Wednesday 27 April 2016

गुरुभक्ति के लिए एकलव्य का त्याग


निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य एक दिन हस्तिनापुर में आया और उसने उस समय के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य, कौरव-पाण्डवों के शस्त्र-गुरु द्रोणाचार्य जी के चरणों में दूर से साष्टांग प्रणाम किया। अपनी वेश-भूषा से ही वह अपने वर्ण की पहचान दे रहा था। आचार्य द्रोण ने जब उससे अपने पास आने का कारण पूछा, तब उसने बताया—‘मैं श्रीचरणों के समीप रहकर धनुर्विद्या कि शिक्षा लेने आया हूं।’
आचार्य संकोच में पड़ गये। उस समय कौरव तथा पाण्डव बालक थे और आचार्य उन्हें शिक्षा दे रहे थे। एक निषाद-बालक को अपने साथ शिक्षा देना राजकुमारों को स्वीकार नहीं होता और यह उनकी मर्यादा के अनुरुप भी नहीं था। भीष्मपितामह को आचार्य ने राजकुमारों को शस्त्र-शिक्षा देने का वचन दे रखा था। अतएव उन्होंने कहा—‘बेटा एकलव्य! मुझे दुःख है कि मैं किसी द्विजेतर बालक को शस्त्र शिक्षा नहीं दे सकता।’
एकलव्य ने तो द्रोणाचार्य जी को मन-ही-मन गुरु मान लिया था। जिसे गुरु मान लिया, उसकी किसी भी बात को सुनकर रोष या दोषदृष्टि करने की तो बात मन में ही कैसे आती। निषाद के उस छोटे बालक के मन में निराशा भी नहीं हुई। उसने फिर आचार्य के सम्मुख भूमि में लेटकर प्रणाम किया और कहा—‘भगवन्! मैंने तो आपको गुरुदेव मान लिया है। मेरे किसी काम से आपको संकोच हो, यह मैं नहीं चाहता। मुझ पर आपकी कृपा रहनी चाहिये।’
बालक एकलव्य हस्तिनापुर से लौटकर घर नहीं गया। वह वन में चला गया और वहां उसने मिट्टि की द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाकर स्थापित कर दी। उस मूर्ति को प्रणाम करके उसके सामने वह बाण-विद्या का अभ्यास करने लगा। ज्ञान के एकमात्र दाता तो भगवान् ही है। जहां अविचल श्रद्धा औक गूढ़ निश्चय होता है, वहां वे सब के हृदय में रहने वाले श्री हरि गुरु रुप में या बिना बाहरी गुरु के भी ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। महीने-पर-महीने बीतते गये, एकलव्य का अभ्यास अखण्ड चलता गया और वह महान् धनुर्धर हो गया।
एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्य पाण्डव और कौरवों को बाण-विद्या का अभ्यास कराने के लिये आखेट करने वन में लिवा ले गये। संयोग वश उनके साथ का एक कुत्ता भटकता हुआ एकलव्य के स्थान के पास पहुंच गया और काले रंग के तथा विचित्र वेशधारी एकलव्य को देखकर भोकने लगा। एकलव्य के केश बढ़ गये थे और उसके पास वस्त्र के स्थान पर बाघ का चमड़ा ही था। वह उस समय अपना अभ्यास कर रहा था। कुत्ते के भोकने से बाधा पड़ते देख उसने सात बाण चलाकर कुत्ते का मूख बन्द कर दिया। कुत्ता भागता हुआ अपने स्वामी के पास पहंचा। सबने बड़े आश्चर्य से देखा कि बाणों से कुत्ते को कहीं भी चोट नहीं लगी, किंतु वे आड़े-तिरछे उसके मुख में इस प्रकार फंसे है कि कुत्ता बोल नहीं सकता। बिना चोट पहुंचाये इस प्रकार कुत्ते के मुख में बाण भर देना बाण चलाने का बहुत बड़ा कौशल है। पाण्डवों में से अर्जुन इस हस्तकौशल को देखकर बहुत चकित हुए। उन्होंने द्रोणाचार्य जी से कहा—‘गुरुदेव! आपने तो कहा था कि आप मुझे पृथ्वी पर सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे, किंतु इतना हस्तकौशल तो मुझमें भी नहीं है।’
‘चलो! हमलोग उसे ढूंढें।’ द्रोणाचार्य जी ने सबको साथ लेकर उस बाण चलाने वाले को वन में ढूंढना प्रारम्भ किया और वे एकलव्य के आश्रम पर पहुंच गये। एकलव्य आचार्य के चरणों में आकर गिर पड़ा। द्रोणाचार्य ने पूछा-‘सौम्य! तुमने बाण-विद्या का इतना उत्तम अभ्यास किस से प्राप्त किया?’
नम्रतापूर्वक एकलव्य ने हाथ जोड़कर कहा—‘भगवन्! मैं तो आपके श्रीचरणों का ही दास हूं।’ उसने आचार्य की उस मिट्टी की मूर्ति कि ओर संकेत किया। द्रोणाचार्य ने कुछ सोचकर कहा—‘भद्र! मुझे गुरुदक्षिणा नहीं दोगे?’
‘आज्ञा करें भगवन्!’ एकलव्य ने बहुत अधिक आनन्द का अनुभव करते हुए कहा।
द्रोणाचार्य ने कहा—‘मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिये।’
दाहिने हाथ का अंगूठा! दाहिने हाथ का अंगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? इतने दिनों की अभिलाषा, इतना बड़ा परिश्रम, इतना अभ्यास—सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुर भक्त बालक ने बायें हाथ में अस्त्र लिया और तुरंत अपने दीहिने हाथ का अंगूठा काटकर अपने हाथ में उठाकर गुरुदेव के सामने कर दिया।
भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहा-‘बेटा! संसार में धनुर्विद्या के अनेकों महान् ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारे इस महान् त्याग का सुयश सदा अमर रहेगा।’

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