Sunday 27 September 2015

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है- नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ है- पुरूष और व कार का अर्थ है - अमृत स्वरूपा शक्ति । इस प्रकार शिव का समन्वित अर्थ होता है- कल्याण प्रदाता या कल्याण स्वरूप ।
शिव के स्वरूप को उद्घाटित करते हुए शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान महेश्वर की प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं । वे सर्वज्ञ, परिपूर्ण और निःस्पृह हैं । सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतंत्रता, नित्य अलुप्त शक्तियों से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना, इन ऐश्वर्यों के धारक महेश्वर को वेदों में भी भव्य रूप में निरूपित किया गया है ।
वेदान्तों में शैव तत्त्व ज्ञान के बीज का दर्शन होता है । इस तत्त्व ज्ञान के अनुसार सृष्टि आनंद से परिपूर्ण है । आनंद से ही सृष्टि का आरंभ, उसी से स्थिति और उसी से समाहार भी है । शिव के ताण्डव नृत्य में उसी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की भी अभिव्यक्ति हुई है ।
उपनिषद में कहा गया है-
आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात् । आनन्दा द्वयेव खल्वि मा नि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनंद प्रयान्त्य मिस विशन्तीति ।
मानव जैसे-जैसे इस शिव तत्त्व की प्राप्ति करता है, उसका दुःख दूर होता जाता है और उसे स्थायी मंगल तथा आनन्द के दर्शन होने लगते हैं ।
शिव महापुराण में शिव के कल्याणकारी स्वरूप का प्रकट करने वाली अनेक अन्तर्कथाओं का वर्णन है । यथा- मूढ़ नाम मायावी राक्षस को भस्म कर बाल विधवा ब्राह्मण पत्नी के शील की रक्षा करना, राक्षस भीम के अत्याचारों से जनता को मुक्ति देना, श्री राम को लंका-विजय का आशीर्वाद देना तथा शंख चूड़, गजासुर, दुन्दुभि निहदि जैसे दुष्टों का दमन कर जगत का कल्याण करना आदि । सृष्टि के कल्याण में शिव की क्रियाशीलता को जानकर महापुराणकार ने गुणानुवाद करते हुए लिखा-
आद्यन्त मंगलम जात समान भाव-
मार्यं तमीशम जरा मरमात्य देवम् ।
पंचाननं प्रबल पंच विनोदशीलं
संभावये मनसि शंकर माम्बिकेशं ।।
अर्थात् जो आदि से अंत तक नित्य मंगलमय है, जिनकी समानता कहीं भी नहीं है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले परमात्मा है, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल ही खेल में अनायास जगत की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभाव रूप पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिका पति भगवान शंकर का मैं मन हीं मन चिन्तन करता हूँ ।
आज का मनुष्य चिर आनंद के वनिस्पत तात्कालिक आनंद की ओर अग्रसर है, जो कि शुद्ध बुद्धि निर्मित है, जिन्हें सामान्य अर्थ में वस्तुवादी, पदार्थवादी या बुद्धिवादी कहा जाता है । उनका सारा आधार विकृत बुद्धिवाद को लेकर है, जिसने चेतना व संवेदना के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं, इसीलिए जगत् के दुःख की समस्या हल नहीं हो पाती । प्रत्येक वर्ग भ्रमित होता है, जिससे मानवता नष्ट होती है । इसका समाधान शिव-तत्त्व में है । शिवम् संदेश देता है कि मानव अपनी सब भूलें ठीक कर ले । यह जो महाविषमता का विष फैला है, वह अपनी कर्म की उन्नति से सम हो जाये, सब युक्ति बने, सबके भ्रम कट जाये, शुभ मंगल ही उनका रहस्य हो । इस स्थिति का रेखांकन इन पंक्तियों में किया है-
समरस से जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना था ।
चेतना एक विलसती, आनन्द अखण्ड घना था ।।
भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जगत् के द्योतक त्रिगुणों को पुराणों में त्रिपुर का रूप दिया गया है, जिससे सृष्टि पीड़ित है । शिव इसी त्रिपुर का वध करके सृष्टि की रक्षा करते हैं । स्पष्ट है त्रिगुण, त्रिपुर या त्रैत की यह भेद बुद्धि ही संसार के दुःख का कारण है और इन तीनों का सामंजस्य या तीनों का समत्व ही आनंद का साधन है ।
समग्रतः भगवान शिव मात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं । वेदों ने इस परम तत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्व-प्रपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है । श्रुतियों ने सदाशिव को स्वयम्भू, शांत, प्रपंचातीत, परात्पर, परम तत्त्व कहकर स्तुति की है । समुद्र मंथन से निकल कालकूट का पान कर जगत् का कल्याण करने वाले शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं । इस कल्याणकारी रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकारी साधकों एवं सर्व साधारण आस्तिक जनों, सभी के लिए परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्व सिद्धिदायक और सर्व श्रेयस्कर है ।
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शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ॥७॥
