Sunday 29 May 2016

राजा जनक


हमारे इतिहास का कितना बड़ा नाम है-जनक। ऐसा बड़ा नाम कि इनका नाम ही नहीं, उनके साथ लगा उनका वंशनाम, उनके साथ लगा उनका उपाधिनाम तक एक खास अर्थ का प्रतीक बन गया है, खास तरह के वैराग्य भाव का पर्यायवाची बन गया है।
उस महान राजा का नाम था जनक, जो इतने वैराग्यशील माने जाते हैं कि एक कहानी चल पड़ी कि जब एक बार राजदरबार में बैठकर वे अध्यात्म चर्चा में लीन थे, तो किसी ने उन्हें सूचना दी कि महाराज आपकी राजधानी मिथिला में आग लग गई है तो आप जानते हैं कि पुराणगाथाओं में राजा जनक का कौन-सा जवाब दर्ज है-
'मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्याति कश्चन’
यानी अगर मिथिला जल रही है तो इसमें मेरा भला क्या जल रहा है?
हमारे इतिहास में मिथिला में आग लग जाने की घटना कहीं खास दर्ज है नहीं। इसलिए लगता यही है कि जनक की घोर वैराग्यशीलता दिखाने के लिए एक ऐसा गाथा-संवाद गढ़ लिया गया। पर वैराग्यशीलता की प्रतिष्ठा का आलम यह है कि आज हमें परमहंस जैसा कोई महासम्पन्न व्यक्ति मिल जाए, तो हम कह उठते हैं कि वह तो साक्षात जनक है।
विदेह उनका वंशनाम है पर वि+देह यानी जिसे अपने देह की भी सुध नहीं, इस अर्थवाला वंशनाम भी हम आजकल किसी भी वैराग्यशील व्यक्ति को देने में गौरव का अनुभव करते हैं।
जनक को राजर्षि इसलिए कहा जाता है कि वे राजा होते हुए भी अर्थात राजनेता होते हुए भी ऋषि जैसे वीतराग थे। आज हम अगर डा. राजेन्द्रप्रसाद को भी राजर्षि कहना चाहते हैं और पुरुषोत्तमदास टंडन को भी राजर्षि कहते हैं और सारा देश इसका अर्थ तत्काल समझ जाता है
तो जाहिर है कि जनक का उपाधिनाम तक हमारे जहन में अपने पूरे अर्थ-संदेश के साथ कहीं गहरे बस गया है और हजारों सालों से इसी अर्थ संदेश के साथ बसा हुआ है तो क्या यह कोई छोटी बात है?
तो ऐसे जनक कौन थे? कब हुए थे? हम भारतवासियों के दिलोदिमाग में माता सीता के पिता का नाम जनक है जो ठीक ही है। माता सीता के पिता जनक थे और उसी मिथिला के राजा थे, जहां धनुषयज्ञ हुआ था और भगवान राम ने धनुष तोड़ कर माता सीता के साथ विवाह किया था। पर जनक को लेकर हमारे सामने एक बड़ी दिक्कत है।
हमारे सामने एक जनक वे हैं, जो माता सीता के पिता थे और जो भगवान राम के समकालीन थे यानी आज से (छह हजार साल) पहले हुए। हमारे सामने एक जनक वे हैं, जिनके राजदरबार में आचार्य याज्ञवल्क्य ने अपने ब्रह्मवाद की जबर्दस्त प्रतिष्ठा की थी, जहां उस समय की प्रख्यात विदुषी गार्गी वाचक्नवी ने याज्ञवल्क्य वेफ सिद्धांतों को चुनौती दी थी और याज्ञवल्क्य बड़ी मुश्किल से उनके सवालों के जवाब दे पाए थे।
जनक के दरबार में हुआ याज्ञवल्क्य संवाद प्रख्यात ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में अपनी पूरी शाब्दिक शोभा के नाम निरूपित है। याज्ञवल्क्य वैशम्पायन मुनि के भतीजे माने जाते हैं और ये वैशम्पायन वे महापुरुष हैं, जो मुनि वेदव्यास की उस टीम के विशिष्ट सदस्य थे, जिसने एक लाख श्लोकों वाला महाभारत तैयार किया था।
जाहिर है कि याज्ञवल्क्य वेदव्यास और वैशम्पायन से संबद्ध होने के कारण महाभारत के नायक कौरव-पांडवों के आसपास के समय के माने जाएंगे और अगर उनकी अध्यात्म चर्चाओं का केन्द्र राजा जनक का दरबार था, तो ये जनक आज से पांच हजार साल पहले हुए।
अर्थात जिस जनक को हम सीता के पिता के रूप में जानते हैं, उनमें और जिन जनक की प्रतिष्ठा महान अध्यात्मवेत्ता के रूप में शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रन्थ में ही नहीं, हमारी स्मृतियों में भी दर्ज है, उनमें एक हजार साल का काल बीत जाता है। अब बताइए कैसे हो इस समस्या का हल?
