Monday 22 August 2016

वेदोंका विभाग भगवान् व्यासजीने किया है ।



    भारतवर्ष में प्रचलित प्रायः समस्त सम्प्रदायोंने  भगवान् के ज्ञानावतार वेदव्यासजीको वेदोंका विभागकरता स्वीकार किया है । किन्तु आधुनिक समयमें स्वघोषित आर्योंने पुराणोंकी निन्दा करने में कोई कमी नहीं छोड़ी और पुराणोंके वचन का सर्वदा विरोध ही किया कि व्यासजीने वेदोंका विभाग कैसे किया ? जबकि वेदोंके अनुसार तो परमात्माने ही "ऋक्०,यजु०,साम० आदि वेद ऋषियोंको प्रदान किये ?    
   अब इसका समाधान करना भी आवश्यक है ,यद्यपि परमात्मा ने "ऋक्,यजु,साम " आदि वेद ऋषियोंको प्रदान किये तथापि वेदोंको चार भागोंमें व्यासजी ने किया । भगवान् ने ब्रह्माजीको "ऋक्,यजु,साम" वेद मन्त्र प्रदान किये थे  । अर्थात् - पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विरामका निश्चित नियम रहता है । अतः निश्चित अक्षर संख्या और पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रोंकी संज्ञा "ऋक् " है जो कि पद्यात्मक है । जिन मन्त्रोंमें छंदके नियमानुसार अक्षर-संख्या और पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं हैं ,वे गद्य हैं उन मन्त्रोंकी संज्ञा "यजु:" है जो कि पद्यात्मक है , और जितने मन्त्र गानात्मक हैं वे मन्त्र "साम"कहलाते हैं जो कि गीत हैं । ऋग्वेद "ऋक्" मन्त्रोंके कारण ऋग्वेदमें मात्र पद्यात्मक ही मन्त्र होते जबकि ऋग्वेदमें पद्यात्मक मन्त्रों का बाहुल्य तो ,किन्तु ऋग्वेद में गद्यात्मक मन्त्र और साममन्त्र भी हैं । इसीप्रकार यजुर्वेदमें केवल गद्यात्मक मन्त्र ही होने चाहिये थे जबकि यजुर्वेदमें पद्यात्मक मन्त्र भी हैं , यजुर्वेद में ऋग्वेद और अथर्ववेदके मन्त्र भी हैं इसीप्रकार सामवेदमें सम्पूर्ण मन्त्र ऋग्वेदके ही मन्त्र हैं , सामवेदके १८७५ मन्त्रोंमें १८०० मन्त्र ऋग्वेदकी शाकल शाखा में पाये जाते हैं और बाकी ७५ मन्त्र शांखायन शाखाके हैं ।  अथर्ववेद में तीनों मन्त्र "ऋक्,यजु:,साम" पाये जाते हैं इसलिए अथर्ववेद का नाम मन्त्रोके कारण न होकर प्रतिपाद्यविषयके कारण है । भगवान् वेदव्यासजीने "ऋक्,यजु:,साम" मन्त्रों का अलग अलग विभाग करके ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद को अपने शिष्य पैल ,वैशम्पायन,जैमिनी और सुमन्तु को पढ़ाया । जिन मन्त्रोंमें पद्य अधिक हैं उन्हें ऋग्वेद ,जिन मन्त्रोंमें गद्य अधिक हैं उन्हें यजुर्वेद,जिन मन्त्रोंमें साम अधिक हैं उन मन्त्रोंको सामवेद और जिन "ऋक्,यजु:,साम " तीनों मन्त्रों का अथर्ववेद का विभाग किया । अब गुरुमुख श्रवणकी स्वस्थ्य परम्परा का लोप होने से ज्ञान कहाँ से होगा ?

Tuesday 16 August 2016

सच्ची गुरुदक्षिणा

प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।
उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूँ वापस करना है। जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।
एक शिष्य गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पुट्टल बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।
कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो उन्होंने जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पुट्टल बताई जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पुट्टल के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उससे अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा- गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ हैं और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।
लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बाँटता है वही श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। मूलतः गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है।

सबसे बड़ा संयम है मौन

मौन रहने व कम बोलने से ना केवल हमारी वाणी का संयम होता है, अपितु इससे हमारी जीवनी शक्ति का भी संचय होता है। मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों व उनसे उत्पन्न होने वाली बड़ी परेशानियों से बचा लेता है। इसके विपरीत जो आदतन चुप नहीं रह सकते, अपनी समझदारी का बखान करने के लिए एक के बदले दस जवाब देते हैं, उनकी बड़ी परेशानियों में फंसने की संभावनाएं अधिक रहती है। मौन रहने से भी अभिव्यक्तियां प्रकट होती है, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती और यह भी अपना प्रभाव दिखाता है।
केवल न बोलना ही मौन नहीं है। अक्सर लोग वाणी के विराम को मौन समझ लेते है। लेकिन यदि  किसी के मन में विचारों की उथल- पुथल हो रहीं हो या उसके भीतर मन में किली अन्य व्यक्ति के लिए द्वेष का ज्वार उठ रहा हो तो इसे मौन नहीं कह सकते। वाणी पर संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंत: मौन। जबकि वास्तविक व पूर्ण मौन वह है, जिसमें मन और वाणी दोनों ही पूरी तरह शांत हो।
मौन हमारी इंद्रियों को संयमित रखता है। इसके द्वारा वाणी के माध्यम से व्यय होने वाली ऊर्जा का संरक्षण होता है। इसलिए कहा जाता है कि जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है, वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है।
ऐसा नहीं है कि हर समय मौन रहने की आवश्यकता है। जहां जरूरी है, वहां अवश्य बोलना चाहिए, सारगर्भित शब्दों में स्वंय को अभिव्यक्त करना चाहिए और व्यर्थ के वाद-विवादों से यथा-संभव बचना चाहिए।

जानिए किन चार तरह के व्यक्तियों को नींद नहीं आती-



‘महाभारत’ की कथा के महत्वपूर्ण पात्र विदुर को कौरव-वंश की गाथा में विशेष स्थान प्राप्त है। विदुर हस्तिनापुर राज्य के शीर्ष स्तंभों में से एक अत्यंत नीतिपूर्ण, न्यायोचित सलाह देने वाले माने गए है।

वे जो सलाह देते थे, उसमें संपूर्ण मनुष्य जाति का भला छिपा होता था। उनकी  इन सलाहों को विदुर नीति के नाम से जाना जाता है...।

विदुर का कहना था, कोई भी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों के जीवन में ये चार बातें होती हैं, तब उसकी नींद उड़ जाती है और मन अशांत हो जाता है। ये चार बातें कौन-कौन सी हैं, आईये जानते हैं।

➡ जब किसी स्त्री या पुरुष की शत्रुता उससे अधिक  बलवान व्यक्ति से हो जाती है तो भी उसकी नींद उड़ जाती है। निर्बल और साधनहीन व्यक्ति हर पल बलवान शत्रु से बचने के उपाय सोचता रहता है क्यूंकि उसे हमेशा यह भय सताता है कि कहीं बलवान शत्रु की वजह से कोई अनहोनी न हो जाए।

➡ विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा कि यदि किसी व्यक्ति के मन में कामभाव जाग गया हो तो उसकी नींदें उड़ जाती है और जब तक उस व्यक्ति की काम भावना तृप्त नहीं हो जाती तब तक वह सो नहीं सकता है।

➡ यदि किसी व्यक्ति का सब कुछ छीन लिया गया हो तो उसकी रातों की नींद उड़ जाती है। ऐसा इंसान न तो चैन से जी पाता है और ना ही सो पाता है। इस परिस्थिति में व्यक्ति हर पल छीनी  हुई वस्तुओं को पुन: पाने की योजनाएं बनाता  रहता है और जब तक वह अपनी वस्तुएं पुन: पा नहीं लेता है, तब तक उसे नींद नहीं आती है।

➡ यदि किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति चोरी की है या जो चोरी करके ही अपने उदर की पूर्ति करता है, जिसे चोरी करने की आदत पड़ गई है, जो दूसरों का धन चुराने की योजनाएं बनाते रहता है, उसे भी नींद नहीं आती है। चोर हमेशा रात में चोरी करता है और दिन में इस बात से डरता है कि कहीं उसकी चोरी पकड़ी ना जाए। इस वजह से उसकी नींद भी उड़ी रहती है।

ये चारों बातें व्यवहारिक और हर युग में सटीक मालूम पड़ती हैं, उम्मीद करते हैं कि महात्मा विदुर की बातों से आप भी अपनी सीख लेंगे और दूसरों को भी प्रेरित करेंगे।

कर्ण की धर्मनिष्ठता

कर्ण कौरवों की सेना में होते हुए भी महान धर्मनिष्ठ योद्धा थे। भगवान श्रीकृष्ण तक उनकी प्रशंसा करते थे। महाभारत युद्ध में कर्ण ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की थी। उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प अश्वसेन ने इसे उपयुक्त अवसर समझा। अर्जुन से वह शत्रुता तो रखता था, पर काटने का अवसर नहीं मिलता था।  वह बाण  बनकर कर्ण के तरकस में जा घुसा, ताकि  जब उसे धनुष पर रखकर अर्जुन तक पहुँचाया जाए, तो अर्जुन को काटकर प्राण हर ले।
कर्ण  के बाण चले। अश्वसेन वाला बाण भी चला, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ-घोड़े जमीन पर बिठा दिए। बाण मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया।
असफलता पर क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण से बोला, "अबकी बार अधिक सावधानी से बाण चलाना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना। इस बार अर्जुन वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीवित रहने न देगा।"
इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस कालसर्प से पूछा, "आप कौन हैं और अर्जुन को मारने में इतनी रूचि क्यों रखते हैं?"

सर्प ने कहा "अर्जुन ने एक बार खण्डव वन में आग लगाकर  मेरे परिवार को मार दिया था, इसलिए उसी का प्रतिशोध लेने के लिए मैं व्याकुल रहता हूँ। उस तक पहुँचने का अवसर न मिलने पर आपके तरकस में बाण के रूप में आया हूँ। आपके माध्यम से अपना आक्रोश पूरा करूँगा।"

कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा, "भद्र, मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति युद्ध लड़ने दीजिए। आपकी अनीतियुक्त सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा है।"

कालसर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया। उसने कहा, "कर्ण तुम्हारी यह धर्मनिष्ठा ही सत्य है, जिसमे अनीतियुक्त पूर्वाग्रह को छद्म की कहीं स्थान नहीं।"

रात्रि में शिवलिंग के पास दीपक जलाने के ये है फायदे



हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस माह में शिवजी की सामान्य पूजा करने पर भी अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। शिवपुराण में शिवजी और सृष्टि के निर्माण से जुड़ी कई रहस्यमयी बातें बताई गई हैं। इस पुराण में कई उपाय भी बताए गए हैं, जो जीवन की सभी समस्याओं को दूर कर सकते हैं। साथ ही, इन उपायों से मानसिक शांति और प्रसन्नता प्राप्त होती है, पिछले समय में किए गए पापों का नाश होता है। शिवपुराण में बताया गया है कि रात के समय शिवलिंग के पास दीपक जलाने से बहुत जल्दी शिवजी की कृपा प्राप्त हो जाती है। इस उपाय से जुड़ी एक प्राचीन कथा भी बताई गई है।

रात के समय दीपक जलाने से जुड़ी कथा

कथा के अनुसार प्राचीन काल में गुणनिधि नामक व्यक्ति बहुत गरीब था और वह भोजन की खोज में लगा हुआ था। इस खोज में रात हो गई और वह एक शिव मंदिर में पहुंच गया। गुणनिधि ने सोचा कि उसे रात्रि विश्राम इसी मंदिर में कर लेना चाहिए। रात के समय वहां अत्यधिक अंधेरा हो गया। इस अंधकार को दूर करने के लिए उसने शिव मंदिर में अपनी कमीज जलाई थी। रात्रि के समय भगवान शिवलिंग के पास प्रकाश करने के फलस्वरूप से उस व्यक्ति को अगले जन्म में देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर देव का पद प्राप्त हुआ। इस कथा के अनुसार ही शाम के समय शिव मंदिर में दीपक लगाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। अत: नियमित रूप से रात्रि के समय किसी भी शिवलिंग के समक्ष दीपक जलाना चाहिए। विशेष रूप से सावन माह में यह उपाय जल्दी शुभ फल प्रदान करता है। दीपक लगाते समय ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए।

राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ी_


महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है...!
आपको यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया था..... जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :
... क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन
1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21
इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14
इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13
ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण इस प्रकार है ..
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0
उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13
टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।
इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0
रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29
इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19
लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1
पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. ....शासक का नाम... वर्ष... माह ....दिन...
1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27
विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।
इस जानकारी का स्रोत चित्तौड़गढ़ राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका हरिशचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका के विक्रम संवत 1939 के अंक और कुछ अन्य संस्कृत ग्रंथ है।