I take the refuge in Śiva, Who is without birth, Who is eternal, Who is the reason behind all the reasons, Who is the Only One, Who shines everything that shine others, Who is turīya (pure impersonal state of soul), Who is beyond darkness (tamas), Who is without a beginning and an end, Who is beyond everyone, Who is pure, and Who is without duality.||7||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥८॥
I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is resplendent in all the wordly-manifestions! I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is the idol of complete bliss! I bow to You, I bow to You, O Śiva, Who is reachable by penance and Yoga! I bow to You, I bow to you, O Śiva, Who is reachable by Veda and knowledge.||8||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥९॥
O Lord, Who holds a trident in hands, Who is the resplendent Lord of the world, Who is Mahādeva, Who is Śambhu, Who is the great Lord, Who has three eyes, Who is the resplendence of Śivā, Who is serene, Who slayed Smara (Kāma), and Who slayed Pura! There is nothing better or different from You which is countable or respectable.||9||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ॥१०॥
O Śambhu, Who is Maheśa, Who is full of compassion, Who holds a trident, Who is the Lord of Gaurī, Who is the Lord of sacrificed animals, Who destroys the shackles of animals, Who is the Lord of Kāśī! Only You are with compassion in this world. You are the great Lord, Who destroys, protects, and holds the world.||10||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन् ॥११॥
O Deva, Who is the universe, Who slays Smara! This world emanates from You. O Mṛḍa, Who is the Lord of the world! The world sits inside You. O Īśa, O Hara, Who pervades the entire universe as moving and unmoving forms! This world finally contracts into Your egg-shaped form (lińga) during deluge.||11||
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लोग समझते है की शिव और पार्वती दो तत्व है पर ऐसा नहीं है देखिए वेद क्या कहता है
savai nev reme tasmaad ekaki na ramte tat dvitiyamaichat
saivmevatmanam dvidha paatyeta sa pati patnischa bhavtam (brh up 1,4,3)
भगवान शिव अकेले थे महाप्रलय के बाद फिर भगवान शिव का मन नहीं लगा अकेले तो शिवजी ने इच्छा की मै दो बन एक तो रूप से स्वयं पुरुष रूप मे शिव बन गए और दूसरे रूप पार्वती..........
साधारण भाषा मे शिव जी है स्वयं पार्वती बन गए
या पार्वती ही शिव बन गई।
शिव और पार्वती दोनों एक तत्व है दोनों मे भेद नहीं माना है
जो शिव की भक्ति करता है वो पार्वती की भक्ति कर रहा हैऔर जो पार्वती की भक्ति कर रहा है वो शिव की ही भक्ति कर रहा है
पार्वती और शिव मे कैसा संबंध है वेदो ने कहा
1) दूध और और उसकी सफेदी।दूध और उसकी सफेदी मे कोई भेद नहीं है दोनों एक है इसी तरह शिव और पार्वती मे भेद नहीं है।
2)अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति, प्रकाशत्व शक्ति दोनों मे कोई भेद नहीं है,
3)शब्द और अर्थ ।
4)कस्तुरी और सुगंध
5)कपूर और उसकी खुसबू
आतमनम द्विधापात्येत (बृह उपनिषद)
स्वयं एक ब्रह्म ने अपने आपको दो रूपो मे विभक्त कर लिया
स्वयं शिव ही पार्वती बन गए,
इसी तरह शिव और पार्वती एक तत्व है, पार्वती ही शिव है , शिव ही पार्वती है
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देवा उचुः |(शिव पुराण शरभ अवतार)
यतो हरसि संसारं हर इत्युच्यते बुधैः | 26
अर्थात --
भगवान शिव मनुष्य से उसका संसार(माँ बाप पुत्र स्त्री पति पैसा प्रॉपर्टि) इन मे जो आसक्ति है इसको हर लेते है , अपने भक्त को संसारी वस्तु और व्यक्ति का अभाव कर देते है , अपने भक्त का संसार छीन लेते है इसलिए महापुरुष भगवान शिव को हर कहते है और प्रेमानन्द , परमानंद प्रदान करते है
जीवन मे संसारी वस्तु या व्यकित की हानी हो रही हो तो समझ लीजिए भगवान छाप्पर फाड़कर कृपा कर रहे है...... भगवान शिव अपने भक्तो को जान बुजकर दुख देते है जिसे उनका भक्त सदा उनका समरण करता रहे है या भगवान की कृपा है।
भगवान शिव से संसार के जड़ वस्तु और व्यक्ति की कामना मत करो , अगर मांगने की इतनी बीमारी है तो भगवान शिव से
1)शिव का दर्शन
2)शिव का प्रेमानन्द(निष्काम प्रेम)
3)शिव की सेवा
ये 3 वस्तु मांगो
नोट: भुक्ति (संसार और स्वर्ग ) और मुक्ति भगवान से कभी मत मांगना स्वप्न मे भी भगवान निष्काम प्रेम मांगो।
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आनंद एवअदसतात आनंद उपरिष्टात आनंदाह पुरसतात आनंदाह पश्चात
आनंदा उत्तरतह आनंदाह आनंद एवेदगवाम सर्वं.,....