क्यों न हल की तलाश के लिए थोड़ा जनकवंश में डुबकी लगा ली जाए? और डुबकी लगाने से पहले यह बताने की जरूरत नहीं कि सीता के पिता न तो पहले जनक थे और न ही आखिरी जनक। जाहिर है कि एक पूरी वंश परम्परा है, जिसने मिथिला में शासन किया है। जब हम महाभारत के पहले तीन हजार वर्षों को
इतिहास संक्षेप में बखान रहे थे तो हमने बताया कि मनु के बाद जहां अयोध्या में इक्ष्वाकुवंश का राजवंश शुरू हुआ वहां मिथिला में निमिवंश का राजवंश चला।
मिथिला नाम बाद में पड़ा पर उसी शहर में निमिवंश का शासन पहले शुरू हुआ। निमिवंश इसलिए कि इस राजवंश के पहले राजा का नाम था निमि, पूरा नाम है निमिजनक। निमि के बाद हुए मिथि, पूरा नाम है मिथिजनक।
इन्हीं मिथि के नाम पर राजधानी का नाम पड़ा मिथिला। हो सकता है कि यूं ही महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर राजा ने अपनी राजधानी का नाम मिथिला कर दिया हो या फिर वे इतना महान व्यक्तित्व हों कि इतिहास ने उनकी राजधानी उन्हीं के नाम पर लिख दी हो। इन दोनों राजाओं के नाम के साथ जनक लगा है।
वैसे वाल्मीकि रामायण में अपने कुल का परिचय देते हुए सीरध्वज जनक कहते हैं कि मिथि के पुत्र का नाम जनक था (जिनके कारण उनके कुल का नाम जनक कुल पड़ गया) जो पहले जनक थे-
जनको मिथिपुत्राक:। प्रथमो जनक राजा। (बालकांड 71.4)।
इनके बाद आने वाले भी हर राजा के नाम के साथ जनक लगता रहा है। मसलन उदावसु जनक, देवरात जनक, कृतिरथ जनक, सीरध्वज जनक, जनक दैवराति, आदि।
स्पष्ट है कि जनक नाम एक कुलनाम जैसा है और इस नाम वाला कोई एक खास जनक नहीं है। जनक के साम्राज्य का नाम विदेह कैसे और कब पड़ा, कहना कठिन है। पर ग्रंथों में जहां भी जनक के साम्राज्य का वर्णन है, वहां कई बार, बल्कि अक्सर विदेह शब्द मिल जाता है-
विदेहानां राजा
अर्थात विदेहों का राजा, विदेहों अर्थात् विदेह देश का राजा। संस्कृत में देशवाची शब्दों के लिए प्राय: बहुवचन का प्रयोग मिलता है।
माता सीता जिन विदेहराज जनक की बेटी थीं उनका नाम था सीरध्वज जनक और जिन कुशध्वज जनक की तीन बेटियों के साथ भगवान राम के शेष तीन भाइयों की शादी हुई थी, वे सीरध्वज के छोटे भाई थे। या तो सीरध्वज का मध्यम आयु में देहांत हो गया था या फिर कुशध्वज काफी दीर्घायु थे, क्योंकि सीरध्वज का कोई बेटा न होने के कारण, यानी माता सीता का कोई भाई न होने के कारण, कुशध्वज ही अपने भाई सीरध्वज के उत्तराधिकारी बने।
जनकवंश में डुबकी लगाने के बाद फिर से अपने सवाल पर आते हैं कि वे जनक कौन थे जो हमारे इतिहास में महान वैराग्यशील राजर्षि के रूप में अमिट हो गए? सीता के पिता सीरध्वज जनक बाकी जनकों से अधिक महत्वपूर्ण तरीके से पुराणों में वर्णित हैं, पर यह नहीं पता चलता कि वे महत्वपूर्ण क्यों थे? कहीं-कहीं उन्हें वीर राजा के रूप में सराहा गया है।
जिस कदर उन्होंने शिवधनुष तोड़ने की प्रतिज्ञा में सीता-विवाह को बांध दिया था, उससे वे अति साहसी तो लगते हैं, पर कोई खास दूरदर्शी नजर नहीं आते। क्यों?
