भगवान् शंकर का डमरू-निनाद ! उससे निकली देवनागरी वर्णमाला के वर्णों की विभिन्न ध्वनियाँ ( स्वर ) और वे वर्ण जो इन ध्वनियों से अभिव्यञ्जित हुए — व्यञ्जन । इन सभी स्वर और व्यञ्जन में एक ऐसा वर्ण भी था जो न पूर्ण स्वर था और न पूर्ण व्यञ्जन । वह वर्ण था — ल् ।
पहले किसी पोस्ट पर मैंने कहा था कि सृष्टि के पूर्व अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही स्वर गुञ्जायमान था — ॐ ! देवनागरी वर्णमाला के जो वर्ण महादेव के डमरू-निनाद से प्रकट हुए, यह उनमें भी नहीं था क्योंकि यह तो अनादिकाल से ब्रह्माण्ड में था ही, सतत सनातन ध्वनि ।
जब ब्रह्म में सृष्टि की उत्पत्ति की स्फुरणा हुई तो प्रकृति ने ब्रह्म की अध्यक्षता में त्रिविध गुणमयी सृष्टि की रचना की, वह ब्रह्म निमित्त होकर भी अपनी ही स्वभावभूता प्रकृति के संयोग से संसार के रूप में प्रकट भासने लग गया ।
वह ही भासने लग गया, यह कहने का तात्पर्य है कि वह ही इस सम्पूर्ण दृश्यमान सृजन का उपादान कारण था, सृष्टि में समाया हुआ होकर भी सृष्टि का संचालक नियामक । क्रिया का आरोपण तो प्रकृति पर गया परन्तु वह भी उस चेतना रूपी ब्रह्म के बिना संचालित नहीं थी ।
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स्वर अर्थात् ध्वनियाँ सीधे-सीधे ब्रह्म की द्योतक हैं और व्यञ्जन प्रकृति के द्योतक । बिना स्वर के प्रकृति कैसे अपने को व्यक्त कर पाती । बिना स्वर के प्रकृति के कार्य-व्यापार कैसे संचालित हो पाते । प्रकृति तो ब्रह्म के बिना सर्वथा अधूरी थी ।
इसलिए स्वर-स्वरूप ब्रह्म के संयोग से ही प्रकृति-स्वरूप व्यञ्जन अपने को व्यञ्जित कर पाए । तभी तो सारे व्यञ्जन हलन्त ( हल् + अन्त ) हैं । पाणिनि के माहेश्वर सूत्र से व्युत्पन्न प्रत्याहार ‘हल्’ में आने वाले समस्त वर्ण जो बिना स्वर-संयोग के उच्चारण नहीं किये जा सकते थे, हलन्त अर्थात् व्यञ्जन कहलाए ।
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भगवान् शिव का प्रकृति-नियामक रूप अर्द्धनारीश्वर है, शिव और शक्ति का युग्म रूप ही सृष्टि का संचालन कर रहा है । चेतना ( संकल्प ) और प्रकृति ( शक्ति ) के संयोग से ही संसार के समस्त कार्य-व्यापार चल रहे हैं । इस अर्द्धनारीश्वर रूप का सही प्रतिनिधित्व पूरी वर्णमाला में एक ही वर्ण कर रहा था, और वह था — ल् , जो स्वर भी था और व्यञ्जन भी ।
अत: प्रकृति के कार्य-व्यापार के संचालन को निर्देशित करने के लिए ‘ल्’ ( लकार ) का प्रयोग सर्वथा सम्यक् प्रतीत हुआ जो स्वर रूपी ब्रह्म और व्यञ्जन रूपी प्रकृति के अर्द्धनारीश्वर रूप का एकमात्र सम्पूर्ण प्रतिनिधि था । इस प्रकार सृष्टि की क्रियाओं ( क्रिया-व्यापार ) को निर्देशित करने के लिए लकार समुचित समझे गये ।
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संस्कृत में क्रिया के Mood को बताने के लिए 10 लकार नियत किये गये । इसमें छ: लकार ‘ट्’–अन्त्यक हैं, लट्, लृट्, लोट्, लिट्, लुट् और लेट् — ये छ: लकार । ट् वर्ण धनुष् की टंकार का वाचक है । टंकार से संकल्प ध्वनित होता है और बिना संकल्प के क्रिया हो नहीं सकती है । ट्-अन्त्यक लकार क्रियाओं में संकल्प को ध्वनित करते हैं ।
शेष चार लकार ‘ङ्’–अन्त्यक हैं, लङ्, लिङ्, लृङ् और लुङ् — ये चार लकार । ङ् वर्ण इच्छा का बोधक है । किसी इच्छा या इच्छा के भाव ( अपूर्णतार्थ में ) को निर्देशित करने के लिए ‘ङ्’ का उपयोग समीचीन और सम्यक् है । इस प्रकार संकल्प और विषयेच्छा से सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित हैं ।
