Thursday 30 June 2016

विचार

हमारे जैसे विचार होते हैं हम वैसे
ही बन जाते हैं / विचार साँचा है
और जीवन गीली मिट्टी / हम
जिस प्रकार के विचारों में डूबे
रहते हैं, हमारा जीवन उसी
प्रकार के आकार में ढल जाता है ,
वैसे ही आचरण होने लगते हैं, वैसे ही
साथी मिल जाते हैं,उसी दिशा की
जानकारी,रुचिं और प्रेरणा
मिलती है / यह
शरीर,परिस्थितियाँ और यहाँ
तक की हमारा संसार भी हमारे
अन्दर के विचारों के अनुरूप ही
होता है /
अतः हमें ...चाहिए की हम
प्रतिदिन भलाई करने का अभ्यास
करें,सकारात्मक सोच,दृढ-प्रकृति
,तत्परता और प्रयत्न के साथ
समस्त बुरी प्रवृत्तियों को त्याग
कर अच्छी वृत्तियों का निरंतर
अभ्यास करें / इसके लिए श्रेष्ठ
मनुष्यों के संपर्क में रहना,श्रेष्ठ
पुस्तके पढ़ना,श्रेष्ठ बातें
करना,श्रेष्ठ घटनाएं देखना,श्रेष्ठ
कार्य करना तथा दूसरों में जो
श्रेष्ठताएँ हैं उनको अपनाने की
आवश्यकता है /
अब अगर हम अपने कुत्सित विचारों
को ही नहीं छोंड सकते तो फिर
लानत है मनुष्यता पर / अपने
दुर्भाग्य के लिए जब स्वयं
जिम्मेदार हैं तो देव या फिर
युग,समाज,व्यवस्था को क्यों दोष
दें?
भगवान् श्री कृष्ण तो गीता में
अर्जुन के माध्यम से हम सबको
संबोधित करते हुए यहाँ तक कहते हैं
की मरते समय के भाव या चिंतन के
अनुरूप ही हमें अगला जीवन प्राप्त
होता है - " यं यं वापि स्मन्भवं
त्यजत्यन्ते कलेवरं / तं तमेवैति
कौन्तेय सदा तद्भावभावितः //"
अर्थात - " कुंती सुत मरते समय,
जिसके जैसे भाव / वही भाव में जनम
हो, जैसा की श्रुति गाव //" अब
जब यह पता नहीं की कब अंतिम
समय आ जाय तो फिर क्यों न हमेशा
ही हम शुभ चिंतन,शुभ कार्यों को
करके शुभ लाभ,परम लाभ की
प्राप्ति करें / जय श्री कृष्ण !

भगवान शिव विवाह


पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा।
उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई।
सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान् शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया।
उनके इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म पुती हुई थी।
इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई। इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। किसी के मुख ही नहीं था और किसी के बहुत से मुख थे। कोई बिना हाथ-पैर के ही था तो कोई बहुत से हाथ-पैरों वाला था।
किसी के बहुत सी आँखें थीं और किसी के पास एक भी आँख नहीं थी। किसी का मुख गधे की तरह, किसी का सियार की तरह, किसी का कुत्ते की तरह था। उन सबने अपने अंगों में ताजा खून लगा रखा था। कोई अत्यंत पवित्र और कोई अत्यंत वीभत्स तथा अपवित्र गणवेश धारण किए हुए था। उनके आभूषण बड़े ही डरावने थे उन्होंने हाथ में नर-कपाल ले रखा था।
वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए महादेव शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।
चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान् रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे।
तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं।
इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी।
इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।
उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं।
पीछे से जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया।
हर-गौरी का विवाह आनंदपूर्वक संपन्न हुआ। हिमाचल ने कन्यादान दिया। विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उत्साह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

अक्षय पात्र

अक्षय पात्र का रहस्य
महाभारत में अक्षय पात्र संबंधित एक कथा है। जब पांचों पांडव द्रौपदी के साथ 12 वर्षों के लिए जंगल में रहने चले गए थे, तब उनकी मुलाकात कई तरह के साधु-संतों से होती थी लेकिन
पांचों पांडवों सहित द्रौपदी को यही चिंता रहती थी कि वे 6 प्राणी अकेले भोजन कैसे करें और उन सैकड़ों-हजारों के लिए भोजन कहां से आए?
तब पुरोहित धौम्य उन्हें सूर्य की 108 नामों के साथ आराधना करने के लिए कहते हैं। द्रौपदी इन नामों का बड़ी आस्था के साथ जाप करती हैं। अंत में भगवान सूर्य प्रसन्न होकर द्रौपदी से इस पूजा-अर्चना का आशय पूछते है?
तब द्रौपदी कहती हैं कि हे प्रभु! मैं हजारों लोगों को भोजन कराने में असमर्थ हूं। मैं आपसे अन्न की अपेक्षा रखती हूं। किस युक्ति से हजारों लोगों को खिलाया जाए, ऐसा कोई साधन मांगती हूं।
तब सूर्यदेव एक ताम्बे का पात्र देकर उन्हें कहते हैं- द्रौपदी! तुम्हारी कामना पूर्ण हो। मैं 12 वर्ष तक तुम्हें अन्नदान करूंगा। यह ताम्बे का बर्तन मैं तुम्हें देता हूं। तुम्हारे पास फल, फूल, शाक आदि 4 प्रकार की भोजन सामग्रियां तब तक अक्षय रहेंगी, जब तक कि तुम परोसती रहोगी।'
कथा के अनुसार द्रौपदी हजारों लोगों को परोसकर ही भोजन ग्रहण करती थी, जब तक वह भोजन ग्रहण नहीं करती, पात्र से भोजन समाप्त नहीं होता था।
एक बार दुर्वासा ऋषि ने इसी तांबे के अक्षय पात्र के भोजन से तृप्त होकर पाण्डवों को युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दिया था।

‎मोहिनीअवतार‬

भगवान विष्णु का ‪#
समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। अमृत पाने की लालसा में देवताओं औऱ दैत्यो के बीच युद्ध होने लगा। इसी बीच इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी गिर गई। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है।
इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। शिव की दिव्य प्रेरणा की मदद से भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया और मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। उस रूपवती स्त्री को देखकर दैत्य मोहित हो गए ओर बोले-सुमुखी! तुम हमारी भार्या हो जाओ और यह अमृत लेकर हमें पिलाओ। बहुत अच्छा कहकर भगवान् ने उनके हाथ से अमृत ले लिया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए।
फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया। वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। तभी राहू चंद्रमा का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। तब सूर्य और चंद्रमा ने उसके कपट-वेश को प्रकट कर दिया। यह देख भगवान श्रीहरि ने चक्र से उसका मस्तक काट डाला। उसका सर अलग हो गया और भुजाओं सहित धड़ अलग रह गया। फिर भगवान को दया आ गयी और उन्होंने राहु को अमर बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहू ने भगवान श्रीहरि से कहा इन सूर्य और चंद्रमा को मेरे द्वारा अनेकों बार ग्रहण लगेगा। उस समय संसार के लोग जो कुछ दान करें, वह सब अक्षय हो। भगवान विष्णु ने तथास्तु कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ राहू की बात का अनुमोदन किया। इसके बाद भगवान ने मोहिनी रुप त्याग दिया।

संसार के वे प्रथम दंपत्ति_4


“तुम्हारे लिए ढेरों कन्द और फल दो चार दिन में यहाँ एकत्र कर दूँगा और कई मधुछत्र भी।”
पुरुष ने नारी के उल्लास में कोई योग नहीं दिया। पता नहीं क्यों वह आज उदासीन हो रहा था। मैं एकांकी हो जाऊंगा।”
एकाँकी ?
नारी चौंकी।
“मुझे साथ नहीं चलने दोगे ? मैं तुमसे कुछ नहीं माँगूँगी। तुम्हारे लिए फल और कन्द ला दिया करूंगी। तुम्हारे दावाग्नि को पालूँगी।”
उसका गला भर आया था। पुरुष के कण्ठ में उसने दोनों भुजाएं डाल दीं।
“ऐसा कुछ नहीं !”
रक्षतापूर्वक नारी के हाथों को कण्ठ से अलग करता हुआ पुरुष कह रहा था
“में एकाँकी ही जाऊंगा।”
“तब मुझे मार डालो।”
वह सहसा खड़ी हो गयी। पुरुष का भल्ल कोने में से उठा लायी। उसे पुरुष के सम्मुख बढ़ाकर उसके सम्मुख खड़ी गयी। नेत्रों से दो धाराएं चल रही थीं और हिचकी बंध गयी थी। पुरुष ने भल्ल लिया ही नहीं, भल्ल नारी हाथों से छूटकर धड़ाम से गिर पड़ा। वह वहीं बैठकर घुटनों में मुख छिपाकर सिसकने लगी।
“ओह, मैं तुम्हारे प्रेम के सामने पराजित हुआ।”
वह सचमुच स्वयं को नारी की भावनाओं से बंधा महसूस कर रहा था। उसकी हिंस्र वृत्तियाँ भी इतने दिनों में कोमल भावनाओं में बदलने लगी थीं।
“लेकिन तुमने मुझे खूब जान तो लिया है न ? उसे स्वर में आशंका का पुट था।”
“जान लिया है, तुमने खूब अच्छी तरह से शेर को, टीले को।’8 नारी ने अब समझ लिया था कि पुरुष की आशंका झूठी थी। अतएव उसके स्वर में रोष था,
“मुझे तो यह जानना भर पर्याप्त था कि तुम विश्वसनीय हो, मेरे दुःख सुख के साथी हो, बस प्रेम कहो या अपनत्व उसके लिए विश्वास मात्र पर्याप्त है।”
पुरुष उसकी इन भावनाओं के सामने अपनी शारीरिक बलिष्ठता के दर्प को चकनाचूर हुआ महसूस कर रहा था। उसने आज से पूरी तरह अपने को नारी के हवाले कर दिया।
आज वह पूर्ण रूप से गृहस्वामिनी बन चुकी थी। वह उसका सहायक था।
इस धरती पर वे प्रथम दम्पत्ति थे।

