Wednesday 27 April 2016

पितृभक्त बालक पिप्पलाद


वृत्रासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। इन्द्र देवताओं के साथ स्वर्ग छोड़कर भाग गये थे। देवताओं के कोई भी अस्त्र-शस्त्र वृत्रासुर को मार नहीं सकते थे। अन्त में इन्द्र ने तपस्या तथा प्रार्थना करके भगवान् को प्रसन्न किया। भगवान् ने बताया कि महर्षि दधीचि की हड्डियों से विश्वकर्मा वज्र बनावे तो उससे वृत्रासुर मर सकता है। महर्षि दधीचि बड़े भारी तपस्वी थे। उनकी तपस्या के प्रभाव से उनकी आज्ञा सभी जीव-जन्तु तथा वृक्ष तक मानते थे। उन तेजस्वी ऋषिको देवता मार तो सकते नहीं थे, उन्होंने जाकर उनकी हड्डियां मांगीं।
महर्षि दधीचि ने कहा—‘ यह शरीर तो एक दिन नष्ट ही होगा। मरना तो सबको पड़ेगा ही, किसी का उपकार करके मृत्यु हो, शरीर किसी की भलाई में लग जाय; इससे अच्छी भला और क्या बात होगी। मैं योग से अपना शरीर छोड़ देता हूं। आप लोग हड्डियां ले लें।’
महर्षि दधीचि ने योग से शरीर छोड़ दिया। वे मरकर मुक्त हो गये। उनके शरीर की हड्डियों से विश्वकर्मा को स्वर्ग मिल गया।
महर्षि दधीचि की स्त्री का नाम प्रातिथेयी था। इनके एक पुत्र भी थे। महर्षि दधीचि के पुत्र भी बड़े तपस्वी थे। वे पीपल के फल (गोदा) खाकर रहते थे, इससे उनका नाम पिप्पलाद पड़ गया था। पिप्पलाद ने जब सुना कि देवताओं को हड्डियां देने के कारण उनके पिता मरे तो पिप्पलाद को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने देवताओं से बदला लेने का विचार किया।
पिप्पलाद देवताओं से बदला लेने के लिये भगवान् शंकर जी की उपासना और तपस्या करने लगे। उन्होंने बहुत दिनों तक तपस्या की और तब शंकरजी उनपर प्रसन्न होकर प्रकट हुए। शंकर जी ने उनसे वरदान मांगने को कहा। पिप्पलाद ने कहा —‘आप मुझे ऐसी शक्ति दीजिये कि मैं अपने पिता के मारनेवालों को नष्ट कर दूं।’
शंकरजी ने एक बड़ी भयानक राक्षसी उत्पन्न करके पिप्पलाद को दे दी। राक्षसी ने पिप्पलाद से पूछा—‘ आप आज्ञा दें, मैं क्या करुं?’
पिप्पलाद ने कहा—‘तुम सब देवताओं को खा लो।’ वह राक्षसी अपना बड़ा भारी मुख फाड़कर पिप्पलाद को ही खाने दौड़ी। डरकर पिप्पलाद ने पूछा—‘तू मुझे क्यों खाने आती है?’
राक्षसी बोली —‘सब जीवों के अंगो में उन अंगों के देवता रहते हैं। जैसे नेत्रों में सूर्य, हाथो में इन्द्र, जीभ में वरुण। इसी प्रकार दूसरे देवता भी दूसरे अंगों में रहते हैं। स्वर्ग देवता तो दूर हैं, पहले जो लोग पास हैं, उन्हें तो खा लूं। मेरे सबसे पास तो तुम्हीं हो।’
पिप्पलाद बहुत डरे और भगवान् शंकरजी की शरण में गये। शंकरजी ने पिप्पलाद से कहा—‘बेटा! क्रोध बहुत बुरा होता है। क्रोध के वश में न होने से बहुत पाप होते हैं। देखो, मैं यदि इस राक्षसी को तुम्हें खाने से रोक भी दूं, तो यह दूसरे सब जीवों को खा जायगी। तुम्हें ही सारे संसार को मारने का पाप लगेगा। मान लो कि यह स्वर्ग के देवताओं को ही मार डाले तब भी सारे संसार का नाश हो जायगा। आँखों के देवता सूर्य हैं, सूर्य न रहेंगे तो सब लोग अन्धे हो जायंगे। हाथ के देवता इन्द्र हैं, इन्द्र न रहेंगे तो कोई हाथ हिला ही नहीं सकेगा। इसी प्रकार जिस अंग के जो देवता हैं, उस देवता की शक्ति से ही जीवों के अंग काम करते हैं। देवता न रहेंगे तो तुम्हारा भी कोई अंग काम नहीं करेगा। इसलिये तुम देवताओं पर क्रोध मत करो। देवताओं ने तुम्हारे पिता से उनकी हड्डियां भिक्षा में मांगी थी। तुम्हारे पिता इतने बड़े दानी और उपकारी थे कि उन्होंने अपनी हड्डियां भी दे दीं। तुम इतने बड़े महात्मा के पुत्र हो। अपने पिता के सामने भिखारी बनने वालों पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।’
भगवान् शंकर का उपदेश सुनकर पिप्पलाद का क्रोध दूर हो गया। उन्होंने कहा—‘भगवान्! आपकी आज्ञा मानकर मैं देवताओं को क्षमा करता हूं।’ राक्षसी भी चली गयी।
पिप्पलाद की क्षमा से शंकर जी ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि वे जहां तपस्या करते थे; वह स्थान पिप्पलतीर्थ हो जायगा और उस तीर्थ में स्नान करने वाले सब पापों से छूटकर भगवान् के धाम जायंगे।
पिप्पलाद की इच्छा अपने पिता महर्षि दधीचि का दर्शन करने की थी। देवताओं की प्रार्थना से ऋषियों के लोक से महर्षि दधीचि और पिप्पलाद की माता प्रातिथेयीजी विमान में बैठकर वहां आये और उन्होंने पिप्पलाद को आशीर्वाद दिया।
बालक पिप्पलाद आगे बड़े भारी विद्वान् और ब्रह्मर्षि हुए। इनका वर्णन प्रश्नोपनिषद् और शिवपुराण में भी आता है।

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