Sunday 27 September 2015

उमा महेश्वर की होली

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला,चमकती हुई आँखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भुत दृश्य की झाँकी :-
आजु सदासिव खेलत होरी
जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
तीनि आँखि सुंदर चमकेला, सरप गले लिपटोरी
उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी
हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी
लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी
भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।
शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। ऐसा लग रहा है मानो कैलाश पर्वत के ऊपर वटवृक्ष की छाया है। दिशाओं की पीले पर्दे खिंचे हुए हैं जिसकी छवि इंद्रासन जैसी दिखाई देती है। आक,धतूरा, संखिया आदि खूब पिया जा रहा है और सबने एक दूसरे को रंग लगाने की बजाय स्वयं को ही रंग लगा कर अद्भुत रूप बना लिया है, जिसे देखकर स्वयं पार्वती जी भी हँस रही हैं :-
सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी
गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चहुँ ओरी
पीत बितान तने चहुँ दिसि के, अनुपम साज सजोरी
छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी
नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी
हँसे गिरिजा मुँह मोरी।
Om Namah Shivay.
In Vedam ,Lord Siva is praised by 300 names(Namakam) and 130 boons are asked from HIM(Chamakam)--(Rudraadhyaayee)--He is ALONE is praised in VEDAM as Maha Deva,(Supreme GOD),Visveswara(Visva+Eeswara=God of Universe)--Even the word Eeswara=GOD denotes only Lord Siva. About Lord Vishnu and Devi Shakthi and Devi Lakshmi only Sookthams(praising their qualities) are there-Extensive-Namakam(Salutations in Vedic Format) are given only to lord Siva.
Om Namah Shivay.
शिव निन्दा करने वाले वैष्णव और विष्णु की बुराई करने वाले शैव इस कहानी को पढकर अपनी राय बदले और इस कहानी का आनन्द ले । ये कहानी 'कल्याण' नामक पत्रिका से ली गई हैं ।
एक समय की बात है की महर्षि गौतम भगवान शंकर को खाने पर आमंत्रित किया । उनके इस आग्रह को शिव जी ने स्वीकार कर लिया उनके साथ चलने के लिए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी तैयार हो गए ।महर्षि के आश्रम मे पहुच कर तीनो वहाँ बैठ गए ।भोले बाबा और श्री हरी विष्णु एक शय्या पर लेटकर बहुत देर तक प्रेमालाप करते रहे ।इसके बाद उन दोनो ने आश्रम के पास ही एक तालाब मे नहाने चले गए वहा पर भी वे बहुत देर तक जलक्रीडा करते रहे ।भगवान शिव जी ने पानी मे खडे श्री हरी पर जल की कोमल बुन्दो से प्रहार किया इस प्रहार को विष्णु जी सहन ना कर सके और अपनी आँखें मुँद ली। इस पर भी भगवान शिव जी को संतोष नही मिला और वे झट से कुदकर वे विष्णु जी के कंधे पर चढ गए और भगवान विष्णु को कभी पानी मे दबा देते तो कभी पानी के उपर ले आते इस प्रकार बार-बार तंग करने पर विष्णु जी ने भी अब शिव जी को पानी मे दे मारा । दोनो के इस प्रकार के खेल को देखकर देवता गण हर्षित हो रहे थे और दोनो की लीला को देखकर मन ही मन उन्हे प्रणाम कर रहे थे।