संसार के वे प्रथम दंपत्ति_3


मानव जलप्लावन के पश्चात् आर्यावर्त में नाम को ही था। उस समय इसका नाम शाकद्वीप था। हमें पता नहीं उस समय दूसरा मानव भी वहाँ था या नहीं। हमें केवल इसी वन्यमानव का पता है, जो आज की समूची मानव प्रजाति का आदि पुरुष था।
एक उजाड़ टीले पर जिसके चारों ओर खुली भूमि थी, कुछ दूर वह गुफा में रहता था। टीले में एक ही गुफा थी और गुफा के दरवाजे पर खूब सघन ऊंचा एक पेड़ था। सुरक्षा की दृष्टि से उस मानव ने यह स्थान चुना था।
वह रक्षा के लिए एक खूब भारी पाषाण भल्ल रखता था। उसकी गुफा में शेर एवं भैंस के कई कच्चे चमड़े पड़े थे। जंगल में फल, कंद एकत्र करते समय इन आक्रमणकारी पशुओं का उसने आखेट किया था। सुपुष्ट माँसपेशियाँ, वृक्षों पर चढ़ने एवं सरकने को पुट्ठे, घुँघराले काले बाल, कुछ अधिक बड़े रोम, मंदे एवं श्मश्रु, उसका साढ़े चार हाथ ऊंचा साँवला शरीर बड़ा भव्य था।
उस दिन वह कन्द लेने गया था। सहसा चौंक पड़ा। हाथ में छोटा सा भल्ल लिए, कुछ छोटा, कुछ दुर्बल यह कौन प्राणी है ? लताओं की ओट में ही रहा वह। निकट से देखने का अवकाश मिला। उसके केश अधिक लम्बे हैं। शरीर पर रोम भी नहीं, न मूँछें ही हैं और न दाढ़ी। वृक्ष पर माँस पिण्ड।
उसने लक्षित कर लिया उसका अपने शरीर से अलगाव। उसका शरीर चिकना और कोमल है। माँसपेशी जैसे है ही नहीं। पता नहीं क्यों उसे दूसरे मानव के प्रति वह आकर्षित हो गया। यह आकर्षण सजातीयता के कारण ही था सम्भवतः।
जलप्लावन में वह शिशु ही था, तभी वह अकेला रह गया था। वह पुरुष स्त्री के भेद से अब तक परिचित ही नहीं था। लताओं की ओट से तनिक दूर हटकर वह उसके दृष्टि पथ में आया। निकट प्रकट होने से यदि आक्रमण कर दे तो ? वह भयभीत नहीं था , किन्तु इस सजातीय प्राणी का वध उसे अभीष्ट नहीं था। यह भी सम्भव था कि वही डरकर भाग जाये। ऐसा होने पर परिचय का पथ ही अवरुद्ध हो जाएगा।
उसने भी इसे देखा। चौंकने के पूरे लक्षण प्रकट हुए। देखता रहा एकटक वह प्राणी इसे देर तक। सम्भवतः सादृश्य एवं वैभिन्नय की तुलना कर रहा था। अचानक किलकारी मारी उसने।
न जाने किन पुरातन संस्कारों अथवा ईश्वरीय प्रेरणा से उसके मन में गूँज उठी, ओह, नारी है।’ पुरुष अपने मन ही मन कह उठा। चपल है, इसीलिए और उसका कण्ठ स्वर भी कितना कोमल है।
उत्तर में उसने किलकारी नहीं दी। जानता था कि इसकी गम्भीर ध्वनि से वह डर जाएगी। केवल वह हंस पड़ा। हाथ के संकेत से उसे समीप बुलाया और उसकी ओर बढ़ा।
सहसा वह भाग खड़ी हुई। लम्बी छलाँगें लीं हिरण की भाँति और एक दूसरे झुरमुट में होती अदृश्य हो गयी। पुरुष ने पीछा तो किया पर व्यर्थ। उसे खेद हुआ। पता नहीं क्यों, मन अवसाद से भर गया। फल और कन्द एकत्र न कर सका। गुफा में लौट आया और अपनी शिला पर चुपचाप पड़ा रहा।
अब पुरुष नित्य उसी ओर जाने लगा, जिधर नारी दिखाई पड़ी थी। क्या वह दूसरी ओर के जंगल से परिचित है ? अथवा वह भी पुरुष को देखना चाहती है ? कौन जाने ? वह तो सदा दूर ही रहती है। हंसती है, किलकती है किन्तु बुलाने पर अपनी ओर मनुष्य को आते देखते ही भाग खड़ी होती है।
एक दिन पुरुष लताकुन्ज में छिपा बैठा रहा। समय से बहुत पहले गया था वह। वह आयी, इधर उधर देखती रही देर तक। क्या वह पुरुष को ढूंढ़ रही थी ? उसने देखकर उसके मुख पर खिन्नता के चिन्ह प्रकट हो गाए। उदास होकर लौट पड़ी। पुरुष ने चुपचाप पीछा किया। वह सीधे अपनी गुफा पर गयी। पुरुष ने निवास स्थान दूर से देखा और लौट आया। ,
तब से न जाने कितनी बार वह उसकी गुफा के द्वार तक गया होगा, पर मिला नहीं शायद वह उसे नाराज नहीं करता चाहता था। नारी के प्रथम दर्शन से ही उसके मन में कोमल भावनाएं अंकुरित हो गयी थी।
जो शायद इतने दिनों में प्यार में बदल गई थीं यह धरती का पहला प्यार था। नारी भी तो उसे देखना चाहती थी, पाना चाहती थी। पर उसे तो उसका निवास भी नहीं मालूम था।
और आज जबकि वह नारी के गुफा के पास पहुँचा, तो वह सो रही थी। न जाने क्या सोचकर वह वहीं पास में बैठ गया। न जाने कितनी देर तक बैठा रहा वह।
उसे पता तो तब चला, जबकि नारी ने पीछे से आकर उसकी आँखें बन्द कर लीं और फिर तो अपरिचय-परिचय में बदल गया। दूरी समीपता में बदल गई। प्यार और प्रगाढ़ हो उठा।
अब तो कितने दिन उन दोनों को साथ रहते भी बीत गए। “मेरा मन अब यहाँ नहीं लगता।”
एक दिन पुरुष ने नारी से कहा। वह गुफा में पुरुष के समीप ही बैठी थी।
“ यहाँ मैं दो बार अस्वस्थ हो चुका।”
“तब चलो।”
नारी ने निश्चिन्त उत्तर दिया।
“हम दोनों मेरी पहली गुफा में रहें या जहाँ आपकी इच्छा हो।”
“मेरी बीमारी, ओह”
पुरुष का स्वर खिन्न था।
“पता नहीं कहाँ कहाँ से तुम अधजले खरगोश ले आती हो।”
“तुम तो यों ही रूठ जाते हो।”
पुरुष के कन्धे पर अपनी दाहिनी भुजा रखते हुए नारी ने कहा,
“यह खूब स्वादिष्ट था, यह तो तुम्हीं कहा करते हो। दावाग्नि तपने दो, मैं ढेरों ला दूँगी।”
बीमारी में नारी पुरुष को छोड़कर फल एकत्र करने भी नहीं जा सकी थी। सौभाग्य से समीप के वन में दावानल धधक उठा। पुरुष को प्रथम बार आग में पका माँस मिला। वह उसका स्वाद भूल नहीं पाता था। कच्चे माँस को भी उसने मुख में डाला, किन्तु खा नहीं सका।
“मैं दावाग्नि को ढूँढूँगा।”
पुरुष निश्चय कर चुका था। दावाग्नि को। नारी चौंकी, ना, ना ! कहीं उसी में फंस गए तो ? वह भय विह्वल हो उठी। इतने दिनों में उसकी प्रीति प्रगाढ़ हो उठी थी। वह पुरुष को खोना नहीं चाहती थी।
“मैं दूर रहकर ही उसे ढूँढूँगा।” पुरुष ने समझाते हुए कहा और सुरक्षित रहूँगा।”
हम खरगोश भूनेंगे। एक क्षण में नारी खिल उठी
“ उसे उसी में भूनेंगे। दावाग्नि काष्ठ हो तो खाता है, हम उसे काष्ठ खिलाते रहेंगे। वह बड़ा और मोटा होकर हमें नहीं खा सकेगा और हम उसे मरने भी नहीं देंगे। हम उसे अपनी गुफा से दूर ही पालेंगे, दूसरी गुफा में।”
नारी ने पूरा आविष्कार कर लिया था, अग्नि रक्षण प्रणाली का। लेकिन उसे भय था कि अपनी गुफा में पालने पर अग्नि रात्रि को सोते समय कहीं उन्हीं दोनों को न खा जाए।

