Tuesday 10 May 2016

दान का रहस्य


दान में महत्त्व है त्याग का, वस्तु के मूल्य या संख्या का नहीं। ऐसी त्यागबुद्धि से जो सुपात्र यानी जिस वस्तु का जिसके पास अभाव है, उसे वह वस्तु देना और उसमें किसी प्रकार की कामना न रखना उत्तम दान है। निष्काम भाव से किसी भूखे को भोजन और प्यासे को जल देना सात्त्विक दान है। संत श्रीएकनाथजी की कथा आती है कि वे एक समय प्रयाग से कांवर पर जल लेकर श्रीरामेश्वरम् चढ़ाने के लिए जा रहे थे। रास्ते में जब एक जगह उन्होंने देखा कि एक गदहा प्यास के कारण पानी के बिना तड़प रहा है। उसे देखकर उन्हें दया आ गई और उन्होंने उसे थोड़ा-सा जल पिलाया। इससे उसे कुछ चेत-सा हुआ। फिर उन्होंने थोड़ा-थोड़ा करके सब जल उसे पिला दिया। वह गदहा उठ कर चला गया। साथियों ने सोचा कि त्रिवेणी का जल व्यर्थ ही गया और यात्रा भी निष्फल हो गई। तब एकनाथजी ने हंसकर कहा - ‘भाइयों, बार-बार सुनते हो, भगवान सब प्राणीयों के अंदर हैं, फिर भी ऐसे बावलेपन की बात सोचते हो! मेरी पूजा तो यहीं से श्रीरामेश्वरम् को पहुंच गई। श्रीशंकरजी ने मेरे जल को स्वीकार कर लिया।’

एक महाजन की कहानी है कि वह सदैव यज्ञादि कर्मों में लगा रहता था। उसने बहुत दान किया। इतना दान किया कि उसके पास खाने को भी कुछ न रह गया। तब उसकी स्त्री ने कहा - ‘पास के गांव में एक सेठ रहते हैं, वे पुण्यों को मोल खरीदते हैं, अत: आप उनके पास जाकर और अपना कुछ पुण्य बेचकर द्रव्य ले आइए, जिससे अपना कुछ काम चले।’ इच्छा न रहते हुए भी स्त्री के बार-बार करने पर वह जाने को उद्यत हो गया। उसकी स्त्री ने उसके खाने के लिए चार रोटियां बनाकर साथ दे दीं। वह चल दिया और उस नगर के कुछ समीप पहुंचा, जिसमें वे सेठ रहते थे। वहां एक तालाब था। वहीं शौच-स्नानादि कर्मों से निवृत होकर वह रोटी खाने के लिए बैठा कि इतने में एक कुतिया आई। वह वन में ब्यायी थी। उसके बच्चे और वह, सभी तीन दिनों से भूखे थे; भारी वर्षा हो जाने के कारण वह बच्चों को छोड़कर शहर में नहीं जा सकी थी। कुतिया को भूखी देखकर उसने उस कुतिया को एक रोटी दी। उसने उस रोटी को खा लिया। फिर दूसरी दी तो उसको भी खा लिया। इस प्रकार उसने एक-एक करके चारों रोटियां कुतिया को दे दीं। कुतिया रोटी खाकर तृप्त हो गई। फिर, वह वहां से भूखा ही उठकर चल दिया तथा उस सेठ के पास पहुंचा। सेठ के पास जाकर उसने अपना पुण्य बेचने की बात कही। सेठ ने कहा - ‘आप दोपहर के बाद आइए।’

उस सेठ की स्त्री पतिव्रता थी। उसने स्त्री से पूछा - ‘एक महाजन आया है और वह अपना पुण्य बेचना चाहता है। अत: तुम बताओ कि उसके पुण्यों में से कौन-सा पुण्य सबसे बढ़कर लेने योग्य है।’ स्त्री ने कहा - ‘आज जो उसने तालाब पर बैठकर एक भूखी कुतिया को चार रोटियां दी हैं, उस पुण्य को खरीदना चाहिए; क्योंकि उसके जीवन में उससे बढ़कर और कोई पुण्य नहीं है।’ सेठ ‘ठीक है’ - ऐसा कहकर बाहर चले आए।

