Sunday, 14 August 2016

भगवान कृष्ण के भक्त अक्रूर जी


अक्रूर जी का जन्म यदुवंश में हुआ था। ये भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। कुटुंब के नाते ये वसुदेव जी के भाई लगते थे। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण इन्हें चाचा कहते थे। कंस के अत्याचारों से पीड़ित होकर बहुत-से यदुवंशी इधर-उधर भाग गए थे, किंतु कंस इन पर विशेष विश्वास करता था। इसलिए ये किसी प्रकार उसके दरबार में पड़े हुए थे।
जब भगवान श्रीकृष्ण को मरवाने के कंस के सभी प्रयास निष्फल हो गए... तब उसे एक नयी चाल सूझी। उसने धनुषज्ञ के बहाने श्रीकृष्ण- बलराम को गोकुल से मथुरा बुलवाने का निश्चय किया। गोकुल से श्रीकृष्ण-बलराम को लाने का दायित्व उसने अक्रूर जी को सौंपा। कंस की आज्ञा पाकर अक्रूर जी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वे तो सदा भगवान के दर्शनों के लिए उत्कण्ठित रहा करते थे। भगवान की कृपा से स्वत: ही ऐसा सुयोग उपस्थित हो गया ।
सुबह ही रथ सजाकर अक्रूर जी ने मथुरा से नंद गांव की ओर प्रस्थान कर दिया। रास्ते में भगवान श्रीकृष्ण को लेकर वे नाना प्रकार की सुखद कल्पनाएं करने लगे। वे सोचने लगे- ‘आज मेरा जन्म सफल हो गया; क्योंकि आज मैं भगवान के चरण-कमलों का साक्षात दर्शन करूंगा। कंस ने आज मेरे ऊपर बहुत बड़ी कृपा की है। उसी के भेजने से मैं श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करूंगा। मैं उनके कुटुंब का हूं और उनका अत्यंत हित चाहता हूं। उनके सिवा मेरा कोई आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे अवश्य ही अपना लेंगे। वे मुझे चाचा अक्रूर कहकर संबोधित करेंगे, तब मेरा जीवन सफल हो जाएगा। इस प्रकार भांति भांति की मधुर कल्पनाएं करते हुए अक्रूर जी वृंदावन के समीप पहुंचे। वहां उन्होंने वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि से विभूषित भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिह्नों को देखा। अक्रूर जी भावावेश में रथ से कूद पड़े और वज्र की उस पवित्र धूल में लोटने लगे। आगे गोशाला में उन्हें सबसे पहले श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन हुए। भगवान ने उन्हें छाती से लगाया, उनकी कुशल पूछी और उन्हें घर में ले जाकर उनका आतिथ्य-सत्कार किया।
दूसरे दिन श्रीकृष्ण और बलराम ने अक्रूर जी के साथ रथ द्वारा मथुरा के लिए प्रस्थान किया। गोपियों ने उनका रथ घेर लिया। बड़ी कठिनाई से भगवान श्रीकृष्ण गोपियों को समझाकर आगे बढ़े। थोड़ी दूर चलकर यमुना के किनारे अक्रूर जी नित्य कर्म के लिए ठहरे। वे जैसे ही यमुना जी में डुबकी लगाए, उन्होंने जल में भगवान श्याम सुंदर का चतुर्भुज रूप में दर्शन किया। घबड़ाकर जब वे जल से ऊपर आए तो दोनों भाइयों को रथ पर बैठे देखा। अक्रूर जी को ज्ञान हो गया कि जल, थल और नभ में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां श्रीकृष्ण विद्यमान न हों। भगवान उन्हें देखकर हंस पड़े। अक्रूर जी ने भगवान को प्रणाम करके रथ को मथुरा की ओर आगे बढ़ाया। मथुरा पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण-बलराम रथ से उतर गए। अक्रूर जी ने भगवान से अपने घर पधारने का आग्रह किया। किंतु भगवान ने कंस की मृत्यु बाद उनका आतिथ्य स्वीकार करने का आश्वासन दिया। कंस की मृत्यु के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अक्रूर के घर पधार कर उसे पवित्र किया। अक्रूर जी भगवान के अंतर और सुहृद सखा थे। पांडवों का समाचार लेने के लिए भगवान ने अक्रूर जी को हस्तिनापुर भेजा था। भगवान जब मथुरापुरी को छोड़कर द्वारका गए, तब अक्रूरजी भी उनके साथ गए और अंत में भगवान के साथ ही वे उनके पावन धाम को प्रस्थान किए।

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