संसार के वे प्रथम दंपत्ति 2


“मैं तुम्हारी गुफा देख लूँ।”
पुरुष उठ खड़ा हुआ। उत्तर की उसे कोई अपेक्षा न थी। नारी उसका अनुगमन कर रही थी।
“तुम मृगचर्म पर सोती हो ?”
एक विस्तीर्ण शिला पर वह फैला था।
“यह है तुम्हारा भल्ल ? बहुत छोटा है और हलका भी है।”
पुरुष ने उसे उठाया, उछाला ऊपर को और फिर पकड़कर यथास्थान रख दिया।
“अब मैं सोउंगा।” गुफा को उसने अधिक बारीकी से नहीं देखा। मृगचर्म पर लम्बा लेट रहा। जैसे यह उसी की गुफा हो।”
तुम यदि कहीं जाने लगो तो गुफा द्वार शिलावरुद्ध कर देना।”
अत्यन्त परिचित की भाँति उसने कहा।
“तुमने न तो कन्द देखे, न फल।”
पुरुष के गुफा में प्रवेश करते समय तो नारी डर रही थी कि वह उसका संचय खा जाएगा। किन्तु उसकी निरपेक्षता ने उसके मन में दूसरी भावना जाग्रत कर दी। सम्भवतः यह अतिथि सत्कार का प्रथम प्रयास था इस धरती पर।
“मैंने पूरा मधुछत्र ला रखा है और नारियल पात्र में झरने का शीतल जल भी है।”
“मैं तुम्हें लूटने नहीं आया था। पुरुष उठ बैठा। किंतु अब तो कुछ खिला दो।”
उसने उठकर कोई वस्तु ढूंढ़ने या पाने का प्रयास नहीं किया।
“जो अच्छा लगे खा लो !”
नारी अचानक ही गृहिणी हो गयी थी। उसने सब कन्द और फल पुरुष के सामने रख दिए। एक नारियल के खोपरे में मधुछत्र निचोड़ दिया और जल पात्र भी ला रखा।
“मेरे लिए थोड़ा मधु छोड़ देना।”
“मैं अकेला कहाँ भोजन करने जा रहा हूँ।”
नारी का हाथ पकड़कर पुरुष ने उसे भी समीप बैठा लिया। “तुम भी खाओ ! फल और कन्द बहुत हैं और मधु भी दोनों के लिए पर्याप्त है।”
पहली बार पुरुष ने स्थिर बैठकर भरपेट भोजन किया।
भोजन करके लेट गया वह उसी मृगचर्म पर। लेटते ही खर्राटे लेने लगा। नारी देखती रही, देखती रही उसे और फिर अपना पाषाण भल्ल उठाकर द्वार पर जा बैठी।
“तुम्हारी गुफा छोटी है।”
भली प्रकार निद्रा लेकर पुरुष उठा था। गुफा से निकलकर नारी के समीप बैठते हुए उसने कहा,
“अब दोनों साथ साथ एक ही गुफा में रहें, यही अच्छा होगा। मेरी गुफा पर्याप्त बड़ी है और इससे कहीं अधिक सुरक्षित भी।”
उसी दिन सायंकाल नारी अपना भल्ल और नारियल पात्र एवं मृगचर्म लेकर पुरुष की गुफा में आ गयी। सम्भवतः उसी दिन से नारी ने स्वगृह त्याग कर पतिगृह का निवास अपनाया।
अभी भी धरती पर महाकाय डायनासौर का अभाव नहीं हुआ था। दलदलीय भूमि में वे चालीस से साठ हाथ लम्बे प्राणी जिनका रूप मगर एवं गिरगिट से मिलता जुलता था, भरे पेड़ थे। प्रायः ये झील के पन्द्रह बीस हाथ जल ही में रहते थे। जहाँ सघन लम्बी घासें उगी होतीं।
सूखी धरती पर सबसे बड़ा प्राणी था, मैग्नेशियम। यह भी डायनोसौर प्रजाति का ही था। फल एवं पत्ते इसके आहार थे। कंचे बड़े पेड़ों की तीन चार फुट मोटी डालियों को वह मूली के समान तोड़ डालता था।
शेर व्याघ्र को वह इस प्रकार चीर फेंकता, जैसे हम सब प्रातः काल दातून चीरते हैं। उसके अतिरिक्त शेर, व्याघ्र, उनी भैंसे, त्रिखंगी गैंडा ये सब महाभयंकर प्राणी थे उस घोर वन में।
वृक्षों पर गुरिल्ले भरे पड़े थे और वे सब माँसाहारी जाति के थे। ये दलदल से दूर रहते थे। तीन चार हाथ लम्बे पतंगे भी अपने पैर धसाकर पशुओं का रक्त पी जाने को बहुत थे।
उनकी स्फूर्ति और गति ठीक आज के जुलाहे पतिंगे सी थी। सूखी भूमि एवं खोहों में अजगर तथा दूसरी जाति के सर्पों की कमी नहीं थी।
सबसे भयंकर थी डायनोसौर की एक अन्य प्रजाति। वह पृथ्वी पर, दलदल पर और जल में समान गति करता था। यह माँसाहारी अपने से दूने तिगुने मैग्नेशियम या अन्य प्रकार के ब्राँटोसौर का सरलता से शिकार कर लेता था। उसके पंजे व्याघ्र से भी अधिक सुदृढ़ थे। दूसरे पशु इसके लिए चींटी जैसे तुच्छ थे।
दिनभर भयंकर गर्मी पड़ा करती थी। धरती ढकी थी ऊंचे वृक्षों, लताओं एवं घासों से। दलदल अधिक था। वायु में नमी भरी ही रहती थी। संध्या अल्पकालीन होती थी।
रात्रि में सूची भेद्य अन्धकार को ज्येष्ठ की छाया या धूप की भांति एक से दूसरी पंक्ति को डुबाते आते देखा जा सकता था।

संसार के वे प्रथम दंपत्ति

_____1
मैं तुम्हारे स्पर्श को पहचानता हूँ। पुरुष ने सहज स्वर से कहा। “मुझे तुमसे कोई भय नहीं और न मैं उस प्रकार चौंककर भागूँगा, जैसे तुम भागती हो।”
उसने धीरे से दोनों हाथ पकड़ लिए और नेत्रों से उन्हें हटाते हुए पीछे देखा।
“सचमुच तुम बड़े निर्भीक हो।”
नारी के स्वर में किंचित आश्चर्य था।
“यदि कोई डायनोसौर या गुरिल्ला होता हो ?”
“डायनोसौर आँखें नहीं ढक सकता और न इस पहाड़ी पर चढ़ सकता है।”
पुरुष ने हाथ छोड़ दिया था।
“गुरिल्ले के हाथ तो होते हैं किन्तु वह आँखें ढ़ककर शान्त न खड़ा रहता। मैंने तुम्हें गुफा में सोते देख लिया था।”
“यदि मैं उठकर तुम्हारे सिर पर पत्थर दे मारती ?”
नारी को स्वतः आश्चर्य था कि उसने ऐसा क्यों नहीं किया। उसकी आखेट भावना कहाँ चली गई थी ?
“मेरे पास खूब बड़ा पाषाण भल्ल है।”
“मुझे पता है।”
पुरुष ने सहज स्वर में कहा -
“मैंने उसे देख लिया था, द्वार पर से। मेरे भल्ल से आधा ही तो है। मैं एकाकी ऊब गया हूं। तुमसे मित्रता करना चाहता हूँ। तुम आक्रमण कर सकती हो, यह बात मेरे ध्यान में थी। किन्तु मैंने सोचा तुम अधिक चोट नहीं पहुंचा सकोगी। सुकुमार हो तुम।”
“तुम बड़े दुष्ट हो।”
नारी इस नवीन स्तुति से प्रसन्न हो गयी थी। आज प्रथम बार उसकी किसी ने प्रशंसा की थी। उसे विचित्र लगी यह स्तुति। तनिक हंसते हुए उसने कहा
“मेरी गुफा तक सोते समय आ गए। भीतर झाँकते रहे। गुफा की ओर पीठ करके बैठक गए। कुशल थी कि भूख नहीं लगी थी, नहीं तो मारकर खा भी जाते।”
भय से सचमुच वह सिहर उठी और दो पग पीछे हट गयी।
“मुझे माँस से घृणा है।”
पुरुष ने विरक्ति भाव से एक ओर थूक दिया।
“फल और जड़ें मुझे अच्छी लगती हैं और खूब मिल भी जाती हैं। आखेट तो मैं केवल डायनोसौर, गुरिल्ले और शेर जैसे उन जानवरों का करता हूँ, जिनसे मुझे आक्रमण का भय है।”
अपनी भुजा उठायी उसने, सुपुष्ट मांसपेशियों पर नारी की दृष्टि आकर्षित हुए बिना न रहीं।
पुरुष की ओर प्रशंसा भरी दृष्टि से देखते हुए वह बोली,
“लेकिन डायनोसौर तो बहुत बड़ा होता है, उसे कैसे मार लेते हो ? “
उसके कथन में पुरुष के पौरुष के प्रति आश्चर्य मिश्रित प्रशंसा थी। इस ओर से अनभिज्ञ पुरुष ने कहा
“डायनोसौर भारी भरकम जरूर होता है, लेकिन अपने सिर पर की गई चोट को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता।”
“ओह”
नारी ने मृदु स्वर से कहा,
“ मैं अवश्य चीख पड़ती, यदि तुम्हें अपनी गुफा में देख लेती।”
अब तक वह समीप आकर बैठ गयी थी।
“भय की बात तो थी।”
पुरुष के स्वर में आदेश का भाव था।
“तुम गुफा द्वार खुला छोड़कर सो गयी थी। कोई भी शेर या गुरिल्ला भीतर घुस सकता था। ऐसा नहीं करना चाहिए।”
“सचमुच भूल हो गयी।”
नारी जैसे सफाई दे रही हो।
“बहुत थक गयी थी। एक हिरण के पीछे बहुत भागी थी प्रातः से। आकर लौटी और सो गयी। ऐसा कभी पहले नहीं हुआ।”

