyeva kadachana" (Shiva Purana, Kotirudra Samhita 7:15)
"Everyone worships Rudra but Rudra doesn’t worship anyone. For the sake of devotees he meditates on himself”.
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Without grasping that which is visible, and seeking and trying to grasp the invisible,
results in tiredness (frustration), you see!
Seeing that which is visible and following the path shown by the Guru (teacher),
the invisible can be seen, Lord Guhesvara!
When Shiva wanted to protect his devotee 'Mandara' (another son of Hiranyakashyap), thousands of Sudarshana discuses of Vishnu and thousands of thunderbolts of Indra could not even make a scratch on his body due to the protection of Mahadeva! How dare anyone even think of defeating Mahadeva's devotee without his wish? When Vishnu couldn't even scratch Mahadeva's devotee, how can he be capable of rendering Mahadeva inert with his 'Humm' sound।
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MOORTI KI PARIBHASA kya hai shastro me?
sandhini, samvit , ladhini shakti jab teeno pradhan hoti toh nirgun brahm sagum roop ya moorti kehlati haiiii............ram krishn, shiv durga................. ke naamo se jaane jaate haii.. yeh sat se sandhini , chid se samvit shakti aur anand se ladhini bhao hote haii par teno brahm ke sat chid anand me sat aur chid visheshan hai brahm ke VISHESHYA ANAND(LADHINI ) SHAKTI HAII....
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परमेश्वर में प्रेम करने का हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो-
प्रेम के लिए ही प्रेम किया जाये, अन्य कोई हेतु न रहे | मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, और इस लोक तथा परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गंध भी साधक के मन में न रहे, त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी उसका मन कभी न ललचाये | स्वयं भगवान प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करने के लिए आग्रह करे तब भी न ले | इस बात के लिए यदि भगवान रूठ भी जायँ तो भी परवा न करे | अपने स्वार्थ की बात सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो | भगवान की ओर से विषयों का प्रलोभन मिलनेपर मन में पाश्चाताप होकर यह भाव उदय हो कि, ‘अवश्य ही मेरे प्रेम में कोई दोष है, मेरे मन सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थ की बातों को सुनकर यथार्थ में मुझे क्लेश होता तो भगवान इनके लिए मुझे कभी न ललचाते |’
विनय, अनुरोध और भय दिखलाने पर भी परमात्मा के प्रेम के सिवा किसी भी हालत में दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अचल रहे | वह यही समझता रहे कि भगवान की जबतक मुझे नाना प्रकार के विषयों का प्रलोभन देकर ललचा रहे है और मेरी परीक्षा ले रहे है, तब तक मुझमें अवश्य ही विषयासक्ति है | सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पद को छोड़कर दूसरी बात भी न सुन सकता | विषयों को देख, सुन और सहन कर रहा हूँ |इससे यह सिद्ध होता है कि मैं प्रेम का सच्चा अधिकारी नहीं हूँ तभी तो भगवान मुझे लोभ
दिखा रहे है | उत्तम तो यह था कि मैं विषयों की चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिए निस्संदेह मेरे हृदय में कही-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है | यह है विशुद्ध प्रेम के ऊंचे साधन का स्वरुप |

राम जी और शंकर जी का युद्ध

बात उन दिनों कि है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था. श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के नेतृत्व में असंख्य वीरों की सेना सारे प्रदेश को विजित करती जा रही थी. यज्ञ का अश्व प्रदेश प्रदेश जा रहा था. इस क्रम में कई राजाओं के द्वारा यज्ञ का घोड़ा पकड़ा गया लेकिन अयोध्या की सेना के आगे उन्हें झुकना पड़ा. शत्रुघ्न के अलावा सेना में हनुमान, सुग्रीव और भरत पुत्र पुष्कल सहित कई महारथी उपस्थित थे जिन्हें जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था. कई जगह भ्रमण करने के बाद यज्ञ का घोडा देवपुर पहुंचा जहाँ राजा वीरमणि का राज्य था. राजा वीरमणि अति धर्मनिष्ठ तथा श्रीराम एवं महादेव के अनन्य भक्त थे. उनके दो पुत्र रुक्मांगद और शुभंगद वीरों में श्रेष्ठ थे. राजा वीरमणि के भाई वीरसिंह भी एक महारथी थे. राजा वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और महादेव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था. महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था.
जब अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया और अयोध्या के सैनिकों से कहा कि यज्ञ का घोडा उनके पास है इसलिए वे जाकर शत्रुघ्न से कहें कि विधिवत युद्ध कर वो अपना अश्व छुड़ा लें. जब रुक्मांगद ने ये सूचना अपने पिता को दी तो वो बड़े चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा की अनजाने में तुमने श्रीराम के यज्ञ का घोडा पकड़ लिया है. श्रीराम हमारे मित्र हैं और उनसे शत्रुता करने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए तुम यज्ञ का घोडा वापस लौटा आओ. इसपर रुक्मांगद ने कहा कि हे पिताश्री, मैंने तो उन्हें युद्ध की चुनौती भी दे दी है अतः अब उन्हें बिना युद्ध के अश्व लौटना हमारा और उनका दोनों का अपमान होगा. अब तो जो हो गया है उसे बदला नहीं जा सकता इसलिए आप मुझे युद्ध की आज्ञा दें. पुत्र की बात सुनकर वीरमणि ने उसे सेना सुसज्जित करने की आज्ञा दे दी. राजा वीरमणि अपने भाई वीरसिंह और अपने दोनों पुत्र रुक्मांगद और शुभांगद के साथ विशाल सेना ले कर युद्ध क्षेत्र में आ गए.
इधर जब शत्रुघ्न को सूचना मिली कि उनके यज्ञ का घोडा बंदी बना लिया गया है तो वो बहुत क्रोधित हुए एवं अपनी पूरी सेना के साथ युद्ध के लिए युद्ध क्षेत्र में आ गए. उन्होंने पूछा की उनकी सेना से कौन अश्व को छुड़ाएगा तो भरत पुत्र पुष्कल ने कहा कि तातश्री, आप चिंता न करें. आपके आशीर्वाद और श्रीराम के प्रताप से मैं आज ही इन सभी योद्धाओं को मार कर अश्व को मुक्त करता हूँ. वे दोनों इस प्रकार बात कर रहे थे कि पवनसुत हनुमान ने कहा कि राजा वीरमणि के राज्य पर आक्रमण करना स्वयं परमपिता ब्रम्हा के लिए भी कठिन है क्योंकि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है. अतः उचित यही होगा कि पहले हमें बातचीत द्वारा राजा वीरमणि को समझाना चाहिए और अगर हम न समझा पाए तो हमें श्रीराम को सूचित करना चाहिए. राजा वीरमणि श्रीराम का बहुत आदर करते हैं इसलिये वे उनकी बात नहीं टाल पाएंगे. हनुमान की बात सुन कर श्री शत्रुघ्न बोले की हमारे रहते अगर श्रीराम को युद्ध भूमि में आना पड़े, ये हमारे लिए अत्यंत लज्जा की बात है. अब जो भी हो हमें युद्ध तो करना ही पड़ेगा. ये कहकर वे सेना सहित युद्धभूमि में पहुच गए.
