प्राचीन काल में सर्वसमृद्धिपूर्ण वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का एक धर्मात्मा राजा था। एक दिन उसके दरबार में वीरवर नाम का एक गुणी व्यक्ति अपनी पत्नी, कन्या एवं पुत्र के साथ वृत्ति के लिए उपस्थित हुआ। राजा ने उसकी विनयपूर्ण बातों को सुनकर प्रतिदिन एक सहस्त्र स्वर्णमुद्रा का वेतन नियत कर सिंहद्वार के रक्षक के रूप में उसकी नियुक्ति कर ली। दूसरे दिन राजा ने अपने गुप्तचरों से जब पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वह अपना अधिकांश द्रव्य यज्ञ, तीर्थ, शिव, विष्णु के मंदिरों में आराधनादि-कार्यों तथा साधु, ब्राह्मण एवं अनाथों में वितरित कर अत्यल्प शेष से अपने परिजनों का पालन करता है। इससे राजा ने प्रसन्न होकर उसकी नियुक्ति को पूर्णरूप से स्थायी कर दिया।
एक दिन आधी रात में जब मूसलाधार वृष्टि, बादलों की गरज, विद्युत एवं झंझावात से रात्रि की विभीषिका सीमा स्पर्श कर रही थी, श्मशान से किसी नारी के करुण-क्रंदन की ध्वनि राजा के कानों में पड़ी। राजा ने सिंहद्वार पर उपस्थित वीरवर से इस रुदन-ध्वनि का पता लगाने के लिए कहा। जब वीरवर तलवार लेकर चला तब राजा भी उसके भय की आशंका तथा सहयोगार्थ एक तलवार लेकर गुप्तरूप से उसके पीछे लग गया। वीरवर ने श्मशान पहुंचकर एक स्त्री को वहां रोते देखा और उससे जब इसका कारण पूछा, तब उसने कहा कि ‘मुझे इस राज्य की लक्ष्मी अथवा राष्ट्रलक्ष्मी समझो। इसी मास के अंत में राजा रूपसेन की मृत्यु जो जाने पर में अनाथ होकर कहां जाऊंगी, इसीलिए रो रही हूं।’ वीरवर ने राजा की दीर्घायु के लिए जब उससे उपाय पूछा, तब उसने वीरवर के पुत्र की चण्डिका के सामने बलि देने से राजा के शतायु जोने की बात कही। फिर क्या था? वीरवर उलटे पांव घर लौटकर पत्नी, पुत्र आदि को जगाकर और उनकी सम्मति लेकर उनके साथ चण्डिका-मंदिर में पहुंचा। राजा भी गुप्तरूप से पीछे-पीछे सर्वत्र जाता रहा। वीरवर ने देवी की प्रार्थना कर राजा की आयु बढ़ाने के लिए अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी। इसे देखते ही उसकी बहन का दु:ख से हृदयविस्फोट हो गया। फिर उसकी माता भी चल बसी। वीरवर इन तीनों का दाहकर स्वयं भी राजा की आयु वृद्धि के लिए बलि चढ़ गया।
राजा छिपकर यह सब देख रहा था। उसने देवी की प्रार्थना की। अपने जीवन को व्यर्थ बताते हुए और अपना सिर काटने के लिए उसने ज्यों ही तलवार खींची त्यों ही देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और वर मांगने के लिए कहा। राजा ने देवी से परिजनों-सहित वीरवर को जिलाने की प्रार्थना की। फलत: देवी ने सबको जिला दिया और राजा चुपके से वहां से चलकर अपनी अट्टालिका में जाकर लेट गया। इधर वीरवर भी चकित होता हुआ तथा देवी की कृपा मानता हुआ अपने पुनर्जीवित परिवार को घर पर छोड़कर राजप्रासाद के सिंहद्वार पर खड़ा हो गया। जब राजा ने इसके वहां उपस्थिति के लक्षणों से परिचित होकर उसे बुलाकर अज्ञात नारी के रुदन का कारण पूछा, तब वीरवर ने कहा ‘राजन! वह कोई चुड़ैल थी और मुझे देखते ही अदृश्य हो गई, चिंता की कोई बात नहीं।’
इस पर राजा ने मन-ही-मन उसकी धीरता तथा स्वामिभक्ति की प्रशंसा की और प्रात:काल सारी बात को अपने सभासदों से बतलाकर वीरवर को पुत्रसहित कर्नाट एवं लाटदेश (महाराष्ट्र-गुजरात) - का अधिपति बना दिया। उन्होंने वीरवर को अपने तुल्य ही समृद्धिशाली बनाकर अपनी मैत्री की दृढ़ता का निश्चय किया।
यह कथा परोपकार, कर्तव्यपरायणता, दीन एवं अनाथ की सेवा, स्वामिभक्ति एवं परस्पर प्राणरक्षार्थ आत्मोत्सर्ग की भावना की तीव्र प्रेरणा प्रदान करती है
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