Wednesday 29 June 2016

शास्त्रार्थ

बहुत समय पहले की बात है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ मेँ निर्णायक थीँ- मंडन मिश्र की धर्म पत्नी देवी भारती। हार-जीत का निर्णय होना बाक़ी था, इसी बीच देवी भारती को
किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिये बाहर जाना पड़ गया।
लेकिन जाने से पहले देवी भारती नेँ दोनोँ ही विद्वानोँ के गले मेँ एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, येँ दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मेँ आपके हार और जीत का फैसला करेँगी। यह कहकर देवी भारती वहाँ से चली गईँ। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।
कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना कार्य पुरा करके लौट आईँ। उन्होँने अपनी निर्णायक नजरोँ से शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया। उनके फैसले के अनुसार आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किये गये और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी।
सभी दर्शक हैरान हो गये कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। एक विद्वान नेँ देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की- हे ! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थीँ फिर वापस लौटते ही आपनेँ ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?
देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मेँ पराजित होने लगता है, और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो इस वजह से वह क्रुध्द हो उठता है और मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे हैँ। इससे ज्ञात होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है।
विदुषी देवी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गये, सबने उनकी काफी प्रशंसा की।
दोस्तोँ क्रोध मनुष्य की वह अवस्था है जो जीत के नजदीक पहुँचकर हार का नया रास्ता खोल देता है। क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तोँ मेँ दरार का कारण भी बनता है। इसलिये कभी भी अपने क्रोध के ताप से अपने फूल रूपी गुणों को मुरझाने मत दीजिये।

पांडवो के जीवन

पांडवो के जीवन में अनगिनत दुःख आये लेकिन उन्होंने इन दुखो को अपना प्रारब्ध मान कर सहा।उन्होंने कभी इन बातो की शिकायत श्रीकृष्ण से नहीं की जो उनके परम् स्नेही थे निकट के संबंधी थे और उस पर पांडव ये भी जानते थे की कृष्ण परम् भगवान है।
पांडवो को कृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा थी।उन्होंने हर स्थिति में कृष्ण पर अपना विश्वास रखा और उनकी शरण में हमेशा अपने आपको सुखी समझा चाहे स्थितियां कितनी भी विपरीत रही हो।
जब युद्ध समाप्त हुआ और पांडवो को उनका राज्य मिल गया तब कृष्ण वापिस द्वारिका जाने लगे तो पांडवो की माता कुंती महारानी ने उनसे प्रार्थना की जो बड़ी अद्भुत है और एक शुद्ध भक्त ही ये प्रार्थना कर सकता है।
उन्होंने भगवान से कहा की हे गोविन्द हमारी जिंदगी में हमेशा दुःख ही दुःख आये ताकि आप हमेशा हमारे साथ रहो।आपने हमारे दुःख से समय में एक पल भी हमें नहीं छोड़ा और आज जब सुख आया है तो आप हमें छोड़ कर जा रहे हो।ऐसा सुख किस काम का जिसमे आप हमारे साथ नहीं रहो इससे तो दुःख ही अच्छा था जो आप हमारे साथ हर कदम पर थे।
कथा का तात्पर्य यही है की दुःखों से कभी घबराना नहीं चाहिए।जैसे एक काबिल व्यक्ति को ही मुश्किल कार्य दिए जाते है उसी तरह जो भगवान के प्रिय होते है उन्ही की परीक्षा भगवान लेते है।दुःख में हम समझते है की हमारा कोई नहीं है पर ये हमारी अज्ञानता है।भगवान हर पल हमारे साथ होते है पर अज्ञानता के कारण हम उन्हें महसूस नहीं कर पाते।
जहा कृष्ण है वहा अन्धकार नहीं है आइये इस भौतिक जगत की माया के अन्धकार को पीछे छोड़ते हुए कृष्ण की शरण की और चले जहा केवल परम् आनंद है।

श्याम बाबा

प्रेमियों, कौन हैं श्याम बाबा? किस कुल में उत्पन्न हुए? क्यों कलयुग के प्रधान देव कहलाये? उन्हें मोरवीनंदन क्यों कहा जाता है? ऐसे कई जिज्ञाषा भरे प्रश्न श्यामबाबा खाटूवाले के विषय में श्यामभक्तो के मन में उभरते है... श्री मोरवीनंदन खाटूश्याम जी की शास्त्रसम्मत दिव्य कथा का वर्णन स्वयं भगवान श्री वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड “कौमारिका खंड”में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से किया है, आइये हम सब भी उस दिव्य कथा का रसास्वादन करे...

श्रीमद्भागवत गीता के मतानुसार जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब भगवान् साकार रूप धारण कर दीन भक्तजन, साधु एवं सज्जन पुरुषों का उद्धार तथा पाप कर्म में प्रवृत रहने वालो का विनाश कर सधर्म की स्थापन किया करते है... उनके अवतार ग्रहण का न तो कोई निश्चित समय होता है और न ही कोई निश्चित रूप धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि को देखकर जिस समय वे अपना प्रगट होना आवश्यक समझते है, तभी प्रगट हो जाते है...

ऐसे कृपालु भगवान के पास अपने अनन्य भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता... परन्तु सच्चा भक्त कोई विरला ही मिलता है... यद्यपि उस सच्चिदानंद भगवान के भक्तो की विभिन्न कोटिया होती है,परन्तु जो प्राणी संसार, शरीर तथा अपने आपको सर्वथा भूलकर अनन्य भाव से नित्य निरंतर केवल श्री भगवान में स्थिर रहकर हेतुरहित एवं अविरल प्रेम करता है, वही श्री भगवान को सर्वदा प्रिय होता है...श्री भगवान के भक्तो की इसी कोटि में पाण्डव कुलभूषण श्री भीमसेन के पोत्र एवं महाबली घटोत्कच के पुत्र, मोरवीनंदन वीर शिरोमणि श्री बर्बरीक भी आते है...

पाण्डुनंदन महाबली भीम ने हिडिम्बा से गंधर्व विवाह रचाया था... हिडिम्बा के गर्भ से वीर घटोत्कच नामक शूरवीर योद्धा का जन्म हुआ था... कालांतर में घटोत्कच अपनी माता हिडिम्बा की आज्ञा से अपने महाबली पिता भीम, श्री कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि के दर्शनार्थ इन्द्रप्रस्थ आया...

भगवान श्री कृष्ण इस पराक्रमी वीर घटोत्कच को देखकर, प्रसन्न हो पांडवो से बोले - "इस युवा योद्धा के विवाह का शीघ्र प्रबंध किया जाये"

इस पर पांडवो ने कहा- "भगवन! कहाँ और कैसे सम्बन्ध तय हो, यह आप ही सुनिश्चित करे..."

भगवन श्री कृष्ण ने कहा - "इसके समान ही अत्यंत बुद्धिमान एवं वीर श्रेष्ठ मूर दैत्य की अति सुन्दर बाला कामकटंककटा, जो मूर दैत्य की औरस पुत्री है, इस सुभट योद्धा के लिए वही अनुकूल स्त्री है... घटोत्कच ही अपने विवेक द्वारा उसे शास्त्र विद्या में परास्त कर सकता है... मैं घटोत्कच को स्वयं दीक्षित कर उस मृत्यु स्वरूप नारी को वरण करने हेतु भेजूँगा..."

श्री कृष्ण के हाथो दीक्षित होकर घटोत्कच मोरवी को वरण करने के उद्देश्य से चल पड़े... रास्ते में अनेको नदियों, नालो, जंगलो, पहाड़ों, खूंखार राक्षसों, नर भक्षक, हिंसक एवं भयानक जानवरों को परास्त करता हुआ घटोत्कच कामकटंककटा के दिव्या प्रासाद (महल) के समीप पहुंचा...