नियत समय पर महाजन सेठ के पास आया और बोला - ‘आप मेरे पुण्यों में से कौन-सा पुण्य खरीदेंगे?’ सेठ ने कहा - ‘आपने आज जो यज्ञ किया है, हम उसी यज्ञ के पुण्य को लेना चाहते हैं।’ महाजन बोला - ‘मैंने तो आज कोई यज्ञ नहीं किया? मेरे पास पैसा तो था ही नहीं, मैं यज्ञ कहां से कैसे करता।’ इस पर सेठ ने कहा - आपने जो आज तालाब पर बैठकर भूखी कुतिया को चार रोटियां दी हैं, मैं उसी पुण्य को लेना चाहता हूं।’ महाजन ने पूछा - ‘उस समय तो वहां कोई नहीं था, आपको इस बात का कैसे पता लगा?’ सेठ ने कहा - ‘मेरी स्त्री परिव्रता है, उसी ने ये सब बातें मुझे बताई हैं।’ तब महाजन ने कहा - ‘बहुत अच्छा, ले लीजिए; परंतु मूल्य क्या देंगे? सेठ ने कहा - ‘आपकी रोटियां जितने वजन की थीं, उतने ही हीरे मोती तौलकर मैं दे दूंगा।’ महाजन ने स्वीकार किया और उसकी सम्मति के अनुसार सेठ ने अंदाज से चार रोटियां बनाकर तराजू के एक पलड़े पर रखीं और दूसरे पलड़े पर हीरे-मोती आदि रख दिए; किंतु बहुत-से रत्नों के रखने पर भी वह (रोटीवाला) पलड़ा नहीं उठा। इस पर सेठ ने कहा - ‘और रत्नों की थैली लाओ।’ जब उस महाजन ने अपने इस पुण्य का इस प्रकार का प्रभाव देखा तो उसने कहा कि सेठजी! मैं अभी इस पुण्य को नहीं बेचूंगा।’ सेठ बोला - ‘जैसी आपकी इच्छा।’

तदनन्तर वह महाजन वहां से चल दिया और उसी तालाब के किनारे से, जहां बैठकर उसने कुतिया को रोटियां खिलाई थीं, थोड़े-से चमकदार कंकड़-पत्थरों तथा कांच के टुकड़ों को कपड़े में बांधकर अपने घर चला आया। घर आकर उसने वह पोटली अपनी स्त्री को दे दी और कहा - ‘इसको भोजन करने के बाद खोलेंगे।’ ऐसा कहकर वह बाहर चला गया। स्त्री के मन में उसे देखने की इच्छा हुई। उसने पोटली को होला तो उसमें हीरे-पन्ने-माणिक आदि रत्न जगमगा रहे थे। वह बड़ी प्रसन्न हुई। थोड़ी देर बाद जब वह महाजन घर आया तो स्त्री ने पूछा - ‘इतने हीरे-पन्ने कहां से ले आए?’ महाजन बोला - ‘क्यों मजाक करती हो?’ स्त्री ने कहा - ‘मजाक नहीं करती, मैंने स्वयं खोलकर देखा है, उसमें तो ढेर के ढेर बेशकीमती हीरे-पन्ने भरे हैं।’ महाजन बोला - ‘लाकर दिखाओ।’ उसने पोटली लाकर खोलकर सामने रख दी। वह उन्हें देखकर चकित हो गया। उसने इसको अपने उस पुण्य का प्रभाव समझा। फिर उसने अपनी यात्रा का सारा वृत्तांत अपनी पत्नी को कह सुनाया।

कहने का अभिप्राय यह कि ऐसे अभावग्रस्त आतुर प्राणी को दिए गए दान का अनंतगुना फल हो जाता है, भगवान की दया के प्रभाव से कंकड़-पत्थर भी हीरे-पन्ने बन जाते हैं।

इस प्रकार दीन-दु:खी, आतुर और अनाथ को दिया गया दान उत्तम है। किसी के संकट के समय दिया हुआ दान बहुत ही लाभकारी होता है। किसी के संकट के समय दिया हुआ दान बहुत ही लाभकारी होता है। भूकंप, बाढ़ या अकाल आदि के समय आपद्ग्रस्त प्राणी को एक मुट्ठी चना देना भी बहुत उत्तम होता है। जो विधिपूर्वक सोना, गहना, तुलादान आदि दिया जाता है, उससे उतना लाभ नहीं, जितना आपत्तिकाल में दिए गए थोड़े-से दान का होता है। अत: हरेक मनुष्य क आपत्तिग्रस्त, अनाथ, लूले, लंगड़े, दु:खी, विधवा आदि की सेवा करनी चाहिए। कुपात्र को दान देना तामसी है। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा के लिए दिया हुआ दान राजसी है; क्योंकि मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा भी पतन करने वाली है। आज तो यह मान-बड़ाई हमें मीठी लगती है, पर उसका निश्चित परिणाम पतन है। अत: मान-बड़ाई की इच्छा का त्याग कर देना चाहिए, बल्कि यदि किसी प्रकार निंदा हो जाय तो वह अच्छी समझी जाती है। श्री कबीरदासजी कहते हैं -

निंदक नियरें राखिए, आंगल कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।।