विश्व के शीर्ष दस आविष्कार जो भारत ने किए :-


बहुत से लोग यह मानते या कहते पाए गए हैं कि पश्चिम ने विश्व को विज्ञान दिया और पूर्व ने धर्म | दूसरी ओर हमारे ही भारतीय लोग यह कहते हुए भी पाए गए हैं कि भारत में कोई वैज्ञानिक सोच कभी नहीं रही | ऐसे लोग अपने अधूरे ज्ञान का परिचय देते हैं या फिर वे भारत विरोधी हैं |
भारत के बगैर न धर्म की कल्पना की जा सकती है और न विज्ञान की | हमारे भारतीय ऋषि-मुनियों और वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे आविष्कार किए और सिद्धांत गढ़े हैं कि जिनके बल पर ही आज के आध‍ुनिक विज्ञान और दुनिया का चेहरा बदल गया है | सोचिए 0 (शून्य) नहीं होता तो क्या हम गणित की कल्पना कर सकते थे ?, दशमलव (.) नहीं होता तो क्या होता ?, इसी तरह भारत ने कई मूल: आविष्कार और सिद्धांतों की रचना की | आइए जानते हैं, उनमें से खास दस आविष्कार जिन्होंने बदल दिया विश्व को
1. विमान :- इतिहास की किताबों और स्कूलों के कोर्स में पढ़ाया जाता है कि विमान का आविष्कार राइट ब्रदर्स ने किया, लेकिन यह गलत है | हाँ, यह ठीक है कि आज के आधुनिक विमान की शुरुआत ओरविल और विल्बुर राइट बंधुओं ने 1903 में की थी | लेकिन उनसे हजारों वर्ष पूर्व ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र लिखा था जिसमें हवाई जहाज बनाने की तकनीक का वर्णन मिलता है | चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ में एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए थे |
‘गोधा’ ऐसा विमान था, जो अदृश्य हो सकता था | ‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था | ‘प्रलय’ एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था | ‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था, जो देखने में बादल की भांति दिखता था |
स्कंद पुराण के खंड 3 अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया-जाया सकता था | रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीता जी को हर ले गया था |
2.अस्त्र-शस्त्र :- धनुष-बाण, भाला या तलवार की बात नहीं कर रहे हैं | इसका आविष्कार तो भारत में हुआ ही है लेकिन हम आग्नेय अस्त्रों की बात कर रहे हैं | आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, पाशुपतास्त्र, सर्पास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि अनेक ऐसे अस्त्र हैं जिसका आधुनिक रूप बंदूक, मशीनगन, तोप, मिसाइल, विषैली गैस तथा परमाणु अस्त्र हैं |
वेद और पुराणों में निम्न अस्त्रों का वर्णन मिलता है :- इन्द्र अस्त्र, आग्नेय अस्त्र, वरुण अस्त्र, नाग अस्त्र, नाग पाशा, वायु अस्त्र, सूर्य अस्त्र, चतुर्दिश अस्त्र, वज्र अस्त्र, मोहिनी अस्त्र, त्वाश्तर अस्त्र, सम्मोहन/ प्रमोहना अस्त्र, पर्वता अस्त्र, ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मसिर्षा अस्त्र, नारायणा अस्त्र, वैष्णव अस्त्र, पाशुपत अस्त्र आदि |
महाभारत के युद्ध में कई प्रलयकारी अस्त्रों का प्रयोग हुआ है | उसमें से एक था ब्रह्मास्त्र | आधुनिक काल में परमाणु बम के जनक जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर ने गीता और महाभारत का गहन अध्ययन किया | उन्होंने महाभारत में बताए गए ब्रह्मास्त्र की संहारक क्षमता पर शोध किया और अपने मिशन को नाम दिया ट्रिनिटी (त्रिदेव)। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 के बीच वैज्ञानिकों की एक टीम ने यह कार्य किया | 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परमाणु परीक्षण किया गया |
परमाणु सिद्धांत और अस्त्र के जनक जॉन डाल्टन को माना जाता है, लेकिन उनसे भी 2,500 वर्ष पूर्व ऋषि कणाद ने वेदों में लिखे सूत्रों के आधार पर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया था | भारतीय इतिहास में ऋषि कणाद को परमाणुशास्त्र का जनक माना जाता है | आचार्य कणाद ने बताया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं | कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे | विख्यात इतिहासज्ञ टीएन कोलेबु्रक ने लिखा है कि अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ यूरोपीय वैज्ञानिकों की तुलना में विश्वविख्यात थे |
3.पहिए का आविष्कार :- आज से 5,000 और कुछ 100 वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें रथों के उपयोग का वर्णन है | जरा सोचिए पहिए नहीं होते तो क्या रथ चल पाता ? इससे सिद्ध होता है कि पहिये 5,000 वर्ष पूर्व थे | पहिए का आविष्कार मानव विज्ञान के इतिहास में महत्वपूर्ण उपलब्धि थी | पहिए के आविष्कार के बाद ही साइकल और फिर कार तक का सफर पूरा हुआ | इससे मानव को गति मिली | गति से जीवन में परिवर्तन आया | हमारे पश्चिरमी विद्वान पहिए के आविष्कार का श्रेय इराक को देते हैं, जहाँ रेतीले मैदान हैं, जबकि इराक के लोग 19वीं सदी तक रेगिस्तान में ऊंटों की सवारी करते रहे |
हालांकि रामायण और महाभारतकाल से पहले ही पहिए का चमत्कारी आविष्कार भारत में हो चुका था और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था | विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से प्राप्त (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलौना हाथीगाड़ी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रमाणस्वरूप रखी है | सिर्फ यह हाथीगाड़ी ही प्रमाणित करती है कि विश्व में पहिए का निर्माण इराक में नहीं, बल्कि भारत में ही हुआ था |
4.प्लास्टिक सर्जरी :- जी हाँ, प्लास्टिक सर्जरी के आविष्कार से विश्व में क्रांति आ गई | पश्चिम के लोगों के अनुसार प्लास्टिक सर्जरी आधुनिक विज्ञान की देन है | प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- ‘शरीर के किसी हिस्से को ठीक करना’ भारत में सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है | आज से करीब 3,000 साल पहले सुश्रुत युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनके अंग-भंग हो जाते थे या नाक खराब हो जाती थी, तो उन्हें ठीक करने का काम वे करते थे |
सुश्रुत ने 1,000 ईसापूर्व अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे | हालांकि कुछ लोग सुश्रुत का काल 800 ईसापूर्व का मानते हैं | सुश्रुत से पहले धन्वंतरि हुए थे |
5. बिजली का आविष्कार :- महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे | निश्चित ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया | उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली |
महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे | इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है | ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की | आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌ |
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि: ||
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत: |
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌ || अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा | अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है | उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं |
6. बटन :- आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि शर्ट के बटन का आविष्कार भारत में हुआ | इसका सबसे पहला प्रमाण मोहन जोदड़ो की खुदाई में प्राप्त हुआ | खुदाई में बटनें पाई गई हैं | सिन्धु नदी के पास आज से 2500 से 3000 पहले यह सभ्यता अपने अस्तित्व में थी |
7. ज्यामिति :- बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्व सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता हैं | पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्या‍मितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं | दरअसल, 2800 वर्ष (800 ईसापूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी |
उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था | शुल्व शास्त्र के आधार पर विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाई जाती थीं | दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौधायन ने सुलझाया |
8. रेडियो :- इतिहास की किताब में बताया जाता है कि रेडियो का आविष्कार जी. मार्कोनी ने किया था, लेकिन यह सरासर गलत है | अंग्रेज काल में मार्कोनी को भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु के लाल डायरी के नोट मिले जिसके आधार पर उन्होंने रेडियो का आविष्कार किया | मार्कोनी को 1909 में वायरलेस टेलीग्राफी के लिए नोबेल पुरस्कार मिला | लेकिन संचार के लिए रेडियो तरंगों का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन मिलीमीटर तरंगें और क्रेस्कोग्राफ सिद्धांत के खोजकर्ता जगदीश चंद्र बसु ने 1895 में किया था |
इसके 2 साल बाद ही मार्कोनी ने प्रदर्शन किया और सारा श्रेय वे ले गए | चूंकि भारत उस समय एक गुलाम देश था इसलिए जगदीश चंद्र बसु को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया | दूसरी ओर वे अपने आविष्कार का पेटेंट कराने में असफल रहे जिसके चलते मार्कोनी को रेडियो का आविष्कारक माना जाने लगा | संचार की दुनिया में रेडियो का आविष्कार सबसे बड़ी सफलता है | आज इसके आविष्कार के बाद ही टेलीविजन और मोबाइल क्रांति संभव हो पाई है |
9. गुरुत्वाकर्षण नियम :- हलांकि वेदों में गुरुत्वाकर्षन के नियम का स्पष्ट उल्लेख है लेकिन प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री भास्कराचार्य ने इस पर एक ग्रंथ लिखा ‘सिद्धांतशिरोमणि’ इस ग्रंथ का अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ और यह सिद्धांत यूरोप में प्रचारित हुआ | न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण के नियम को जानकर विस्तार से लिखा था और उन्होंने अपने दूसरे ग्रंथ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ में इसका उल्लेख भी किया है |
गुरुत्वाकर्षण के नियम के संबंध में उन्होंने लिखा है, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्वशक्ति से अपनी ओर खींच लेती है। इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है।’ इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी में गुत्वाकर्षण की शक्ति है।
भास्कराचार्य द्वारा ग्रंथ ‘लीलावती’ में गणित और खगोल विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रंथ की रचना की | इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्यग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढंक लेती है तो चन्द्रग्रहण होता है | यह पहला लिखित प्रमाण था जबकि लोगों को गुरुत्वाकर्षण, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक जानकारी थी |
10. भाषा का व्याकरण :- विश्व का पहला व्याकरण पाणिनी ने लिखा | 500 ईसा पूर्व पाणिनी ने भाषा के शुद्ध प्रयोगों की सीमा का निर्धारण किया | उन्होंने भाषा को सबसे सुव्यवस्थित रूप दिया और संस्कृत भाषा का व्याकरणबद्ध किया | इनके व्याकरण का नाम है अष्टाध्यायी जिसमें 8 अध्याय और लगभग 4 सहस्र सूत्र हैं | व्याकरण के इस महनीय ग्रंथ में पाणिनी ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संग्रहीत किए हैं |
अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है | इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है | उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं |
इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था, जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब तत्कालीन उत्तर-पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था | हालांकि पाणिनी के पूर्व भी विद्वानों ने संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया लेकिन पाणिनी का शास्त्र सबसे प्रसिद्ध हुआ |
19वीं सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी फ्रेंज बॉप (14 सितंबर 1791- 23 अक्टूबर 1867) ने पाणिनी के कार्यों पर शोध किया | उन्हें पाणिनी के लिखे हुए ग्रंथों तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के सूत्र मिले | आधुनिक भाषा विज्ञान को पाणिनी के लिखे ग्रंथ से बहुत मदद मिली | विश्व की सभी भाषाओं के विकास में पाणिनी के ग्रंथ का योगदान है |
इस तरह ऐसे सैंकड़ों आविष्कार है जो भारत के लोगों ने किए लेकिन चूंकि पश्चिम ने विश्व पर राज किया इसलिए इतिहास उन्होंने ही लिखा और उन्होंने साजिश के तहत खुद के दार्शनिक और वैज्ञानिकों को महिमामंडित किया |
हमें गर्व है की हमनें भारत भूमि में जन्म लिया | समस्त मित्रों से नम्र निवेदन है की हिंदुत्व के "सूक्ष्म विज्ञान" व आध्यात्म के ज्ञान को और भी अटूट करने के लिए शेयर करने में गर्व महसूस करें

ध्यान-योग


ध्यान तीन प्रकार का है- 1 स्थूल-ध्यान 2 ज्योतिर्ध्यान और 3 सूक्ष्म-ध्यान। स्थूल-ध्यान वह कहा जाता है जिसमें मूर्तिमान् अभीष्ट देवता का अथवा गुरू का चिन्तन किया जाय। जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाय उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं और जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।
स्थूल ध्यान- स्थूल चीजो के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते है।
प्रथम-ध्यान-
साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे है। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं। इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं।
साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है।
फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर आपका इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है।
द्वितीय-ध्यान-
हमारे हृदय के मध्य अनाहत नाम का चोथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः – चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताअप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है।
अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है। साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान शिव विराजमान है, उनकी दो भुजाऐं है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है।
उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों कि माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा शक्ति शोभा दे रही है। इस प्रकार शिव का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान सिद्ध होता है।
तृतीय-ध्यान-
विश्वसारतंत्र में लिखा है कि – मस्तक में जो शुभ्र-वर्ण का कमल है, योगी प्रभात-काल में उस पदम् में गुरू का ध्यान करते है कि वह शांत, त्रिनेत्र, द्विभुज है और वह वर एवं अभय मुद्रा धारण किये हुये है। इस प्रकार यह ध्यान, गुरू का स्थूल ध्यान है।
कंकालमालिनी तन्त्र में लिखा है कि- साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैं, वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में शक्ति विराजमान है।
इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्तवर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे।
ज्योतिर्ध्यानः-
मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सार्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करे।
एक ओर प्रकार का तेजो-ध्यान है कि भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। इसको तेजो-ध्यान या ज्योतिर्ध्यान कहते हैं।
सूक्ष्म ध्यानः-
पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र-मार्ग से निकलकर उर्ध्व-भागस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है।
इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है। साधक शाम्भवी-मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म-ध्यान कहते हैं। इस दुर्लभ ध्यान-योग द्वारा- आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।
शाम्भवी-मुद्राः-
शाम्भवी मुद्रा का वर्णन आरम्भ करते हुए प्रथम उसका महत्व प्रकट किया है कि यह मुद्रा परम गोपनीय है। यह कुलवधु के समान है, और वेदादि के सर्व सुलभ होने के कारण इसे गणिका के समान बताकर शाम्भवी-मुद्रा की श्रेष्ठता ही व्यक्त की गई है। शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ।
ॐ त्वमसि आदि महाकाव्यों से जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है।
भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे, अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक कि आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इस को ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।
यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है।
इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है। इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग सरल योग दूसरा नहीं है। इसे गुरूद्वारा प्राप्त करने की जरूरत है।
शाम्भवी- मुद्रा करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है।
शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है। ऐसा भी ध्यान करे कि आत्मा आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है।
ध्यानबिन्दू -उपनिषद् के प्रारम्भ में ही कहा है कि- यदि पर्वत के समान अनेक योजन विस्तीर्ण पाप भी हों तो भी वे ध्यान योग से नष्ट हो जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से भी नष्ट नहीं होते।

जप योग



जप का अर्थ है – ‘ज’ का अर्थ है जन्म का रूक जाना। ‘प’ का अर्थ है पाप का नाश होना। इसीलिए पाप को मिटाने वाले और पुनर्जन्म प्रक्रिया रोकने वाले को जप कहा गया है।
“गीता मे श्री कृष्ण जी ने कहा है कि- यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ।”
शब्द की शक्ति के बारे में भारद्वाज-गायत्री-व्याख्यान नामक ग्रंथ में कहा गया है कि- समस्त यज्ञों में जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है।
अन्य यज्ञों में तो हिंसा होती है, किन्तु जप यज्ञ हिंसा से नहीं होता। जितने भी कर्म, यज्ञ, दान तप है, वे समस्त जप की 16वीं कला के समान भी नहीं होते।
जप द्वारा स्तुति किये गये देवता प्रसन्न हो कर बड़े-बड़े भोगों को तथा अक्षय शक्ति को प्रदान करते है। जप करने वाले द्विज को दूर से देखते ही राक्षस, बेताल, भूत, प्रेत, पिशाच आदि भय से भयभीत होकर भाग जाते है।
इस कारण समस्त पुण्य साधनों में जप सर्व-श्रेष्ठ है। इस प्रकार जान कर साधक को सर्वथा जप-परायण होना चाहिये।
किसी भी शब्द के जाप का प्रभाव आपके ऊपर अवश्य आयेगा। अगर आप सात्त्विक-मन्त्र का जाप करते है, तो धीरे-धीरे आपके बुरे विचार, भाव, स्वभाव घटने लगते है और सत्य, प्रेम, न्याय, इमानदारी, सन्तोष, शान्ति, पवित्रता, नम्रता, संयम, सेवा, दया और उदारता जैसे सद्गुण बढ़ने लगते है।
इसके विपरीत अगर आप तामसिक-मन्त्र का जाप करते है तो आपका स्वभाव भी उस मन्त्र के अनुसार ही तामसिक हो जायेगा। आप ने अधिकतर देखा होगा की, काली और भैरव के मन्त्रों का जाप करने वाले या इनकी उपासना करने वाले साधकों के अंदर क्रोध अधिक होता है।
तामसिक मन्त्रों के जाप के प्रभाव से, इन साधकों का स्वभाव उग्र हो जाता है। हजारों में से कोई एक रामकृष्ण-परमहंस जैसा बन पाता है। जो कि काली की उपासना करने के उपरान्त भी शान्त चित्त होता है। काली की साधना के समय अगर आप के अन्दर मातृ-भाव है, तो आप का स्वभाव अवश्य ही शान्त होगा।
प्रत्येक मंत्र का वही प्रभाव होगा जैसा की आपके मन का भाव होगा। अगर आपके मन में दास-भाव है, तो शब्द की शक्ति मालिक के रूप में प्रकट होगी, अगर आपके मन में प्रेम भाव है, तो वह शक्ति प्रेमी के रूप में प्रकट होगी, अगर आपके मन में सुदामा की तरह सखा भाव है, तो वह शब्द शक्ति एक मित्र की तरह आप के ऊपर कृपा करेगी।
🎪 जाप एवं आयु 🎪
शब्द के जाप के द्वारा आयु की वृद्धि के लाभों की वैज्ञानिक व्याख्या भी विद्वानों ने की है। 24 घंटे में प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति 21,600 साँस लेता है अर्थात् 1 मिनट में 15 बार, एक स्वस्थ व्यक्ति साँस लेता है। यदि किसी तरह इन साँसों की संख्या को कम किया जा सके तो आयु वृद्धि सुनिश्चित है।
जिन व्यक्तियों को कोई भी बीमारी है, खासकर जिन को उच्च रक्तदाब (हाई ब्लड़प्रेशर) है। ऐसे व्यक्ति 1 मिन्ट में 15 से अधिक साँस लेते है। जिससे उनकी आयु का क्षय होता है, अर्थात् आयु कम होती है।
इसके अलावा जो व्यक्ति अधिक क्रोध करते है, या जिन में अत्यधिक कामुक्ता है या जो अत्यधिक सम्भोग करते है, उनकी भी आयु कम होने लगती है। क्योंकि क्रोध के वक्त एवं सम्भोग के वक्त, एक स्वस्थ व्यक्ति 15 से अधिक साँस लेता है।
इसलिये अगर आप अपने क्रोध और कामवासना पर काबू रखते है, तो आप अपनी आयु को बढ़ा सकते है। आयु को बढ़ाने में प्राणायाम – योग की ऐसी सशक्त क्रिया है, जिसके द्वारा साँसों पर काबू पाया जा सकता है।
जाप से भी ऐसा ही होता है। अगर आप ध्यान-पूर्वक जाप करेंगे, तो देखेगें की जाप के दौरान आपके साँसों की संख्या एक मिनट में 15 के स्थान पर 7 या 8 रह गई है। यदि आप एक घन्टा प्रतिदिन जाप करते है, तो लगभग 500 साँसो की वृद्धि आपकी आयु में हो जाती है।
इस तरह यदि आप प्रतिदिन एक घन्टा जाप करें, तो आपकी आयु में कई सालों की वृद्धि हो सकती है। जाप के द्वारा ही आप का ध्यान लगता है। जप के वक्त शब्द-शक्ति प्रकट होती है। जिससे आपकी धारणा परिपक्व होती है। धारणा के परिपक्व होने पर ही समाधी की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी।
जप के लिये जिन चीजों की मूल आवश्यकता है वह है–
साधक के पहनने के वस्त्र, साधक का आसन, साधक का पूजा स्थल एवं साधक की माला। साधक जिस भी विद्या क्षेत्र से दीक्षित हो उसी के अनुसार साधक के वस्त्र, आसन एवं माला हो। साधक का साधना स्थल स्वच्छ एवं पवित्र हो।
साधना स्थल में साधक शुद्ध घी का दीपक एवं धूप या अगरबती जलाऐं। गुरू की आज्ञा अनुसार अपने इष्ट का आवाहान, ध्यान, जप, समर्पण व विसर्जन करें, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार बिना पंचांग पूजा के सिद्धि सम्भव नहीं है।
शास्त्रों में आवाहान, ध्यान, जप, समर्पण व विसर्जन को ही पंचांग पूजा कहा गया है। इसलिये हर साधक को पंचांग पूजा अनिवार्य रूप से करनी चाहिये। सही मायने में पंचांग पूजा ही पंच तत्त्व की पूजा है। शास्त्रों में पंचोपचार व षोड़शोपचार पूजा का विधान भी है।
अधिकतर साधक पंचोपचार व षोड़शोपचार पूजा को ही जानतें हैं। बहुत ही कम साधक पंचांग पूजा को जानते हैं, किन्तु जो साधक पंचांग पूजा को जानते हैं, सिद्धि उनसे कभी भी दूर नहीं रह सकती।
पंचांग पूजा का अर्थ है–
1 अपने इष्ट का आवाहन करना,
2 अपने इष्ट का ध्यान करना,
3 अपने इष्ट के मूल मंत्र का यथा शक्ति जाप करना,
4 आपने जो भी जाप किया है, उस जाप को इष्ट के चरणों में समर्पित करना,
5 अपने इष्ट का विसर्जन करना।
किन्तु गायत्री का आवाहन और विसर्जन नहीं होता क्योकि गायत्री-तंत्र के अनुसार- गायत्री ही जीव-आत्मा है और जीव-आत्मा हम स्वयं हैं। इसलिये जीव अपनी आत्मा का आवाहन और विसर्जन नहीं कर सकता।

