Friday, 5 August 2016

सैकड़ों साल पहले भारत आए विदेशियों ने क्या कहा भारत के बारे में!


हम समान्यतया न तो अपने प्राचीन विज्ञान, गणित या अध्यात्म की अद्भुत उपलब्धियों को जितनी‌ गहराई से जानना चाहिये उतनी गहराई से जानते हैं और न उनके विषय में विद्वानों, विशेषकर पाश्चात्य विद्वानों की सम्मतियों को जानते हैं।
सीरिया के खगोलज्ञ संत ( मंक) सेवेरुस सेबोख्त ने ६६२ ईस्वी में लिखा है : - “ इस समय मै हिन्दुओं के ज्ञान की चर्चा नहीं करूंगा. . . .उनके खगोल विज्ञान के सूक्ष्म खोजों की - जो खोजें यूनानियों तथा बैबिलोनियों की खोजों से कहीं अधिक प्रतिभाशील हैं, - उनकी तर्कसंगत गणितीय प्रणालियों की, अथवा उनके गणना करने की विधियों की जिनकी प्रशंसा करने में शब्द असमर्थ हैं, - मेरा तात्पर्त्य है वह प्रणाली जिसमें ९ अंकों का उपयोग किया जाता है।
यदि यह जानकारी उऩ्हें‌ होती जो सोचते हैं कि केवल वही हैं जिऩ्होंने विज्ञान पर अधिकार अर्जित किया है क्योंकि वे यूनानी‌ भाषा बोलते हैं, तब वे शायद , यद्यपि देर से ही सही, यूनानियों के अतिरिक्त, यह जानें कि अन्य भाषाओं के विद्वान भी हैं जो इतना ही‌ ज्ञान रखते हैं।"
(६५६ -६६१) इस्लाम के चतुर्थ खलीफ़ा अली बिन अबी तालिब लिखते हैं कि वह भूमि जहां पुस्तकें सर्वप्रथम लिखी गईं, और जहां से विवेक तथा ज्ञान की‌ नदियां प्रवाहित हुईं, वह भूमि हिन्दुस्तान है। (स्रोत : 'हिन्दू मुस्लिम कल्चरल अवार्ड ' - सैयद मोहमुद. बाम्बे १९४९.)
नौवीं शती के मुस्लिम इतिहासकार अल जहीज़ लिखते हैं,हिन्दू ज्योतिष शास्त्र में, गणित, औषधि विज्ञान, तथा विभिन्न विज्ञानों में श्रेष्ठ हैं। मूर्ति कला, चित्रकला और वास्तुकला का उऩ्होंने पूर्णता तक विकास किया है। उनके पास कविताओं, दर्शन, साहित्य और निति विज्ञान के संग्रह हैं। भारत से हमने कलीलाह वा दिम्नाह नामक पुस्तक प्राप्त की है।
इन लोगों में निर्णायक शक्ति है, ये बहादुर हैं। उनमें शुचिता, एवं शुद्धता के सद्गुण हैं। मनन वहीं से शुरु हुआ है। (स्रोत : द विज़न आफ़ इंडिया - शिशिर् कुमार मित्रा, पेज २२६)
पश्चिम के अनेक विद्वान यह मानते हैं कि पायथागोरस भारत (वाराणसी) तक आया था और यहां रहकर उसने बहुत कुछ सीखा। प्रसिद्ध फ़्रांसीसी विचारक वोल्टेयर (१६९४ -१७७८) ( अपने पत्रों में) कहते हैं , “ खगोलशास्त्र, ज्योतिष, देहांतरण, आदि हमारा समस्त ज्ञान गंगा के तटों से आया है।"