भगवान के जीतने स्वरूप है सब सत चिद आनंद
अपने अपने पूरव जन्म के संस्कार के द्वारा जीव भगवान के अभिन्न स्वरूप मे से किसी एक को अपना इष्टदेव बंता है
यह अंशवतर, ये कलवातार है, ये गुना अवतार है ये प्रभावतआर है ये परावस्था अवतार है आदि बाते है सब मंगड़थ है
यह तो भक्त रसिकता मे कहते है पर ये सिद्धान्त नहीं है
रसिकता की भाषा मे लिखा हुआ है
जैसे भगवत मे
कृष्णस्तु भगवान स्वयं स्वयं और अवतार तो अनशा अवतार श्री कृष्ण पुरनवतार है
ऐसे ही
रामायण मे लिख दिया : रामस्तु भगवान स्वयं
वेदव्यास ने फिर लिखा
:नरसिंघ रामकृशनेशु सापुण्यम परिपूरितम।
नरसिंघ अवतार रमावतार कृष्ण अवतार तीनों परिपूर्ण है
वही वेद व्यास ने लिखा भगवान के सारे अवतार परिपूर्ण है।
सर्वे पूर्णा शाश्वत त च।
उधारण :यह बात अलग है जब कोई प्रोफेसर एमएससी
पढ़ा रहा हो तब उसकी पूरी योग्यता प्रकट होती
हाइ स्कूल को पढ़ाएगा हाइ स्कूल के लेवेल पर आकार पढ़ाएगा
और वही प्रोफेसर जब अपने लड़के को क, खा, ग , पढ़ाएगा और नीचे आजाएगा।
जितनी शक्ति का प्रयोग करना है जितना रस प्रगत करना है जिस अवतार मे उतना प्रागट करेगा
उसी प्रागट शक्ति और रस को देखकर हम विद्वान लोग आइडिया लगते है
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्य्ते॥
भगवान शिव इतने पूर्ण है की पूर्ण मे से पूर्ण निकालो तो भी पूर्ण बचेगा।
अनंत मे से अनंत निकालोगे तो अनंत बचेगा।
भगवान के तमाम अवतार नित्या परिपूर्ण है यह सिद्धान्त है।
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आपलोग को आश्चर्य होगा यह पढ़कर
श्री कृष्ण मे ही कितना भेद है
1)द्वारका वाले श्री कृष्ण जहा पर पूर्ण ऐश्वर्या का साम्राज्य है , द्वारका वाले श्री कृष्ण के भक्त ऐश्वर्या कामनायुक्त भक्ति करते है
2)मथुरा वाले श्रीकृष्ण है यहा पर ऐश्वर्या कम है पर माधुर्य ज्यादा है , मथुरा वाले श्री कृष्ण के भक्त होते है जो माधुर्य प्रधान होते है, माधुर्य भक्ति करते है पर मथुरा मे ऐश्वर्या रस भी रेहता है,
3)वृन्दावन वाले श्री कृष्ण है, मे पुरन्तम माधुर्य होता , यहा पर ऐश्वर्या का लेश भी नहीं होता यो कह लीजिए वृंदवावन मे ऐश्वर्या होता है पर गुप्त रूप से ठाकुर जी की सेवा करते है
फिर वृन्दावन मे भी
4)कुंज वाले श्री कृष्ण है , कुंज वाले श्री कृष्ण की भक्ति गोपिया करती निष्काम समारथा रति का महापुरुष को कुंज रस मे प्रवेश है, यहा के महापुरुष को गोपी देह दिया जाता है योग माया द्वारा जो चिनमय होता है।
5)निकुंज वाले श्री कृष्ण , निकुंज वाले श्री कृष्ण के भक्ति राधा रानी का अष्टमहासखिया यहा श्यामा श्याम की सेवा करती है, निकुंज रस मे समारथा रति वाले महापुरुष का भी प्रवेश वर्जित है,मात्र राधा कृष्ण और अष्टमहासखी (ललिता विशाखा , सुदेवी आदि का प्रवेश है।
6)निभृत निकुंज वाले श्री कृष्ण , निभृत निकुंज रस मे एकमात्र राधा कृष्ण का अपना परम अंतरंग रस है, निभृत निकुंज रस मे अष्ट महा सखिया का भी प्रवेश वर्जित है।
नोट: श्री कृष्ण के जीतने प्रकार बताए मैंने यह सब एक है.... एक ही श्री कृष्ण के यह सब रूप है
शिव ,हनुमान , राम ,कृष्ण , राधा , पार्वती, सीता,ब्रह्म यह सब भगवान के स्वरूप सब नित्या है और सब एक ह
इनमे कोई छोटा बड़ा नहीं है ।
कही शिवजी श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे है,कही राम शिवजी की भक्ति कर रहे है,कही ब्रह्म श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे है, कही ब्रहमजी की भक्ति श्री कृष्ण कर रहे है यह सब एक है।भगवान के अवतार जब अपने स्वरूप की भक्ति या स्तुति करते है तो यह पूजा पढ़ती सीखते है माया के आधीन जीवो के कल्याण के लिए यह सब करते है
तुलसीदास : हरी हर एक रूप गुण शीला
दौ करत सेवक सेव्य लीला
दौ सिखावत पूजा पद्धति
हनुमत बन सेवा कीनी
रामेश्वर बन सेवा लीनी
शंदिल्या जी कहते लोकवात्तू लीला कैवलयम।
आपको पहले भी बताया गया है की राम,कृष्ण माता पार्वती और शिव के ही अवतार है।