भयानक युद्ध छिड़ गया. भरत पुत्र पुष्कल सीधा जाकर राजा वीरमणि से भिड गया. दोनों अतुलनीय वीर थे. वे दोनों तरह तरह के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए युद्ध करने लगे. हनुमान राजा वीरमणि के भाई महापराक्रमी वीरसिंह से युद्ध करने लगे. रुक्मांगद और शुभांगद ने शत्रुघ्न पर धावा बोल दिया. पुष्कल और वीरमणि में बड़ा घमासान युद्ध हुआ. अंत में पुष्कल ने वीरमणि पर आठ नाराच बाणों से वार किया. इस वार को राजा वीरमणि सह नहीं पाए और मुर्छित होकर अपने रथ पर गिर पड़े. वीरसिंह ने हनुमान पर कई अस्त्रों का प्रयोग किया पर उन्हें कोई हानि न पहुंचा सके. हनुमान ने एक विकट पेड़ से वीरसिंह पर वार किया इससे वीरसिंह रक्तवमन करते हुए मूर्छित हो गए. उधर श्रीशत्रुघ्न और राजा वीरमणि के पुत्रों में असाधारण युद्ध चल रहा था. अंत में कोई चारा न देख कर शत्रुघ्न ने दोनों भाइयों को नागपाश में बाँध लिया. अपनी विजय देख कर शत्रुघ्न की सेना के सभी वीर सिंहनाद करने लगे. उधर राजा वीरमणि की मूर्छा दूर हुई तो उन्होंने देखा कि उनकी सेना हार के कगार पर है. ये देख कर उन्होंने भगवान रूद्र का स्मरण किया.
महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जान कर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित सारे गणों को युद्ध क्षेत्र में भेज दिया. महाकाल के सारे अनुचर उनकी जयजयकार करते हुए अयोध्या की सेना पर टूट पड़े. शत्रुघ्न, हनुमान और सारे लोगों को लगा कि जैसे प्रलय आ गया हो. जब उन्होंने भयानक मुख वाले रुद्रावतार वीरभद्र, नंदी, भृंगी सहित महादेव की सेना देखी तो सारे सैनिक भय से कांप उठे. शत्रुघ्न ने हनुमान से कहा कि जिस वीरभद्र ने बात ही बात में दक्ष प्रजापति का मस्तक काट डाला था और जो तेज और समता में स्वयं महाकाल के समान है उसे युद्ध में कैसे हराया जा सकता है. ये सुनकर पुष्कल ने कहा की हे तातश्री, आप दुखी मत हों. अब तो जो भी हो, हमें युद्ध तो करना हीं पड़ेगा. ये कहता हुए पुष्कल वीरभद्र से, हनुमान नंदी से और शत्रुघ्न भृंगी से जा भिड़े. पुष्कल ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग वीरभद्र पर कर दिया लेकिन वीरभद्र ने बात ही बात में उसे काट दिया. उन्होंने पुष्कल से कहा की हे बालक, अभी तुम्हारी आयु मृत्यु को प्राप्त होने की नहीं हुई है इसलिए युद्ध क्षेत्र से हट जाओ. उसी समय पुष्कल ने वीरभद्र पर शक्ति से प्रहार किया जो सीधे उनके मर्मस्थान पर जाकर लगा. इसके बाद वीरभद्र ने क्रोध से थर्राते हुए एक त्रिशूल से पुष्कल का मस्तक काट लिया और भयानक सिंहनाद किया. उधर भृंगी आदि गणों ने शत्रुघ्न पर भयानक आक्रमण कर दिया. अंत में भृंगी ने महादेव के दिए पाश में शत्रुघ्न को बाँध दिया. हनुमान अपनी पूरी शक्ति से नंदी से युद्ध कर रहे थे. उन दोनों ने ऐसा युद्ध किया जैसा पहले किसी ने नहीं किया था. दोनों श्रीराम के भक्त थे और महादेव के तेज से उत्पन्न हुए थे. काफी देर लड़ने के बाद कोई और उपाय न देख कर नंदी ने शिवास्त्र का प्रयोग कर हनुमान को पराभूत कर दिया. अयोध्या के सेना की हार देख कर राजा वीरमणि की सेना में जबरदस्त उत्साह आ गया और वे बाक़ी बचे सैनिकों पर टूट पड़े. ये देख कर हनुमान ने शत्रुघ्न से कहा कि मैंने आपसे पहले ही कहा था कि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी. अब इस संकट से बचाव का एक ही उपाय है कि हम सब श्रीराम को याद करें. ऐसा सुनते ही सारे सैनिक शत्रुघ्न, पुष्कल एवं हनुमान सहित श्रीराम को याद करने लगे.
अपने भक्तों की पुकार सुन कर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए. अपने प्रभु को आया देख सभी हर्षित हो गए एवं सबको ये विश्वास हो गया कि अब हमारी विजय निश्चित है. श्रीराम के आने पर जैसे पूरी सेना में प्राण का संचार हो गया. श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया. जब श्रीराम, लक्ष्मण और भरत ने देखा कि पुष्कल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ. भरत तो शोक में मूर्छित हो गए. श्रीराम ने क्रोध में आकर वीरभद्र से कहा कि तुमने जिस प्रकार पुष्कल का वध किया है उसी प्रकार अब अपने जीवन का भी अंत समझो. ऐसा कहते हुए श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिवगणों पर धावा बोल दिया. जल्द ही उन्हें ये पता चल गया कि शिवगणों पर साधारण अस्त्र बेकार है इसलिए उन्होंने महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रदान किये दिव्यास्त्रों से वीरभद्र और नंदी सहित सारी सेना को विदीर्ण कर दिया. श्रीराम के प्रताप से पार न पाते हुए सारे गणों ने एक स्वर में महादेव का आव्हान करना शुरू कर दिया. जब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए.
इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए परमपिता ब्रम्हा सहित सारे देवता आकाश में स्थित हो गए. जब महाकाल ने युद्ध क्षेत्र में प्रवेश किया तो उनके तेज से श्रीराम की सारी सेना मूर्छित हो गयी. जब श्रीराम ने देखा कि स्वयं महादेव रणक्षेत्र में आये हैं तो उन्होंने शस्त्र का त्याग कर भगवान रूद्र को दंडवत प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति की. उन्होंने महाकाल की स्तुति करते हुए कहा कि हे सारे बृह्मांड के स्वामी !आपके ही प्रताप से मैंने महापराक्रमी रावण का वध किया, आप स्वयं ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम में पधारे. हमारा जो भी बल है वो भी आपके आशीर्वाद के फलस्वरूप हीं है. ये जो अश्वमेघ यज्ञ मैंने किया है वो भी आपकी ही इच्छा से ही हो रहा है इसलिए हमपर कृपा करें और इस युद्ध का अंत करें. ये सुन कर भगवान रूद्र बोले की हे राम, आप स्वयं विष्णु के दुसरे रूप है मेरी आपसे युद्ध करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी चूँकि मैंने अपने भक्त वीरमणि को उसकी रक्षा का वरदान दिया है इसलिए मैं इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकता अतः संकोच छोड़ कर आप युद्ध करें. श्रीराम ने इसे महाकाल की आज्ञा मान कर युद्ध करना शुरू किया. दोनों में महान युद्ध छिड़ गया जिसे देखने देवता लोग आकाश में स्थित हो गए. श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महाकाल पर कर दिया पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके. अंत में उन्होंने पाशुपतास्त्र का संधान किया और भगवान शिव से बोले की हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिए हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आपपर हीं करता हूँ. ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया. वो अस्त्र सीधा महादेव के हृदयस्थल में समां गया और भगवान रूद्र इससे संतुष्ट हो गए. उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें. इसपर श्रीराम ने कहा कि हे भगवान ! यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में भ्राता भरत के पुत्र पुष्कल के साथ असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, उन्हें कृपया जीवन दान दीजिये. महादेव ने मुस्कुराते हुए तथास्तु कहा और पुष्कल समेत दोनों ओर के सारे योद्धाओं को जीवित कर दिया. इसके बाद उनकी आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का घोडा श्रीराम को लौटा दिया और अपना राज्य रुक्मांगद को सौंप कर वे भी शत्रुघ्न के साथ आगे चल दिए

विद्या की परिभाषा

योवनम धन संपत्ति प्रभुत्व म अविवेकिता
एकैकम अनरथाय किमूयत्र चतुसथाय।
अथात: युवा अवस्था हो, धन संपत्ति प्रचुर मात्रा मे हो, कोई पोस्ट प्राप्त हो (जैसे सॉफ्टवेर इंजीनियर हु, मै आईएएस ही, मै कलेक्टर हु, मै इंजीनियर हु) इत्यादि और शास्त्र वेद का तत्वज्ञान प्रप्त न हो इन मे एक भी वस्तु अगर किसी को प्राप्त हो जाए तो जीव अपना अनर्थ कर बैठता है, और सभी वस्तु मे मिल जाए तो फिर तो वो जीव अपने आपको भगवान ही मान लेता है।
ग्रह ह्रहीत पुनि बात बस, तेहि पुनि बीछी मार । ताही पियाइअ बारुनी, कहहु कौन उपचार।
एक तो जीव का मन पहले से ही बंदर की तरह चंचल फिर उसे जीव(बंदर) को वायु रोग हो जाए और फिर उस जीव(बंदर) को बिच्छी डंक मार दे , और फिर जीव(बंदर) को मदिरा पिला दी जाए तो सोचिए उस जीव (बंदर) का क्या कोई उपचार कर सकता है वो जीव मदांध हो जाता है
इसी तरह किसी व्यक्ति को धन, संपत्ति, युवा अवस्था या कोई पोस्ट या डिग्री मिल जाए तो अहंकार से नहीं बच सकता है और भगवान शिव का केवल एक शत्रु है अहंकार जिस किसी व्यक्ति मे अहंकार आया की भगवान शिव मूड ऑफ हो जाता नो दो ग्यारह हो जाते।
विद्या की परिभाषा शास्त्रो मे कही गई है
सा विद्या या विमुक्तएत॥
विद्या वही है जो जीव को माया के बंधन से मुक्त करके भगवान शिव के प्रेम के बंधन मे बांध दे सदा के लिए इसके अलावा जितनी भी विद्याय है सब केवल अविद्या है अज्ञान है , श्रम ही फालतू का।
वसुदेव परा विद्या।
सा विद्या तन मतिर यया।
वही ज्ञान विद्या कहलाती है जो जीव को भगवान को ओर ले जाए अगर कोई विद्या जीव को संसार की ओर ले जाकर संसार के जड़ वस्तु और व्यक्ति मे आसक्ति कर व देती है तो महान अविद्या है अज्ञान है, नरक का द्वार है।
मनुष्य (स्त्री हो या पुरुष ) प्रत्येक को अपने शरीर मे कितनी आसक्ति होती है
जब की स्त्री के शरीर मे हाड़, मांस, मल, मूत्र , विस्टा, पाखाना , दुर्गन्द आदि भरा पड़ा है, इस अधम शरीर के प्रत्येक रोम रॉम से गंदगी ही निकलती रहती है, दो आँख से गंदगी, दो कान से गंदगी, मुह से दुर्गंध, प्रत्येक रोम रॉम से नहाते वक्त भी पसीना निकलता रेहता है, नाक से गंदगी, मूत्रइंद्रिय से गंदगी(एमसी , मूत्र) फिर मल आदि और पाँच किलो माल सदा प्रत्येक मनुष्य के पेट मे भरा पड़ा है ...
आश्चर्य है पुरुष को ये सब ज्ञान है फिर भी वह स्त्री के गंदे शरीर मे आसक्त हो जाता है ये इसलिए होता है पुरुष की बुद्धि जब तक काम युक्त है तभी तक उतने समय के लिए ही उस पुरुष को स्त्री के शरीर से सुख मिलता है
कामी है स्त्री अच्छी लगती है
लोभी है धन अच्छा लगता है
क्रोधी है लड़ाई करना, गली देना अच्छा लगता है
द्वेषी है निंदा करना अच्छा लग रहा है
रागी है स्तुति (स्त्री या प्रेमिका की तारीफ करना अच्छा लग रहा है)
तभी तक जब तक ये माया के विकार मन पर हावी है बस उतने ही समय तक...
वैसे भी संसार संबंधी कोई भी ज्ञान महा अज्ञान ही है अविद्या ही है
(जैसे सॉफ्टवेर इंजीनियर हु, मै आईएएस ही, मै कलेक्टर हु, मै इंजीनियर हु मै एमबीए हु )
माया के जगत का ज्ञान जीव को चौरासी लाख योनियो मे ही घूमता है जीव को परमात्मा से नहीं मिलता यह सब ज्ञान (अज्ञान) केवल जीविका चलाने का साधन है यह पेट भरने का काम तो कुत्ते , गधे, बिल्ली भी कर लेते है इसी संसारी पोस्ट का तुम्हें क्या अहंकार है एक बार यमराज का जिस क्षण ऑर्डर हो जाएगा उस शान आप लोगो की यह डिग्रीया(जैसे सॉफ्टवेर इंजीनियर हु, मै आईएएस ही, मै कलेक्टर हु, मै इंजीनियर हु मै एमबीए हु ) आपको चौरासी लाख प्रकार के योनीयो मे जाने से नहीं बचा सकता मृत्यु के बाद केवल आपके कर्म ही आपकी सहइयता करेंगे बस
इसलिए भक्ति करो जल्दी जल्दी भगवान शिव के चरणों मे मन की आसक्ति करो शरणागत हो जाओ और सदा को माला माल हो जाएओ।

मुरली कौन है?