महल के चारों ओर उपस्थित प्रहरी युवतियों ने सौम्य राजकुमार के पास आकार कहा -"हे भद्रपुरुष! तुम यहाँ क्यों आये हो? क्या तुम अपनी मृत्यु का वरण करने आये हो? क्या तुम्हे महल के द्वार पर लटकती हुई यह मुंड मालाये नहीं दिख रही? क्या तुम इन वंदनवारों में अपना शीश जड़वाना चाहते हो?तुम शीघ्र ही यहाँ से वापस लौट जाओ ओर अपने प्राणों की रक्षा करो..."

प्रहरी दैत्य बालाओं की बात सुनकर घटोत्कच ने कहा - "हे देवियों! मैं कायर पुरुष नहीं हूँ, जो तुम्हारे कहने से लौट जाऊं.. जाओ अपनी महारानी से कहो कि एक वीर पुरुष तुमसे भेंट करने आया है... वह तुमसे विवाह करना चाहता है..."

घटोत्कच की दृढ़ता को देखकर उन दैत्य बालाओं ने घटोत्कच को महल के अन्तः पुर में जाने हेतु मार्ग दे दिया... घटोत्कच महारानी कामकटंककटा (मोरवी) के समक्ष उपस्थित हो गए... मोरवी घटोत्कच के रूप एवं सौंदर्य को देख कर उस पर मुग्ध हो गयी... उसने माता कामाख्या को धन्यवाद दिया, कि क्या उसने इसी सुरवीर से विवाह करने हेतु उसे भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र से बचाया था... मोरवी ने सोचा यह तो कोई दिव्य पुरुष है, फिर भी वह उसकी परीक्षा लेने को उद्धयत हुई...

मोरवी ने घटोत्कच से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछने प्रारंभ कर दिए... उसने कहा - "यहाँ आने के पूर्व क्या अपने मेरी प्रतिज्ञा के बारे में जाना? क्या आप अपने विवेक और बल से मुझे परास्त करने में स्वयं को सक्षम समझते है? क्या आपको अपने प्राणों का मोह नहीं है? क्या महल के प्रवेश द्वार पर अपने मुंडो की माला नहीं देखी? अब भी मैं तुमपर तरस खाती हूँ, तुम व्यर्थ में अपने प्राणों को मत गँवाओ, लौट जाओ..."

मोरवी की इस प्रकार की बाते सुन घटोत्कच ने कहा - "हे मृत्यु स्वरूप नारी! मैंने तुम्हारा सम्पूर्ण संविधान पढ़ लिया है... अब तुम शीघ्र ही अपने शास्त्र व शस्त्र रण कौशल हेतु तैयार हो जाओ..."

मोरवी ने प्रत्युत्तर दिया - "पहले तुम शास्त्र विद्या का कोई ऐसा प्रमाण दो, कि जिससे मुझे निरुत्तर कर सको..."

घटोत्कच ने कहा - "हे सुमति! किसी व्यक्ति के यहाँ उसकी पत्नी से एक कन्या ने जन्म लिया.. कन्या को जन्म देने के बाद वह चल बसी...कन्या के पिता ने उसे पालन पोषण कर बड़ा किया.. जब वह कन्या बड़ी हुई तो पिता की बुद्धि भ्रष्ट हो गई... वह अपनी पुत्री से बोला मैंने अज्ञात स्थान से लाकर तुम्हारा पालन पोषण किया है... अब तुम मुझसे अपना विवाह रचाकर मेरी कामना पूरी करो... सम्पूर्ण वृतांत से अनभिज्ञ वह कन्या उस व्यक्ति (अपने पिता) से विवाह कर लेती है... उनके संसर्ग से उन्हें एक कन्या की प्राप्ति होती है... अब हे सुभद्रे! तुम ही बताओ कि उनके संसर्ग से जन्मी वह कन्या उस नीच, अधम एवं कामी पुरुष की पुत्री हुई या दौहित्री?"

घटोत्कच का यह प्रश्न सुन मोरवी निरुत्तर हो गई...उसने आवेश में आकार स्वयं को निरुत्तर करने वाले को शस्त्र द्वारा परास्त करना चाहा और अपना खेटक उठाने का प्रयास किया... तभी वीर घटोत्कच ने मोरवी को अपनी बाँहों की फाँस में बांध कर पृथ्वी पर पटक दिया... मोरवी घटोत्कच के हाथों शास्त्र और शस्त्र दोनों विद्याओ में परास्त हो चुकी थी... उसने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए पांडवनंदन घटोत्कच पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया...

घटोत्कच ने कहा- सुभद्रे! उच्च कुल के लोग चोरी छुपे विवाह नहीं करते है, तुम आकाश गामिनी हो,अपनी पीठ पर बिठाकर मुझे मेरे परिजनों के निकट ले चलो.. हम दोनों का विवाह उनके समक्ष ही होगा..."
मोरवी ने घटोत्कच की आज्ञा का पालन किया... वह उन्हें अपनी पीठ पर बिठाकर उनके परिजनों के समक्ष ले आई...यहाँ श्री कृष्ण एवं पांडवो की उपस्थिति में घटोत्कच का विवाह मोरवी के साथ विधि विधान से संपन्न किया गया...द्रौपदी ने नववधू को आशीर्वाद दिया... घटोत्कच अपनी पत्नी मोरवी के साथ पुनः महल में लौट आये... फिर घटोत्कच कुछ दिन अपनी पत्नी मोरवी के महल में रहने के पश्चात यहाँ से चले आये...

कुछ समय पश्चात मोरवी ने एक शिशु को जन्म दिया... घटोत्कच ने उस बालक के बाल बब्बर शेर के जैसे घुंघराले होने के कारण उसका नाम 'बर्बरीक' रखा... जन्म लेने के तत्काल पश्चात पूर्णत: विकसित उस बालक को लेकर महाबली घटोत्कच, भगवान श्री कृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए...

भगवन श्रीकृष्ण ने घटोत्कच एवं वीर बर्बरीक का यथोचित अभिवादन कर यु कहा - "हे पुत्र मोर्वये! पूछो तुम्हे क्या पूछना है, जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो..." तत्पश्चात बालक बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा - "हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है...?"बालक बर्बरीक के इस निश्चल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा - "हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है... जिसके लिये तुम्हे बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी... अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में सिद्ध अम्बिकाओ व नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो.."

श्री कृष्ण के इस प्रकार कहने पर, बालक वीर बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम किया... एवं श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को "सुहृदय" नाम से अलंकृत किया...

त्पश्चात वीर बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान अर्जित कर महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक सिद्ध अम्बिकाओ की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान की, जिससे तीनो लोको में विजय प्राप्त की जा सकती थी... एवं उन्हें "चण्डील" नाम से अलंकृत किया...

तत्पश्चात सिद्ध अम्बिकाओ ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पुर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयी... कुछ समय पश्चात जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ और वे वीर बर्बरीक के सुरक्षा में सिद्धि प्राप्तियो हेतु यज्ञ करने लगे. वीर बर्बरीक ने उस सिद्ध यज्ञ में विघ्न डालने आये पिंगल-रेपलेंद्र- दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भांति भस्म करके उनके यज्ञ संपूर्ण कराया... विजय नाम के उस ब्राह्मण का यज्ञ संपूर्ण करवाने पर देवता और देवियाँ वीर बर्बरीक से और भी प्रसन्न हुए और प्रकट हो यज्ञ की भस्म स्वरूपी शक्तियां प्रदान की... और विजय विप्र और वीर बर्बरीक को आशीर्वाद देकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गयी... इन्ही वीर बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने एवं सैदव निर्बल एवं असहाय लोगो की सहायता करने का व्रत लिया है...

एक दिन पांडव वनवास काल में भ्रमण करते हुए भूखे प्यासे उस तालाब के पास पहुँचे, जिससे वीर बर्बरीक सिद्ध अम्बिकाओ के पूजन हेतु जल लिया करते थे... महाबली भीम प्यास से उतावले हो, बिना अपने हाथ- पैर धोए ही उस तालाब में प्रवेश कर गए... बर्बरीक ने भीम को ऐसा करते हुए देख लिया और उन्हें अनेक अपशब्द कहे... दोनों में घमासान युद्ध हुआ... वीर बर्बरीक ने महाबली भीम को अपने हाथों से उठा लिया और उन्हें सागर में फेंकना चाहा... तभी वहाँ सिद्ध अम्बिकाए आ गई... उन्होंने बर्बरीक से महाबली भीम का वास्तविक परिचय करवाया...बर्बरीक को अपार पश्चताप हुआ, वह अपने प्राणों का अंत करने को उद्यत हुए... सिद्ध अम्बिकाओ एवं भगवन शंकर ने बर्बरीक का मार्ग दर्शन करते हुए उन्हें महाबली भीम के चरणस्पर्श कर क्षमा याचना करने का सुझाव दिया... महाबली भीम ने अपने सुपोत्र के पराक्रम से प्रसन्न हुए और बर्बरीक को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा हो गए...

धृतराष्ट्र पुत्रों ने पांडवो से छल-कपट कर उनसे उनका सर्वस्व छीन लिया था... पांडव वन-वन भटकने को विवश कर दिए गए... परिणाम स्वरुप महाभारत के महासंग्राम
का समय अ गया...

वीर बर्बरीक को जब इस मह्संग्राम की सुचना मिली तो अपनी माता मोरवी एवं आराध्य शक्तियां की आज्ञा लेकर युद्ध क्षेत्र तक आ गए... नीले अश्व पर आरूढ़ हो वीर बर्बरीक ने पांडवो सेना के निकट ही अपना अश्व रोका और उनके संवाद ध्यान से सुनने लगे...