माता सीता के पिता और भगवान राम के श्वसुर होने के कारण सीरध्वज जनक मशहूर हो गए और इस संबंध का फायदा उनके भाई कुशध्वज को भी मशहूरी के रूप में मिला।
पर इन दोनों जनक-भाइयों में से कोई महान वैराग्यशील अध्यात्मवेत्ता राजर्षि भी था, इसके प्रमाण दूर-दूर तक नहीं मिलते, बेशक गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में अध्यात्मवेत्ता राजर्षि के तमाम विशेषण सीता के पिता (सीरध्वज) जनक को दे दिए हैं।
याज्ञवल्क्य ने जिस महान अध्यात्मवेत्ता जनक के राजदरबार में ब्रह्मचर्चा के खुशबूदार फूल खिला दिए थे, आखिर वे जनक थे कौन?
कुछ संदर्भों में उन जनक का नाम है दैवराति। यह उनका अपना नाम नहीं लगता, बल्कि दैवराति का अर्थ है देवरात का पुत्र-
देवरातस्य पुत्रा: देवराति:।
पर निमिवंश में जिन देवरात का नाम मिलता है, वे तो निमि से सत्रहवीं पीढ़ी थे, जबकि दैवराति को याज्ञवल्क्य का समकालीन होने के कारण काफी बाद का यानी महाभारत के तत्काल बाद का होना चाहिए।
महाभारत के समय मिथिला में बहुलाश्व जनक राज कर रहे थे, जिनसे मिलने स्वयं कृष्ण गए थे। उनके पुत्र का नाम था कृतिजनक, जो महाभारत संग्राम में कौरवों की ओर से लड़ा था और मारा गया था। कृतिजनक के बाद जिन जनक का नाम मिलता है, वे शायद हमारी समस्या को हल कर दें।
क्या था इन जनक का नाम? नहीं मालूम। जो नाम मिलता है, वह उनका नाम नहीं, बल्कि ओढ़ा हुआ या लोगों के द्वारा दिया गया नाम नजर आता है। नाम है-महावशी यानी जिसने अपने पर (महान) पूरी तरह (वश) बस कर लिया है।
हो सकता है कि यही वे जनक हों, जो महावशी, महा- वैराग्यशील, परमब्रह्मज्ञ, अध्यात्मवेत्ता रहे हों और इस हद तक रहे हों कि उन्होंने अपना नाम तक छोड़ दिया हो और प्रफुल्लित प्रजा ने इन्हें अपनी ओर से महावशी नाम दे दिया हो। पर यकीनन उनके दरबार में ही वे ब्रह्मचर्चाएं होती थीं।
जिनके लिए जनक और याज्ञवल्क्य दोनों ही उस वक्त विश्वविख्यात हो गए। पर सवाल उठता है कि इन जनक को देवरात का बेटा कैसे कहा जा सकता है, जबकि उनके पिता का नाम देवरातजनक नहीं, कृतिजनक था? एक ही जवाब हो सकता है। जनकवंश में देवरात नहीं, कृतिजनक था? एक ही जवाब हो सकता है। जनकवंश में देवरात एक अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध नाम है।
हो सकता है कि अयोध्या के राजा ऋषभदेव और उनके पुत्र जड़भरत की तरह मिथिला के राजा देवरात जनक भी वैराग्यशील व्यक्ति रहे हों और जब पीढ़ियों बाद कृत्रिपुत्र जनक परम अध्यात्मवेत्ता हुए तो परम्परा ने या तब के लोगों ने उनका संबंध सीधा उन्हीं अति प्राचीन देवरात जनक से जोड़कर महावशी जनक को दैवराति कहने में अधिक सुख का अनुभव किया हो।
पर ये महावशी जनक परम वैराग्यशील थे, इतने कि उनका सारा जीवन अध्यात्म चर्चाओं में ही आनंद लेने में बीत गया। या तो इन्होंने विवाह नहीं किया था फिर इनके कोई पुत्र नहीं था, क्योंकि महावशी के बाद विदेहराज जनकों की परम्परा ही समाप्त हो गई लगती है। हो सकता है कि अगर कभी मिथिला को आग लगी हो तो वह भी इन्हीं जनक के समय लगी हो और वे उसे जलता छोड़कर महाप्रस्थान कर गए हों।
अगर यह सब ठीक है तो धन्य हैं महावशी, जिन्होंने अपने ब्रह्मज्ञानी होने की ख्याति अपने वंश के तमाम पूर्ववर्ती जनकों को भी दे दी। पर आश्चर्य कि इन महावशी का नाम ही हमें नहीं मालूम। अपना नाम, राज, वंश तक खत्म कर बैरागी हो जाने वाले इस महावशी के बारे में क्या कहें?

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