(१७४८ – १८१४), फ़्रान्स के प्रतिष्ठित प्राकृतिक विज्ञानी तथा लेखक पियर सोनेरा प्राचीन भारत ने विश्व को धर्म एवं दर्शन का ज्ञान दिया। ईजिप्ट तथा ग्रीस अपने विवेक के लिये भारत का चिर ऋणी है; यह तो सभी‌ जानते हैं कि पाइथागोरस ब्राह्मणों से शिक्षा प्राप्त करने भारत आया था; वे ब्राह्मण विश्व के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी थे। (स्रोत : 'द इन्वेज़न दैट नेवर वाज़' माइकैल डानिनो एन्ड सुजाता नाहर)
(१७४९ – १८२७) महान फ़्रान्सीसी गणितज्ञ, दार्शनिक तथा खगोलज्ञ, सौर मंडल के उद्भव के गैसीय़ सिद्धान्त के लिये विख्यात पियेर सिमान दे लाप्लास लिखते हैं कि मात्र दस प्रतीकों से सभी संख्याओं को अभिव्यक्त करने की मेधावी पद्धति भारत ने ही हमें दी‌ है; प्रत्येक प्रतीक के दो मान होते हैं - एक उसकी स्थिति पर निर्भर करता है और दूसरा उसका अपना निरपेक्ष मान होता है।
यह बहुत ही गहन तथा महत्वपूर्ण आविष्कार है जो हमें इतना सरल लगता है कि हम उसके स्तुत्य गुण को देखते ही नहीं। किन्तु इसकी सरलता, और सारी गणनाओं को जिस सुगमता से यह करने देता है, वह हमारी गणित को उपयोगी आविष्कारों के ऊँचे शिखर पर स्थापित करती है,
और हम इस उपलब्धि के गौरव की और अधिक प्रशंसा करेंगे यदि हम यह याद रखें कि हमारे प्राचीन काल के दो महान विभूतियों आर्किमिडीज़ और अपोलिनिअस की प्रतिभाएं इस आविष्कार से वंचित रह गईं। (स्रोत : इंडिया एन्ड साउथ एशिया - जेम्स एच. के. नार्टन)
(१८५१ – १९२०), सुप्रसिद्ध जर्मन भारतविद लेओपोल्ड वान श्रोयडर ने १८८४ में एक पुस्तक प्रस्तुत की - 'पाइथागोरस अन्ड दि इंडर, . . . . ' जिसमें उऩ्होंने लिखा है, “ वे सभी दार्शनिक तथा गणितीय सिद्धान्त जिनका श्रेय पाइथोगोरस को दिया जाता है, वास्तव में भारत से लाए गए हैं।" (सोत : जर्मन इंडोलाजिस्ट – वैलैन्टीना स्टाख- रोज़ैन)
फ़्रान्सीसी; गणित के इतिहासकार, ज़ार्ज इफ़्रा (१९४७ - ) 'यूनिवर्सल हिस्टरी आफ़ नंबर्स' में लिखते हैं‌ :‌ “ यह तो प्राचीन भारत है कि जिसने संख्याओं के विज्ञान को महानतम कला माना है।. . . .