उसी समय नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे ये लीला देखकर वे सुंदर वीणा बजाने लगे और गाना भी गाने लगे उनके साथ शिव जी भी भीगे शरीर मे ही सुर से सुर मिलाने लगे फिर तो विष्णु जी भी पानी से बाहर आकर म्रदंग बजाने लगे ।जब ब्रह्मा जी ने स्वर सुना तो फिर वे भी मस्ती के इस क्रम मे शामिल हो गए।बची-खुची जो भी कसर थी वो श्री हनुमान जी ने पुरी कर दी जब वे राग आलापने लगे तो सभी चुप हो कर शान्ति से उनका संगीत सुनने लगे ।सभी देव,नाग,किन्नर,गन्धर्व आदि उस अलौकिक लीला को देख रहे थे और अपनी आँखें धन्य कर रहे थे।
उधर महर्षि गौतम ये सोचकर परेशान थे कि स्नान को गए मेरे पुज्य अतिथि गण अब तक क्यो नही आए उन्हे चिन्ता हो रही थी और इधर तो भगवान को धमाचोकड़ी मचाने से फुर्सत कहा। सब एक दुसरे के गाने बजाने मे इतने मगन थे कि उन्हे ये भी याद न रहा कि वे महर्षि गौतम के अतिथि बन यहाँ आए हैं ।फिर महर्षि गौतम ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हे भोजन के लिए मनाया आश्रम लेकर आए और भोजन परोसा ।तीनो ने भोजन करना शुरु किया ।इसके बाद हनुमान जी ने फिर संगीत गाना शुरु कर दिया।सुर मे मस्त शिव जी ने अपने एक पैर को हनुमान जी के हाथों पर और दुसरे पैर को हनुमान जी सीने,पेट,नाक,आँख आदि अंगो का स्पर्श कर वही लेट गये।यह देखकर भगवान विष्णु ने हनुमान से कहा - "हनुमान तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो शिव जी के चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर रहे है ।जिस चरणो की छाव पाने के लिए सभी देव-दानव आदि लालायीत रहते है उन चरनो की छाव सहज ही तुम्हे प्राप्त हो गये है । अनेक साधु-संत और कई साधक जन्मो तक तपस्या और साधना करते है फिर भी उन्हे ये शौभाग्य प्राप्त नही होता।मैंने भी सहस्त्र कमलो से इनकी अर्चना की थी पर ये सुख मुझे भी न मिला। आज मुझे तुमसे इर्श्या का अनुभव हो रहा हैं ।सभी लोको मे यह बात सब जानते है कि नारायण भगवान शंकर के परम प्रितीभाजन है पर यह देखकर मुझे संदेह-सा हो रहा है।" यह सुन कर भगवान शिव शंकर बोल उठे - "हे नारायण ये क्या कह रहे है आप तो मुझे प्राणो से भी प्यारे है। औरो की क्या बात है देवी पार्वती भी आपसे अधिक प्रिय नही है मेरे लिए आप तो जानते ही है।"
भगवती पार्वती जी उधर कैलाश मे ये सोचकर परेशान हो रही थीं कि आज कैलाशपति शिव जी कहा चले गये कही मुझे से रुठकर तो नही चले गये।यह सोचकर देवी पार्वती शिव जी को ढुढते- ढुढते आश्रम पहुचे और पता चला कि मेरे स्वामी शिव जी, विष्णु जीऔर ब्रह्मा जी महर्षि गौतम के यहा मेहमानी मे गये हैं ।वे भी महर्षि गौतम का परोसा खाना खाया । इसके बाद विनोदवश देवी पार्वती शिव जी के वेश-भुशा को लेकर हंसी उड़ाई और बहुत सी ऐसी बाते कही जो अक्सर पति पत्नि प्रेम से एक दुसरे को कुछ भला बुरा कहते रहते हैं।ये बात सुनकर भगवान विष्णु जी से रहा नही गया और वे बोल उठे - "देवी! ये आप क्या कह रहे है।मुझसे आपकी बात सही नही जा रही। जहाँ शिव निन्दा होती है वहाँ मैं प्राण धारण कर नही रह सकता।" इतना कहकर श्री हरी ने अपने नाखुनो से अपने ही सिर को फाड़ने लगे ।यह देखकर सभी ने उन्हे रोकने की कोशिश की पर वे नही मान रहे थे फिर शिव जी के अनुरोध पर वे रुके।
इनके इस प्रेम को देखकर हमे ये समझना चाहिए कि ये दोनो किसी भी प्रकार से अलग नही है फिर हम किस कारण विवाद करते है किसी को श्रेष्ठ और किसी को निम्न कहते है ।क्या ऐसा सोचना हमारी मुर्खता नही।
Om Namah Shivay.