ॐकार-साधना


ॐकार-साधना ‘नाद-योग’ की उच्चस्तरीय साधना है। आरम्भिक अभ्यासी को प्रकृति प्रवाह से उत्पन्न विविध स्तर की आहत-परिचित ध्वनियाँ सूक्ष्म कणेंन्द्रियों से सुनाई पड़ती हैं। इनके सहारे मन को ‘वशवर्ती’ बनाने तथा ‘प्रकृति-क्षेत्र’ में चल रही हलचलों को जानने तथा उन्हें मोड़ने-मरोड़ने की सामर्थ्य मिलती है, आगे चलकर अनाहत क्षेत्र आ जाता है।
स्वयंभू-ध्वनि प्रवाह जिसे परब्रह्म का अनुभव में आ सकने वाला स्वरूप कह सकते है। यदि किसी के सघन सम्पर्क में आ सके तो उसे अध्यात्म क्षेत्र का सिद्ध पुरूष भी कह सकते है।
भगवान का सर्वश्रेष्ठ नाम ‘ओउम्’ है। यह स्वयं-भू है।
जिसकी ध्वनि ‘नाभि-देश’ से आरम्भ होकर ‘कण्ठमूल’ और ‘मुखाग्र’ तक चली जाती है। यह ‘ओउम्’ साढ़े तीन अक्षरों का विनिर्मित है-1 ओ, 2 उ, 3 म् – ओं के उच्चारण में अर्धबिन्दु लगा है, इसे चन्द्रबिन्दु अथवा अर्धमात्रा भी कहते है।
उसे आधा-अक्षर माना गया है, इस प्रकार साढ़े तीन अक्षर का मन्त्रराज ‘ओउम्’ कहलाता है। इसका उच्चाण कंठ, होठ, मुख, जिह्वा से होता है, पर इसका बीज कुण्डलिनी में सन्निहित है। जब ध्वनि और प्राण दोनों मिल जाते हैं। तव उसका समग्र प्रभाव उत्पन्न होता है।
स्वामी विवेकानन्द ने ‘ओउम्’ शब्द को समस्त नाम तथा रूपांतरो की एक जननी (मदर ऑफ नेम्स एण्ड फार्मस) कहा है। भारतीय मनीषियों ने इसे प्रणव-ध्वनि, उद्-गीथ, स्टोफ, आदि-नाम, अनाहत्-ब्रह्म-नाद आदि अनेकों नामों से पुकारा है।
माण्डूक्योपनिषद् में उल्लेख है कि ‘ओउम्’ अर्थात् प्रणव ही पूर्ण अविनाशी परमात्मा है, जो जड़ और चेतन में तथा सृष्टि के कण-कण में संव्याप्त है। सर्वत्र वह नाद रूप में गुंजायमान है।
योग-शास्त्र का लक्ष्य- साधक को इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी मूल सत्ता से जोड़ना है। नाद योग-शास्त्रों की अनेका-अनेक साधना-विधियों में से सर्व-प्रमुख धारा है। कुण्डलिनी साधना के प्राण-प्रयोग में इसी का आश्रय लिया जाता है। माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है- ‘ओउम्’ वह अक्षर है जिसमे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ‘ओंकार’ का छोटा सा व्याख्यान है।
सभी शक्तियाँ, ॠद्धियाँ और सिद्धियाँ ‘ओंकार’ में भरी हुई है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण- जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ॐकार’ की स्फुरणा से ही हो रहा है। यह जो उनका अभिव्यक्त अंश और उससे अतीत भी जो कुछ है, वह सब मिलकर ही परब्रह्म-परमात्मा का समग्र रूप है, पूर्ण-ब्रह्म की प्राप्ति के लिये। अतएव उनकी नाद-शक्ति का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है।
जिसके पास ‘ओउम्’ है, उसके पास अनंत दैवी-शक्तियाँ है। बल है, बुद्धि है, जीवन है। इन्द्रियों का संयम है। भगवान् श्री कृष्ण ने ‘ओउम्’ की महिमा का वर्णन करते हुए गीता के आठवें-अध्याय में लिखा है- जो साधक मन और इन्द्रियों को वश में कर ‘ओउम्’ अक्षर-ब्रह्म का जप करता है, वह ब्रह्म का स्मरण करता हुआ इस भौतिक देह को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है।
इस पद को प्राप्त करने के उपरान्त जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। ‘अ’ से विराट् अग्नि और विश्व का ज्ञान, ‘उ’ से हिरण्यगर्भ वायु और तेजस का बोध, ‘म्’ से ईश्वर आदित्य और प्रज्ञा का परिज्ञान होता है।
यह परमात्मा के पवित्र नाम ‘ॐ’ में विद्यमान है। हमें परमात्मा के इस वैदिक-नाम ‘ओउम्’ का नित्य जप करना और नाद योग द्वारा आत्मानुसंधान करना चाहिए। कारण- स्थूल, सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की ही स्फुरणा से हो रहा है। यही ‘प्रणव’ का अर्थ भी है।
नाद साधना में भी इसी ‘प्रणव’ का गुंजन सुनने से प्रगति क्षिप्र होती है। आगे चलकर, जब अन्तरिक्ष में प्रवाहमान दिव्य ध्वनियाँ सुनी जाने लगती हैं, तब उनके नौ मण्डलों को पार करते हुए दशम मण्डल में पहुँचा जाता है, जहाँ सर्वोत्तम अनाहद नाद ‘ओउम्’ ही सतत सुनाई पड़ता है।
नाद साधना की यही चरम परिणति है। इस तल तक पहुँचने वाले साधक सृष्टि के उद्गम केन्द्र तक पहुँच जाते हैं और विश्व-वैभव का अभीष्ट, सत्प्रयोजनों के लिए उपयोग करने में समर्थ होते हैं। नाद-सिद्धि साधक इन्द्रियातीत क्षमताओं के अधिपति देव-मानव कहे जाते रहे हैं।
अन्तर्नाद की भी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति ‘प्रणव’ ही है। चैतन्य-ऊर्जा कुण्डलिनी के जागरण में ‘प्रणव’ की प्रमुख भूमिका रहती है। इसीलिए ‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। इस प्रकार ‘प्रणव’ समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का सर्वश्रेष्ठ अवलम्बन है।
ओमकार और कुन्डलिनी
‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। उसके जागरण में जहाँ अन्यान्य विधि-विधानों का प्रयोग होता है, वहाँ उस सन्दर्भ में प्रणव-तत्त्व’ को प्रायः प्रमुखता ही दी जाती है। ‘कुण्डलिनी-जागरण’ प्रयोग ‘गायत्री-महाविद्या’ के अन्तर्गत ही आता है। ‘पंचमुखी-गायत्री’ में ‘पंचकोशों’ की साधना ‘पंचाग्नि-विद्या’ कही जाती है, यही गायत्री के पाँच-मुख हैं।
गायत्री की ‘प्राण-साधना’ का नाम ‘सावित्री-विद्या’ है, सावित्री ही कुण्डलिनी है। गायत्री मंत्र में, गायत्री-साधना में प्राण-तत्त्व का अविच्छिन्न समावेश है।
योग कुण्डलयुपनिषद् के अनुसार – कुण्डलिनी ‘प्रणव’ रूप है। ‘महा-कुण्डलिनी’ को ‘परब्रह्म-स्वरूपिणी’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्मम्य है। एक ‘ओउम्’ से अनेक अक्षरों की आकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं। कुण्डलिनी का आकार सर्पिणी जैसा बताया गया है।
वह कुंडली-मारे सोती हुई पड़ी है और पूँछ को अपने मुँह में दबाये हुए है। इस आकृति को घसीटकर बनाने से ‘ओउम्’ शब्द बन जाता है। अस्तु, प्राण और उच्चारण सहित समर्थ ‘प्रणव’ को ‘कुण्डलिनी’ कहा गया है और उसी सजीव ‘ओउम्’ के उच्चारण का पूरा फल बताया गया है, जिसमें कुण्डलिनी जागृति शक्ति का समन्वय हुआ है।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह उस सोयी हुई अपनी आत्म-शक्ति को चैतन्य करे, गतिशील करे। मूलाधार से स्फूर्ति तरंग उठकर भूमध्य में दिव्य नाद की अनुभूति (श्रवण) कराने लगे, तभी समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत-संचालित हो गई है।

मन्त्र और अधि देवता-


हर मन्त्र का एक अधिदेवता माना गया है। उसकी अपनी आकृति और प्रकृति का वर्णन है। मन्त्र में शक्ति उसी से आती है और सिद्ध होने पर साधक को उसी से वरदान मिलता है। ध्यान-साधना की सुविधा के लिए इन अधिदेवताओं को मनुष्य की आकृति दी गई है और शस्त्रों, आभूषणों एवं वाहनों से अलंकृत किया गया है।
इससे प्रतीत होता है कि वे कोई मनुष्य जैसे ही देव-दानव स्तर के होंगे और मनुष्य की तरह खाते, सोते, बोलते और क्रुद्ध, प्रसन्न होते होंगे। अलंकारिक दृष्टि से इस प्रतिपादन में समझने- समझाने की सुविधा रह सकती है, पर यदि यथार्थता जाननी हो तो इन अलंकारों के पीछे छिपे हुए तथ्यों को जानना पड़ेगा।
तात्विक दृष्टि से कुछ विशिष्ट प्रकार के विचार गुच्छकों को ‘अधि-देवता’ कहा जा सकता है। विशिष्ट अर्थात् जिनके पीछे मनस्वी लोगों का अनुमोदन, सघन निष्ठा का समन्वय, उनका कार्यान्वित होना जैसे आधारों का समन्वय।
उदाहरण के लिए गायत्री महामन्त्र अति प्राचीन है। उसकी शब्द रचना का निर्धारण – अमुक स्तर के शक्ति कम्पन उत्पन्न कर सकने की विशेषता को ध्यान में रखकर किया गया है। मन्त्र के शब्दार्थ का कम और उसकी शक्ति उत्पादन क्षमता का महत्व अधिक होता है।
गायत्री मन्त्र के पीछे अगणित अति मनस्वी लोगों की मानसिक श्रद्धा ऊर्जा सम्मिलित है। अध्यात्म शब्द विद्या को, मन्त्र विद्या को तत्व ज्ञानियों ने ‘वाक्’ कहा है। यह वाक् अत्यधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण है।
शब्द को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्म – परावाक् का मर्मस्थल है। यह प्रायः क्षीर सागर में प्रसुप्त पड़ा रहता है, पर जब जागृत होता है, तो उसके सपंदन से यह सारा विश्व गतिशील हो उठता है।
श्रुति वाक् को हृदयस्पर्शी बनाते है। स्पर्शानुभव में – रूपानुभव में आने वाली बनाते हैं। यह हृदयस्पर्शी स्वरूप स्वर्ग, मुक्ति तथा ब्रह्म निर्वाण है।
यह स्पर्श अनुभव की संभूति ॠद्धि-सिद्धियों का भंडार है। यह रूप अनुभव देवताओं का साक्षात्कार अनुग्रह एवं वरदान है। यह सब वाक् शक्ति की ही प्रतिक्रिया – प्रतिध्वनि है।
वाक् को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। वही ब्रह्म की ब्रह्मविद्या की अविछिन्न शक्ति है। देवता उसी के वश में रहते हैं। उच्चारण और स्वर में यही अन्तर है कि उच्चारण कंठ, होठ, जीभ, तालु, दाँतों की संचालन प्रक्रिया से निकलता है और वह विचारों का आदान-प्रदान कर सकने भर में समर्थ होता है। पर स्वर अन्तःकरण से निकलता है।
उसमें व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और भाव समुच्चय भी ओत-प्रोत रहता है। इसलिए मन्त्र को ‘स्वर’ भी कहा गया है। वेद पाठ में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित की उच्चारण प्रक्रिया का शुद्ध होना ही इसी ओर संकेत करता है। साधना क्षेत्र में स्वर का अर्थ ‘वाक्-शक्ति’ के माध्यम से किये जाने वाले सशक्त जप अनुष्ठान से ही है।
शब्द के दो रूप हैं। एक वह जो जीभ से बोला जाता है, कान से सुना जाता है, जिसके अर्थ का बोध होता है। ऐसे उच्चारित शब्दों को बैखरी संज्ञा दी जाती है। लोक प्रयोजन में वाणी का यही व्यवहार होता है। दूसरा वह जिसे परावाक् कहते हैं।
यह अन्तःकरण में भावना के – ज्ञान एवं इच्छा के – रूप में अवस्थित रहती है। यह शक्ति रूप है। इसमें प्रेरणा भरी पड़ी है। बुद्धि इसी की अनुचरी है, मन इसी का सेवक है –चित्त इसी का पार्षद है। अन्तरंग मर्मस्थल में जो भाव उमडते हैं, उन्हें साकार करने के लिए – साधन जुटाने के लिये मन और बुद्धि को लगा रहना पड़ता है। शरीर इन्हीं दोनों का अनुचर है।
अस्तु, उसे भी उसी दिशा में चलना पड़ता है। जिसमें कि अन्तरंग में अवस्थित परावाक् की प्रेरणा से मन और बुद्धि दिशा ग्रहण करते है। मनुष्य जो कुछ सोचता है, करता है, बनता है, पाता है, उसे परावाक् का ही प्रसाद कहना चाहिए।
वाक् रूप, रस, गंध, स्पर्श का अनुभव करता है। शब्द रूपी आकाश से ही वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्त्व का आविर्भाव हुआ है। इसी से वाक् को विश्वरूपिणी –बहु रूपिणी और देव शक्तियों की अधिष्ठात्री कहा जाता है।
अग्नि –भू लोक है। वायु –भुवः लोक और वरूण –स्वः लोक। बैखरी जब मन्त्र साधना के द्वारा सूक्ष्म होती जाती है, तो तीनों लोकों पर उसका अधिकार होता जाता है।
लोक-लोकान्तर में जो कुछ विद्यमान है, उससे सम्बन्धित होती है, प्रभावित करती, नियन्त्रण रखती है और संचालन करती है, परिष्कृत परावाक्। जिह्वा से उच्चारित बकवास में प्रयुक्त होती रहने वाली प्रक्रिया जब उलटकर मन्त्र साधना में लगती है, तब वह शक्ति रूप होती है। शक्ति भी ऐसी जिसकी परिधि में वह सब आ जाता है जिसे अद्भुत एवं महान कह सकते हैं।
वाक् की विवेचना करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है– वाक् सिद्धि दो प्रकार की होती है, एक शाप देने वाली दूसरी वरदान देने वाली।(शक्ति पंचकम्)॥
तैत्तिरीयोपनिषद् के तृतीय अनुवाक् में ॠषि ने लिखा है –
‘वाणी में शारीरिक और आत्म’ –विषयक दोनों तरह की उन्नति करने की सामर्थ्य भरी हुई है, जो इस रहस्य को जानता है, वह वाक्-शक्ति पाकर उसके द्वारा अभीष्ट फल प्राप्त करने में समर्थ होता है।
‘वाक्-शक्ति’ की आराधना यदि ठीक प्रकार की जा सके तो ‘मन्त्र-शक्ति’ के – प्रार्थना के, वरदान आशीर्वाद के, जड़ चेतन जगत को प्रभावित करने के, सिद्धि साधना के समस्त प्रयोजन उसी तरह पूर्ण हो सकते हैं, जैसे कि शास्त्रों में लिखे हैं।
वरिष्ठ साधकों की तरह आज भी साधना के वैसे ही प्रतिफल मिल सकते हैं। शर्त केवल एक ही है –‘वाक्-साधना’ का महत्त्व समझा जाये और उस पर समुचित रूप से ध्यान दिया जाय ।
वाणी के चार चरण है – 1 परा, 2 पश्यन्ती, 3 मध्यमा, 4 बैखरी। इनमें से प्रथम तीन अन्तःकरण रूपी गुफा में छिपी रहती हैं। बैखरी ही बोलने में प्रयोग की जाती है। परावाणी ‘नाभि-स्थल’ में रहती है।
पश्यन्ति वाणी ‘हृदय-स्थल’ में रहती है। मध्यमा वाणी ‘कंठ-स्थल’ में रहती है। बैखरी वाणी ‘मुख’ में रहती है। जिसके द्वारा हम बोल पाते या अपनी बात कह पाते हैं। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को ‘बैखरी-वाणी- कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान में प्रयुक्त होती है।
भावों के प्रत्यावर्तन में ‘मध्यमा-वाणी’ काम आती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन् हृदय से हृदय तक यह प्रवाह चलता है।
भावनाशील व्यक्ति ही दूसरे की भावनायें समझ सकता है। यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीच आदान-प्रदान का काम करती है। इससे आगे दो वाणियाँ हैं, जिन्हें ‘परा’ और ‘पश्यन्ती’ कहते हैं।
परा ‘पिण्ड’ में और पश्यन्ती ‘ब्रह्माण्ड’ क्षेत्र में काम करती है। आत्म-निर्माण का, अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से, देव शक्तियों से, समस्त विश्व से, लोकलोकान्तरों से सम्बन्ध, सम्पर्क बनाने में पश्यन्ती का प्रयोग किया जाता है।
अस्तु, इन ‘परा’ और ‘पश्यन्ती’ वाणीयों को ‘दिव्य-वाणी’ अथवा ‘देव-वाणी’ कहा गया है।
सरस्वती रहस्योपनिषद् – वाणी की रहस्यमयी शक्ति को कुछ लोग देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुए भी नहीं सुनते, वे लोग बड़े भाग्यवान हैं, जिनके सामने वाणी के नग्न स्वरूप का उदघाटन होता है।
ॠग्वेद – यह वाणी चरण वाली होती है। उसे विद्वान ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। इन वाणियों में से तीन तो गुफा में ही छिपी बैठी रहती हैं। वे अपने स्थानों से नीचे नहीं हिलतीं। चौथी बैखरी वाणी को ही मनुष्य बोलते और सुनते हैं।
ब्रह्मबिन्दूपनिषद् – योग की साधना स्वर के माध्यम से करनी चाहिए। अर्थात् स्वर के माध्यम से योग साधना करनी चाहिए।