लोग कहते है मुरली भगवान शंकर है ठीक ही कहते है पर भगवान शंकर मुरली क्यो बने इसका तत्व किसिकों नहीं पता चलो हम बताते है
पुरानो के अनुसार जब हनुमान लंका दहन करके वापस आए श्री राम के पास माता सीता का कुशल मंगल बताने के लिए भगवान राम ने हनुमान से कहा
हनुमान तुम लंका जलाकर आए हो तुम थक गए हो मेरे मन मे इच्छा उतपन हो रही है की मै आप के चरण की सेवा करना चाहता हु... इसलिए मुझे अपने चरण दबाने की सेवा दीजिए और वैसे भी हनुमान मेरे ऊपर आपके अनंत उपकार है मै तूहरे एक एक उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकता ।
हनुमान ने कहा प्रभु आप स्वामी मै दास हु कैसे आप मेरे चरण दबाएँगे... लोग क्या कहेंगे दास होकर स्वामी से चरण दबवा रहा है॥ भगवान राम नहीं माने तो फिर हनुमानजी शंकर रूप मे भगवान राम को ये वरदान दिया की प्रभु इस अवतार मे रहने दीजिए अगले अवतार मे जब कृष्ण बनेंगे तो मै मुरली बानुगा उस मुरली मे छेद होंगे जिसे आप अपने कर कमलों से छेद को बंद करेंगे फिर खुला छोड़ देंगे इससे आप मेरी चरण दबाने का सौभाग्य प्राप्त कर लेंगे।
"शंकर स्वयं केशरीनंदन"
ये मुरली हनुमान जी है...... श्री कृष्ण सदा इस हनुमान रूपी मुरली के छेद को छेद छेद कर भगवान शिव के चरणों की सेवा करते है यही इसी मुरली के द्वारा अनंत गोपियो को भी अपनी प्रेम की ओर आकर्षित करते है इसी मुरली के प्रभाव से परमहंस समाधि भूल जाते है यही नहीं इसी मुरली के कारण राधा बावली हो जाती है मादनखय महाभाव की अवस्था से पीड़ित कर देती है॥
इसी तरह भगवान शिव लीला क्षेत्र मे शिवानी गोपी बनकर रास मे जाते है क्यूकी भगवान शिव अपनी इच्छा से रास मे नहीं जाते या भगवान शिव को कोई गरज नहीं है रास मे जाने की ये तो श्री कृष्ण को गरज है की वे भगवान शिव के दर्शन करेंगे। क्यूकी
भगवान शिव ही राधा कृष्ण भी है , भगवान शिव ही गौरी शंकर है सब कुछ है।
दोनों एक ही ही ही ही है
वेदो मे केवल मात्र भगवान शिव को ही """"तस्मात प्रेमाननदात """" के उपाधि से संबोधित किया है भगवान शिव का पर्याईवाची है प्रेमानन्द....
भगवान शिव की लीला दिव्य तमो गुण प्रधान ज्यादा हुई है इसलिए उनसे संबंधी जीतने पुराण है उन्हे दिव्य तमस पुराण कहा गया है जैसे की एक वैष्णव पुराण मे आया है ये जो तामस लीला भगवान शिव की होती ये दिव्य होती है माया से परे वाला ये दिव्य तमो गुण है
भगवान शिव के भीतर केवल दिव्य सत्व गुण है
.... इस दिव्य तमो गुण लीलाओ के द्वारा जिन जिन राक्षस को भगवान शिव ने मारा वे सब भगवान शिव के नित्या धाम महा कैलाश मे गए। सदा को आनंद मए बन गए।
अगर मायिक तामस होता तो भगवान शिव किसी भी राक्षस को मारते तो उसे भगवान शिव का धाम नहीं मिलता॥ मायिक तामस के द्वारा जो लोग मारे जाते है उन्हे 84 लाख प्रकार की योनिया प्राप्त होती है।
इसी तरह भगवान कृष्ण दिव्य सत्व गुण धरण करके अपनी अवतार लीला करते है
इसी तरह ब्रह्मा भी दिव्य रजो गुण धरण करके सृष्टि प्रगट करते है॥
एक बात सदा स्मरण रखिए जहा श्री कृष्ण होंगे वह भगवान शिव अवश्य होंगे और जहा भगवान शिव होंगे वह श्री कृष्ण अवश्य होंगे।
भगवान शिव अनंत कोटी ब्रह्मांड के स्वामी है भगवान शिव के स्वयं सृष्टि का कोई भी कार्य करते यह सब उनके अवतार करते है ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र आदि
भगवान शिव के अनंत नाम है, अनंत रूप है, अनंत अवतार है, अनंत धाम है, असंख्य भक्त भी है जिसमे (शांत भाव, दास्य भाव, सख्या भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव भी समाहित है)
भगवान शिव अपने भक्तो के साथ लीला करते है बस भगवान शिव की आयु नित्य 16 वर्ष की होती है इसी तरह माता पार्वती भी नित्य 16 वर्ष किशोरी होती है अपने महा कैलाश धाम मे...
भगवान शिव मे अनंत माधुर्य रस भरा पड़ा है किसी को भगवान शिव के माधुर्य रस पर अगर संदेह है तो साधना करके भगवान शिव के दर्शन कर ले संदेह अपने आप समाप्त हो जाएगा।
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शिव अथवा कृष्ण।
भगवान शिव और भगवान श्री कृष्ण दोनों एक तत्व है , एक ही परातपर तत्व है या भगवान शिव का पर्याईवाची नाम श्री कृष्ण या यू कह लो श्री कृष्ण का पर्याईवाची नाम शिव है।
1) एक ही परातपर ब्रह्म के तीन रूप है ब्रह्मा ने दिव्य रजो गुण के द्वारा सृष्टि को प्रगट करते है। (सृष्टि सृज विसरगे धातु से बना है जिसका अरथ है प्रगट करना जन्म देना नहीं)
2)विष्णु अथवा महाविष्णु दिव्य सत्व गुण के द्वारा सृष्टि का पालन करते है
3) रुद्र बनकर दिव्य तमो गुण के द्वारा सृष्टि का प्रलय करते है।
पर इन तीनों स्वरूप से भिन्न परा शिव है जो तीनों मायिक गुण + दिव्य सत्व (vishnu), दिव्य रज(ब्रह्मा), दिव्य तमो(रुद्र) से परे है।
लीला क्षेत्र मे यह सब नाटक करते है एक दूसरे की भक्ति करते है॥
लीला का अर्थ है नाटक तमाशा ड्रामा वास्तविकता नहीं है।

आप जीवात्मा है ।

जीवात्मा का संबंध केवल एक मात्र भगवान से ""ही ""(भी नहीं) है।
पहले आपलोग संबद्ध का अर्थ समझ लीजिए।
संबंध किसे कहते है
संबंध 2 शब्द मिलकर बना हुआ है
सम + बंध
सम का अर्थ होता है सम्यक (परिपूर्ण, चारो तरफ से), बंध का अर्थ होता है बंधन
सम्यक माने चारो तरफ से बंधन , परिपूर्ण बंधन, नित्या बंधन
संबंध उसे कहते है जिस संबंध मे संबंध का विछेद न हो,
