ॐ यह उस सर्वव्यापक परमपिता का ही निज नाम है। सोऽहम्, आत्मा का परमात्मा में विलय अर्थात् मैं आत्मा ही वह परमात्मा हूँ, इस का आभास कराता है। सभी धर्मों ने ॐ को ही उस परमात्मा का श्रेष्ठ नाम माना है। प्रत्येक व्यक्ति 24 घन्टे में 21,600 साँस लेता है। साँस खींचते वक्त ‘सो’ की ध्वनी एवं साँस को छोड़ते वक्त ‘हम्’ की आवाज आती है।
किसी भी धर्म, किसी भी मज़हब या किसी भी जात-पात का व्यक्ति क्यों न हो, यें दोनो शब्द सभी पर लागू होते है। क्योंकि सभी धर्म और सभी जातियों के व्यक्ति उस परमात्मा को सर्वव्यापक और निराकार मानते है। इस कारण से ॐ जो शब्द है, यह सर्व-व्यापकता का प्रतिनिधित्व करता है।
इसलिए ॐ सभी धर्मों के ऊपर लागू होता है। इसके साथ ही प्रत्येक जाति व धर्म का व्यक्ति साँसों की प्रक्रिया दोहराता रहता है। इस कारण से सोहम् भी सभी जाति व धर्मों पर लागू होता है। सही मायने में ॐ और सोहम् एक ही शब्द है या यों कहे कि एक ही सिक्के के दो पहलू है। लिखने या बोलने में अलग-अलग प्रतीत होते है, किन्तु दोनों में सर्व-व्यापकता ही समाई हुई है।
अगर सोहम् के अन्दर से ‘स’ और ‘ह’ को हट दिया जाये तो ॐ शेष रह जाता है। ॐ अर्थात् सर्व-व्यापक परमपिता परमात्मा का नाम है। हटाये गये शब्द ‘स’ और ‘ह’ को उल्टा करने पर ‘हंस’ बनता है। हंस का अर्थ है जीव-आत्मा। ॐ जहाँ अकेले परमात्मा का बोध करता है, वहीं सोहम् –आत्मा और परमात्मा दोनों का बोध कराता है।
ध्यान-पूर्वक अगर हम अध्ययन करें तो ॐ में पाँच अक्षर है। ‘अ’, ‘उ’, ‘म्’ नाद और बिन्दु। किन्तु बोलने में तीन अक्षरों ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ का ही उच्चारण होता है। नाद और बिन्दु ॐ का उच्चारण करते वक्त छूट जाते है। अगर इस नाद बिन्दु को ॐ के साथ मिला कर सही ढंग से उच्चारण किया जाये तो सोहम् बनता है।
‘स’ के मायने नाद अर्थात् स्वर अर्थात् दिव्य ध्वनी, ‘ह’ के मायने बिन्दु अर्थात उस परमात्मा का दिव्य प्रकाश। इस प्रकार ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर ॐ का हृस्व जाप ओम् है एवं दीर्घ उच्चारण सोहम् है। इस ॐ को ही तत्त्व-दर्शीयों ने ‘प्रणव’ कहा है। ॐ के दो भेद बना दिये गये एक सुक्ष्म और दूसरा स्थूल्।
सुक्ष्म ओम् तो सभी धर्मों में एक ही है किन्तु स्थुल प्रणव भाषा एवं लिपी के आधार पर अलग-अलग होते हुऐ भी एक ही है एवं सभी स्थूल प्रणव उस परमात्मा का ही बोध कराते है।
ॐ के सुक्ष्म और स्थूल दो भेद करके तत्व-दर्शीयों ने इसको संयासियों के लिऐ सुक्ष्म-प्रणव एवं गृहस्थियों के लिऐ स्थूल-प्रणव रूप में जाप को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया है। स्थूल-प्रणव के रूप में हिन्दुओं में ‘ॐ नमः शिवाय’ अर्थात् ‘कल्याणकारी ॐकार को नमस्कार’।
सिक्खों में ‘एक ॐकार सत नाम’ अर्थात् ‘उस ब्रहम् का एक ॐकार ही नाम है’ या ‘एक ॐ ही उस परमात्मा का नाम है’।
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जैन धर्म में नमोकार मंत्र-
णमो अरिहंताणं अरहन्त =अ