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— यह लकार के पीछे छिपा हुआ दर्शन है जो मेरे स्वतन्त्र चिन्तन से मुझ अल्पबुद्धि को उपयुक्त प्रतीत हुआ है, अत: मित्रों से शेयर किया जा रहा है । ( यह चिन्तन किसी व्याकरण ग्रन्थ में शायद न मिले ) । ‘ट्’ और ‘ङ्’ वर्ण के ये प्रस्तुत अर्थ संस्कृत-शब्दकोश के आधार पर हैं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
संस्कृत की एक धातु है ‘मह्’ जिसका मतलब होता है — सम्मान करना या पूजा करना । पूजन उसका किया जाता है जो महिमाशाली होता है । इसी धातु से संस्कृत शब्दकोश के विभिन्न शब्द व्युत्पन्न हुए हैं, जैसे महि, महिमा, महान्, महत्ता, महीयस्, महीयसी और महिला । सही कहते हैं मनु
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यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ॥
जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवत्व विराजता है । जो व्यक्ति नारी के प्रति सम्मान-भाव रखता है, उसके व्यक्तित्व में दिव्य गुण स्वत: प्रवेश कर जाते हैं, वह दिव्यता से सदैव आलोकित रहता है ।
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अब संस्कृत का दूसरा शब्द लेते हैं — ‘वनिता’ । यह शब्द संस्कृत धातु ‘वन्’ से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ भी होता है सम्मान करना ।
संस्कृत का स्त्रीवाचक एक शब्द है — योषिता जो ‘यु’ धातु से व्युत्पन्न है । ‘यु’ का तात्पर्य है संयुक्त करना, अर्थात् जो पुरुष के साथ अपनी समस्त शक्ति को संयुक्त करके उसे पुरुषार्थ के योग्य बनाती है, वह होती है ‘योषिता’ ।
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संस्कृत का ही शब्द है ‘वामा’ । यह संस्कृत धातु ‘वम्’ से व्युत्पन्न है जिसका मतलब होता है उँडेलना, वमन करना । ‘वमति प्रतिकूलं सा वामा’ जो प्रतिकूलताओं को बाहर निकाल देती है वह होती है ‘वामा’ । एक और शाब्दिक अर्थ है — ‘वमति सौन्दर्यम्’ जो अन्त:करण के सौन्दर्य को बाहर प्रकट करने का कारक बनती है, वह है ‘वामा’ ।
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संस्कृत की एक धातु है ‘स्त्यै’ जिसका मतलब होता है बढ़ाना/ फैलाना । इसी से ‘स्त्री’ शब्द व्युत्पन्न है । संस्कृत की एक अन्य धातु ‘जन्’ से ‘जनि’ या ‘जनी’ शब्द व्युत्पन्न हैं जिनका अर्थ है पैदा करना । स्त्री संसार की उत्पत्ति और प्रसार का कारण है ।
अन्त में उस शब्द की चर्चा जिसे मनु ने उद्धृत किया है — ‘नारी’ । ‘नु: नरस्य वा धर्म्या’ जो नर यानी पुरुष के लिए धर्मयुक्त हो । पुरुष के धर्मानुसार आचरण की हेतुक है नारी । मनु एक व्यवस्था के प्रतिपादक थे इसलिए उन्होंने ‘नारी’ शब्द का उपयोग किया ।
जो नारी स्वयं में महिमाशालिनी है और अपनी महिमा से नर को महिमावान् बनाती है, जिसमें देवत्व विराजता है, जो सम्पूर्ण जगत् की जन्मदात्री जननी है और समस्त विभवों का प्रसार करती है और जिसके कारण धरती पर निष्प्रयोजन भटकते हुए पुरुष को स्थायित्व मिला और वह पुरुषार्थों को पूरा करते हुए आप्तकाम होकर मोक्ष का अधिकारी बन सका, दिव्यता की प्रतीक उस नारी का जो समाज सम्मान नहीं करता, वह निश्चय ही दुर्भाग्य का अधिकारी है ।
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इसलिए अपने-अपने घर में अपनी माँ, बेटी, पत्नी, बहिन, मित्र आदि रूपों में मौजूद नारी का यथोचित सम्मान करें ।
ऋग्वेद का प्रस्तुत मन्त्र हमें बता रहा है कि कैसे एक नारी अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हो जाती है । आज विश्व महिला दिवस पर जहाँ हम महिलाओं की दिव्यता को नमन करते हुए उन्हें सम्मान देना सीखें, वहीं महिलाओं को चाहिए कि वे अपने देवत्व को पहचानकर तदनुरूप व्यक्ति और समाज के कल्याण की साधक सिद्ध हो सकें ।
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