इसलिए परम हित की दृष्टि से मान-बड़ाई के बदले संसार में अपमान-निंदा होना उत्तम है। साधक के लिए मान-बड़ाई मीठा विष है और अपमान-निंदा अमृत के तुल्य है। इसीलिए निंदा करनेवाले को आदर की दृष्टि से देखना चाहिए; परंति कोई भी निंदनीय पापाचार नहीं करना चाहिए। दुर्गुण-दुराचार बड़े ही खतरे की चीज है। इसलिए इनका हृदय से त्याग कर देना चाहिए। अपने सद्गुणों को छिपाकर दुर्गुणों को प्रकट करना चाहिए। आजकल लोह सच्चे दुर्गुणों को छिपाकर बिना हुए ही अपने में सद्गुणों का संग्रह बताकर उनका प्रचार करते हैं, यह सीधा नरक का रास्ता है। अत: मान-बड़ाई की इच्छा हृदय से सर्वथा निकाल देनी चाहिए। संसार में हमारी प्रतिष्ठा हो रही है और हम यदि उसके योग्य नहीं हैं तो हमारा पतन हो रहा है। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा चाहनेवाले से भगवान दूर हो जाते हैं; क्योंकि मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा की इच्छा पतन में ढकेलनेवाली है। मान-बड़ाई को रौरव के समान और प्रतिष्ठा को विष्ठा के समान समझना चाहिए। यही संतों का आदेश है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि सुपात्र को दिया गया दान दोनों के लिए ही कल्याणकारी है। कुपात्र को दिया गया दान दोनों को डुबानेवाला है। जैसे पत्थर की नौका बैठनेवाले को साथ लेकर डूब जाती है, उसी प्रकार कुपात्र दाता को साथ लेकर नरक में जाता है।

दान के संबंध में एक बात और समझने की है। बड़े धनी पुरुष के द्वारा दिए गए लाखों रुपयों के दान से निर्धन के एक रुपये का दान अधिक महत्त्व रखता है; क्योंकि निर्धन के लिए एक रुपये का दान भी बहुत बड़ा त्याग है। भगवान के यहां न्याय है। ऐसा न होता तो फिर निर्धनों की मुक्ति ही नहीं होती। इस विषय में एक कहानी है। एक राजा प्रजाजनों के सहित तीर्थ करने के लिए गए। रास्ते में एक आदमी नंगा पड़ा था, वह ठंड के कारण ठिठुर रहा था। राजा के साथी प्रजाजनों में एक जाट था, उसने अपनी दो धोतियों में से एक धोती उस नंगे आदमी को दे दी, इससे उसके प्राण बच गए। जाट के पास पहनने को एक ही धोती रह गई। आगे जब वे दूर गए तो वहां बहुत कड़ी धूप थी, पर उन्होंने देखा कि बादल उन पर छाया करते चले जा रहे हैं। राजा ने सोचा कि ‘हमारे पुण्य के प्रभाव से ही बादल छाया करते हुए चल रहे हैं।’ तदनन्तर वे एक जगह किसी वन में ठहरे। जब चलने लगे, तब किसी महात्मा ने पूछा - ‘राजन्! तुम्हें इस बात का पता है कि ये बादल किसके प्रभाव से छाया करते हुए चल रहे हैं?’ राजा कुछ भी उत्तर नहीं दे सके। तब महार्मा ने कहा - ‘अच्छा, तुम एक-एक करके यहां से निकलो। जिसके साथ बादल छाया करते हुए चलें, इसको उसी पुण्यवान के पुण्य का प्रभाव समझना चाहिए।’ पब पहले राजा वहां से चले, फिर एक-एक करके सब प्रजाजन चले, पर बादल वहीं रहे। तब राजा ने कहा - ‘देखो तो, पीछे कौन रह गया है।’ सेवकों ने देखा कि वहां एक जाट सोया पड़ा है। उसे उठाकर वे राजा के पास लाए, तब बादल भी उसके साथ-साथ छाया करते चलने लगे। तब महात्मा बोले - ‘यह इसी पुण्यवान के पुण्य का प्रभाव है।’ राजा ने उससे पूछा - ‘तुमने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है?’ बार-बार पूछने पर उसने कहा कि मैंने और तो कोई पुण्य नहीं किया, अभी रास्ते में मैंने अपनी दो धोतियों में से एक धोती रास्ते में पड़े जाड़े से ठिठुरते एक नंगे मनुष्य को दी थी।’

इस पर महात्मा ने राजा से कहा - ‘राजन्! तुम बड़ा दान करते हो, परंतु तुम्हारे पास अतुल संपत्ति है, इसलिए तुम्हारा त्याग दो धोती में से एक दे डालने के समान नहीं हो सकता।’

इस प्रकार दान का रहस्य समझकर दान करना चाहिए।

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