पास ही कौरव पक्ष में भी चर्चा हो रही थी कि - 'कौन-कौन, कितने समय में, किस-किस के सहयोग से, कितने दिनों में युद्ध जीत सकता है... भीष्म पितामह और कृपाचार्य यह युद्ध एक-एक महीने में,द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा पन्द्रह और दस दिनों में, और कर्ण इसे मात्र छह दिनों में ही जीत सकते है...'

इधर पांडवो के खेमे से चर्चा के स्वर सुने दे रहे थे, कि - 'गर्व युक्त वाणी में अर्जुन कह रहे थे कि वह अकेले मात्र एक दिन में ही यह युद्ध जीत सकते है...' अर्जुन की यह वाणी सुनकर बर्बरीक ने चर्चा के बीच में ही बोल दिया कि - 'आप किसी को भी यह युद्ध लड़ने की आवश्यकता नहीं है, मैं स्वयं अकेला ही अपने अजेय आयुधों के साथ इस युद्ध में एक ही पल में विजय प्राप्त कर लूँगा... आपको विश्वास नहीं हो तो मेरे पराक्रम की परीक्षा ले ले...?"

इसे सुनकर अर्जुन बड़े ही लज्जित हुए और श्री कृष्ण कि और देखने लगे... इस पर श्रीकृष्ण ने कहा -'यह नव आगंतुक ठीक ही तो कह रहा है.. पूर्व काल में इसने पाताल लोक में जाकर नौ करोड़ पलाशी दैत्यों का संहार कर दिया था...'

भगवान श्री कृष्ण ने अब स्वयं उस वीर के पराक्रम को जानना चाहा और उससे पूछे -'वत्स! भीष्म,द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और दुर्योधन आदि महारथियों द्वारा सुरक्षित सेना पर भगवान शंकर द्वारा ही विजय पाना संभव है, तो तेरे इन नन्हे हाथो से यह कैसे संभव होगा...'

इतना सुनते ही वीर बर्बरीक ने अपने तुणीर से एक बाण निकाला... उसमे उसने सिंदूर जैसे भस्म को भर दिया... धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींचकर उसे छोड़ दिया... उस बाण से जो भस्म उड़ा,जिसने समस्त वीरो के मर्म स्थल को छु लिया... केवल पांच पांडव, अश्वत्थामा और कृपाचार्य पर उस बाण का प्रभाव नहीं पड़ पाया..

वीर बर्बरीक ने कहा - 'देखो, मैंने इस बाण के प्रभाव से युद्ध स्थल में विराजमान समस्त योद्धाओं के मर्म को जान लिया है... अब इस दूसरे बाण से इन सभी को यमलोक पहुँचा दूँगा... सावधान! आप में से किसी ने भी कोई अस्त्र उठाया तो आपको आपके धर्म की सौगंध..."

वीर बर्बरीक ने जैसे ही उपर्युक्त बात कही, वैसे ही श्री कृष्ण ने कुपित होकर सुदर्शन चक्र द्वारा वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर दिया... वहाँ पर उपस्थित सभी लोगो को इस घटना से बड़ा ही विस्मय हुआ.. घटोत्कच इस दृश्य को देखकर मूर्छित हो गए... पांडवो में हाहाकार छा गया... तभी वह १४देवियाँ और सिद्ध अम्बिकायें प्रकट हो गयी... वह पुत्र शोक से संतप्त घटोत्कच को सांत्वना देने लगी...

सिद्ध अम्बिकायें उच्च स्वर में शिरोच्छेदन के रहस्य को उजागर करते हुए बोली - "देवसभा में यह वीर शिरोमणि अभिशप्त सुर्यवर्चा नामक यक्षराज था... अपने पूर्व अभिमान वश देवसभा से निष्काषित होकर इसने बर्बरीक के रूप में जन्म लिया था... ब्रह्मा जी के अभिशाप वश इसका शिरोच्छेदन भगवान श्री कृष्ण ने किया है... अतः आप लोग किसी बात की चिंता न करे और इसकथा को विस्तार से सुनिए"'

“मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित हो बोली- “ हेदेवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहनकरने में सक्षम हूँ.... पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालनभली भांति करती रहती हूँ,पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं दुखित हूँ,... आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ...”

गौस्वरुपा धरा की करूँ पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छागया...थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...”

देव सभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए... आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ ...”

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है ... इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे ... तुम्हारा जन्म राक्षस कुल में होगा,तुम्हारा शिरोछेदन एक धर्मयुद्ध के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे...

ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही देव सूर्य वर्चा का अभिमान भी चूर चूर हो गया... वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ाऔर विनम्र भाव से बोला -“ भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...”

यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुणा भाव उमड़ पड़े... वह बोले - “वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन विष्णु तुम्हारे शीश का छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे देवताओं के समान पूज्य बननेका सौभाग्य प्राप्त होगा...“

तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -

तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !
शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.६५)

भावार्थ : "उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे...

अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख कर सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो
गए...

कालान्तर में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण के रूप में पृथ्वी में अवतार लिया और उन्होंने मूर दैत्य का वध कर डाला... तत्पश्चात उनका नाम मुरारी पुकारा जाने लगा... जैसे ही अपने पिता के वध का समाचार मूर दैत्य की पुत्री कामकटंककटा(मोरवी) को प्राप्त हुआ वह अजय अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होश्री कृष्ण से युद्ध करने लगी... वह दैत्या अपने अजेय खेटक( चंद्राकार तलवार) से भगवान के सारंग धनुष से निकलने वाले हर तीर के टुकड़े टुकड़े करने लगी... दोनो के बीच घोर संग्राम छिड़ा हुआ था... अब भगवान कृष्ण के पर सुदर्शन चक्र के अतिरिक्त स्वयं को सुरक्षित रखने के कोई विकल्प नहीं था... अतः ज्योंही श्री कृष्ण ने अपना अमोघ अस्त्र अपने हाथ में लिया , त्योंही माता कामाख्या ने अपनी भक्त्या मोरवी की रक्षार्थ वहाँ उपस्थित हो कर, उसे भगवान श्री कृष्ण के बारे में बताया... “ हे मोरवी ! जिस महारथी से तू घोर संग्राम कर रही है, यही भगवान श्री कृष्ण तेरे भावी ससुर होंगे...तुम शांत हो जाओ...इनके आशीर्वाद से तुम्हे इच्छित वरदान मिलेगा...”

माता कामाख्या से अपने कल्याणकारी वचन को सुनकर मोरवी शांत होकर श्री कृष्ण
भगवान के चरणों में गिर पड़ी और युद्ध स्थल से देवियों से आशीर्वाद लेती हुई अपने स्थान में आ गई...

वहाँ उपस्थित सभी लोगो को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा - "अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया... इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए, और इसमें श्रीकृष्ण का कोई दोष नहीं है...”

"इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !
अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!
यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !
उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! ( स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)

भावार्थ : "ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त ( श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया... और इस नविन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया... और कहा कि, "मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आप लोग इसकी स्वीकृति दीजिए...

"ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !
यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !
तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)

भावार्थ : ततपश्चात मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा : " हे वत्स ! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित है, और जब तक सूर्य चन्द्रमा है,तब तक तुम सब लोगो के लिए पूजनीय होओगे...

देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !
स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)

भावार्थ : "तुम सैदव देवीयों के स्थानों में देवीयों के समान विचरते रहोगे...और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवीयो की मर्यादा जैसी है, वैसी ही बनाई रखोगे...

बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !
पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७७ )

भावार्थ : "तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात पित्त कफ से पिटक रोग होंगे, उनको पूजा पाकर बड़ी सरलता से मिटाओगे...

"इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !
इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७८ )

भावार्थ : "और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो... इस भांति वासुदेव श्रीकृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अन्तर्धान कर गई...

"बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !
देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !
ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)

भावार्थ : "बर्बरीक जी का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं बर्बरीक जी के धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया ( क्योकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था)...

उसके वाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ..."योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुई १४ देवियों ( सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा,भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चंडी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवा कर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर अमर कर दिया... एवं भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओ को पूर्ण करने का वरदान दिया... वीर बर्बरीक ने भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया जिसे श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊंचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की... एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया...

महाभारत क युद्ध समाप्ति पर महाबली श्री भीमसेन को यह अभिमान हो गया कि, यह महाभारत का युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है, तब श्री अर्जुन ने कहा कि, वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाये की उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है.... तब वीर बर्बरीक के शीश ने महाबली श्रीभीमसेन का मान मर्दन करते हुए उत्तर दिया की यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की निति के कारण जीता गया.... और इस युद्ध में केवल भगवान श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था, अन्यत्र कुछ भी नहीं था... वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा... एवं उस देवस्वरुप शीश पर पुष्प की वर्षा होने लगी... देवताओं की दुदुम्भिया बज उठी...

तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा - "हे वीर बर्बरीक आप कलिकाल में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तो के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे... अतएव आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिये, हम लोगो से जो भी अपराध हो गए हो, उन्हें कृपा कर क्षमाकीजिये"

इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड गयी... सैनिको ने पवित्र तीर्थो के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजाएँ शीश के समीप फहराई... इस दिन सभी ने महाभारत का विजय पर्व धूमधाम से मनाया...

कालान्तर में वीर बर्बरीक का शालिग्राम शिला रूप में परिणित वह देवत्व प्राप्त शीश राजस्थान के सीकर जिले के खाटू ग्राम में बहुत ही चमत्कारिक

निरधनको धन राम

एक राजा भगवान्‌के बड़े भक्त थे, वे गुप्त रीतिसे भगवान्‌का भजन करते थे । उनकी रानी भी बड़ी भक्त थी । बचपनसे ही वह भजनमें लगी हुई थी । इस राजाके यहाँ ब्याहकर आयी तो यहाँ भी ठाकुरजीका खूब उत्सव मनाती, ब्राह्मणोंकी सेवा, दीन-दुःखियोंकी सेवा करती; भजन-ध्यानमें, उत्सवमें लगी रहती । राजा साहब उसे मना नहीं करते । वह रानी कभी-कभी कहती कि ‘महाराज ! आप भी कभी-कभी राम-राम‒ऐसे भगवान्‌का नाम तो लिया करो ।’ वे हँस दिया करते । रानीके मनमें इस बातका बड़ा दुःख रहता कि क्या करें, और सब बड़ा अच्छा है । मेरेको सत्संग, भजन, ध्यान करते हुए मना नहीं करते; परन्तु राजा साहब स्वयं भजन नहीं करते ।
ऐसे होते-होते एक बार रानीने देखा कि राजासाहब गहरी नींदमें सोये हैं । करवट बदली तो नींदमें ही ‘राम’ नाम कह दिया । अब सुबह होते ही रानीने उत्सव मनाया । बहुत ब्राह्मणोंको निमन्त्रण दिया; बच्चोंको, कन्याओंको भोजन कराया, उत्सव मनाया । राजासाहबने पूछा‒‘आज उत्सव किसका मना रही हो ? आज तो ठाकुरजीका भी कोई दिन विशेष नहीं है ।’रानीने कहा‒‘आज हमारे बहुत ही खुशीकी बात है ।’ क्या खुशीकी बात है ? ‘महाराज ! बरसोंसे मेरे मनमें था कि आप भगवान्‌का नाम उच्चारण करें । रातमें आपके मुखसे नींदमें भगवान्‌का नाम निकला ।’ निकल गया ? ‘हाँ’ इतना कहते ही राजाके प्राण निकल गये । ‘अरे मैंने उमरभर जिसे छिपाकर रखा था, आज निकल गया तो अब क्या जीना ?’
गुप्त अकाम निरन्तर ध्यान सहित सानन्द ।
आदर जुत जपसे तुरत पावत परमानन्द ॥
ये छः बातें जिस जपमें होती हैं, उस जपका तुरन्त और विशेष माहात्म्य होता है । भगवान्‌का नाम गुप्त रीतिसे लिया जाय, वह बढ़िया है । लोग देखें ही नहीं, पता ही न लगे‒यह बढ़िया बात है परंतु कम-से-कम दिखावटीपन तो होना ही नहीं चाहिये । इससे असली नाम-जप नहीं होता । नामका निरादर होता है । नामके बदले मान-बड़ाई खरीदते हैं, आदर खरीदते हैं, लोगोंको अपनी तरफ खींचते हैं‒यह नाम महाराजकी बिक्री करना है । यह बिक्रीकी चीज थोड़े ही है ! नाम जैसा धन, बतानेके लिये है क्या ? लौकिक धन भी लोग नहीं बताते, खूब छिपाकर रखते हैं । यह तो भीतर रखनेका है, असली धन है ।
माई मेरे निरधनको धन राम ।
रामनाम मेरे हृदयमें राखूं ज्यूं लोभी राखे दाम ॥
दिन दिन सूरज सवायो उगे, घटत न एक छदाम ।
सूरदास के इतनी पूँजी, रतन मणि से नहीं काम।

वसुदेव- देवकी



वसुदेव जी ज्ञानी और गुणवान थे। देवकी कंस की चचेरी बहन थी। कंस देवकी से बहुत प्रेम करता था। अत: उसने वसुदेव जी के गुणों को विचार कर धूम-धाम से देवकी का विवाह उनके साथ कर दिया।
विवाह के बाद जव कंस वसुदेव- देवकी को विदा करने जा रहा था। तब आकाशवाणी हुई कि कंस! जिस देवकी को तू इतना प्रेम करता है इसी के अष्टम गर्भ से तेरी मृत्यु होगा। आकाशवाणी सुनकर कंस ने देवकी के बाल पकड़ लिए और मारने के लिए तैयार हो गया। तभी वसुदेव जी ने उसे समझाया कि देवकी ने तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा। हमारा जो भी पुत्र होगा मै उसे लाकर तुम्हे दे दूंगा। यह मेरा प्रण है।
लेकिन कंस ने  वसुदेव-देवकी को  कारागृह में  बंदी वना लिया।
इसके उपरांत देवकी का प्रथम पुत्र हुआ जिसका नाम था कीर्तीमान।
उसे कंस को वसुदेव जी ने दिया। कंस ने कहा कि हे वसुदेव! मुझे तो आठवें पुत्र से डर है। यह तो पहला है। इसीलिए आप इसे ले जाएं। वसुदेव जी भी विचारने लगे कि कंस को कैसे दया आ गई। उसी समय देवर्षि नारद जी कंस के पास आकर कहने लगे कि हे कंस! आकाशवाणी ने आंठवा कहा था लेकिन देवता उल्टा भी गिनते है। यदि वे उल्टा गिनने लगे तो पहला ही आंठवा हो सकता है। अत: सावधान हो जाओ। शायद नारद जी ने सोचा होगा कि कंस यदि पुण्य करने लगा तो भगवान को आने में देरी होगी। इसलिए यदि यह पाप का घड़ा जल्दी भर जाए तो भगवान जल्दी आएंगे और इन दुष्टो से पृथ्वी का भार हरण करेंगे। कंस ने वसुदेव जी के पुत्रों को मारना शुरू कर दिया। वसुदेव जी ने एक एक करके  देवकी के छ: पुत्रों को कंस को समर्पित कर दिया और कंस ने उन छ: पुत्रों  की हत्या कर दी। ये छ: पुत्र ही छ: विकार है।

कहने का अर्थ यह है कि जब तक विकार नष्ट नहीं होता, तब तक विवेक जागृत नहीं होता। विवेक के बिना परमात्मा नहीं मिलता। इसलिए कंस ने पहले विकारों का नाश किया। विवेक ही बलराम है। बलराम रूप विवेक का अवतरण हो तब परमात्मा रूप कृष्ण मिलता है।

गौमूत्र की महत्ता

गाय का दूध ही नहीं मूत्र भी अमृत होता है और इनके सेवन से आपके आसपास कोई बीमारी फटकती भी नहीं है और आप स्वस्थ रहते हैं. ये बातें प्राचीन काल से ही कही जा रही हैं. गौमूत्र की महत्ता की चर्चा तो पौराणिक कथाओं से लेकर वर्तमान में आयुर्वेद तक होती रही है.
हमेशा से ये कहा जाता रहा है कि गौमूत्र में न सिर्फ रोग विनाशक तत्व पाए जाते हैं बल्कि सोना भी पाया जाता है इसीलिए इसके सेवन से शरीर को रोग प्रतिरोधी क्षमता मिलती है. गौमूत्र में सोना पाए जाने की बात को अब तक भले ही अतिश्योक्ति माना जाता रहा हो लेकिन अब तो वैज्ञानिकों ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है.
हाल ही में जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (जेएयू) के वैज्ञानिकों ने अपने विश्लेषण के बाद पाया कि गाय के मूत्र में सोने के कण होते हैं. ये प्रयोग गिर की गायों पर किया गया था. आइए जानें वैज्ञानिकों ने अपने विश्लेषण में क्या पाया.
गौमूत्र में होता है सोनाः
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने गिर की 400 गांवों के मूत्र के विश्लेषण के बाद पाया कि उसमें सोने के अंश हैं. गाय के एक लीटर मूत्र में 3 मिलीग्राम से लेकर 10 मिली ग्राम तक सोने के कण पाए गए. ये सोना आयोनिक रूप में मिला, जोकि पानी में घुलनशील गोल्ड साल्ट है.
जेएयू के बायोटेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट के प्रमुख डॉक्टर बीए गोलाकिया के नेतृत्व में रिसर्चर्स की टीम ने गाय के मूत्र के सैंपल्स का विश्लेषण करने के लिए गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्टोरमेट्री (जीसी-एमसी) विधि का प्रयोग किया.
जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को मिला गिर की गायों के मूत्र के सैंपल में सोना
डॉक्टर गोलाकिया ने कहा, 'अब तक हमने गाय के मूत्र में सोने की मौजूदगी और इसके चिकित्सीय गुणों के बारे में हमारे प्राचीन ग्रंथों से सुना था.
इस बात को प्रमाणित करने के लिए कोई विस्तृत वैज्ञानिक विश्लेषण मौजूद नहीं था इसलिए हमने गांव के मूत्र पर रिसर्च करने का निर्णय लिया. हमने गिर गाय के मूत्र के 400 सैंपल्स का विश्लेषण किया और उसमें सोने का अंश मिला.'
गोलाकिया ने कहा कि गाय के मूत्र में पाए जाने वाले सोने को निकाला जा सकता है और कैमिकल प्रक्रिया से उसे ठोस बनाया जा सकता है. दिलचस्प बात ये है कि इन वैज्ञानिकों ने न सिर्फ गायों में बल्कि भैंसों, भेड़ों और बकरियों के मूत्र के सैंपल का भी विश्लेषण किया लेकिन सोना सिर्फ गाय के मूत्र में ही मिला. साथ ही इन जानवरों में से सिर्फ गाय के मूत्र में ही एंटी-बायोटिक तत्व पाए गए.
गिर की गायों के मूत्र में पाए गए 5100 तत्वों में से 388 तत्व औषधीय रूप से जबर्दस्त कीमती हैं और इनसे कई असाध्य बीमारियां ठीक हो सकती हैं. गिर की गायों के मूत्र के सैंपल का विश्लेषण करने के बाद अब जेएयू के वैज्ञानिक देश की सभी 39 देशी प्रजातियों की गायों के मूत्र के सैंपल्स का विश्लेषण करेंगे.
क्या होती है गिर गाय की खासियतः
गिर की गायें गुजरात के गिर के जंगलों और सौराष्ट्र में पाई जाती हैं. इन्हें इनकी मजबूत कद-काठी और गायों की अन्य प्रजातियों से कहीं ज्यादा दूध देने के लिए जाना जाता है. इन गायों की डिमांड इतनी ज्यादा है कि एक गिर गाय की औसत कीमत 60 हजार रुपये से शरू होती है जो कई बार लाखों में भी चली जाती है.
गिर गाय एक लैक्टेशन (दूध देने) चक्र के दौरान अधिकतम 5 हजार लीटर तक दूध दे सकती है, जोकि औसतन 2000 से 2500 लीटर तक होता है. हाल ही में गिर गायें तब चर्चा में आई थीं जब गुजरात ने इन्हें मध्य प्रदेश को देने से मना कर दिया था. इससे पहले गुजरात सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद गिर के शेरों को भी मध्य प्रदेश को देने से मना कर चुका है.