णमो सिद्धाणं सिद्ध(अशरीरी) =अ(अ+अ=आ)
णमो आयरियाणं आचार्य =आ(आ+आ=आ)
णमो उवज्झायाणं उपाध्याय =उ(आ+उ=ओ)
णमो लोएसव्वसाहूणं साधु(मुनि) =म्(ओ+म्=ओम्)
इस प्रकार जैन धर्म में पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर को मिलाने से ओम् बनता हैं। इस मंत्र के अनेंको अर्थ है किन्तु जो सबसे श्रेष्ठ अर्थ है वह यह कि पाँचों परमेष्ठि अर्थात् ॐ की पाँचों शक्तियाँ अकार, उकार, मकार नाद और बिन्दु को मैं नमस्कार करता हूँ, जो कि अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि के रूप में हमें ज्ञान प्रदान करते हैं।
हम यों भी समझ सकते हैं कि मैं ॐकार रूपी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को नमस्कार करता हूँ, जो कि अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि के रूप में हमें ज्ञान प्रदान करते हैं।
बौद्ध धर्म में ‘ॐ मणि पद्मे हुम फट्’ अर्थात् ‘मेरे नाभी कमल दल में मणि रूपी ॐकार प्रकट हो’।
मुस्लिम सम्प्रदाय में ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ अर्थात् ‘प्रारम्भ करता हूँ अल्लाह के नाम से’। ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ में तीन शब्द महत्व पूर्ण है।
‘अल्लाह’, ‘रहमान’ और ‘रहीम’ इन तीनों शब्दों का अगर अलग-अलग अनुवाद किया जाये तो ‘अल्लाह’ का अर्थ है ‘वह परमात्मा’। ‘रहमान’ का अर्थ है ‘माफ करने वाला’। और ‘रहीम’ का अर्थ है ‘मेहरबान’।
इस प्रकार बिस्मिल्लाह-शरीफ का सही अर्थ बनता है कि ‘ऐ मेरे परमात्मा मुझे माफ कर और मेरे उपर मेहरबान हो’।
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इस प्रकार ॐ का सुक्ष्म और स्थूल रूप सभी धर्मों में एक समान है। सभी धर्मों के सूफी-सन्तों ने सम्पूर्ण ‘36 मंडलों’ के रहस्यों को प्राप्त किया था।
चाहे वह हिन्दु धर्म में राम, कृष्ण, नौ-नाथ, कबीरदास, हरिदास आदि सन्त हो या मुस्लिम-सम्प्रदाय में हजरत मोहम्मद साहब, हजरत गौस पाक (ग्यारहवीं वाले पीर), हजरत गरीब नवाज खवाजा मोईनूदीन चिस्ती, हजरत कुतबुद्दीन, हजरत बाबा शेख फरीद, हजरत बाबा निजामुद्दीन औलिया, हजरत बाबा साबिर पाक, हजरत बाबा हाजी अली, हजरत बाबा सखी सरवर पीर आदि,
सिक्खों में दस गुरूओं के अलावा बाबा नन्द सिंह जी महाराज, बाबा संत सुजान सिंह जी आदि, जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों के अलावा अनेकों मुनि आदि, बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध के अलावा अनेकों ही बौद्ध भिक्षु आदि ने ‘36 मंडलों’ के रहस्य को जाना और अपने समय एवं काल के अनुसार उसकी व्याख्या की। सभी मतों के सूफी-संतों ने एक परमात्मा को ही सर्व-व्यापक माना एवं उसी की भजन बन्दगी की।
सभी मतों के सूफी-संतों ने ‘36 मन्डलों’ के प्रकाश अर्थात् रंग उसकी पत्तीयाँ, उसकी शक्ति अर्थात् साधक वहाँ पहुँचने पर किस अधिकार क्षेत्र का स्वामी बन जाऐगा एवं वहाँ पर गूँज रही दिव्य ध्वनियों को ही महत्व पूर्ण माना।
