Saturday, 9 April 2016

सौरधर्म का वर्णन



राजा शतानीक ने पूछा - मुने ! भगवान सूर्य का माहात्म्य कीर्तिवर्धक और सभी पापों का नाशक है । मैंने भगवान सूर्यनारायण के समान लोक में किसी अन्य देवता को नहीं देखा । जो बरण - पोषम और संहार भी करनेवाले हैं वे भगवान सूर्य किस प्रकार प्रसन्न होते हैं, उस धर्म को आप अच्छी तरह जानते हैं । मैंने वैष्मव, शैव, पौराणिक आदि धर्मों का श्रवण किया है । अब मैं सौरधर्म को जानना चाहता हूं । इसे आप मुझे बताएं ।

सुमंतु मुनि बोले - राजन् ! अब आप सौरधर्म के विषय में सुनें । यह सौरधर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ और उत्तम है । किसी समय स्वयं भगवान सूर्य ने अपने सारथि अरुण से इसे कहा था । सौरधर्म अंधकार रूपी दोष को दूरकर प्राणियों को प्रकाशित करता है और यह संसार के लिये महान कल्याणकारी है । जो व्यक्ति शांतिचित्त होकर सूर्य की भक्तिपूर्वक पूजा करता है, वह सुख और धन धान्य से परिपूर्ण हो जाता है । प्रात: मध्याह्न और सायं त्रिकाल अथवा एक ही समय सूर्य की उपासना अवश्य करनी चाहिए । जो व्यक्ति सूर्यनारायण का भक्तिपूर्वक अर्चन, पूजन और स्मरण करता है, वह सात जन्मों में किये गये सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है । जो भगवान सूर्य की सदा स्तुति, प्रार्थना और आराधना करते हैं, वे प्राकृत मनुष्य न होकर देवस्वरूप ही हैं । षोडशांग पूजन विधि को स्वयं सूर्यनारायण ने कहा है, वह इस प्रकार है -

प्रात: स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए । जप, हवन, पूजन, अर्चनादि कर सूर्य को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मण, गाय, पीपल आदि की पूजा करनी चाहिए । भक्तिपूर्वक इतिहास पुराण का श्रवण और ब्राह्मणों को वेदाभ्यास करना चाहिए । सबसे प्रेम करना चाहिए । स्वयं पूजन कर लोगों को पुराणादि ग्रंथों की व्याख्या सुनानी चाहिए । मेरा नित्य प्रति स्मरण करना चाहिए । इस प्रकार के उपचारों से जो अर्चन पूजन विधि बतायी गयी है, वह सभी प्रकार के लोगों के लिए उत्तम है । जो कोई इस प्रकार से भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करता है, वहीं मुनि, श्रीमान्, पण्डित और अच्छे कुल में उत्पन्न है । जो कोई पत्र, पुष्प, फल, जल आदि जो भी उपलब्ध हो उससे मेरी पूजा करता है उसके लिये न मैं अदृश्य हूं और न वह मेरे लिये अदृश्य है ।

मुझे जो व्यक्ति जिस भावना से देखता है, मैं भी उसे उसी रूप में दिखायी पड़ता हूं । जहां मैं स्थित हूं, वहीं मेरा भक्त भी स्थित होता है । जो मुझ सर्वव्यापी को सर्वत्र और संपूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है, उसके लिये मैं उसके हृदय में स्थित हूं और वह मेरे हृदय में स्थित है । सूर्य की पूजा करने वाला व्यक्ति बड़े - बड़े राजाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है । जो व्यक्ति मन से मेरा निरंतर ध्यान करता रहता है, उसकी चिंता मुझे बराबर बनी रहती है कि कहीं उसे कोई दु:ख न होने पायें । मेरा भक्त मुझको अत्यंत प्रिय है । मुझमें अनन्य निष्ठा ही सब धर्मों का सार है ।

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