मनः शक्ति__

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पाँच तत्त्वों से बने हुऐ हमारे इस शरीर को माया ने पूरी तरह से अपने कब्जे में ले रखा है। आज तक अनेकों ॠषि, महर्षियों ने हमे अनेकों बार ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश दिया किन्तु हम कहाँ पहुँचे? जब तक हम किसी संत के समीप होते है, तो उतनी ही देर के लिऐ हमारा चेतन मन शान्त होता है और अवचेतन मन जाग्रत हो जाता है। हम जो भी ग्रहण करते हैं या सुनते हैं, एक तरह से वे सब का हमारे अवचेतन मन में चला जाता है। हमारे अवचेतन मन में ही हमारे सभी जन्मों का लेखा-जोखा छिपा हुआ है।
जब तक हमारा अवचेतन मन जाग्रत होता है, तब तक हम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, ज्ञान और अज्ञान, विद्या और अविद्या के प्रति जागरूक रहते है। सन्त जो भी बोलता है, तब अवचेतन मन उसे ग्रहण कर लेता है और फैसला करता है, कि इन में से कौन-कौन सी बात मैने पहले सुनी हुई है और कौन सी बात नहीं सुनी हुई। क्योंकि जो बाते अवचेतन मन ने पहले भी ग्रहण की हुई है, वह उन बातों को छोड़ देता है, क्योंकि वे बातें तो पहले से ही अवचेतन मन के अन्दर छिपी हुई है।
जो नई बातें है, उन को अवचेतन मन अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। यह सभी कुछ अवचेतन मन करता है, किन्तु इन्सान समझाता है कि मैने किया, सभी फैसले अवचेतन मन के होते है, किन्तु इन्सान का अहंकार अपनी मैं, अर्थात् अपने चेतन-मन पर केंद्रित होता है। जो नई बातें होती है, उनके बारे में व्यक्ति सोचता है कि, मैं घर जा कर आज से यह काम करूँगा या नहीं करूँगा।
किन्तु जैसे ही साधक संत को छोड़ कर अपने घर पहुँचता है, तो वहाँ के वातावरण में जो अशुद्धियाँ होती है उस की वजह से अवचेतन-मन सो जाता है और चेतन-मन फिर से जाग्रत हो जाता है।
वातावरण की इन्हीं अशुद्धियों को दूर करने के लिऐ, अनादि काल से आर्य-सभ्यता में हवन करने का विधान है। जब अवचेतन-मन निष्कृय हो जाता है, तो चेतन-मन माया के चक्र में उलझ कर अपना काम करने लगता है, और जैसा की आप सभी ने देखा, सुना या पढ़ा होगा की फिर चेतन-मन जो की सन्त के पास बिलकुल निष्क्रिय था, वह सक्रिय हो कर संत की निंदा करने लगता है।
उस के बाद चेतन-मन को संत कि जो-जो बातें पसन्द आती है, उनको वह ग्रहण करता है, किन्तु शेष बातों के बारे में कहता है कि ‘संतो का काम तो है ही बेकार की बातें करना’, इन के पास तो समय ही समय है, ये जो भी चाहे नियमों का पालन कर सकते हैं। लेकिन आम आदमी के पास समय कहाँ है जो इतनी मेहनत और नियमों का पालन कर सके।
चेतन-मन से जैसे भी बन पड़ता है, वह अपनी तरफ से संत की निंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। हमें ध्यानपूर्वक चेतन और अवचेतन-मन को समझना पड़ेगा।
हम जितना भी मौखिक रूप से काम करते है। यह सभी काम चेतन-मन करता है। हम सभी अगर ध्यान पूर्वक अपने चरित्र को देखें तो हमे महसूस होगा की हमारा अवेचतन-मन कैसे काम करता है। मान लीजियें कि हमारे घर पर कोई मेहमान आ जाये तो हम उसका पूरी तरह से सत्कार करेंगे।
इसके पीछे हमारा अवचेतन-मन है, क्योंकि हमारे अवचेतन-मन मे ही सभी संस्कार विद्यमान है। इसी तरह अगर किसी को सम्मोहित कर दिया जाये तो वह व्यक्ति आपकी हर बात मानने को बाध्य होगा, क्योंकि सम्मोहन से उसका चेतन-मन गहरी निंद्रा में चला गया है। किन्तु अवचेतन-मन हमेशा क्रियाशील रहता है। अगर सम्मोहन के द्वारा सम्मोहित व्यक्ति को किसी गलत काम के लिऐ निर्देश दिया जाऐं, जो की अवचेतन-मन में संस्कारों के खिलाफ हो।
जैसे की सम्मोहित व्यक्ति को अगर कहा जाये की तुम सम्पूर्ण रूप से निर्वस्त्र हो जाओ, तो ऐसा सुनते ही सम्मोहित व्यक्ति का सम्मोहन टूट जायेगा और वह जाग जायेगा। इस तरह हम ध्यानपूर्वक अपने चेतन और अवचेतन-मन को समझ सकते हैं। इसको योगियों ने जागना कहा है, कि तुम हमेशा अपने अवचेतन-मन की तरफ ध्यान दो और अपने संस्कारो के अनुरूप ही कार्य करो।
जो व्यक्ति योग निन्द्रा के द्वारा अपने चेतन-मन को निष्क्रिय कर देता है और हमेशा अवचेतन-मन के अनुसार ही संस्कार युक्त कार्य करता है, ऐसा व्यक्ति ही पूर्ण योगी कहलाता है। जिसने योग के द्वारा माया को जीत लिया और चेतन-मन को अवचेतन-मन में पूर्ण रूप से विलीन कर लिया।
हम कितना ही पढ़ ले, जान ले, समझ ले किन्तु जब तक हमें सम्पूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती, हम अधूरे है और तब तक जिज्ञासायें जन्म लेती रहेंगी। हर साधक के अंदर के उसके अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों के अनुसार ही जिज्ञासायें जन्म लेती है। अनेकों बार समझाने और समझने के बाद भी साधकों के मन में एक प्रश्न पैदा होता है, कि क्या हम सिर्फ नाम के द्वारा ही उस परमात्मा को पा सकते है या नहीं?
अगर कोई भी व्यक्ति परमात्मा के किसी भी नाम का जाप करे तो वह उस मंडल तक ही पहुँच पायेगा, जिस मंडल तक उस नाम की सीमा रेखा है। मान लीजिये आप राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदि शब्दों को इस्तेमाल करते हैं, तो आप सिर्फ सहस्त्रदल तक ही पहुँच पाओगे, क्योंकि सहस्त्रदल, त्रिलोकी नाथ नारायण का स्थान है।
इसलिए अगर आप नारायण या उस के किसी भी पर्यायवाची शब्द का जाप करते है, तो हम वहीं तक पहुँच पायेगें। इसी तरह हर मंडल का देव व उस का मंत्र भी अलग है। लेकिन ऐसा नहीं है की हम सीधे ही आखिरी मंडल का जाप करके उस परमात्मा को पा सकते है। जिस तरह एक छोटा बच्चा स्कूल जाता है, और स्वर-व्यंजन पढ़ते हुऐ प्रथम कक्षा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करता है।
उसी तरह योगियों की प्रथम कक्षा मणिपुर मंडल (मणिपुर चक्र) है। जो कि हमारी नाभि में स्थित है, कुछ दिव्य महापुरूष त्रिकुटी पर ध्यान लगाना बताते हैं, कि यहीं से अपनी ध्यान-साधना प्रारम्भ करो। कुछ व्यक्ति विशेषों का यह वहम है, की हम त्रिकुटी में ध्यान लगा कर जल्द से जल्द उस परमात्मा को प्राप्त कर लेगें, लेकिन ऐसा नहीं है।
आप नाभि से प्रारम्भ करे या चाहें तो त्रिकुटी से। दोनो में समय और मेहनत एक ही लगेगी। अनेकों ही साधक त्रिकुटी में ध्यान लगा कर प्रकाश को देखने व शब्द को सुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन ध्यान से देखा जाऐ तो जिन साधकों को त्रिकुटी में प्रकाश एंव दिव्य ध्वनी सुनाई पड़ती है।
जैसे ही त्रिकुटी प्रकाशवान होगी वैसे ही नीचे के सभी मंडल भी प्रकाशवान होगें। इसलिऐ अनेकों महापुरूषों ने नया-विधान बनाया जिसमे की न तो अधिक समय लगता है और ना ही अधिक मेहनत की आवश्यकता है, क्योंकि अगर आप नाभि से प्रारम्भ करते हुये त्रिकुटी तक पहुँचते हैं तो एक-एक मंडल को जाग्रत करने में अधिक समय लगेगा।
इसी तरह अगर हम त्रिकुटी में ध्यान लगाते है, तो भी हमे समय अधिक लगेगा। लेकिन इस नये-विधान के अनुसार अगर साधना की जाये तो नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडल शीघ्र ही क्रियाशील हो जायेगे। क्योंकि परमात्मा का निज नाम ॐ है।
इसलिए हमें ॐ के ‘अ’, ‘उ’, ‘म’ को ले कर यह साधना करनी होगी। जो साधक इस साधना को करना चाहे, वह पद्मासन या सिद्धासन में बैठ कर, (अगर कोई साधक ये आसन न लगा सके तो सुखासन में बैठ कर) मेरूदंड को सीधा रखते हुऐ नाभी के अन्दर ‘अ’ हृदय के अन्दर ‘उ’ और त्रिकुटी में ‘म’ का ध्यान करते हुए दीर्घ स्वर में ॐ का जाप करें। जहाँ तक सम्भव हो सके श्वांस को गहरा लेते हुऐ ॐ का जाप व ध्यान करें।
साथ ही साथ नाभि के अन्दर पीले रंग का, हृदय में हरे रंग का एवं त्रिकुटी में सफेद रंग का ध्यान करें। ऐसा करके साधक थोडे ही समय में नाभि से ले के त्रिकुटी तक के सभी मंडलों को प्रकाशवान बना सकता है।
जब त्रिकुटी में प्रकाश व दिव्य-ध्वनी सुनाई देने लगे तो उस के बाद की साधना किसी योग्य-गुरू के निर्देशन में करें क्योंकि त्रिकुटी से आगे का रास्ता मुश्किल ही नहीं अपितु खतरनाक भी है।
इसलिए साधना करते हुऐ आलस्य न करे और जहाँ तक कोशिश हो सके, एक दिन के लिए भी साधना का त्याग न करें। अगर हम बिना नागा किये प्रतिदिन एक ही समय पर साधना करेंगे, तो उस परमात्मा को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है।