लेकिन शरीर के संबंधी माता, पिता , बेटा, स्त्री , पति, प्रेमी, प्रेमिका , धन आदि से हमारा नित्य संबंध कहा रेहता है
पुत्र जीवित है पिता मर गया, पिता जीवित है, पुत्र मर गया, माता जीवित है पुत्र मर गया, पत्नी 25 वर्ष की थी तभी उसका पति रोड एक्सिडेंट मे मारा गया और वैसे भी शादी के पहले तो ये पति पत्नी बचपन मे एक दूसरे को जानते तो नहीं थे एक दिन साथ चक्कर लगाय और बन गई अर्धांगिनी,और दोनों का य तो तलाक हो जाता है य तो मर जाते है दोनों मे से एक,
और फिर संसारी माता , पिता , पुत्र , पुत्री , मित्र से जो संबंध होता भी है उसका रीज़न केवल एकमात्र स्वार्थ है।
देखिए तुलसीदास ने क्या कहा
जाते कछु निज स्वरथ होई तापे ममता करे सब को
संसारी माता , पिता, पुत्र , प्रेमी, प्रेमिका ये सब एक दूसरे से आपस मे स्वार्थ सिद्ध करते रहते है,
सुर नर मुनि सबकी यह रीति स्वार्थ लागे कराही सब प्रीति।
संसारी माता पिता को छोड़िए, देवता इंद्र भी स्वार्थी होता है।
तुम्हारा अपना शरीर भी तुम्हारा साथ नहीं देगा यह भी तुम्हें छोड़ देगा तो फिर संसारी माता, पिता , पत्नी कितना दिन साथ देंगे।,
और वैसे भी सनातन धर्म मे जीव अनादि है, इस जन्म मे कोई माँ बनी, कोई पिता बना, कोई स्त्री बनी, कोई पुत्र बना फिर मरने के अगले जन्म मे फिर एक नई माँ बनेगी, फिर एक नया पिता बनेगा, फिर नया पुत्र बनेगा.....अरे कहा तक काहू कुत्ते, बिल्ली, गधे, सुवर भी हमारे माता , पिता बन चुके है और अगले जन्म मे भी बनते रहंगे, वर्तमान जन्म के माता , पिता , पुत्र, पत्नी भी अगले 84 प्रकार के शरीर मे घूमेंगे और तुम्हारे साथ नहीं जाएंगे सब अपने कर्म फल भोगने कोई नरक मे जाएगा, कोई स्वर्ग मे जाएगा, कोई मृत्यु लोक मे घूमेगा तो तुम्हारे ये संसारी माता पिता से तो संबंद एक ही जन्म मे विच्छेद हो गया ये काइके संबंधी है।
कोई पति पत्नी संतान पैदा नहीं करती , जब कीसी जोड़े की नई नई शादी है तो वे लोग तो कामआन्ध होकर एक दूसरे के शरीर का विषयभोग(संभोग) करते है, वे दंपति थोड़ी बच्चे पैदा करते है, उन्हे पता ही नहीं पेट मे क्या हो रहा है ये तो भगवान जीव माता के रज और पिता के वीर्य से माता के गर्भ मे जीव का शरीर बनाते है, फिर माँ के गर्भ मे रहकर की अपने पुत्र जीव के शरीर की रक्षा करते है , भगवान अपने जीव के खाने का इंताजाम करते है माता के पेट मे जो माता खाती है वही जीव को भी मिलता है , जो सास माता लेती है जीव को प्राप्त होता ऐसे वैज्ञानिक ढंग से ये काम भगवान चोरी चोरी करते है अपने जीव के लिए कोई संसारी माता क्या करेगी वो तो अल्पज्ञ है उसे पता ही नहीं गर्भ मे इतनी सारी क्रिये हो रही है ,फिर 9 महीने बाद माता के गर्भ से जीव को बाहर निकालते है।
फिर जब जीव संसार मे आता है तो भगवान को यह चिंता होती है की मेरा पुत्र क्या कहेगा अभी तो इसके दात नहीं निकले है तो शिव जी माता के स्तनो मे दूध पैदा कर देते ऑटोमैटिक क्या कोई माता अपने स्तनो मे मशीन लगाकर बिना पुत्र पैदा किए दूध पैदा कर सकती है स्तनो मे।
फिर मेरा पुत्र कब दूध के सहारे जीवित रहगा उसके दात निकाल आए फिर शिव जी पुत्र के लिए अनंत सब्जी पहले से तैयार राखी है, फल खाये, सब्जी खाए,फिर जीव के पाप और पुनयो का फल भी देता है बड़ा होने पर जो उसने पूरव जन्म के कर्म किए होंगे॥
तुम्हारा भगवान शिव से ही नित्या संबंध है। शिवजी से तुम्हारा सम्यक संबंद है परिपूर्ण संबंध है तुम नरह मे जाओगे शिवजी तुम्हारे साथ नरक मे भी जायेंगे बस अंतर यह होगा तुम कर्म फल भोकते हुए रोकर जाओगे , शिवजी मुस्कराते हुए जायेंगे, तुम कुत्ते बनोगे शिवजी तुम्हारे साथ कुत्ते के शरीर मे भी आयंगे, तुम बिल्ली बनोगे , शिवजी बिल्ली के शारीर मे तुम्हारी आत्मा मे बैठे रहंगे तुम्हारे कर्म फल भुगत्वंगे जबर्दस्ती, तुम देवता के शरीर मे जाओगे तो वह भी शिव तुम्हारे हृदय मे बैठे रहंगे...
जिस जिस शरीर मे जाओगे शिवजी तुम्हारे हृदय मे सदा , नित्या बैठे रहंगे, तुम्हारे साथ रहंगे एक क्षण के लिए तुमसे अलग नहीं होंगे, मतलब संबंध विच्छेद नहीं होगा, अनादि काल से शिवजी तुम्हारे हृदय मे बैठे है सदा तुम्हारे हरिदाय मे साथ रहंगे एक पल के साथ नहीं छोड़ते भगवत प्राप्ति के बाद भी तुम्हारे साथ रहंगे।
(वेद :
द्वा सुपर्णा, सयुजा। सखाया, समानम वृक्षस्य स्वजाते svetasvatara उप)
भगवान शिव की कृपा का वर्णन करने चालू तो मेरी मृतु हो जाएगी गिर भी मई नहीं बता पाऊँगा अनंत काल तक भी मई बताता राहू फिर भी नहीं बता सकता
संसारी माता , पिता, पुत्र, पत्नी कितने जन्म मे तुम्हारे साथ रहंगे एक जन्म मे भी साथ नहीं जायेंगे ।
एक रसिक ने कहा है
कति नाम, लालिता, सुतह, कति वा नेह वधुर , भुंजीही,
क्वानुते क्वानुताश्च व वयं भाव संघ खलु पांथ समागमह।
अर्थात
जीव ने अनंत जन्मो मे अनंत माता, अनंत बाप, अनंत पुत्र, अनंत पत्नी बना चुका है सब कहा है , कहा गए है नहीं जी हुमे नहीं याद है की पिछले जन्म मे हमारी माता कौन थी , अगले जन्म कौन है,,,, यह तो पथिकोका संग है जैसे बस और ट्रेन मे यात्री बैठे रहते है और यात्री आपस मे बाते करते है लेकिन जब यात्री का अपना गंतव्य स्थान आता है तो यात्री अपने स्टेशन उतार जाता है इसी तरह यह संसारी माता पिता पुत्र है अपने कर्म पीएचएल भोगेंगे और अपने समय पर मृत्यु के प्राप्त होकर मरने के बाद भी कर्म के अनुसार कोई नरक मे जाएगा, कोई स्वर्ग मे जाएगा, कोई मृत्यु लोक...