युरोपियों से सहस्रों वर्ष पूर्व भारतीय पंडितों को ज्ञात था कि शून्य और अनंत एक दूसरे की प्रतिलोम धारणाएं हैं।. . . .यह तो स्पष्ट है कि हम इस दैदीप्यमान सभ्यता के कितने ऋणी हैं, और यह केवल गणित के क्षेत्र में‌ ही नहीं। संख्याओं की अभिधारणाओं के सामान्यीकरण की विधियों को प्रदान कर भारतीय विद्वानों ने गणित एवं परिशुद्ध विज्ञानों के त्वरित विकास का मार्ग प्रशस्त किया।
इन विद्वानों की खोज को, निस्संदेह, पर्याप्त समय तथा कल्पनाशक्ति तथा, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, अमूर्त विचारने की विशाल योग्यता की आवश्यकता ऱही होगी। जिस वातावरण में यह प्रधान खोजें की गईं वह एक साथ रहस्यवादी, दार्शनिक, धार्मिक, ब्रह्माण्डीय, पौराणिक तथा पराभौतिक था।
(१८७९ – १९५५) जर्मन-स्विस, नोबेल पुरस्कृत अल्बर्ट आइन्स्टाइन आज तक के समस्त वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों में सर्वश्रेष्ठ हैं और जिनका सापेक्ष सिद्धान्त आधुनिक काल की सर्वश्रेष्ठ तथा क्रान्तिकारी उपलब्धि है। उनका कथन है, “ हम भारत के अत्यंत ऋणी हैं, जिऩ्होंने हमें गिनना सिखाया, जिसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज नहीं की जा सकती थी।"
वैर्नैर हाइज़ैनबर्ग (१९०१ -७६), जर्मनी के एक महानतम वैज्ञानिक तथा क्वाण्टम यांत्रिकी के सहप्रणेता रहे हैं। 'क्वाण्टम सिद्धान्त के अनैश्चित्य नियम' के लिये प्रख्यात हैं। उऩ्हें क्वाण्टम यांत्रिकी की रचना के लिये १९३२ में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनका कहना है कि भारतीय दर्शन पर विमर्श के पश्चात क्वाण्टम भौतिकी की‌ कुछ अवधारणाएं जो पहले अजीबोगरीब लग रही थीं, अचानक बोधगम्य हो गईं। ( स्रोत : 'वैदिक इनिक्वैलिटीज़् एन्ड हिन्दुइज़म' – ओ. पी. गुप्ता )
एर्विन श्रायडिन्जर (१८८७ – १९६१) बीसवीं शती के एक महानतम भौतिकविद, तरंग यांत्रिकी (वेव मैकैनिक्स) की रचना के लिये नोबेल 'पुरस्कार से सम्मानैत हैं। उनका 'श्रायडिन्जर सूत्र' बीसवीं शती का एक् महानतम उपलब्धि मानी जाती है। उऩ्होंने शंकर के अद्वैत (नान डुएलिज़म) को समझाते हुए "बेसिक व्यू आफ़ वेदान्त' लिखा।
उनकी‌ मान्यता है कि पूर्व से पश्चिम में कुछ रक्त- आधान आवश्यक है ताकि पाश्चात्य विज्ञान को आध्यात्मिक रक्ताल्पता से बचाया जा सके।. . . इस संसार में जो विभिन्नता है, उसमें चेतना की खोज करने के लिये पश्चिम में कोई भी‌ ज्ञान तन्त्र नहीं‌ है। ( स्रोत : 'लान्ग वाक टु एनलाइटैन्मैन्ट ' डा. टी नायडू )।
उनके जीवनीकार श्री मूर के अनुसार, श्रायडिन्जर कहते हैं कि, 'उपनिषदों की, जीवन दृष्टि आनंददायक तथा सुसंगत है : आत्मन तथा विश्व एक हैं, और वे ही समष्टि हैं। उऩ्होंने पारंपरिक पाश्चात्य (यहूदी, ईसाई तथा इस्लामी) धार्मिक विश्वासों को ठुकरा दिया।
जिसके लिये उऩ्होंने कोई तर्क भी देने की आवश्यकता नहीं समझी, और न किसी विरोध की भावना से ही किया, यद्यपि वे धार्मिक रूपकों और पदों का उपयोग करना पसंद करते थे, वरन केवल इसलिये विरोध किया क्योंकि कि वे बचकाने हैं। (स्रोत ; द विशिंग ट्री - सुभाष काक)
हम भारतीयों में, हमारी संस्कृति में और हमारी‌ भाषाओं में‌ सूक्ष्मतम विचारों को उत्पन्न करने की, ग्रहण करने की तथा अभिव्यक्त करने की शक्ति है, जिसका हमें सम्मान करना चाहिये। विदेशों से यथा आवश्यक ज्ञान प्राप्तकर हमें अपनी संस्कृति तथा ज्ञान के आधार पर आगे बढ़ना चाहिये।

No comments:

Post a Comment