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गोरखनाथ जी ने कहा है कि --
एकाएकी सिध नांउं, दोइ रमति ते साधवा !
चारि पंच कुटंब नांउं, दस बीस ते लसकरा !!
सिद्ध हमेशा अकेला है ! चाहे फ़िर कहीं भी रहे ! वह भीड मे,
सारे तमाशे मे रह कर भी अकेला ही है ! यानि सिद्ध वही जो अपने निज
मे पहुंच गया ! हो गया फ़िर वही तत्व का जानने वाला ! अपने आप मे रम गया !
हो गया नितान्त अकेला ! दुनिया दारी करता हुवा भी दुनियां मे नही है !
हो गया जीते जी भीड से बाहर ! ये हो गया अद्वैत !
इसके बाद हैं वो लोग जो अकेले पन से राजी नही हैं ! उनको एक और
चाहिये ! इनको गोरख नाथ जी ने साधू कहा है ! इनका एक से काम नही
चलता ! जैसे पति या पत्नी ! मित्र, गुरु या शिष्य, ! भक्त भी राजी नही
अकेला , उसको भी भगवान चाहिये ! इनको बस सिर्फ़ एक और चाहिये ! यानी
द्वैत ! इस स्तर पर दो मौजूद रहेंगे ! और इनको इसी लिये साधू कहा कि
चलो सिर्फ़ दो से राजी हैं ! कोई ज्यादा डिमान्ड नही है !
काफ़ी नजदीक है एक के ! सो ये भी साधू ही है !
और जो चार पांच से कम मे राजी नही है ! वो ग्रहस्थ है पक्का !
वो दो से राजी नही उसको अनेक चाहिये ! बीबी बच्चे, नौकर चाकर सब कुछ !
पहले अकेले थे, फ़िर शादी करली, इससे भी जी नही भरा ! बच्चे पैदा हो
गये ! नही भरा जी, और अब कुछ तो करना पडेगा ! इतने से राजी नही है !
तो किसी लायन्स क्लब या और कोई सन्स्था को जिन्दाबाद करेगा ... और ज्यादा
ही उपद्रवी हुवा तो फ़िर उसके लिये तो कोई भी राजनैतिक पार्टी इन्तजार
ही कर रही होगी ! इतने बडे उपद्रवी आदमी को तो किसी पार्टी मे ही
होना चाहिये ! यानी ये बिना उपद्रव करे मानेगा नही !
और जो लोग दस बीस की भीड से राजी नही , जिनको पूरा फ़ौज
फ़ांटा चाहिये ! और जो किसी कीमत पर सन्तुश्ट नही है वो होता है
असली सन्सारी !
सिद्ध गोरखनाथजी ने ये चार तरह के मनुष्य बताए हैं ! अब हम इस कहानी
पर मनन करते हुये दो चार मिनट का मौन यानि अन्तरतम का मौन भी
रख सके तो गुरु गोरख की सीख सफ़ल ही कही जायेगी ! आज तो उनका
नाम भी लेना फ़ैशन के विरुद्ध है ! यानि हम उमर खैयाम को भी वाया
फ़िटजेराल्ड पढना पसन्द करते हैं ! और वही होगा जो उमर खैयाम के
साथ हुआ ! मित्रो आपके पास ज्यादा नही तो एक मिनट का समय तो होगा ही !
मेरे कहने से आप एक मिनट ही कोशीश करके मौन रखने की कोशीश करें !
क्या पता कब परमात्मा , कौन सी घडी मे आपके उपर बरस पडे !

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