सभी मंडलों में मंत्र, उसका देवता, उसकी शक्ति अर्थात् देवी, सभी ने अपने-अपने मत के अनुसार स्थापित किये हैं। जहाँ बाबा नानक ने उस परमात्मा को निराकार, करतार, आकाल-पुरूष माना, वहीं नाथ-समप्रदाय नें आदि-नाथ कहा, शैव-मत में जहाँ वह परम-शिव है, वहीं वैष्णव-मत में वह महा-विष्णु है।
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इस प्रकार समय, स्थान, जाति, भाषा व लिपि के आधार पर भले ही ‘36 मंडलों’ के देवता, मंत्र व शक्ति अलग-अलग हो किन्तु रंग अर्थात् प्रकाश, परमात्मा के दिव्य स्वरूप के दर्शन अधिकार क्षेत्र सभी मतों में एक समान है। कोई भी साधक किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो, जब तक वह ‘36 मंडलों’ का रहस्य नहीं जान लेता, तब तक वह पूर्ण-परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता।
पर-ब्रह्म परमपिता परमेश्वर को जानने या उसकी शक्तियों को समझने से पहले हमें अपने आप को समझना और जानना होगा। अनादि-काल में आम व्यक्ति अपनी आयु के चोथे भाग में सन्यास दिक्षा लेता था और गृहस्थ धर्म के सभी सुखों का त्याग करके वैराग्य भाव से मोक्ष की प्राप्ति हेतु परमात्मा के निज-नाम का जाप करता था।
किन्तु बाद में अनेकों ही मत बनने लगे। उन मतों को बनाने वाले संतो का कहना था कि गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ भी उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। आज अनेकों ही साधक इस साधना में लगे हुऐ हैं कि हमें गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ मोक्ष की प्राप्ति हो जाऐ।
गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ मोक्ष की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब आप सन्यास धर्म के नियमों का पालन करें। अगर कोई साधक या आम व्यक्ति गृहस्थ में रहते हुऐ एवं सभी सुखों का भोग करते हुऐ यह समझे की मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी तो यह ना मुमकिन है।
गृहस्थ धर्म में रहते हुऐ यदि तुम साक्षी बन कर अर्थात् साक्षी भाव से गृहस्थ धर्म का पालन करो, सभी सुखों का त्याग करो, मन में सदैव वैराग्य भाव रखो, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बनो और हर वक्त सभी कर्म करते हुऐ उस परमात्मा का सिमरण करो अर्थात् उस परमात्मा के नाम में डूबे रहो तभी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।
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हिन्दु धर्म में एक शब्द आता है शिवो-अहम् अर्थात् ‘मैं ही शिव हूँ’। अनेकों ही व्यक्ति या साधक शिव के स्वरूप को या परमात्मा के प्रतीक रूप भगवान शिव के स्वरूप को अपने घरो में रखते है और कहते हैं कि हमें भी शिव को प्राप्त करना है। शिव के समान बनना है।
कुछ व्यक्तियों का तो यहाँ तक कहना है कि जब भगवान शिव गृहस्थ में रहते हुऐ पर-ब्रहम् परमेशवर स्वरूप हैं, तो हम क्यों नहीं हो सकते। अगर हम ध्यान-पूर्वक परमात्मा के स्वरूप शिव का अध्ययन करें तो हमें पता चलेगा कि उस प्रतीक का वह अर्थ नहीं है। जो कि हम सभी समझते है।
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