भगवान शिव के प्रतीक का अर्थ है

 – सम्पूर्णतः सर्व-व्यापक-पूर्ण-ब्रहम्-ज्ञान। जिस प्रकार भगवान शिव हर वक्त ध्यान में डूबे रहते है, उसी प्रकार हमें डूबना होगा, तभी हमें ज्ञान-गंगा एवं अमृत-गंगा की प्राप्ति होगी।
भगवान शिव के शीश पर जो गंगा बह रही है, उसका आप चाहे जो भी अर्थ लगाये किन्तु इसका अर्थ है – ज्ञान एवं अमृत-गंगा अर्थात् हर वक्त जो व्यक्ति परमात्मा के ध्यान में डूबा रहता है, केवल उसे ही पूर्ण-ब्रहम्-ज्ञान एवं अमृत की प्राप्ति होती है।
भगवान शिव के गले में जो जहर दिखाया जाता है। उसका अर्थ यही है कि बिना अमृत की प्राप्ति के जहर पिया ही नहीं जा सकता। जहर पीने का तात्पर्य यही है कि संसार के सभी दुखों को जीत लेना।
कैसी भी परेशानी या कैसी भी समस्या क्यों न आ जाये उससे नहीं डरना। आम व्यक्ति तुम्हारा कितना ही तिरस्कार क्यों न करें, किन्तु सब को एक समान देखना। किसी से भी घृणा, ईष्या एवं द्वैष न रखना। अहंकार से बड़ा, ईष्या और द्वैष से बड़ा कोई जहर नहीं है। शिव के गले में नाग का होना, जितेन्द्रिय होने का प्रतीक है अर्थात् जो व्यक्ति परमात्मा का ध्यान करता है, वह काम को जीत लेता है। ऐसे जितेन्द्रिय साधक के पास से अनेकों स्त्रियाँ भी पराजित हो कर जाती है।
ऐसा साधक सभी स्त्रियों को माँ या पुत्री के रूप में देखता है। भगवान शिव के प्रतीक को बुजुर्ग के रूप में दिखाया गया है। इसलिऐ ऐसा साधक सभी स्त्रियों को पुत्री रूप ही मानता है। भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल –सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के उपर विजय प्राप्ति का संकेत है।
शिव के हाथ का डमरू दिव्य-ध्वनी का प्रतीक है। इसी प्रकार जितने भी प्रतीक है, ये जिस ने भी बनाऐ बहुत ही सोच समझ कर इनकी रचना की गई है। सभी साधक एवं आम व्यक्ति प्रतीकों को तो मानते हैं, किन्तु प्रतीकों में छुपे हुऐ रहस्य को मानने को तैयार नहीं है।
जब तक इन प्रतीकों के रहस्यों को नहीं जान लेंगे और उन रहस्यों को अपने जीवन में नहीं उतार लेंगे, तब तक हम चाहे गृहस्थ में हो या सन्यास में उस परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। पर-ब्रह्म को पाने के लिऐ अपने आप को मिटाना होगा एवं मन, कर्म वचन को पवित्र रखते हुऐ उस परमात्मा की बंदगी/स्तुति करनी होगी।
बिना परमात्मा के निज-नाम में डूबे हमें ज्ञान-गंगा एवं अमृत-गंगा की प्राप्ति नहीं होगी। मिटाना होगा हमे अपने अंहकार को और जीतना होगा अपने काम को। जिस दिन हम ने काम और अहंकार पर विजय प्राप्त कर ली उसी दिन हम ब्रह्म-ज्ञानी बन जायेगे। उस परमात्मा की दिव्य-ध्वनी को सुन सकेगें एवं इस सम्पूर्ण सृष्टि के रहस्यों को जान सकेगें।

सभी सन्त यही बात कहते है कि अंहकार को खत्म कर लो, काम को जीत लो, किन्तु कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल। काम और अंहकार को यदि जीतना इतना आसान होता, जितना कि कहना आसान है, तो सभी साधक ब्रहम्-ज्ञानी बन गये होते। किन्तु कहीं न कहीं से तो हमें काम और अंहकार को जीतने का प्रयास आरम्भ करना होगा।
हम सभी जानते है कि बग़ैर काम और अंहकार को जीते हमें ब्रहम्-ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिऐ यदि हमें ब्रहम्-ज्ञान को पाना है, ज्ञान व अमृत-गंगा को प्राप्त करना है, दिव्य ध्वनियों को सुनना है और उस परमेश्वर से साक्षात्कार करना है, तो कभी न कभी तो साधना को प्रारम्भ करना ही होगा।
आप अपनी इच्छा अनुसार चाहें जिस मर्जी रास्ते का चुनाव करे। चाहे आप कर्म-योगी बने, हठ-योगी बने, तप-योगी बने। जप का सहारा ले, भक्ति का सहारा ले या ध्यान-मार्ग का चुनाव करे, यह आप कि इच्छा पर निर्भर करता है। आप किसी भी एक रास्ते पर चलते हुऐ संपूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस रास्ते पर बढ़ते चले जाऐ। जिस रास्ते या मार्ग का आप चुनाव करें, बार-बार अपने रास्ते या मार्ग को न बदले।
अगर आप ने अपनी इच्छा अनुसार रास्ते या मार्ग का चुनाव किया है तो, इस पर चलने में आपको आसानी होगी और धीरे-धीरे आप मंजिल को प्राप्त कर लोगे। जैसे कि एक छोटा बच्चा विज्ञान कि पुस्तकों को ध्यान से पड़ता है तो, वह आगे जा के विज्ञान क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर सकता है।
अनेकों बार ऐसा होता है कि- कोई छात्र डॉक्टर बनना चाहता है, किन्तु उसके माँ-बाप या रिश्तेदार उसे इन्जीनियर बनने को कहते है। छात्र का अपना रास्ता विज्ञान का है, किन्तु माँ-बाप उसे रास्ता बदलने के लिऐ कहते है। ऐसे ही आम व्यक्ति या साधक के साथ भी होता है।
वह साधक अपने इष्ट के मार्ग पर चल रहा होता है और अनजाने में ही कोई उससे कह बैठता है कि- तेरा रास्ता ठीक नहीं है, तू अपने रास्ते को बदल दे, तुझे जल्दी से वह परमात्मा मिल जाऐगा और वह साधक अपना रास्ता बदल देता है और भटक जाता है। तो आप कभी भी किसी के कहने से या सुनने मात्र से अपने रास्ते को न बदले।
ध्यान-पूर्वक अपने जीवन एवं अपने आप का स्वयं अध्ययन करें और फैसला करें कि मैं किस नियम को या किस रास्ते पर चल सकता हूँ। जिससे कि मुझे कम से कम मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़े। क्योंकि मन ही सबसे बड़ा स्वयं का प्रतिद्वंद्वी है। मान लीजिये आप शिव को मानते है और कोई आप से शक्ति की पूजा करने को कहे तो सबसे पहले मन ही बीच में आयेगा और तुम्हारे रास्ते में अनेकों प्रश्न पैदा कर देगा।
इसलिये प्रारम्भ में मन के विपरीत बिल्कुल मत चलिये। अपितु मन के अनुसार चलते हुऐ यदि आप जाप या ध्यान पर ज्यादा ध्यान देंगे, तो मन स्वतः ही जाप में रम जायेगा। अगर आप की श्रद्धा व विश्वास परमात्मा के प्रति दृढ़ है तो धीरे-धीरे आपका मन अवचेतन मन में, अवचेतन मन बुद्धि में, और बुद्धि आत्मा में विलीन हो जाऐगी। फिर यह आत्मा ॐ-ॐ करते हुऐ उस परमात्मा में विलीन हो कर सोहम् – सोहम् कह उठेगी।

आज का व्यक्ति धर्मों, मतों एवं उनके द्वारा रचित मंत्रों में इतना अधिक उलझा हुआ है कि वह समझ ही नहीं पाता कि मुझे क्या करना चाहिये। सभी धर्म एवं मत सूक्ष्म, दीर्घ एवं स्थूल ॐ का जाप साधक को न बता कर, विभिन्न प्रकार के अनेकों ही मत्रों में उलझायें रखते है। साधक भी इन विभिन्न मंत्रों के जाल में उलझा रहता है। सालों-साल मेहनत करता है, किन्तु उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
ऐसे साधक को जब कोई योगी पुरूष मिलता है तो अनेकों बार योगी पुरूष के मिलने पर साधक रो उठता है और कहता है कि मुझे अनेकों साल हो गये, किन्तु मुझे उस परमात्मा की एक झलक तक दिखाई नहीं दी। योगी पुरूष जब साधक की श्रद्धा एवं उसके भाव को देखता है तो उसके ऊपर कृपा करते हुऐ, उसे तत्त्व-ज्ञान देता है और ॐकार के सुक्ष्म, दीर्घ या स्थूल रूप का विधान बता कर साधना करने को कहता है और जब साधक उस साधना को करता है तो बहुत ही कम समय में उसे दिव्य-अनुभूतियाँ होने लगती है।
जिन श्रद्धावान साधकों को ऐसे योगी पुरूष मिल जाते है, उन्हें इसी जन्म में जीते-जी की मुक्ति प्राप्त होती है एवं इसी जन्म में वे परमात्मा से साक्षात्कार करके ज्ञान व अमृत-गंगा के स्वामी बन बैठते है। सतोगुण-रजोगुण-तमोगुण इन तीनों पर विजय को प्राप्त करते है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों तत्त्वों के रहस्य को जान लेते है। संसार के सभी दुखों को हलाहल जहर के समान पीते हुये अर्थात् सहते हुये ज्ञान मार्ग पर चलते रहते है।

मृत्यु उपरान्त दिव्य-मंडल में उच्च पद पर शोभायमान होते है। किन्तु जो साधक विभिन्न मंत्रों में उलझे रहते हैं या जिन को योगी पुरूष मिलने पर भी उनकी बात को न मान कर अपने अंहकार को ही बड़ा मानते है अर्थात् तत्त्व ज्ञान को न मान कर अपने-मत, अपने-धर्म, अपने-गुरू एवं अपने-मंत्र को बड़ा मानने वाला कभी भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते हैं। उन्हे जीते-जी की मुक्ति प्राप्त नहीं होगी।
अपितु वह जन्म व मृत्यु के चक्कर में हमेशा फंसा रहेगा और अपने कर्मों को इकट्ठा करता चला जायेगा और प्रत्येक जन्म में अपने भाग्य को कोसता रहेगा कि मेरे भाग्य में तो इस जन्म में उस परमात्मा से मिलना लिखा ही नहीं हुआ है। भाग्य को कोसने वाले और तत्त्व ज्ञान को न समझने और न जानने वाले और न मानने वाले कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं हो सकते।
अपितु जो सब मंत्रों एवं नियमों का त्याग कर श्रद्धा भाव से ॐकार के सूक्ष्म, दीर्घ एवं स्थूल रूप के अर्थ को जान कर और तत्त्व-ज्ञान को समझ कर जो साधना करते है, उसे इसी जन्म में सम्पूर्णता की प्राप्ति होती है। परमात्मा का मिलन सम्भव होता है। परमात्मा के मिलन में वह दीवाना हो उठता है। सम्पूर्ण संसार के सुख भी ऐसे साधक के सामने रख दिये जाये तो वह उन सब सुखों को ठोकर मार देता है।
अगर ऐसे साधक से पूछा जाये की तूने इन सभी सुखों को ठोकर क्यों मार दी तो, वह यही कहेगा की मेरे परमात्मा के सामने, मेरे प्यारे के सामने, यह सभी सुख तुच्छ है। ऐसा साधक दीवानगी की हद को पार कर जाता है और संसार में रहते हुऐ भी वह इस प्रकार निष्पाप और निष्कलंक रहता है, जिस प्रकार कीचड़ में कमल खिला रहता है।

इस प्रकार जब आप अपनी पसंद का रास्ता अपनी इच्छा अनुसार चुन कर साधना करोगें तो धीरे-धीरे स्वतः ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा, द्वैष- इन आठों पाशों पर विजय प्राप्त कर सकोगें। अधिकतर व्यक्ति इसी प्रयास में लगे रहते है कि पहले में अपने काम, क्रोध को जीत लूँ, उसके पश्चात साधना प्रारम्भ करूँगा, तो यह आपकी भूल है।
जिस प्रकार एक अच्छा सपेरा पहले बीन-बजानी सीखता है और साँप का जहर उतारने का गुर बाद में सिखता है। उसी प्रकार एक अच्छा साधक सर्व-प्रथम सहज योग के द्वारा अपने मन को परमात्मा के नाम का स्वाद पहले देता है और उसके पश्चात जब मन को परमात्मा के नाम में रस आने लगता है तो वह स्वतः ही अपनी मैं अर्थात् अहंकार और काम भाव को छोड़ देता है। अहंकार को छोड़ने के पीछे जो कारण है, वह यही है कि मन परमेश्वर की शक्ति को मानने लगता है।
मन तभी तक अहंकार करता है, जब तक उसको अपने से बड़ी शक्ति का एहसास न हो जाये। जब मन को यह आभास होने लगता है कि मैं तो तुच्छ मात्र हूँ, सही मायने में वह परमात्मा ही सबका पालन-पोषण करने वाला है एवं मेरे हाथ में तो कुछ भी नहीं है और सब कुछ उस परमात्मा अर्थात् विधि के हाथ में है।
इस प्रकार मन के समझ जाने पर स्वतः ही अहंकार का त्याग हो जाता है। परमात्मा में लीन साधक काम-भाव का त्याग इसलिये कर देता है कि उसे काम से ज्यादा परमात्मा के नाम में रस आने लगता है। जो साधक सघन साधना में लगे रहते हैं, वे साधक इस प्रकार सभी पाशों से मुक्ति पा लेते है।

नाम जाप



ॐ यह उस सर्वव्यापक परमपिता का ही निज नाम है। सोऽहम्, आत्मा का परमात्मा में विलय अर्थात् मैं आत्मा ही वह परमात्मा हूँ, इस का आभास कराता है। सभी धर्मों ने ॐ को ही उस परमात्मा का श्रेष्ठ नाम माना है। प्रत्येक व्यक्ति 24 घन्टे में 21,600 साँस लेता है। साँस खींचते वक्त ‘सो’ की ध्वनी एवं साँस को छोड़ते वक्त ‘हम्’ की आवाज आती है।
किसी भी धर्म, किसी भी मज़हब या किसी भी जात-पात का व्यक्ति क्यों न हो, यें दोनो शब्द सभी पर लागू होते है। क्योंकि सभी धर्म और सभी जातियों के व्यक्ति उस परमात्मा को सर्वव्यापक और निराकार मानते है। इस कारण से ॐ जो शब्द है, यह सर्व-व्यापकता का प्रतिनिधित्व करता है।
इसलिए ॐ सभी धर्मों के ऊपर लागू होता है। इसके साथ ही प्रत्येक जाति व धर्म का व्यक्ति साँसों की प्रक्रिया दोहराता रहता है। इस कारण से सोहम् भी सभी जाति व धर्मों पर लागू होता है। सही मायने में ॐ और सोहम् एक ही शब्द है या यों कहे कि एक ही सिक्के के दो पहलू है। लिखने या बोलने में अलग-अलग प्रतीत होते है, किन्तु दोनों में सर्व-व्यापकता ही समाई हुई है।
अगर सोहम् के अन्दर से ‘स’ और ‘ह’ को हट दिया जाये तो ॐ शेष रह जाता है। ॐ अर्थात् सर्व-व्यापक परमपिता परमात्मा का नाम है। हटाये गये शब्द ‘स’ और ‘ह’ को उल्टा करने पर ‘हंस’ बनता है। हंस का अर्थ है जीव-आत्मा। ॐ जहाँ अकेले परमात्मा का बोध करता है, वहीं सोहम् –आत्मा और परमात्मा दोनों का बोध कराता है।
ध्यान-पूर्वक अगर हम अध्ययन करें तो ॐ में पाँच अक्षर है। ‘अ’, ‘उ’, ‘म्’ नाद और बिन्दु। किन्तु बोलने में तीन अक्षरों ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ का ही उच्चारण होता है। नाद और बिन्दु ॐ का उच्चारण करते वक्त छूट जाते है। अगर इस नाद बिन्दु को ॐ के साथ मिला कर सही ढंग से उच्चारण किया जाये तो सोहम् बनता है।
‘स’ के मायने नाद अर्थात् स्वर अर्थात् दिव्य ध्वनी, ‘ह’ के मायने बिन्दु अर्थात उस परमात्मा का दिव्य प्रकाश। इस प्रकार ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर ॐ का हृस्व जाप ओम् है एवं दीर्घ उच्चारण सोहम् है। इस ॐ को ही तत्त्व-दर्शीयों ने ‘प्रणव’ कहा है। ॐ के दो भेद बना दिये गये एक सुक्ष्म और दूसरा स्थूल्।
सुक्ष्म ओम् तो सभी धर्मों में एक ही है किन्तु स्थुल प्रणव भाषा एवं लिपी के आधार पर अलग-अलग होते हुऐ भी एक ही है एवं सभी स्थूल प्रणव उस परमात्मा का ही बोध कराते है।
ॐ के सुक्ष्म और स्थूल दो भेद करके तत्व-दर्शीयों ने इसको संयासियों के लिऐ सुक्ष्म-प्रणव एवं गृहस्थियों के लिऐ स्थूल-प्रणव रूप में जाप को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया है। स्थूल-प्रणव के रूप में हिन्दुओं में ‘ॐ नमः शिवाय’ अर्थात् ‘कल्याणकारी ॐकार को नमस्कार’।
सिक्खों में ‘एक ॐकार सत नाम’ अर्थात् ‘उस ब्रहम् का एक ॐकार ही नाम है’ या ‘एक ॐ ही उस परमात्मा का नाम है’।