इसलिए आपके, माता, पिता, भ्राता सारे संबंध केवल परमात्मा से है।
देखिए वेद क्या कहता है
य आतमनीतिसथती।
जीवात्मा के नित्य संबंधी एकमात्र भगवान शिव है,
अमृतस्य वै पुत्र:।
जीवात्मा भगवान का पुत्र है,अनंत जीवो का संबंध केवल एकमात्र भगवान शिव से है।
गीता
ममेवंशों जीव लोके जीव भूतस्यसनातन:।
भगवान कह रहे है जीव मेरा अंश है,
ब्रहमसूत्र
अंशोनानाव्यापदेशात।
प्रत्येक जीव का केवल एकमात्र भगवान से नाना संबंध है।
तुम दिव्य आत्मा हो।
नैव स्त्री न पुमानेश न चैवअयम नपुंसक:।
यधचछशरीरमादते तेने तेने स यूजयते॥ ( sv up)
जीव जिस जिस शरीर को प्राप्त करता है उस शरीर या देह को अपना मै मान लेता है।
उधारण:स्त्री का शरीर प्राप्त हुआ जीव को तो अपने आपको स्त्री मान लेता है, पुरुष का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको पुरुष मान लेता है,नपुंसक का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको नपुंसक मान लेता है,कुतिया का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको कुतिया मान लेता है, सुवर का शरीर प्राप्त हुआ तो जीव अपने आपको सुवर मान लेता है 84 लाख प्रकार के शरीर मे मे जिस जिस शरीर मे जाता है उस उस शरीर को अपना मान लेता है।
तुम शरीर नहीं आत्मा हो पहले यह ज्ञान सदा याद रखो।
फिर अध्यमिक जगत मे आगे बढ़ सकोगे।
जाके प्रिय न राम-बैदेही.
तजिये ताहि
--------कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ||१ ||
जिसको भगवान प्यारे नहीं लगते उसको त्याग दीजिए दुश्मन की तरह भले ही आपका परम आत्मीय क्यू न हो।
सो छाँड़िये
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी.
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ||२ ||
प्रह्लाद ने भगवान के प्रेम के लिए अपने पिता का त्याग कर दिया,
विभीषण ने भगवान के प्रेम के लिए अपने भ्राता रावण का त्याग कर दिया
भरत ने प्रभु राम के अपने सग्गी माता कैकई का त्याग कर दिया।
राजा बलि ने भगवान के प्रेम के लिए अपने गुरु का त्याग कर दिया,
गोपियो ने श्री कृष्ण के प्रेम के लिए अपने पति का त्याग कर दिया,
फिर भी इनको नरक नहीं मिला सब भगवान के धाम गोलोक मे गए भगवान की सेवा प्राप्त की,
प्रभु राम को जब वनवास के लिए कैकई ने भेजा तो भरत जी को पता चला तो उन्होने क्या उत्तर दिया
वाल्मीकि रामायण
हान्यामहमीमाम पापाम कैकाइम दुश्त्चारिनिम
यदि मे धार्मिकों रमो नसयेनमातरघातकम।
अर्थात:
भरत जी कह रहे कोई मुझे विश्वास दिला दे मेरे इस कृत से प्रभु राम मेरा त्याग न करेंगे तो मै अपनी माता की हत्या कर दु।
इसी तरह माता सीता और लक्ष्मण ने भी प्रभु राम की बात नहीं मानी।
भगवान की भक्ति मे जो भक्ति मे जो भी बढ़ा आए आप उसका त्याग कर सकते है डरिए मत।
संसार मे रहकर अपना कर्तव्य निभाये न की मन की आसक्ति करे, मन से प्यार केवल भगवान से करे यह मानव देह एकमात्र भगवत प्राप्त की लिए दिया गया है माता , पिता, पुत्र, पत्नी की सेवा तो आप लोगो ने अनंत जन्म मे की है और जब तक भगवत प्राप्ति नहीं होगी तब तब किसी न किसी की सेवा काओरगे ही चाहे संसारी रिश्ते दार की सेवा करोगे नहीं तो कोई अपने ही शरीर की सेवा करोगे....
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों.
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ||३ ||
तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो.
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ||४ ||
एक शिवजी ही तुम्हारे सर्वस्व है,शिवजी तुम्हारे माता, पिता , भ्राता सारे संबंध एकमात्र शिवजी से ही है.....................

अखंड भारत का संपुर्ण शैव दर्शन

1) कश्मीरी शैव सम्प्रदाय :-
वसुगुप्त ने 9 वीं शताब्दी के उतरार्ध्द में कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का गठन किया। इनके कल्लट और सोमानन्द दो प्रसिध्द शिष्य थे। इनका दार्शनिक मत ईश्वराद्वयवाद था। सोमानन्द ने ”प्रत्यभिज्ञा मत” का प्रतिपादन किया। प्रतिभिज्ञा शब्द का तात्पर्य है कि साधक अपनी पूर्वज्ञात वस्तु को पुन: जान ले। इस अवस्था में साधक को अनिवर्चनीय आनन्दानुभूति होती है। वे अद्वैतभाव में द्वैतभाव और निर्गुण में भी सगुण की कल्पना कर लेते थे। उन्होने मोक्ष प्राप्ति के लिए कोरे ज्ञान और निरीभक्ति को असमर्थ बतलाया। दोनो का समन्वय से ही मोक्ष प्राप्ति करा सकता है। यद्यपि शुध्द भक्ति बिना द्वैतभाव के संभव नही है और द्वैतभाव अज्ञान मूलक है किन्तु ज्ञान प्राप्त कर लेने पर जब द्वैत मूलक भाव की कल्पना कर ली जाती है तब उससे किसी प्रकार की हानि की संभावना नही रहती। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में कतिपय ऐसे भी साधक थे जो योग-क्रिया द्वारा रहस्य का वास्तविक पता पाना चाहते थे क्योंकि उनकी धारणा थी कि योग-क्रिया से हम माया के आवरण को समाप्त कर सकते है और इस दशा में ही मोक्ष की सिध्द सम्भव है।
2) वीरशैव