टमाटर!


टमाटर! ये मीठे, रसीले और स्वादिष्ट होते हैं। हर कोई जानता है, कि ये आप के लिए अच्छे होते हैं।
क्या हर किसी को विशेष रूप से पता है, कि टमाटर एक स्वस्थ भोजन क्यों है? इनमें विटामिन सी होता है? इनमें कैलोरी कम होती हैं, लेकिन इतना सब कुछ नहीं है! लाल, पके, कच्चे टमाटर (एक कप या 150 ग्राम) को परोसना विटामिन ए, सी,के, फोलेट और पोटेशियम का एक अच्छा स्रोत है।
टमाटर में संतृप्त वसा, कोलेस्ट्रॉल, कैलोरी और सोडियम स्वाभाविक रूप से कम होता है। टमाटर थियमिन, नियासिन, विटामिन बी -6, मैग्नीशियम, फास्फोरस और तांबा, भी प्रदान करता है, जो सभी अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। उन सबके ऊपर एक चम्मच टमाटर आपको देगा 2 ग्राम फाइबर, जो दिन भर में जितना फाइबर चाहिये उसका 7 प्रतिशत होगा। जो टमाटर में अपेक्षाकृत उच्च पानी भी होता है, जो उन्हें गरिष्ठ भोजन बनाता है।
सामान्यत: टमाटर सहित अधिक सब्जियां और फल खाने से उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल, स्ट्रोक, और हृदय रोग से सुरक्षा मिलती है। आइये देखें, कि टमाटर को एक उत्कृष्ट स्वस्थ विकल्प कौन बनाता है।
स्वस्थ त्वचा टमाटर आपकी त्वचा बहुत अच्छी कर देता है। भी गाजर और शकरकंद में भी पाया जाने वाला बीटा कैरोटीन, सूर्य की क्षति से त्वचा की रक्षा करने में मदद करता है। टमाटर का लाइकोपीन पराबैंगनी प्रकाश क्षति से भी त्वचा को कम संवेदनशील बनाता है, जो लाइनों और झुर्रियों का एक प्रमुख कारण होता है।
मजबूत हड्डियां टमाटर हड्डियों को मजबूत बनाता है।टमाटर में विटामिन के और कैल्शियम दोनों ही हड्डियों को मजबूत बनाने और मरम्मत के लिए बहुत अच्छे होते हैं। देखा गया है, कि लाइकोपीन हड्डियों को सुधारता भी है, जो ऑस्टियोपोरोसिस से लड़ने के लिए बहुत बढ़िया तरीका है।
कैंसर से लड़ना-
टमाटर प्राकृतिक रूप से कैंसर से लड़ता है। प्रोस्टेट, गर्भाशय ग्रीवा, मुंह, ग्रसनी, गला, भोजन-नलिका, पेट, मलाशय, गुदा संबंधी, प्रोस्टेट और डिम्बग्रंथि के कैंसर सहित कई तरह के कैंसर के खतरे को कम कर सकता है। टमाटर के एंटीऑक्सीडेंट (विटामिन ए और सी) फ्री रैडिकल्स से लड़ते हैं
रक्त शर्करा-
टमाटर आपकी रक्त शर्करा को संतुलित रख सकता है। टमाटर, क्रोमियम का एक बहुत अच्छा स्रोत हैं, जो रक्त शर्करा को नियंत्रित करने में मदद करता है।
दृष्टि-
टमाटर आपकी दृष्टि में सुधार कर सकता है। टमाटर जो विटामिन ए प्रदान करता है, वो दृष्टि में सुधार और रतौंधी को रोकने में मदद कर सकता है। हाल के शोध से पता चला है कि, टमाटर लेने से धब्बेदार अध: विकृति, एक गंभीर और अपरिवर्तनीय आंख की स्थिति को कम करने में मदद मिल सकती है।
पुराना दर्द-
टमाटर पुराने दर्द को कम कर सकता है। अगर आप उन लाखों लोगों में से एक हैं, जिनको हल्का और मध्यम पुराना दर्द रहता है (गठिया या पीठ दर्द ), तो टमाटर दर्द को खत्म कर सकता है। टमाटर में उच्च बायोफ्लेवोनाइड और कैरोटीन होता है, जो प्रज्वलनरोधी कारक के रूप में जाना जाता है।
वजन घटाना -
टमाटर आपको आपका वजन कम करने में मदद कर सकता है। अगर आप एक समझदार आहार और व्यायाम की योजना पर हैं, तो अपने रोजमर्रा के भोजन में बहुत सारा टमाटर शामिल करें। ये एक अच्छा नाश्ता बनाएंगे और सलाद, कैसरोल, सैंडविच और अन्य भोजन को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। क्योंकि टमाटर में ढेर सारा पानी और फाइबर होता है, इसीलिये वजन नियंत्रण करने वाले इसे 'फिलिंग फूड' कहते हैं, वह खाना जो जल्दी पेट भरते हैं, वो भी बिना कैलोरी या फैट बढ़ाये।

औरत का सफर..


बाबुल का घर छोड़ कर पिया के घर आती है..
एक लड़की जब शादी कर औरत बन जाती है..
अपनों से नाता तोड़कर किसी गैर को अपनाती है..
अपनी ख्वाहिशों को जलाकर किसी और के सपने सजाती है..
सुबह सवेरे जागकर सबके लिए चाय बनाती है..
नहा धोकर फिर सबके लिए नाश्ता बनाती है..
पति को विदा कर बच्चों का टिफिन सजाती है..
झाडू पोछा निपटा कर कपड़ों पर जुट जाती है..
पता ही नही चलता कब सुबह से दोपहर हो जाती है..
फिर से सबका खाना बनाने किचन में जुट जाती है..
सास ससुर को खाना परोस स्कूल से बच्चों को लाती है..
बच्चों संग हंसते हंसते खाना खाती और खिलाती है..
फिर बच्चों को टयूशन छोड़,थैला थाम बाजार जाती है..
घर के अनगिनत काम कुछ देर में निपटाकर आती है..
पता ही नही चलता कब दोपहर से शाम हो जाती है..
सास ससुर की चाय बनाकर फिर से चौके में जुट जाती है..
खाना पीना निपटाकर फिर बर्तनों पर जुट जाती है..
सबको सुलाकर सुबह उठने को फिर से वो सो जाती है..
हैरान हूं दोस्तों ये देखकर सौलह घंटे ड्यूटी बजाती है..
फिर भी एक पैसे की पगार नही पाती है..
ना जाने क्यूं दुनिया उस औरत का मजाक उडाती है..
ना जाने क्यूं दुनिया उस औरत पर चुटकुले बनाती है..
जो पत्नी मां बहन बेटी ना जाने कितने रिश्ते निभाती है..
सबके आंसू पोंछती है लेकिन खुद के आंसू छुपाती है..
नमन है मेरा घर की उस लक्ष्मी को जो घर को स्वर्ग बनाती है..
ड़ोली में बैठकर आती है और अर्थी पर लेटकर जाती है..