जैन धर्म में नमोकार मंत्र-
णमो अरिहंताणं अरहन्त =अ
णमो सिद्धाणं सिद्ध(अशरीरी) =अ(अ+अ=आ)
णमो आयरियाणं आचार्य =आ(आ+आ=आ)
णमो उवज्झायाणं उपाध्याय =उ(आ+उ=ओ)
णमो लोएसव्वसाहूणं साधु(मुनि) =म्(ओ+म्=ओम्)
इस प्रकार जैन धर्म में पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर को मिलाने से ओम् बनता हैं। इस मंत्र के अनेंको अर्थ है किन्तु जो सबसे श्रेष्ठ अर्थ है वह यह कि पाँचों परमेष्ठि अर्थात् ॐ की पाँचों शक्तियाँ अकार, उकार, मकार नाद और बिन्दु को मैं नमस्कार करता हूँ, जो कि अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि के रूप में हमें ज्ञान प्रदान करते हैं।
हम यों भी समझ सकते हैं कि मैं ॐकार रूपी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को नमस्कार करता हूँ, जो कि अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि के रूप में हमें ज्ञान प्रदान करते हैं।
बौद्ध धर्म में ‘ॐ मणि पद्मे हुम फट्’ अर्थात् ‘मेरे नाभी कमल दल में मणि रूपी ॐकार प्रकट हो’।
मुस्लिम सम्प्रदाय में ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ अर्थात् ‘प्रारम्भ करता हूँ अल्लाह के नाम से’। ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ में तीन शब्द महत्व पूर्ण है।
‘अल्लाह’, ‘रहमान’ और ‘रहीम’ इन तीनों शब्दों का अगर अलग-अलग अनुवाद किया जाये तो ‘अल्लाह’ का अर्थ है ‘वह परमात्मा’। ‘रहमान’ का अर्थ है ‘माफ करने वाला’। और ‘रहीम’ का अर्थ है ‘मेहरबान’।
इस प्रकार बिस्मिल्लाह-शरीफ का सही अर्थ बनता है कि ‘ऐ मेरे परमात्मा मुझे माफ कर और मेरे उपर मेहरबान हो’।

इस प्रकार ॐ का सुक्ष्म और स्थूल रूप सभी धर्मों में एक समान है। सभी धर्मों के सूफी-सन्तों ने सम्पूर्ण ‘36 मंडलों’ के रहस्यों को प्राप्त किया था।
चाहे वह हिन्दु धर्म में राम, कृष्ण, नौ-नाथ, कबीरदास, हरिदास आदि सन्त हो या मुस्लिम-सम्प्रदाय में हजरत मोहम्मद साहब, हजरत गौस पाक (ग्यारहवीं वाले पीर), हजरत गरीब नवाज खवाजा मोईनूदीन चिस्ती, हजरत कुतबुद्दीन, हजरत बाबा शेख फरीद, हजरत बाबा निजामुद्दीन औलिया, हजरत बाबा साबिर पाक, हजरत बाबा हाजी अली, हजरत बाबा सखी सरवर पीर आदि,
सिक्खों में दस गुरूओं के अलावा बाबा नन्द सिंह जी महाराज, बाबा संत सुजान सिंह जी आदि, जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों के अलावा अनेकों मुनि आदि, बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध के अलावा अनेकों ही बौद्ध भिक्षु आदि ने ‘36 मंडलों’ के रहस्य को जाना और अपने समय एवं काल के अनुसार उसकी व्याख्या की। सभी मतों के सूफी-संतों ने एक परमात्मा को ही सर्व-व्यापक माना एवं उसी की भजन बन्दगी की।
सभी मतों के सूफी-संतों ने ‘36 मन्डलों’ के प्रकाश अर्थात् रंग उसकी पत्तीयाँ, उसकी शक्ति अर्थात् साधक वहाँ पहुँचने पर किस अधिकार क्षेत्र का स्वामी बन जाऐगा एवं वहाँ पर गूँज रही दिव्य ध्वनियों को ही महत्व पूर्ण माना।
सभी मंडलों में मंत्र, उसका देवता, उसकी शक्ति अर्थात् देवी, सभी ने अपने-अपने मत के अनुसार स्थापित किये हैं। जहाँ बाबा नानक ने उस परमात्मा को निराकार, करतार, आकाल-पुरूष माना, वहीं नाथ-समप्रदाय नें आदि-नाथ कहा, शैव-मत में जहाँ वह परम-शिव है, वहीं वैष्णव-मत में वह महा-विष्णु है।

इस प्रकार समय, स्थान, जाति, भाषा व लिपि के आधार पर भले ही ‘36 मंडलों’ के देवता, मंत्र व शक्ति अलग-अलग हो किन्तु रंग अर्थात् प्रकाश, परमात्मा के दिव्य स्वरूप के दर्शन अधिकार क्षेत्र सभी मतों में एक समान है। कोई भी साधक किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो, जब तक वह ‘36 मंडलों’ का रहस्य नहीं जान लेता, तब तक वह पूर्ण-परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता।
पर-ब्रह्म परमपिता परमेश्वर को जानने या उसकी शक्तियों को समझने से पहले हमें अपने आप को समझना और जानना होगा। अनादि-काल में आम व्यक्ति अपनी आयु के चोथे भाग में सन्यास दिक्षा लेता था और गृहस्थ धर्म के सभी सुखों का त्याग करके वैराग्य भाव से मोक्ष की प्राप्ति हेतु परमात्मा के निज-नाम का जाप करता था।
किन्तु बाद में अनेकों ही मत बनने लगे। उन मतों को बनाने वाले संतो का कहना था कि गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ भी उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। आज अनेकों ही साधक इस साधना में लगे हुऐ हैं कि हमें गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ मोक्ष की प्राप्ति हो जाऐ।
गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ मोक्ष की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब आप सन्यास धर्म के नियमों का पालन करें। अगर कोई साधक या आम व्यक्ति गृहस्थ में रहते हुऐ एवं सभी सुखों का भोग करते हुऐ यह समझे की मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी तो यह ना मुमकिन है।
गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ यदि तुम साक्षी बन कर अर्थात् साक्षी भाव से गृहस्थ धर्म का पालन करो, सभी सुखों का त्याग करो, मन में सदैव वैराग्य भाव रखो, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बनो और हर वक्त सभी कर्म करते हुऐ उस परमात्मा का सिमरण करो अर्थात् उस परमात्मा के नाम में डूबे रहो तभी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।

हिन्दु धर्म में एक शब्द आता है शिवो-अहम् अर्थात् ‘मैं ही शिव हूँ’। अनेकों ही व्यक्ति या साधक शिव के स्वरूप को या परमात्मा के प्रतीक रूप भगवान शिव के स्वरूप को अपने घरो में रखते है और कहते हैं कि हमें भी शिव को प्राप्त करना है। शिव के समान बनना है।
कुछ व्यक्तियों का तो यहाँ तक कहना है कि जब भगवान शिव गृहस्थ में रहते हुऐ पर-ब्रहम् परमेशवर स्वरूप हैं, तो हम क्यों नहीं हो सकते। अगर हम ध्यान-पूर्वक परमात्मा के स्वरूप शिव का अध्ययन करें तो हमें पता चलेगा कि उस प्रतीक का वह अर्थ नहीं है। जो कि हम सभी समझते है।

बिजली के आविष्कारक - महर्षि अगस्त्य


निश्चित ही बिजली का आविष्कार बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया लेकिन बेंजामिन फ्रेंक्लिन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।
महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने 'अगस्त्य संहिता' नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।
अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

मन्त्र-शक्ति



मन्त्र का अर्थ इस प्रकार है कि – जिसका मनन करने से संसार का यथार्थ स्वरूप विदित हो, भव बन्धनों से मुक्ति मिले जो सफलता के मार्ग पर अग्रसर करे उसे मन्त्र कहते हैं।
मन्त्र शक्ति ही देवमाता — कामधेनु है। परावाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मान्त्रात्मक ही है। यही विज्ञान है। इस कामधेनु वाक् की शक्ति से हम जीवित हैं। उसी कारण हम बोलते और जानते हैं।
मन्त्र विद्या की महान् सामर्थ्य को यदि ठीक तरह से समझा जा सके और उसका समुचित प्रयोग किया जा सके तो यह आध्यात्मिक प्रयास किसी भी भौतिक उन्नति के प्रयास से कम महत्वपूर्ण और कम लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता ।
मन्त्र शक्ति में चार तथ्य काम करते हैं –
1 ध्वनि, 2 संयम, 3 उपकरण, 4 विश्वास।
शब्द संरचना और उच्चारण की शुद्धता युक्त ध्वनि ही सार्थक होती है। साधक अपनी शक्तियों को शारीरिक मानसिक असंयम से बचाकर उपासना कृत्य में नियोजित रखे। माला, आसन, प्रतीक, उपचार, उपकरण आदि में प्रयुक्त हुए पदार्थों में शुद्धता का ध्यान रखा जाये। मन्त्र-साधना के प्रति श्रद्धा-विश्वास की कमी न हो।
यह सभी बातें जहाँ ठीक प्रकार प्रयुक्त हुई होंगी, वहाँ आराधना का प्रतिफल निश्चित रूप से दृष्टिगोचर हो रहा होगा । उपासना के आधारों का स्तर गिर जाने से ही, उसकी सफलता संदिग्ध होती चली जाती है।
तन्त्र विज्ञान में हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहा गया है। इन दोनों को ‘प्राण’ और ‘रयि’ नाम भी दिये गये हैं। भौतिकी के अनुसार इन्हें धन और ॠण विद्युत प्रवाह कह सकते हैं। जिह्वा से मन्त्र उच्चारण होता है, यह हलचल हुई।
इसके भीतर जितनी शक्ति होगी उतना ही बढ़ा-चढ़ा प्रभाव उत्पन्न होगा। यह प्रभाव हृदय के बिजलीघर में उत्पन्न होता है। यहाँ हृदय से तात्पर्य उस भावना स्तर से है, जो कृत्रिम रूप से नहीं बल्कि व्यक्तितत्व की मूल सत्ता के आधार पर विनिर्मित होता है। हृदय को ‘अग्नि’ और जिह्वा को ‘सोम’ कहा गया है।
दोनों के समन्वय से चमत्कारी ‘आत्मशक्ति’ उत्पन्न होती है। भावना और कर्म की उत्कृष्टता से मन्त्र साधना ‘प्राणवान’ बनती है। इस रहस्य को यदि समझा और अपनाया जा सके तो किसी को भी इस क्षेत्र में निराश न होना पड़ेगा।
उसके चार आधार बताये हैं –
1 प्रामाण्य – अर्थात् मनगढ़न्त नहीं विधि के पीछे सुनिश्चित विधि-विधान होना,
2 फलप्रद – अर्थात् जिसका उपयुक्त प्रतिफल देखा जा सके,
3 बहुलीकरण – अर्थात् जो व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करे,
4 आयातयामता – अर्थात् साधक के श्रेष्ठ व्यक्तित्व की क्षमता।
इन सारे तत्त्वों का समावेश होने से प्रक्रिया में दैवीशक्ति का समावेश होता है और उसका चमत्कारी प्रतिफल देखा जाता है।

महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान - 2


स्वामी शिवानन्द कहते हैं- ‘ब्राह्ममुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है ।। शरीर नीरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है ।। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है ।। उसके द्वारा आत्म- दर्शन हो सकता है ।’
काली कमली वाले बाबा विशुद्धानंदजी कहते थे- ‘गायत्री ने बहुतों को सुमार्ग पर लगाया है ।। कुमार्गगामी मनुष्य को पहले तो गायत्री की ओर रुचि ही नहीं होती, यदि ईश्वर कृपा से हो जाये, तो फिर वह कुमार्गगामी नहीं रहता ।। गायत्री जिसके हृदय में निवास करती है ।। उसका मन ईश्वर की ओर जाता है ।। विषय- विकारों की व्यर्थता उसे भली प्रकार अनुभव होने लगती है ।। कई महात्मा गायत्री जप करके परम सिद्ध हुए हैं ।। परमात्मा की शक्ति ही गायत्री है, जो गायत्री के निकट जाता है, वह शुद्ध होकर रहता है ।। आत्म- कल्याण के लिये मन की शुद्धि आवश्यक है ।। मन की शुद्धि के लिये गायत्री मंत्र अद्भुत है ।। ईश्वर प्राप्ति के लिये गायत्री जप को प्रथम सीढ़ी समझना चाहिये ।’
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी सुब्बाराव कहते हैं- ‘सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं ।। आदि शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं ।। गीता में इसका वर्णन ‘आदित्य वर्ण’ कहकर किया गया है ।। गायत्री की उपासना करना योग का सबसे प्रथम अंग है ।’
श्रीस्वामी करपात्री जी का कथन है- ‘जो गायत्री के अधिकारी हैं, उन्हें नित्य- नियमित रूप से जप करना चाहिये ।। द्विजों के लिये गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है ।’
सर राधाकृष्णन कहते हैं- ‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें, तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती हैं ।। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है ।’
प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानंदजी का कथन है- ‘गायत्री मंत्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है ।’
ऋषि दयानंद- ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संध्या का विद्यान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है ।। ऐसा करने से अंतःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिये हितकर हो जाता है।
।। जितना भी इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो, उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है ।। जो जिज्ञासु गायत्री का प्रेम और नियमपूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिये यह संसार- सागर से तैरने की नाव और आत्म- प्राप्ति की सड़क है ।।
आर्य समाज के जन्मदाता स्वामी दयानंद गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे ।। ग्वालियर के राजा साहब से स्वामी जी ने कहा कि भागवत् सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण श्रेष्ठ है ।। जयपुर में सच्चिदानंद, हीरालाल रावल, घोड़ल सिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखायी थी ।।
मुल्तान में उपदेश के समय स्वामी जी ने गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मंत्र सबसे श्रेष्ठ है ।। चारों वेदों का मूल यही गुरुमंत्र है ।। आदिकाल से सभी ऋषि- मुनि इसी का जप किया करते थे ।। स्वामीजी ने कई स्थानों पर गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिसमें चालीस तक की संख्या में विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये थे ।। यह जप १५ दिन तक चला था ।।
थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो.आर.श्रीनिवास का कथन है- ‘हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मंत्र माना गया है ।। उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है ।। इस मंत्र के अनेक अर्थ होते है और भिन्न- भिन्न प्रकार की चित्तवृत्ति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न- भिन्न प्रकार का होता है ।।
इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबको किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है ।। जब इस मंत्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बन्ध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहित महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है ।।
वह मनुष्य कहीं भी मंत्रोच्चारण करता है, पर उसके ऊपर तथा आस- पास के वातावरण में विराट् ‘आध्यात्मिक प्रभाव’ उत्पन्न हो जाता है ।। यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आशीर्वाद है ।। इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मंत्र की अनुपम शक्ति के लिये उसकी प्रस्तुतियाँ की है ।’
इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गणमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संगृहीत हैं ।। उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अंधविश्वास, अंध परम्परा नहीं है वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति करने वाले ठोस तत्त्वों का बल है ।। इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है, उसे लाभ मिला है ।। गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती ।।
(गायत्री महाविज्ञान संयुक्त संस्करण पृ. सं. १६)

• महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान -1


हिन्दू धर्म में अनेक मान्यतायें प्रचलित हैं ।। विविध बातों के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मतभेद भी हैं ,, पर गायत्री मंत्र की महिमा, एक ऐसा तत्त्व है जिसे सभी ने, सभी सम्प्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक मत से स्वीकार किया है ।।
अथर्ववेद १९- ७१ में गायत्री की स्तुति की गयी है, जिससे उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है ।।
विश्वामित्र का कथन है- ‘ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मंत्र निकाला है ।। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मंत्र नहीं है ।। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जाप करता है, वह ईश्वर को प्राप्त करता है ।। जो द्विज दोनों संध्याओं में गायत्री जपता है, वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त करता है ।।
अन्य कोई साधना करे या न करे, केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है ।। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है, जैसे केंचुली से साँप छूट जाता है ।। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता, वह निन्दा का पात्र है ।’
योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं- ‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तौला गया ।।
एक ओर षट् अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा ।। वेदों का सार उपनिषद् हैं, उपनिषद् का सार व्याहृतियों समेत गायत्री है ।। गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है ।। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं ।।
गायत्री से श्रेष्ठ मंत्र न हुआ, न आगे होगा ।। गायत्री जप लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता, श्रेष्ठी या श्रोत्रिय हो जाता है ।। जो द्विज गायत्री परायण नहीं, वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है ।। जो गायत्री नहीं जानता, ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है ।’
पाराशर जी कहते हैं- ‘समस्त जप सूक्तों तथा वेद मंत्रों में गायत्री मंत्र परम श्रेष्ठ है ।। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है ।। भक्तिपूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है ।। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये ।’
शंख ऋषि का मत है- ‘नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है ।। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है ।। गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है ।’
शौनक ऋषि का मत है- ‘अन्य उपासना करें चाहे न करें, केवल गायत्री जप से ही द्विज जीवन मुक्त हो जाता है ।। सांसारिक और पारलौकिक समस्त सुखों को पाता है ।। संकट के समय दस हजार जप करने से विपत्ति का निवारण होता है ।’
अत्रि मुनि कहते हैं- ‘गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है ।। उसके प्रताप से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है ।। जो मनुष्य गायत्री तत्त्व को भली प्रकार से समझ लेता है, उसके लिए इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता है ।’
महर्षि व्यास जी कहते हैं- ‘जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है ।। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र होती है ।।
जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनाएँ करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा माँगने वाले के समान मूर्ख हैं ।। काम्य सफलता तथा तप की वृद्धि के लिये गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है ।’
भारद्वाज ऋषि कहते हैं- ‘ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं, वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है ।। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं ।। गायत्री से रहित व्यक्ति शुद्र से भी अपवित्र है ।’
चरक ऋषि कहते हैं- ‘जो ब्रह्मचर्य गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजे फलों का सेवन करता है, वह दीर्घजीवी होता है ।’
नारदजी कहते हैं- ‘गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है ।। जहाँ भक्ति रूपी गायत्री है, वहाँ श्रीनारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिये ।’
वशिष्ठ जी कहते हैं- ‘मन्दगति, कुमार्गगामी और अस्थिरता भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं, फिर सद्गति होना निश्चित है ।। जो पवित्रता और स्थिरतापूर्वक गायत्री की उपासना करते है, वे आत्म- लाभ प्राप्त करते हैं ।’
उपयुक्त अभिमतों से मिलते- जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं ।। इससे स्पष्ट है कि कोई ऋषि अन्य विषयों में चाहे अपना मतभेद रखते हों, पर गायत्री के बारे में उन सब में समान श्रद्धा थी और वे सभी अपनी उपासना में उसका प्रथम स्थान रखते थे ।।
शास्त्रों में, ग्रंथों में, स्मृतियों में, पुराणों में गायत्री की महिमा तथा साधना पर प्रकाश डालने वाले सहस्रों श्लोक भरे पड़े हैं ।। इन सबका संग्रह किया जाए, तो एक बड़ा भारी गायत्री- पुराण बन सकता है ।।
वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्त्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने किया था ।। आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है ।।
इस शताब्दी के प्रभावशाली गणमान्य व्यक्तियों की विचारधारा केवल धर्म ग्रंथ या परम्पराओं पर आधारित नहीं रही है ।। उन्होंने बुद्धिवाद, तर्कहीन और प्रत्यक्षवाद को अपने सभी कार्यों में प्रधान स्थान दिया है ।।
ऐसे महापुरुषों को भी गायत्री तत्त्व सब दृष्टिकोणों से परखने पर खरा सोना प्रतीत हुआ है ।। नीचे उनमें से कुछ के विचार देखिये-
महात्मा गाँधी कहते हैं- ‘गायत्री मंत्र निरंतर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्मा की उन्नति के लिये उपयोगी है ।। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल में संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है ।।
लोकमान्य तिलक कहते हैं- ‘जिस बहुमुखी दासता के बंधनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है, उसके लिये आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिये, जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मंत्र में यही भावना विद्यमान है ।’
महामना मदनमोहन मालवीय ने कहा था- ‘ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिये हैं, उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री है ।। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है ।। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है ।।
इस प्रकाश में असंख्य आत्माओं को भव- बंधन से त्राण मिला है ।। गायत्री में ईश्वर परायणता के भाव उत्पन्न करने की शक्ति है ।। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है ।। गायत्री की उपासना ब्राह्मणों के लिये तो अत्यन्त आवश्यक है ।। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता, वह अपने कर्तव्य धर्म को छोड़ने का अपराधी होता है ।।
रवीन्द्रनाथ- रवीन्द्र टैगोर कहते हैं- ‘भारतवर्ष को जगाने वाला जो मंत्र है, वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है ।। वह है- गायत्री मंत्र ।। इस पुनीत मंत्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है ।’
योगी अरविन्द- ने कई जगह गायत्री जप करने का निर्देश किया है ।। उन्होंने बताया कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है, जो महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है। उन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बताया है ।।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है- ‘मैं लोगों से कहता हूँ कि लम्बी साधना करने की उतनी आवश्यकता नहीं है ।। इस छोटी- सी गायत्री की साधना करके देखो ।। गायत्री का जप करने से बड़ी- बड़ी सिद्धियाँ मिल जाती हैं ।। यह मंत्र छोटा है, पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है ।’
स्वामी विवेकानन्द का कथन है- ‘राजा से वही वस्तु माँगी जानी चाहिये, जो उसके गौरव के अनुकूल हो ।। परमात्मा से माँगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है ।। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं ।। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार के सुख मिलते हैं ।। जो सत् की ओर बढ़ रहा है, उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती ।। गायत्री सद्बुद्धि का मंत्र है ।। इसलिये मंत्र है ।। इसलिये उसे मंत्रों का मुकुटमणि कहा है ।’
जगद्गुरु शंकराचार्य का कथन है- ‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सार्मथ्य के बाहर है ।। बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है, जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती ।। आत्म- प्राप्ति करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है ।। गायत्री आदि मंत्र है ।। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और ऋत के अभिवर्धन के लिये हुआ है ।’
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है- ‘राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है ।। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम- रुचि से हटाकर राम- रुचि में लगा देना है ।। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी, वही राम को प्राप्त कर सकेगा ।। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिये कि वह राम को काम से बढ़कर समझे ।’
महर्षि रमण का उपदेश है- ‘योग विद्या के अन्तर्गत मंत्र विद्या बड़ी प्रबल है ।। मंत्रों की शक्ति से अद्भूत सफलतायें मिलती हैं ।। गायत्री ऐसा मंत्र है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं ।’

तत्वज्ञान एवं विवेचन


गायत्री वैदिक संस्कृत का एक छन्द है जिसमें आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण- कुल 24 अक्षर होते हैं ।। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण- रक्षक ।। गय कहते हैं प्राण को, त्रि कहते हैं त्राण- संरक्षण करने वाली को ।। जिस शक्ति का आश्रय लेने पर प्राण का, प्रतिभा का, जीवन का संरक्षण होता है उसे गायत्री कहा जायेगा ।। और भी कितने अर्थ शास्त्रकारों ने किये हैं ।।
जिन्हें चरित्र- निष्ठा एवं समाज- निष्ठा के, व्यक्ति और समाज की प्रगति सुव्यवस्था के, आधारभूत सिद्धान्त कहा जा सकता है ।। इस महामंत्र के शब्दों को नवधा भक्ति के सिद्धान्त- ब्रह्म तत्व रूपी सूर्य के नव ग्रह कहा गया है ।।
रामायण के राम- परशुराम समवाद में ब्राह्मण के परम पुनीत नौ गुणों की चर्चा है ।। यह धर्म के दस लक्षणों से मिलते- जुलते हैं ।। इन सब अर्थों पर विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि यह छोटा- सा मंत्र भारतीय संस्कृति, धर्म एवं तत्त्वज्ञान का बीज है ।। इसी के थोड़े से अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं की व्याख्या स्वरूप चारों वेद बने ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः यह गायत्री का शीर्ष कहलाता है ।। शेष आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण हैं ।। जिनके कारण उसे त्रिपदा कहा गया है ।। एक शीर्ष तीन चरण, इस प्रकार उसके चार भाग हो गये, इन चारों का रहस्य एवं अर्थ वेदों में है ।।
कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने अपने चार मुखों से गायत्री के इन चारों भागों का व्याख्यान चार वेदों के रूप में दिया ।। इस प्रकार उसका नाम वेदमाता पड़ा ।।
गायत्री में सन्निहित तत्त्वज्ञान की दो प्रकार से व्याख्या होती रही है ।। एक ज्ञान परक दूसरी विज्ञान परक ।। ज्ञान परक को ब्रह्मविद्या और विज्ञान परक को ब्रह्मशक्ति कहते हैं ।। इन दोनों पक्षों को अलंकारिक रूप में ब्रह्मा की दो पत्नियों के रूप में चित्रित किया गया है ।।
एक का नाम गायत्री, दूसरी का सावित्री गायत्री में योगाभ्यास की ध्यान- धारणा है और सावित्री में तपश्चर्या की प्रेरणा ।। एक को दर्शन दूसरे को प्रयोग कह सकते हैं ।। सिद्धान्त और व्यवहार के समन्वय से ही एक बात पूरी होती है ।। गायत्री में अपने ही भीतर दोनों पक्ष हैं ।। उसमें आत्म- कल्याण की गंगा और भौतिक समृद्धि की यमुना दोनों का उद्गम है ।।
उद्गम छोटे होते हैं किन्तु आगे बढ़ते चलने पर उनका विकास होता चलता है ।। गायत्री के बीज मंत्र का अर्थ और रहस्य समूचे आर्ष साहित्य के रूप में विस्तृत होता चला गया है।
गायत्री का सार शब्दार्थ इसी प्रार्थना में समाविष्ट हो जाता है किन्तु ‘हे तेजस्वी परमात्मा हम आपके श्रेष्ठ प्रकाश को अपने में धारण करते हैं ।। हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कीजिए ।’ शिक्षा की दृष्टि से इन शब्दों का सार बुद्धि को सन्मार्ग पर चलाने के लिए प्रयत्न करना है ।।
सद्बुद्धि ही वह तत्त्व है जिसके आधार पर व्यक्तित्व निखरने- उभरते हैं ।। इसी के अभाव में पतन और पिछड़ापन पल्ले बँधता है ।। हाड़- माँस की दृष्टि से सभी मनुष्य के शरीरों की स्थिति प्रायः एक जैसी ही है मानसिक रोगियों, अविकसितों को छोड़कर मस्तिष्कीय स्तर भी एक जैसा ही होता है ।।
प्रयत्न करने पर शरीरों की बलिष्ठ और मस्तिष्कों को विद्वान बनाया जाता है ।। मूलतः सभी मनुष्यों प्राणियों की स्थिति लगभग एक जैसी ही मानी जा सकती है ।।
इतने पर भी एक ऋषि बनता है ।। दूसरा तस्कर ।। एक श्रेष्ठ -सज्जन का श्रेय- सम्मान पाता है ।। दूसरा दुष्ट- दुर्जन के रूप में धिक्कारा जाता है ।। एक को असीम सहयोग मिलता है और पग- पग पर सफलता की सीढ़ियाँ सामने खड़ी दीखती है ।। दूसरा अविश्वस्त, अप्रामाणिक माना जाता है और असहयोग के कारण हर काम में असफल रहता है ।।
यह अन्तर मात्र बुद्धि के स्तर का है। वह जिधर भी घसीट ले जाती है ।। उधर ही जीवन का प्रवाह बढ़ने लगता है ।। कौन क्या बना? किसे कितनी सफलता मिली? किसने कितना श्रेय- सम्मान पाया? उसका श्रेय समुन्नत लोगों की सद्बुद्धि को ही दिया जा सकता है ।।
जो दुर्गति के दलदल में फँसे हैं उनके दुर्भाग्य का सूत्र- संचालन दुर्बुद्धि ही करती दिखाई देगी ।। स्वर्ग तक ऊँचा उठा ले जाने और नरक के गर्त में गिराने का कार्य मानवीय बुद्धि की स्थिति और दिशाधारा पर ही अवलम्बित रहता है ।।
तत्त्वदर्शी महामनीषियों ने इस तथ्य को समझा और मनुष्य मात्र को शिक्षा दी कि वे बुद्धि का महत्त्व समझें और उसे शालीनता की रीति- नीति अपनाने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त बनाने का प्रयत्न करें ।। यही है गायत्री मंत्र का मूल विषय ।।
कहने सुनने में बात सरल सी है पर व्यवहार में बडी कठिनाई से उतरती है ।। क्योंकि आस्था, श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा की चतुर्विध समन्वय अन्तःकरण कहलाता है ।। यही वह मरुस्थल है जहाँ संदेशा देने वाली प्रेरणाए उठती हैं और उसे कार्यान्वित करने के लिए, बुद्धि एवं चित्त का मस्तिष्कीय संस्थान क्रियाशील होता है ।।
अन्तःकरण को प्रभावित, परिवर्तन एवं परिष्कृत करने की क्षमता जिन विशिष्ट उपचारों में है उन्हीं को अध्यात्म साधना कहते हैं ।। गायत्री मंत्र के अक्षरों में ज्ञान की उच्चस्तरीय भूमिका विद्यमान है ।। उस विचार प्रक्रिया को अन्तरात्मा की गहरी परत में प्रतिष्ठापित करने के लिए गायत्री मन्त्र की उपासना की जाती है ।।
इस कथन का सार इतना ही है कि मन्त्रार्थ को उत्कृष्ट चिन्तन के रूप में ग्रहण करना मस्तिष्क का काम है और उसकी दिव्य प्रेरणाओं को चेतना के मर्मस्थल में प्रतिष्ठित करना अन्तःकरण का ।।
मस्तिष्क और अन्तःकरणों में जो सद्भावना सुस्थिर होती और प्रखर बनती है उसी का परम पावनी सद्बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं गायत्री माता कहा गया है ।। जो इतना प्रयोजन पूरा कर सके वही इस महामंत्र का वास्तविक तात्त्विक एवं रहस्यमय गूढ़ार्थ है ।।
शब्दों की दृष्टि से इस महामंत्र का भावार्थ सरल है- ॐ परमात्मा का स्वयंभू स्वोच्चारित नाम ।। प्रकृति के गहन अन्तराल से एक दिव्य ध्वनि झंकार घरघराहट के रूप में गूँजती है ।। ब्रह्म और प्रकृति का बार- बार संयोग आघात होने से ही तीन गुण, पाँच प्राण और प्राणियों की संरचना होती है ।।
शब्द ब्रह्म को सृष्टि का आदि का कारण माना गया है ।। इसी की प्रकृति और पुरुष को मिलन प्रक्रिया का अनवरत क्रम कहा गया है ।। यहीं से अनहद- नाद उत्पन्न होता है ।। यही ॐकार है ।। घड़ियाल पर हथौड़े की चोट पड़ते रहने से जिस प्रकार झंकार थरथराहट होती है, जिस तरह घड़ी का पेण्डुलम हिलने से आवाज भी होती है और मशीन भी चलती है, ठीक उसी तरह प्रकृति पुरुष के मिलन संयोग से ॐकार उत्पन्न होता है और उस सृष्टि- बीज से स्थूल प्रकृति का आकार बनता जाता है ।।
परा प्रकृति के अपरा बनने की अदृश्य से दृश्य होने की यही प्रक्रिया है ।। इस प्रकार ॐकार ईश्वर का स्वउच्चारित सर्वश्रेष्ठ नाम माना गया है ।। प्रत्येक वेदमंत्र के सम्मानार्थ सर्वप्रथम ॐकार लगाये जाने की परम्परा भी है ।। गायत्री मंत्र में ॐकार का प्रयोग इसी दृष्टि से हुआ है।
भूः भूर्भुवः स्वः यह तीन लोक हैं ।। यों उन्हें पृथ्वी पाताल और स्वर्ग- मध्य, ऊपर, नीचे- के रूप में भी जाना जाता है ।। पर अध्यात्म प्रयोजनों में भूः स्थूल शरीर के लिए- भुवः सूक्ष्म शरीर के लिए और स्वः कारण शरीर के लिए प्रयुक्त होता है ।।
बाह्य जगत और अन्तर्गत के तीनों लोकों में ॐकार अर्थात् परमेश्वर संव्याप्त है ।। व्याहृतियों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है ।। इसमें विशाल विश्व को विराट् ब्रह्म के रूप में देखने की वही मान्यता है जिसे भगवान ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए हृदयंगम कराया था ।। ॐ व्याहृतियों का समन्वित शीर्ष भाग इसी अर्थ और इसी प्रकाश को प्रकट करता है ।।
तत् अर्थात् वह ।। अपितु प्रकाश और ऊर्जा से- ज्ञान और वर्चस से ओत- प्रोत परमेश्वर ।। वरेण्यं- श्रेष्ठ, भर्ग- तेजस्वी, विनाशक, देव दिव्य इन चार शब्दों में परब्रह्म परमात्मा के उन गुणों का वर्णन है जिन्हें अपनाने का प्रयत्न करना हर अध्यात्मवादी के लिए, हर आत्मिक प्रगति के आकांक्षी के लिए नितान्त आवश्यक है ।।
सविता- प्रातःकालीन स्वर्णित सूर्य को कहते हैं ।। यह परमेश्वर की स्वनिर्मित प्रतिमा है ।। उससे बाह्य जग में प्रकाश और अन्तर्जगत् में सद्ज्ञान का अभिवर्षण होता है ।। सूर्य से गर्मी- ऊर्जा बाह्य जगत को मिलती है ।। सत्संकल्प, और सत्साहस से भरी हुई आत्मशक्ति का अनुदान अंतर्जगत् को मिलता है ।।
सविता शब्द का गायत्री मंत्र में सर्वप्रथम उल्लेख इसी दृष्टि से हुआ है कि साधक को प्रज्ञावान और शक्तिवान बनने के लिए अथक पुरुषार्थ करना चाहिए ।।
वरेण्यं- श्रेष्ठ चुनने योग्य- स्वीकार करने योग्य- वरिष्ठ ।। इस संसार में उत्कृष्ट- निकृष्ट, भला बुरा सब कुछ विद्यमान है। उसमें से जो श्रेष्ठ है, उसी को स्वीकार करना चाहिए ।। हंस जिस प्रकार नीर- क्षीर का विवेक करता है- मोती ही चुनता है, उसी प्रकार हमारा चयन मात्र उत्कृष्टता का ही होना चाहिए ।। निकृष्टता का तिरस्कार बहिष्कार करना ही उचित है ।।
आकर्षक और हितकर में से किसका चयन करें- इसी प्रश्न पर प्रायः भयंकर भूल होती रहती है ।। तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी हित साधन की उपेक्षा की जाती है ।। यह भूल न होने देने की ओर गायत्री मंत्र में संकेत है ।।
भर्ग शब्द तेजस्विता का बोधक है ।। इसमें प्रतिभा, साहसिकता, तत्परता, तन्मयता जैसे तत्वों का समावेश है ।। क्रिया में ओजस- विचारणा में तेजस और भावनाओं में वर्चस का आभास जिस, दिव्य तत्व के आधार पर मिलता है उसे भर्ग कहते हैं ।। भर्ग में एक भाव-भुनाने नष्ट करने का भी है ।।
अवांछनीयता, अनैतिकता, मूढ़- मान्यता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ छाई रहें तो मनुष्य माया और पतन के दल- दल में फँसा ही रहेगा इनसे छुटकारा पाने के लिए ऐसी प्रखरता का उद्भव होना चाहिए जो अन्तर के कषायों और भीतर के कल्मषों से लोहा लेने में शौर्य पराक्रम का परिचय देती रहे ।।
परमेश्वर के अनन्त नाम हैं और इच्छानुसार नये रखे जा सकते हैं ।। किन्तु आत्मिक प्रगति के लिए जिन चार विशिष्टताओं की नितान्त आवश्यकता है, उनके बोध शब्दों का समावेश गायत्री मंत्र में हुआ है ।। सविता, वरेण्य, भर्ग के उपरान्त चौथी विभूति मत्ता का नाम है ” देव’ ।। देवताओं की गरिमा महिमा के संबंध में मोटी मान्यता और कल्पना प्रायः सभी को जाती है ।।
वे सुन्दर होते हैं, सदा युवक रहते हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं पड़ती, प्रसन्न रहते हैं ।। वे दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव के होते हैं ।। ईश्वर की ‘देव’ शब्द से सम्बोधन करने में यह आत्म- शिक्षण है कि हम परमात्मदेव के भक्त बनें और देवत्व की विशेषता में उनका अनुकरण अनुगमन करें ।।
देव और दैत्यों की यों अलंकारिक रूप से आकृतियाँ भी बनी हैं ।। देव सुन्दर और दैत्य कुरूप हैं ।। वस्तुतः उस चित्रण में आन्तरिक प्रकृति का ही संकेत समझा जाना चाहिए ।। देवत्व श्रेष्ठता की प्रकृति, आस्था, परम्परा एवं रीति- नीति है जिसे अपनाकर मनुष्य महामानवों की श्रेणी में जा पहुँचता है ।।
काय- कलेवर तो सामान्य ही रहता है पर दृष्टि, योजना एवं क्रिया मे उत्कृष्टता ही कूट- कूटकर भरी होती है ।। देवात्मा ही महात्मा कहलाते हैं। स्तर और ऊँचा उठने पर वे ही परमात्मा के देवदूत अथवा अवतारों के रूप में प्रकट होते और सृष्टि का सन्तुलन संभालते हैं ।। गायत्री मंत्र से जन- जन को इसी देवत्व की दिशा में बढ़ चलने की प्रेरणा देने के लिए ईश्वर को ‘देव’ शब्द से सम्बोधित किया गया है ।।
उपयुक्त चारों विशेषताओं की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझ लेने पर ही काम नहीं चलता ।। उनके प्रति अन्तःकरण से गहन निष्ठा जमनी चाहिए और आचरण में इन्हीं का अभ्यास व्यवहार परिलक्षित रहना चाहिए ।। इसी को धारणा कहते हैं ।। धीमहि शब्द का अर्थ है- धारण करना ।। आदर्शों को व्यवहार में उतारना ही उनकी धारणा है ।।
कल्पनायें करते रहने- कहने सुनने मात्र में उलझे रहने से कुछ बनने वाला नहीं है ।। परिणाम ही क्रिया उत्पन्न करता है ।। क्रियावान ही सच्चा ज्ञानवान माना जाता है ।। उसी को सद्ज्ञान का सत्परिणाम उपलब्ध होता है जो चिन्तन को क्रिया में परिणित करने का साहस दिखाता है ।।
शीर्ष भाग में ईश्वर के सर्वव्यापी होने की आस्था को विकसित करके पदार्थों के प्रति सदुपयोग की और प्राणियों के प्रति सद्व्यवहार की नीति अपनाने का निर्देश है ।। प्रथम चरण में सविता और वरेण्य की तथा द्वितीय चरण में भर्ग और देव की अवधारणा का प्रशिक्षण है ।।
गायत्री के अन्तिम तृतीय चरण धियो यो नः प्रचोदयात् के अन्तर्गत परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि वह साधक अकेले नहीं वरन् समस्त जन समुदाय में प्राणिमात्र में धी तत्व की- सद्बुद्धि की प्रेरणा करें ।। नः हम सबको और धियः बुद्धियों को कहते हैं ।
यहाँ एक व्यक्ति की बुद्धि सुधर जाने को अपर्याप्त माना गया है ।। यह सुधार व्यापक रूप से हो तभी काम चलेगा ।। बहुमत दुर्बुद्धिग्रस्त का बना रहा तो एकाकी सज्जनता मात्र से कोई बड़ा प्रयोजन पूरा न हो सकेगा ।।
भगवान से प्रार्थना की गई है कि अपना अनुग्रह व्यक्ति विशेष पर वर्षा कर हाथ रोक न लें वरन् सद्भाव के प्रकाश को उदीयमान सूर्य की तरह सर्वत्र बिखरे ।। वैदिक शिक्षण की पद्धति यह है कि किसी विभूति एवं सम्पत्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने के रूप में आत्म- शिक्षण की व्यवस्था है ।।
प्रार्थना एक शैली है जिसके आधार पर अपने लिए, सबके लिए प्रबल पुरुषार्थ करने का भी निर्देश संकेत है ।। माँगने भर से ही सब कुछ मिल नहीं जाता ।। याचना में तो आकांक्षा की आवश्यकता का प्रकटीकरण मात्र है ।। किसी से कुछ पाना हो तो उसके लिए पात्रता की शर्त आवश्यक है कुपात्रों को कौन कुछ देता है ।।
किसी से कुछ पाना हो तो उसके लिए पात्रता की शर्त आवश्यक है ।। कुपात्रों को कौन कुछ देता है ।। किसी प्रकार मिल भी जाय तो उसका सदुपयोग कुपात्रता के रहते हो नहीं सकता ।।
उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग होने से वे उलटे विघातक सिद्ध होते हैं, दुष्टता के रहते तो अभावग्रस्तता भी श्रेयस्कर होती है ।।
परमेश्वर से याचना करने का तात्पर्य यह नहीं है जो कुछ माँगा जा रहा है ।। वह अन्धाधुन्ध बरसा दिया जाय वरन् अन्तःकरण में विराजमान आत्मदेव से यह अनुरोध करना है कि वे अपनी पात्रता और प्रौढ़ता विकसित करें ताकि सहज ही उपलब्ध होती रहने वाली ईश्वरीय अनुकम्पा का अभीष्ट लाभ उपलब्ध हो सके ।।
प्रचोदयात् शब्द में प्रेरणा का अनुरोध है वस्तुतः यही ईश्वरीय अनुग्रह करने का केन्द्र भी है ।। प्रेरणा का तात्पर्य है अन्तःकरण में प्रबल आकांक्षा की उत्पत्ति ।। यह ही समूचे व्यक्तित्व का सार तत्व है ।। अंतःकरण का अनुसरण मनः सस्थान करता है ।। मन के निर्देश पर शरीर काम करता है ।।
क्रिया का परिणाम और परिस्थिति के रूप में सामने आता है तदनुसार सुख- दुःख के वे स्वरूप सामने आते हैं जिन्हें पाने या हटाने के लिए मनुष्य इच्छा करता है ।। इच्छा की पूर्ति होने न होने में सहायक बाधक और कोई नहीं, अन्तःकरण की प्रेरणा का स्तर ही आधारभूत कारण होता है ।।
गायत्री के चौबीस अक्षरों में 24 ऐसी शिक्षायें सन्निहित हैं, जिन्हें धर्म का सार तत्त्व कह सकते हैं ।। यह किसी देश, जाति, समाज सम्प्रदाय के लिए नहीं वरन् समस्त मानव समाज का नीति शास्त्र है ।। अतीत के स्वर्णिम काल में इन 24 अक्षरों को ही नीति- मर्यादा का अनुशासन माना जाता था ।।
भविष्य में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सूत्र अपनाकर समस्त मानव समाज को एकता के सूत्र में बाँधना पड़ेगा ।। एकता के चार सूत्र हैं ।। (1) विश्व राष्ट्र (2) विश्व भाषा (3) विश्व संस्कृति (4) विश्व मानस ।। इनके लिए आधारभूत एकता, विश्वदर्शन से ही बनेगी ।। इसे विश्व धर्म भी कह सकते हैं ।। इसके लिए आदर्श एवं सिद्धान्त पहले से ही निर्धारित करने होंगे ।। एकता की दिशा में प्रगति का प्रथम आधार यही है ।।
इसके लिए नये सिरे से खोज या निर्धारण करने की आवश्यकता नहीं है ।। तत्त्वदर्शी ऋषियों ने अपने समय के सतयुग में इस दिशा में पहले ही बहुत अन्वेषण, परीक्षण एवं अनुभव सम्पादित कर लिए हैं ।। इन सिद्धांतों को अपनाने के लिए, जन- समाज को सहमत किया था ।। फलतः मनुष्यों में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की अपनी भावी कामना का प्रत्यक्ष स्वरूप उन दिनों सर्वत्र ही दृष्टिगोचर होता रहा था ।।
गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में उन्हीं 24 सूत्रों का समावेश है जिन्हें चिन्तन एवं व्यवहार में लाने में मनुष्य का व्यक्तित्व देवोपम बन सकता है ।। यह स्थापना नहीं, अनुभूति है अतीत का गौरव भरा इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ।। अगले दिनों नवयुग की संरचना के लिए प्रबल प्रयत्न चलते हैं ।। इसके लिए जीवन क्रम की दिशा- धारा एवं व्यवहार की रीति- नीति का निर्धारण आवश्यक है ।। इसके लिए कोई आयोग बिठाने की आवश्यकता नहीं है ।। भूतकाल के महान प्रयोगों की पुनरावृत्ति करने भर से काम चल जायेगा।।
गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में जिन 24 सूत्रों का समावेश है, उसमें मनुष्य के आचार- विचार का समग्र निर्धारण मौजूद है ।। इन्हें अपनाने से औपचारिक शालीनता, सामाजिक प्रगति, समृद्धि एवं व्यापक सुख शान्ति की सुव्यवस्था बन सकती है ।। प्राचीन को अपना लिया जाय, अथवा नये सिरे से ढूँढ़ लिया जाय, विश्व शान्ति के लिए उन्हीं सिद्धांतों को अपनाना होगा, जिनमें चिर प्राचीन एवं चिर नवीन का आश्चर्यजनक समन्वय है ।।
गायत्री को मात्र 24 अक्षरों में लिखा हुआ, सबसे छोटा धर्मशास्त्र कह सकते हैं ।। इसे मानवी एकता एवं गरिमा के अनुकूल बना हुआ शाश्वत संविद्यान कह सकते हैं ।। इसमें मानवी एवं दैवी उत्कृष्टता का उच्चस्तरीय समावेश देखा जा सकता है ।। इन सूत्रों में ब्रह्म विद्या का सार तत्व भरा हुआ है ।।
आधुनिक विधि विद्यान की दृष्टि से उनमें नीति शास्त्र, नागरिक शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र आदि के उच्चस्तरीय सभी सिद्धांतों का समावेश किया जा सकता है।
भूतकाल की तरह भविष्य में भी मनुष्य जाति को सुस्थिर सुख- शान्ति के लिए उन्हीं 24 सिद्धान्तों को हृदयंगम करना होगा, जो अनादिकाल में ऋषियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से विश्व कल्याण की समस्त सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किये थे ।। उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता तो सदा एकरस बनी रहेगी ।।
गायत्री उपासना का उद्देश्य है व्यक्ति का ऐसा अनुकूलन जिसमें ईश्वर के अजस्र अनुग्रह को धारण कर सकने की पात्रता हो ।। उपजाऊ भूमि में ही वर्षा के बादलों के अनुग्रह से हरियाली उपजती है ।। कठोर चट्टानों पर तो एक पत्ता भी नहीं उगता ।।
गायत्री उपासक का पूरा ध्यान आत्म- परिष्कार में नियोजित हो यही है संक्षेप में गायत्री मंत्र का अर्थ और तात्पर्य ।। जो उसका पालन कर सकेगा वह उन सभी लाभों से लाभान्वित होगा जो गायत्री उपासना के सन्दर्भ में शास्त्रकारों और ऋषियों ने बताये हैं ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ. 8.1)