2) वीरशैव एक ऐसी परम्परा है जिसमें भक्त शिव परम्परा से बन्धा हो । यह दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय हुई है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, ये भारत का तीसरा सबसे बड़ा शैव मत है पर इसके ज़्यादातर उपासक कर्नाटक में हैं और भारत का दक्षिण राज्यो महाराष्ट्र आंद्रप्रदेश केरला ओर तमिलनाड मे वीरशैव उपासक अदिक्तम है । ये एकेश्वरवादी धर्म है। तमिल में इस धर्म को शिवाद्वैत धर्म अथवा लिंगायत धर्म भी कहते हैं। उत्तर भारत में इस धर्म का औपचारिक नाम ” शैवा आगम” है। वीरशैव की सभ्यता को द्राविड सभ्यता कहते हैं । इतिहासकारों के दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ईसापूर्व में वीरशैव अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये । तभी से वो लोग (उनके विद्वान आचार्य ) अपने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे । पहले चार वेद मे शिव भगवान को परमब्रह्म प्रतिपादन को प्रमाण किया श्रीकर भाष्य ने , जिनमें ऋग्वेद प्रथम था । उसके बाद जगद्गुरु श्री वागिश पंडितारध्य शिवाचार्य उपनिषद जैसे ग्रन्थ को प्रस्थान त्रय ग्रन्थ मे शिवोत्तम का प्रतिपाध्य किया गये। १२ शताब्दी में बसवेश्वर जी ने जन भाष्य में सरल शिवतत्व का दर्शन दिया शक्ति विशिष्टाद्वैत
शक्ति ‘ को विशिष्ट रूप से उपासन करने की कई पंथ हैं, जिसमें से शक्ति वुशिष्टाद्वैत प्रमुख है | इसके अनुसार त्रिगुणात्मक माया तथा विशिष्टाद्वैत के अंशी – भाव दोनों मिलके शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाती है, ऐसे वीरशैव मत के दार्शनिक प्रतिपादन है | वीरशैव दर्शन के प्रकार २८ शैवागम हैं, जिसमे से एक है ‘ वीरागम ‘ | इसमें ” सर्व वेदेषुयत द्रष्टन्तत सर्वन्तु शिवागमे || ” मतलब सर्व वेद तथा वेदोचित सिद्धांतो को ‘ शिवागम ‘ सम्मत करती है, यह तात्पर्य है | इस वाक्य के अनुसार ‘ वीरशैव ‘ दर्शन भी वेदानुसारी है , यह ध्वनि निकलती है | पारमेश्वर तंत्र में वीरशैव दर्शन को बाकी वैदिक मतों से जोड़ा गया है |
” वीरशैवं वैष्णवंच शाक्तं सौरम विनायकं |
कापालिकमिति विज्नेयम दर्शानानि षडेवहि || ”
पाणिनि के सूत्रानुसार ‘ वी ‘ नामक धातु को ‘ गमन ‘ अर्थ है और उसके लक्षनार्थ ‘ ज्ञान ‘ कहा जाता है | ‘ र ‘ मतलब ‘ रमना ‘ – इस प्रकार वीरशैव का मतलब ज्ञान में रमनेवाले ( ‘ संतुष्ट होनेवाले ‘ ) शिव-भक्त, ऐसे वीरशैव दर्शन कहता है | (देखिये – सर्व धर्म दर्शन – पुट संख्या ४९ ) वीरशैव दर्शन में “ आशब्धिम स्पर्शरूपं अव्ययं अस्तूलम अनन्वहृस्वदीर्घमलोहितं ” यह उपनिषत प्रमाण और ” तदैक्षत बहूस्यामप्रजायेय ” श्रुति वाक्य को प्रमाण देकर वेद-प्रामाण्य को सम्मति दी है | वीरशैव दर्शन में ‘ शक्ति ‘ को प्राधान्यता रहने की कारण, इसे ‘ शक्ति विशिष्टाद्वैत ‘ कहा गया है | ‘ शक्ति ‘ को ही सत्व – राजस – तमो नामक त्रिगुण माया, ऐसे दर्शाया है | इस तरह शक्ति के २ रूप है , एक है सत – चित – आनंद रूप | दूसरा, गुण-त्रयों से मिला हुवा ‘ मायारूप ‘ | इन दो रूपों की मिलन को वीरशैव दर्शन पराशक्ति ‘ नाम से पुकारती है |
3)कापालिक शैव
कापालिक-सम्प्रदाय महाव्रत -सम्प्रदाय कापालिक -सम्प्रदाय का ही नामान्तर प्रतीत होता है । यामुन मुनि के आगम प्रामाण्य , शिवपुराण तथा आगमपुराण में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों के भेद दिखाय गये हैं । वाचस्पति मिश्र ने चार माहेश्वर सम्प्रदायों के नाम लिये हैं । यह प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष ने नैषध (१० ,८८ ) में समसिद्धान्त नाम से जिसका उल्लिखित है , वह कापालिक सम्प्रदाय ही है ।
कपालिक नाम के उदय का कारण नर -कपाल धारण करना बताय जाता है । वस्तुतः यह भी बहिरंग मत ही है । इसका अन्तरंग रहस्य प्रबोध -चन्द्रोदय की प्रकाश नाम की टीका में प्रकट किया गया है । तदनुसार इस सम्प्रदाय के साधक कपालस्थ अर्थात् ‍ ब्रह्मारन्ध्र उपलक्षित नरकपालस्थ अमृत या चान्द्रीपान करते थे । इस प्रकार के नामकरण का यही रहस्य है । इन लोगों की धारणा के अनुसार यह अमृतपान है , इसी से लोग महाव्रत की समाप्ति करते थे , यही व्रतपारणा थी । बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के सम्प्रदाय विद्यमान थे । सरबरतन्त्र में १२ कापालिक गुरुओं और उनके १२ शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं । गुरुओं के नाम हैं — आदिनाथ , अनादि , काल , अमिताभ , कराल , विकराल आदि । शिष्यों के नाम हैं –नागार्जुन , जडभरत , हरिश्चन्द्र , चर्पट आदि। ये सब शिष्य तन्त्र के प्रवर्तक रहे हैं । पुराणादि में कापालिक मत के प्रवर्तक धनद या कुबेर का उल्लेख है ।
4) लकुलीश सम्प्रदाय
वैदिक लकुलीश लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में लकुलीश मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत में फैला।
लकुलीश सम्प्रदाय या ‘नकुलीश सम्प्रदाय’ के प्रवर्तक ‘लकुलीश’ माने जाते हैं। लकुलीश को स्वयं भगवान शिव का अवतार माना गया है। लकुलीश सिद्धांत पाशुपतों का ही एक विशिष्ट मत है। इसका उदय गुजरात में हुआ था। वहाँ इसके दार्शनिक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था। इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना।
यह सम्प्रदाय छठी से नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था।
शिव के अवतारों की सूची, जो वायुपुराण से लिंगपुराण और कूर्मपुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख करती है।
लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख किया गया है, जो गुजरात के ‘झरपतन’ नामक स्थान में है।
लकुलीश की यह मूर्ति सातवीं शताब्दी की बनी हुई प्रतीत होती है
लिंगपुराण में लकुलीश के मुख्य चार शिष्यों के नाम ‘कुशिक’, ‘गर्ग’, ‘मित्र’ और ‘कौरुष्य’ मिलते हैं।
प्राचीन काल में इस सम्प्रदाय के अनुयायी बहुत थे, जिनमें मुख्य साधु होते थे।
इस संप्रदाय का विशेष वृत्तांत शिलालेखों तथा विष्णुपुराण, लिंगपुराण आदि में मिलता है।
इसके अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते और उनका उत्पत्ति-स्थान ‘कायावरोहण’ बतलाते थे.