और इसी तरह शिवजी के स्वरूप भी कई प्रकार है आपको पता है मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है।
Sarve Rudram Bhajantyeva Rudrah Kinchid Bhajennahi Svaatmana Bhaktavaatsalyaad Bhajatyeva kadachana" (Shiva Purana, Kotirudra Samhita 7:15)
"Everyone worships Rudra but Rudra doesn’t worship anyone. For the sake of devotees he meditates on himself”.
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Without grasping that which is visible, and seeking and trying to grasp the invisible,
results in tiredness (frustration), you see!
Seeing that which is visible and following the path shown by the Guru (teacher),
the invisible can be seen, Lord Guhesvara!
When Shiva wanted to protect his devotee 'Mandara' (another son of Hiranyakashyap), thousands of Sudarshana discuses of Vishnu and thousands of thunderbolts of Indra could not even make a scratch on his body due to the protection of Mahadeva! How dare anyone even think of defeating Mahadeva's devotee without his wish? When Vishnu couldn't even scratch Mahadeva's devotee, how can he be capable of rendering Mahadeva inert with his 'Humm' sound।
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MOORTI KI PARIBHASA kya hai shastro me?
sandhini, samvit , ladhini shakti jab teeno pradhan hoti toh nirgun brahm sagum roop ya moorti kehlati haiiii............ram krishn, shiv durga................. ke naamo se jaane jaate haii.. yeh sat se sandhini , chid se samvit shakti aur anand se ladhini bhao hote haii par teno brahm ke sat chid anand me sat aur chid visheshan hai brahm ke VISHESHYA ANAND(LADHINI ) SHAKTI HAII....
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परमेश्वर में प्रेम करने का हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो-
प्रेम के लिए ही प्रेम किया जाये, अन्य कोई हेतु न रहे | मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, और इस लोक तथा परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गंध भी साधक के मन में न रहे, त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी उसका मन कभी न ललचाये | स्वयं भगवान प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करने के लिए आग्रह करे तब भी न ले | इस बात के लिए यदि भगवान रूठ भी जायँ तो भी परवा न करे | अपने स्वार्थ की बात सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो | भगवान की ओर से विषयों का प्रलोभन मिलनेपर मन में पाश्चाताप होकर यह भाव उदय हो कि, ‘अवश्य ही मेरे प्रेम में कोई दोष है, मेरे मन सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थ की बातों को सुनकर यथार्थ में मुझे क्लेश होता तो भगवान इनके लिए मुझे कभी न ललचाते |’
विनय, अनुरोध और भय दिखलाने पर भी परमात्मा के प्रेम के सिवा किसी भी हालत में दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अचल रहे | वह यही समझता रहे कि भगवान की जबतक मुझे नाना प्रकार के विषयों का प्रलोभन देकर ललचा रहे है और मेरी परीक्षा ले रहे है, तब तक मुझमें अवश्य ही विषयासक्ति है | सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पद को छोड़कर दूसरी बात भी न सुन सकता | विषयों को देख, सुन और सहन कर रहा हूँ |इससे यह सिद्ध होता है कि मैं प्रेम का सच्चा अधिकारी नहीं हूँ तभी तो भगवान मुझे लोभ
दिखा रहे है | उत्तम तो यह था कि मैं विषयों की चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिए निस्संदेह मेरे हृदय में कही-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है | यह है विशुद्ध प्रेम के ऊंचे साधन का स्वरुप |

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