5) आंध्र के कालमुख शैव :- वारंगल 12वीं सदी में उत्कर्ष पर रहे आन्ध्र प्रदेश के काकतीयों की प्राचीन राजधानी था। वर्तमान शहर के दक्षिण–पूर्व में स्थित वारंगल क़िला कभी दो दीवारों से घिरा हुआ था। जिनमें भीतरी दीवार के पत्थर के द्वार (संचार) और बाहरी दीवार के अवशेष मौजूद हैं। 1162 में निर्मित 1000 स्तम्भों वाला शिव मन्दिर शहर के भीतर ही स्थित है। कालमुख य अरध्य शैव के कवियों ने तेलुगु भाषाओं की अभूतपूर्व उन्नति कियी । शैव मत के अंतर्गत कालमुख सम्प्रदाय का यह उत्कर्षकाल था।
वारंगल के संस्ककृत कवियों में सर्वशास्त्र विशारद का लेखक वीरभल्लातदेशिक, और नलकीर्तिकामुदी के रचयिता अगस्त्य के नाम उल्लेखनीय हें। कहा जाता है कि अलंकारशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रतापरुद्रभूषण का लेखक विद्यनाथ यही अगस्त्य था। गणपति का हस्तिसेनापति जयप, नृत्यरत्नावली का रचयिता था। संस्कृत कवि शाकल्यमल्ल भी इसी का समकालीन था। तेलगु के कवियों में रंगनाथ रामायणुम का लेखक पलकुरिकी सोमनाथ मुख्य हैं। इसी समय भास्कर रामायणुम भी लिखी गई। वारंगल नरेश प्रतापरुद्र स्वयं भी तेलगु का अच्छा कवि था।
आज के प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर में जो मूर्ति है (बालाजी य वेंकटेश्वर ) व मूर्ति वीरभद्र स्वामी का है कहा जाता है की कृष्ण देवराय के काल में रामानुज आचार्य ने इस मंदिर को वैष्णवीकरण किया है और वीरभद्र के मूर्ति को बालाजी का नाम दिया गया
6) तमिल शैव छठी से नवीं शताब्दी के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ, जो कवि भी थे।सन्त तिरुमूलर शिवभक्त तथा प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ तिरुमंत्रम् के रचयिता थे। तमिल शैव सिद्धांत यह एक महत्वपूर्ण दक्षिण भारतीय अनेकांत यथार्थवादी समूह रही . इसके अनुसार विश्व वास्तविक तथा आत्माएं अनेक है . यह आंदोलन अंशत: आदि शैव संतों की कविताओं तथा अंशत नयनारों (७वि से १०वी सदी के बीच ) की उत्तम भक्ति पूर्ण कविताओं से विक्सित हुआ . इस पंथ के मान्य ग्रंथों के चार वर्गों में १, वेद २, २८ आगम ३,१२ तिमुरई तथा ४, १४ शैव सिद्धान्त शास्त्र शामिल है हालांकि वेदों का उच्च स्थान है . पर एक्यं शिव द्वारा अपने भक्तो के लिए वर्णित गोपनीय आगमों को ज्यादा महत्त्व दिया गया है .१३वी तथा १४ सदी के आरंभ में ६ आचार्य ( ज्यादातर अब्राह्मण तथा निम्न उत्पति वाले ) द्वारा सिद्धांत शास्त्र रचे गए थे तमिल शैव ग्रंथो तथा कविताओं में तिन महान शैव आचार्यों अप्पर तिरुज्ञान, संबंध , एवं सुन्दर मूर्ति की रचानें शामिल है .अघोर शिवाचार्य जी को संस्थापक माना जाता है .

भगवान भैरव की महिमा

भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी आराधना का खास समय भी मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे का माना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के दो स्वरूप बताए गए हैं। एक स्वरूप में महादेव अपने भक्तों को अभय देने वाले विश्वेश्वरस्वरूप हैं वहीं दूसरे स्वरूप में भगवान शिव दुष्टों को दंड देने वाले कालभैरव स्वरूप में विद्यमान हैं। शिवजी का विश्वेश्वरस्वरूप अत्यंत ही सौम्य और शांत हैं यह भक्तों को सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करता है।वहीं भैरवस्वरूप रौद्र रूप वाले हैं, इनका रूप भयानक और विकराल होता है। इनकी पूजा करने वाले भक्तों को किसी भी प्रकार डर कभी परेशान नहीं करता। कलयुग में काल के भय से बचने के लिए कालभैरव की आराधना सबसे अच्छा उपाय है। कालभैरव को शिवजी का ही रूप माना गया है। कालभैरव की पूजा करने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार का डर नहीं सताता है।
भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।
रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है। कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योति प्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा।
इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।
लौकिक और अलौकिक शक्तियों के द्वारा मानव जीवन में सफलता पायी जा सकती है, लेकिन शक्तियां जहां स्थिर रहती है, वहीं अलौकिक शक्तियां हर पल, हर क्षण मनुष्य के साथ-साथ रहती है। अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने का श्रोत मात्र देवी देवताओं की साधना, उपासना शीघ्र फलदायी मानी गई है। कालभैरव भगवान शिव के पांचवें स्वरूप है तो विष्णु के अंश भी है। इनकी उपासना मात्र से ही सभी प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक परेशानियों से शीघ्र मुक्ति मिलती है। कोई भी मानव इनकी पुजा, आराधना, उपासना से लाभ उठा सकता है। आज इस विषमता भरे युग में मानव को कदम-कदम पर बाधाओं, विपत्तियों और शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मंत्र साधना ही इन सब समस्याओं पर विजय दिलाता है। शत्रुओं का सामना करने, सुख-शान्ति समृद्धि में यह साधना अति उत्तम है। शिव पुराण में वर्णित है--
भैरव: पूर्ण रूपोहि शंकर परात्मन: भूगेस्तेवैन जानंति मोहिता शिव भामया:।
देवताओं ने श्री कालभैरव की उपासना करते हुए बताया है कि काल की तरह रौद्र होने के कारण यह कालराज है। मृत्यु भी इनसे भयभीत रहती है। यह कालभैरव है इसलिए दुष्टों और शत्रुओं का नाश करने में सक्षम है। तंत्र शास्त्र के प्रव‌र्त्तक आचार्यो ने प्रत्येक उपासना कर्म की सिद्धि के लिए किए जाने वाले जप पाठ आदि कर्र्मो के आरंभ में भगवान भैरवनाथ की आज्ञा प्राप्त करने का निर्देश किया है।
अतिक्रूर महाकाय, कल्पानत-दहनोपय,भैरवाय नमस्तुभ्यमेनुझां दातुमहसि।
इससे स्पष्ट है कि सभी पुजा पाठों की आरंभिक प्रक्रिया में भैरवनाथ का स्मरण, पूजन, मंत्रजाप आवश्यक होते है। श्री काल भैरव का नाम सुनते ही बहुत से लोग भयभीत हो जाते है और कहते है कि ये उग्र देवता है। अत: इनकी साधना वाम मार्ग से होती है इसलिए यह हमारे लिए उपयोगी नहीं है। लेकिन यह मात्र उनका भ्रम है। प्रत्येक देवता सात्विक, राजस और तामस स्वरूप वाले होते है, किंतु ये स्वरूप उनके द्वारा भक्त के कार्र्यो की सिद्धि के लिए ही धरण किये जाते है। श्री कालभैरव इतने कृपालु एवं भक्तवत्सल है कि सामान्य स्मरण एवं स्तुति से ही प्रसन्न होकर भक्त के संकटों का तत्काल निवारण कर देते है।
तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है।
तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीहदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- 'विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌ सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'
भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।
श्री तंत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं
'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।
स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी 'काशी' में आकर दोष मुक्त हुए।
ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव, ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं।
भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है।
भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं।
जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्‍ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगानालाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है।
खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है।
शिव के अवतार श्री कालभैरव अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं। साथ ही इनकी आराधना करने पर हमारे कई बुरे गुण स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। आदर्श और उच्च जीवन व्यतीत करने के लिए कालभैरव से भी शिक्षा ली जा सकती हैं। जीवन प्रबंधन से जुड़े कई संदेश श्री भैरव देते हैं-
भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है। भगवान शंकर के इस अवतार से हमें अवगुणों को त्यागना सीखना चाहिए। भैरव के बारे में प्रचलित है कि ये अति क्रोधी, तामसिक गुणों वाले तथा मदिरा के सेवन करने वाले हैं। इस अवतार का मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने सारे अवगुण जैसे- मदिरापान, तामसिक भोजन, क्रोधी स्वभाव आदि भैरव को समर्पित कर पूर्णत: धर्ममय आचरण करें। भैरव अवतार हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हर कार्य सोच-विचार कर करना ही ठीक रहता है। बिना विचारे कार्य करने से पद व प्रतिष्ठा धूमिल होती है।
श्रीभैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है- विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। शनिवार 1दिसम्बर को कालभैरवाष्टमी है। इस दिन भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।
कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।
इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।
साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्‍‌व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।
इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं।